धंधा / सुरेश सौरभ
रात साढ़े बारह बजे जब पति घर लौटा, तो पत्नी अधसोई-सी विनत भाव से बोली-उफ ओ! जल्दी लाइट बंद करो, बड़ी तेज नींद आ रही है। तब पति बोला-अरे यार! पहले खाना ले आओ, फिर चैन से सोना। यह सुन पत्नी की पूरी नींद खुल गई। हैरत से पति की ओर देखते हुए बोली-क्या खाना अभी तक नहीं खाया? हलवाई होकर घर का खाओगे? क्या आज तुम्हारा, शादी में बनाया खाना कम पड़ गया।
पति-अमां यार! शादी-पार्टी का खाना भी कोई खाने लायक होता है। इतना तेल, इतना मसाला, इतना चरपरा, चिकनाई वाला होता है, अगर दो तीन-दिन लगातार खा लूं, तो शर्तियाँ बीमार पड़ जाऊंगा।
पत्नी-तो ऐसा बनाते काहे हो?
पति-मैं कहाँ बनाता हूँ, लोग अपने स्टेटस के लिए बनवातें हैं-पचहत्तर आइटमों में छिहत्तर मसाले पड़ी डिशें।
पत्नी उबांसी लेते हुए-सिर्फ दो-तीन रोटियाँ और जरा-सी दाल रसोई में पड़ी होगी।
पति-अरे! वही जल्दी से ले आ बावरी। उस बीमारी वाले खाने से तो बेहतर है, घर की दो रूखी-सूखी रोटियाँ।
पत्नी ने पति को बचा-खुचा खाना लाकर दिया, तो पति सुकून से खाते हुए बोला-यार! सुबह तीन सवा तीन तक जल्दी जगा देना। सुबह बरातियों का नाश्ता तैयार करवा कर देना है।
पत्नी-नाश्ते में क्या रखा है?
पति मुंह बिसूरते हुए-वही पेट बर्बादी वाला तला-भुना चटपटा आइली आइटम। छोला-भटूरा कचौड़ी-पकौड़ी डोसा-बोसा।
अब उसकी पत्नी कुछ न बोली। पति खाना खाकर तौलिए से हाथ पोंछते हुए तसल्ली से बोला-अपने राम से क्या चाहे जो बनवाओ! अपना तो यह रोज़ का धंधा है।