द ग्रेट इंडियन राजनीतिक तमाशा / जयप्रकाश चौकसे

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द ग्रेट इंडियन राजनीतिक तमाशा
प्रकाशन तिथि : 08 अप्रैल 2013


सनडायल फिल्म कंपनी की 'टिंग्या' के प्रसिद्ध युवा लेखक, फिल्मकार मंगेश हड़उले की फिल्म 'देख इंडियन सर्कस' का प्रदर्शन-पूर्व एक शो देखने को मिला और यह विलक्षण अनुभव रहा। विश्वास हो गया कि भारतीय कथा फिल्म अपनी दूसरी सदी का सफर भी सार्थकता से पूरा करेगी और फिल्म के एक संवाद की ही बात सार्थक होगी कि 'रोने से रास्ता लंबा हो जाता है' और यह संवाद उतना ही सारगर्भित है, जितना गणेश विसर्जन के समय गाया जाने वाला गीत 'अगले बरस तू जल्दी आ' जिसका अर्थ है कि वर्ष सुख से गुजरे। दरअसल, भारत के साधनहीन करोड़ों लोगों ने हंस-गाकर ही जीवन के कठिन रास्ते को सुखद बनाया है। पहली बार शिद्दत से महसूस हुआ कि आंसुओं से सींचने पर रास्ते लंबे हो जाते हैं। आंसू रास्तों की खुराक है।

यह एक असाधारण फिल्म है, जिसमें एक गरीब परिवार के दो मासूम बच्चों के सपने और उनके माता-पिता के भय कुछ इस कदर सिमटकर सामने आते हैं कि याद आ जाता है 'सिमटे तो दिले आशिक, फैले तो जमाना है। हम खाक नशीनों की ठोकर में जमाना है।' दरअसल, अर्थ की अनेक परतों को मंगेश ने निहायत ही सिनेमाई सघनता और किफायत से प्रस्तुत किया है। मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत फिल्म दर्शक को बांधे रखती है और भीतर की परतों में छुपे अर्थ आपके अवचेतन में प्रवेश कर जाते हैं और सिनेमाघर से बाहर आने के बाद लंबे समय तक आप सोचते रहते हैं कि क्या यही हमारा देश और समाज है, जिसकी स्वतंत्रता के लिए इतनी लंबी लड़ाई लड़ी गई। हमारे गणतंत्र का स्वरूप किस कदर विकृत है कि ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति मत दो सौ रुपए की रिश्वत सरेआम दी जाती है।

यह फिल्म अत्यंत विलक्षण और मनोरंजक ढंग से एक परिवार की कहानी कहते हुए भी हमारे गणतंत्र के मॉडल के साथ हमारे तथाकथित विकास के मॉडल की भीतरी सड़ांध को उजागर करती है। यही विकास है जो इस समय सभी राजनीतिक दलों के चुनावी रथों पर ध्वज की तरह फहरा रहा है। यही विदेशों से आयात किया गया विकास का मॉडल है, जिसने आर्थिक खाई को गहरा कर दिया है और अपराध की गंगोत्री का निर्माण किया है। महानगरों के फ्लाइओवर और गगनचुंबी इमारतों से प्रभावित लोग क्या जानें कि ग्रामीण क्षेत्र में सड़कों के निर्माण का स्वांग बरस-दर-बरस चलता है, परंतु एक मां अपनी नन्ही बच्ची से कहती है कि तू रो मत रास्ता लंबा हो जाएगा। पूरी फिल्म में डामर की एक सड़क बनती दिखाई गई, जबकि गांवों में लोग धूल में मार्ग खोज रहे हैं। सड़क का लंपट ठेकेदार अपने बेलदार को एक लिपस्टिक देता है- अपनी पत्नी को भेंट करने के लिए और कहता है कि सात सौ की है, आसान किश्तें तेरी मजूरी से काट लूंगा। गूंगे मजदूर की पत्नी कहती है कि अंगूठा मत लगाना, तुझे हस्ताक्षर करना सिखाया है। वह अपनी पत्नी के पेट पर लिपस्टिक से हस्ताक्षर करता है, जो लेटी हुई स्त्री देख नहीं सकती तो वह कागज पर उसका प्रिंट दिखाता है। इस फिल्म में पति-पत्नी के प्रेम और दांपत्य के सुख-सागर के छोटे-छोटे दृश्य हैं, जिन्हें मेहनतकश आदमी का प्रेम-पत्र कह सकते हैं। प्रचारित रोमांटिक फिल्मों में भी प्रेम की गहराई के ऐसे कवितामय दृश्य नहीं होते। पूरी तरह से ढंकी हुई नायिका तनिस्था चटर्जी ने सेंसुअसनेस की लहर प्रवाहित की है और नायक नवाजुद्दीन सिद्दीकी का पूरा शरीर ही रोमांचित हो जाता है। यह अभिनेता पूरे शरीर से भावों को अभिव्यक्त करता है। भूख से सिकुड़े पेट पर अमेरिका से आयात किए लिपस्टिक से एक अनपढ़ हस्ताक्षर करता है - यही है हमारी सड़ांध भरी छद्म आधुनिकता और विकास के मॉडल की हकीकत। फिल्म में प्रस्तुत है राजस्थान का एक गांव, परंतु यह किसी भी प्रांत का हो सकता है। सभी जगह विकास का विद्रूप समान क्रूरता से छाया हुआ है।

