द लंच बॉक्स : एकाकीपन पर लिखी एक कविता / जयप्रकाश चौकसे

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द लंच बॉक्स : एकाकीपन पर लिखी एक कविता
प्रकाशन तिथि : 26 सितम्बर 2013


युवा फिल्मकार रितेश बत्रा की अत्यंत प्रशंसित फिल्म 'द लंच बॉक्स' का सबसे मनोरंजक पात्र उस पड़ोसी महिला का है, जो नायिका से बात करती है और रस्सी में बंधी डलिया से रोजमर्रा के जीवन की उपयोगी चीजों का आदान-प्रदान होता है। इस पात्र को हम पूरी फिल्म में सिर्फ सुनते हैं, कभी भी महिला को दिखाया नहीं गया है। उनकी बातों से ही हम जानते हैं कि उसका पति लंबे समय से बीमार है और असहाय भी है। व्यक्तिगत जीवन में इतने बड़े संकट के बावजूद वह महिला नायिका को उत्साह दिलाती है, उसके जीवन में आशा का संचार करती है। यह एक अदृश्य सूत्रधार की भूमिका की तरह ही है। दरअसल, फिल्म की तरह यह भूमिका भी अपरिभाषेय है।

हम सबके जीवन में भी कोई एक अदृश्य व्यक्ति होता है। वह हमारे अपने अवचेतन की रचना होती है। फिल्म में भी कदाचित फिल्मकार का आशय यह है कि यह पात्र नायिका का अवचेतन ही है। रंगमंच की भाषा में उसके मन में गूंजने वाले संवाद हैं, गोया कि यह सोलोलोकी है। नाटक में स्वयं से बात करने वाले हिस्से कुछ ऐसे ही होते हैं। दोनों पात्रों में यह समानता भी है कि एक का पति लंबे समय से बीमार लेटा है और दूसरी के स्वस्थ कार्यरत पति के पास अपनी पत्नी के लिए वक्त ही नहीं है। यहां तक कि वह उसे देखकर भी नहीं देख रहा है, जैसा हम उस दृश्य में देखते हैं, जिसमें पत्नी ने वह पोशाक पहनी है, जिसे पहनकर वह हनीमून पर गई थी। पत्नी के अभिसार के लाउड संकेत को भी यह पति अनदेखा कर रहा है। अपने अकेलेपन से जूझती इस पत्नी का अपने पति से एकमात्र स्पर्श उसके कपड़े धोते समय उन कपड़ों को सूंघना है और इसी प्रक्रिया में वह अपनी अदृश्य सौतन को भी सूंघ लेती है। वह जान जाती है कि उसके पति प्रेम-प्रसंग में लिप्त हैं। दोनों स्त्रियों के जीवन का एकाकीपन एक-सा है।

दरअसल, यह फिल्म समुद्र के किनारे बसे मुंबई की है, जिसमें इंसान लहरों की तरह चलायमान है और इस भीड़ भरे शोर-शराबे में चूर शहर में अनेक लोग निहायत ही तन्हा, एकदम अकेले हैं और उनका समाज से संपर्क होते हुए भी नहीं के समान है। मसलन, विधुर अधेड़ नायक अपनी बालकनी में खड़े होकर सामने वाले फ्लैट की खुली खिड़की से उस परिवार को सानंद भोजन करते देखता है और अनेक बार वे लोग खिड़की बंद भी रखते हैं।

नायक अकेला है और उसने कभी खाने की मेज पर भरे-पूरे परिवार के साथ भोजन ही नहीं किया है। उसका एकाकीपन खंजर की तरह दर्शकों के सीने में धंस जाता है। वह इतना गैर मिलनसार हो चुका है कि बच्चे अपनी गेंद भी उसकी बालकनी से लेने की हिम्मत नहीं जुटाते। उसका एकाकीपन एक अनदेखे प्यार से टूटता है। यह बात भी निर्देशक इस तरह बयां करता है कि वह नासिक जाकर लौट आता है तो बच्चों को उनकी गेंद देता है। नासिक जाते समय रेल के डिब्बे में उसके सामने एक बहुत वृद्ध व्यक्ति बैठा है, जो उसे बताता है कि सेवानिवृत्त होकर वह नासिक में बस गया और कभी-कभी दवा खरीदने मुंबई आता है।

उस अनजान, वृद्ध मुसाफिर में नायक अपना भविष्य देखता है कि क्या वह भी इसी तरह हो जाएगा? यह ख्याल ही उसे मुंबई लाता है और वह उस औरत की खोज में निकल जाता है, जिससे उसका अनाम रिश्ता लंच बॉक्स में भेजी गई चिट्ठियों से जुड़ा था। वे चिट्ठियां नहीं, उन दोनों एकाकी लोगों के अवचेतन के श्वांस की तरह कुछ थीं। उसने स्वयं नायिका के साहस भरे निमंत्रण को उसकी और अपनी उम्र के फासले की वजह से अस्वीकार किया था और अब उसे खोजने निकलता है। वह सेवानिवृत्त हुआ है, जीवन से निवृत्त नहीं। उसके हृदय में प्रेम की कोंपल उग आई है।

इस फिल्म में मानवीय रिश्तों को परत-दर-परत उजागर किया है। नायिका अनजान, अनदेखे आदमी के साथ भागने को तैयार है, क्योंकि देखे-भाले, परिचित से उसने विवाह किया था और कुछ ही वर्षों में उनके बीच अपरिचय की खाइयां उभर आईं। दरअसल, यह फिल्म विशुद्ध साहित्य है और इसे फिल्म नहीं, एकाकीपन पर लिखी कविता की तरह लेना चाहिए।