धकीकभोमेग / पंकज सुबीर

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कहानी के पूर्व एक छोटा-सा क्षेपक। क्या इसे क्षेपक कहा जाना सही है? चलिये क्षेपक मत कहिये, यह कहिये कि कहानी से पूर्व एक छोटी-सी घटना। घटना...? नहीं घटना भी नहीं, उसे एक स्मृति कहा जाना ठीक होगा। बचपन की एक स्मृति। बचपन की उन स्मृतियों का महत्त्व इसलिये भी अधिक होता है कि बचपन के उन दिनों में बड़ों वाली चतुराई नहीं होती है, सो चीज़ों को समझने में परेशानी आती है। उस पर यह भी कि बचपन का शब्दकोश भी बड़ा सीमित होता है, जो अब तक सुना है, उसका बताया गया अर्थ तो जानता है लेकिन जो नहीं सुना है उसका तथा जो सुना है उसका वह अर्थ, जो बताया नहीं गया है, वह नहीं जानता है। तो यह भी उसी प्रकार के अर्थ तथा अनर्थ से जुड़ी हुई एक स्मृति है। स्मृति किसकी? समझ लीजिए नैरेटर की, मतलब मेरी। नैरेटर बचपन में अपने पिता के साथ मंदिर जाता था। हर मंगलवार को हनुमान मंदिर। नैरेटर के पास उसके अलावा कोई चारा नहीं था। जाना ही पड़ता था। परशाद (प्रसाद) का झोला आख़िर को कौन उठाता, वह नहीं जाता तो। सिर झुकाए वह हर मंगलवार को उस छोटे से क़स्बे के छोटे से बाज़ार से होकर गुज़रता था। सिर झुकाए इसलिए कि साथ में पढ़ने वाले बच्चों से कहीं नज़र न मिल जाए।

ख़ैर... सीधे बात पर आते हैं। एक दिन जब नैरेटर मंदिर गया तो मंदिर की दीवारों पर तथा आसपास के मकानों की कुछ दीवारों पर कुछ अजीब-सा लिखा हुआ था। धकीकभोमेग। ये बड़े-बड़े अक्षरों में। दूर से ही पढ़ने में आ रहा था। लोग मुँह दबा कर हँस रहे थे। नैरेटर ने अपने शब्दकोश को खंगाला, कहीं कोई अर्थ नहीं मिला उसे इस शब्द का। धकीकभोमेग। बड़ा विचित्र-सा शब्द था, मानो किसी दूसरी भाषा से आया हुआ था। या शायद किसी दूसरे ग्रह से। जितनी देर तक पिताजी 'जय हनुमान ज्ञान गुन सागर' करते रहे उतनी देर तक नैरेटर ने अपनी पूरी बुद्धि इसी काम में लगाई। एक-दो से पूछा भी लेकिन अगला उत्तर देने के बजाय मुस्कुराता हुआ चला गया। नैरेटर, मतलब मैं उस मुस्कुराहट के चलते और अधिक उत्सुकता से भरता गया। रहस्य बहुत गहरा होता चला गया।

अरे हाँ! इस बीच एक बात और जो छूट गई। मंगलवार का दिन नैरेटर के लिए ख़ौफ़ से भरा होता था। पिताजी उस दिन निर्जला व्रत रखने के कारण पूरे क्रोध में रहते और अवसर मिलते ही नैरेटर को उस क्रोध का शिकार होना पड़ता था। यदि प्रसाद के झोले में अगरबत्ती, फूल, माला, नारियल जैसा कुछ भी रखने से छूट गया तो। या फिर यदि सब रखा है तो नारियल ही सड़ा निकल जाए, तो भी। नैरेटर को समझ में नहीं आता कि नारियल खराब निकलने में उसकी क्या ग़लती है। उसने सोच रखा था कि बड़ा होकर वह किसी ऐसी मशीन का आविष्कार करेगा, जो नारियल को बाहर से ही देख कर बता देगी कि सड़ा है या ठीक है। तो... नैरेटर के लिए बिना पिटे मंदिर से वापस आना, उस समय की सबसे बड़ी सफलता होती थी। इसलिये वह कोशिश करता था कि मंदिर जाने से लेकर लौटने तक, कोई संवाद अपने पिता से स्थापित करने का प्रयास, अपनी ओर से नहीं करे। जैसे ही वह लोग मंदिर पहुँचते, वह पूजा का पूरा सामान झोले से निकाल कर साथ लाए हुए पुराने अख़बार पर बिछा देता। हार, फूल, अगरबत्ती, माचिस, दीपक, तेल, बाती, मिठाई, चना, चिरौंजी, मुरमुरे, मूँगफली के दाने और नारीयल। तेरह आइटम की गिनती जिस दिन बारह होती, उस दिन चटाक की आवाज़ मंदिर में गूँजती। अख़बार पर सामान रखकर नैरेटर चुपचाप मंदिर के कोने में रखे शिवलिंग के पास बैठे नादिया से टिक कर बैठ जाता।