दरअसल, फिल्म भारत की राजनीतिक व्यवस्था के सर्कस की कहानी है। जानवरों और मनुष्यों के करतब दिखाने वाला सर्कस तो मात्र एक रूपक है और इस सर्कस का एक बौना जोकर जब वेतन की मांग करता है तो उसे ठोकर मारी जाती है और उसकी पीठ पर चिपके बीस रुपए के नोट को बालक तमाशे के बीच से हथिया लेता है। पूरे देश में तमाशा जारी है और गरीब में साहस हो तो ऐन तमाशे के बीच जाकर अपना हक ले ले। यह फिल्म मलिक मोहम्मद जायसी के महाकाव्य 'पद्मावत' की तरह रूपकों से भरी हुई है। सर्कस के तमाशे में तीन जोकर एक कुर्सी पर बैठने का प्रयास करते हैं और उनके प्रयास बौने साबित होते हैं, क्योंकि हर प्रयास में कुर्सी की ऊंचाई बढ़ जाती है। अंततोगतवा वे तीनों प्रतिद्वंद्वी एक के ऊपर एक चढ़कर कुर्सी पर बैठ जाते हैं और कुर्सी पर लिखा है - प्रधानमंत्री। ऊपर बैठा बौना अपने जूते-मोजे उतारकर नीचे फेंकता है और सत्ता की दौड़ के रनर अप उसी को लूट लेते हैं। इस फिल्म में सतहों के नीचे छुपे अनेक अर्थ हैं, जो एक लेख नहीं वरन पूरी एक किताब की मांग करते हैं और जो देश का ग्रेट इंडियन सर्कस कहला सकती है।

पूरे घटनाक्रम के पाश्र्व में एक चुनाव का प्रचार चल रहा है। मंगेश इसे पृष्ठभूमि में ही रखते हैं। वे इस भीड़ में नहीं जाते, परंतु इसकी भयावहता शूल की तरह आपके सीने में धंस जाती है। छद्म आधुनिकता ग्रामीण क्षेत्र में प्रवेश कर गई है और बोतल में बंद पानी प्यासा गरीब खरीद नहीं सकता, तो दूसरी ओर आयात किया शीतल पेय पीते दिखाया गया है। गरीबी पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है। फिल्म के नन्हे बच्चों की मां को भी उसके बचपन में उसके पिता चाहकर भी सर्कस नहीं दिखा पाए थे। फिल्म के अंत में सर्कस का टिकट हवा में उड़ रहा है, चुनाव प्रचार रैली के ऊपर उड़ रहा है। यह सर्कस का टिकट चुनाव का टिकट भी हो सकता है। दरअसल लेखक, निर्देशक मंगेश की थाह पाना कठिन है। मंगेश पहला किसान का बेटा है, जिसने कैमरे को हल की तरह इस्तेमाल किया है।