द / बालकृष्ण भट्ट
वर्णमाला में यह अक्षर इतना बहुव्यापक हो रहा है कि शब्द के भंडार में खोजो तो कम से कम छठवाँ हिस्सा संपूर्ण शब्दावली का ऐसा पाओगे जिसमें आदि मध्य या अवसान में कहीं पर कहीं यह अवश्य आता है। फिर हम हिंदुओं का अस्तित्व तो इसी के द्वारा है क्योंकि हिंद शब्द में से द को निकाल डालो तो हित और अ से कोई वाक्यार्थ को बोध न होगा। ऐसा ही दास या दास्य भाव जिसके हम बड़े प्रेमी हैं उसमें भी यह द है। एवम् दीनता दु:ख दरिद्रता दर्द जिसका कुल दार मदार इस दुनिया के इर्द-गिर्द केवल हिंदू जाति पर आ लगा है सबों में यह द अपनी व्यापक शक्ति दिखला रहा है। फिर हम लोग इस द की इतनी शागिर्दी सी कर रहे हैं कि जिसमें यह आ गया है उसे बडे़ चाह से पकड़े हुए हैं - जैसा देने में यह है तो देने में हम इसके कान काटे लेते हैं। लेने में द नहीं है तो लेने को विलायत के सुपुर्द कर दिया। हमारे बराबर देनदार भी कोई नहीं है। सो इसीलिए कि उसमें भी यह द झलक मार रहा है ऐसा ही गर्द खोरी में द है उसमें भी हम सबके सरदार हैं। हाँ मर्दानगी दिमाग दाक्षिण्य में द देख उदास हो खयाल करने लगे कहीं और भी द मिल सकता है, सोचते-सोचते सोचा तो परदे में उसे पाय परदा उन पर छोड़ की आड़ में मर्दानगी आदि को दबा दिया। पीछे दंभ दीवानापन दबने में द को दामिनी की द्युति सा दमकते देख देह में फिर मानो दम आया और आगे खयाल दौड़ाने लगे तो दिवाले में उसे पाय द कर प्रेमी हिंदुस्तान खुद दिवालिया बन बैठा। धातुपाठ में द का प्रयोग देने के अर्थ में किया गया है। जिसमें दयावान उदार दाखरस के पान का सा आनंद अनुभव करता है पर कट्टर सूम गीदड़ देने की चर्चा मात्र में मुर्दा या हो दाहिने बाँए ताकने लगता है - देर से इस द के फेर में पड़े दिमाग खराशी करते बीता सिवा दोष के कोई एक भी गुण इसमें न पाए गए। पढ़ने वाले कहेंगे यह बड़ा दोषदृक अदूर दर्शी है तो इसके गुण सुनिए-शब्दालंकार अनुप्रास का तो यह मानो प्राण है, कोमलता में यह लकार से किसी अंश में कम नहीं है, माधुर्य इसमें टपक रहा है, जिसके उच्चारण में जीभ को अणुमात्र भी आयास नहीं करना पड़ता वरन एक प्रकार स्वाद मिलता है। एक तो वर्णमाला में इन्त्य अक्षर सबों में कोमल निश्चय किए गए हैं उसमें भी यह मध्यम वर्ण होने से प्रसाद गुण की मूर्ति है। भाषाओं में फारसी जो बड़ी मधुर है उसका यही कारण है कि उसमें द की अधिक भरती की गई है जिसके कम से कम तिहाई शब्द ऐसे हैं जिसमें द अवश्य आया है। हमारी हिंदी में जो बाहर के शब्द राइज हो गए उनमें जो फारसी के शब्द हैं उनमें बहुधा द आया है जैसा दिल, दिमाग, दीन, दुनिया, दीदार, दीनार, दरकार, दरबार इत्यादि। दीपक, द्वार, देहली, दीठ इत्यादि काम काजी शब्दों के यह आदि में आया है। मेदुर, मंदर, मेदनी, मदिरा आदि जिनमें कोई क्रिया या कारकत्व का उपादान नहीं है द मध्य में आया है - प्रमोद, विनोद, पयोद, मोद के अंत में द है दिग्दर्शन मात्र हमने करा दिया है सोचते जाइये शब्दों में द की व्यापकता मिलती जाएगी।