उस दिन... मतलब धकीकभोमेग वाले दिन भी वह नादिया से टिक कर बैठ तो गया लेकिन दिमाग़ उसका धकीकभोमेग में ही लगा रहा। क्या है यह धकीकभोमेग? उसने अभी तक प्राप्त अपना पूरा ज्ञान खंगाल डाला लेकिन यह शब्द कहीं पर नहीं था। पर्यायवाची शब्दों के बारे में उसकी हिन्दी की पुस्तक में बताया गया था लेकिन यह शब्द वहाँ भी कहीं नहीं था। किसी का भी पर्यायवाची उसने अभी तक धकीकभोमेग नहीं पढ़ा था। उस दिन जब पिताजी पूजा करके बाहर आए, तो वह भी मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। नैरेटर ने ऐसा कम ही देखा था। मंगलवार को मुस्कुराना? कम ही होता था ऐसा। नैरेटर ने परशाद की चीज़ों को मिलाया और मंदिर में आए लोगों में बाँट दिया। मंदिर के बाहर रखी अपनी चप्पलें पहनते हुए उसने देखा कि पिताजी दीवार की ओर देखकर अभी भी मुस्कुरा रहे हैं। नैरेटर गले तक उत्सुकता से भरा हुआ था। भूल गया कि आज मंगलवार है। आज अपनी ओर से संवाद नहीं स्थापित करना है। भूल गया और पूछ बैठा-यह क्या लिखा है पिताजी? तेरह चीज़ें पूरी थीं, नारियल भी ख़राब नहीं निकला था मगर फिर भी लोगों ने एक तेज़ आवाज़ सुनी-चटाक।

क्षेपक अभी समाप्त नहीं हुआ है लेकिन आइये हम मूल कथा की ओर चलते हैं। मैं यानी कि नैरेटर अब बड़ा हो गया हूँ और काम-धंधे से लग गया हूँ। रोज़गार से। मैं इन दिनों एक बाबा का पीआरओ हूँ। बाबा का? हाँ बाबा का। मतलब यह जो प्रवचन आदि देने का काम करते हैं न, उनमें से एक का पीआरओ हूँ। मेरा नाम पीआरओ है लेकिन मुझे काम बहुत से करने होते हैं। क्या-क्या करने होते हैं, वह नहीं बता सकता क्योंकि मेरी नौकरी में गोपनीयता की शर्त होती है। कुल मिलाकर यह कि मैं बाबा का पीआरओ, पीए, पर्सनल सचिव सब कुछ हूँ। बाबा केवल प्रवचन ही नहीं देते, बल्कि ज़िदगियाँ बदलने का भी काम करते हैं। या सही वाक्य यह होगा कि ज़िंदगियाँ बदलने का दावा करते हैं और उस दावे के भरपूर प्रचार-प्रसार की ज़िम्मेदारी मुझ पर है। बाबा का बड़ा फैला हुआ-सा कारोबार है। देश-विदेश में उनके शिष्य हैं, जिनकी संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है और साथ में बढ़ रही है बाबा की संपत्ती भी। बाबा की संपत्ती नहीं, उनके संस्थान 'अमरत्व आनंद अमृत' की संपत्ती। बाबा स्वयं के लिये कुछ नहीं करते, जो कुछ भी करते हैं, इसी संस्था के लिये करते हैं। वह स्वयं तो मोह-माया से बहुत दूर हैं। चूँकि संस्था मानव कल्याण के लिये है, इसलिए जो कुछ भी होता है वह अंततः मानव कल्याण के लिए ही होता है।

बहुत ज़्यादा बोर कर रहा हूँ न मैं? क्या करूँ मेरा काम ही नैरेटर का है, बोर करना मेरे काम का एक हिस्सा है। लेकिन चलिये अब अधिक बोर नहीं करता हूँ। क्योंकि बाबाओं के बारे में आप मुझ से कहीं ज़्यादा जानते हैं, इसलिए वह विवरण देना यहाँ पर आवश्यक नहीं है। हो सकता है आपमें से कुछ लोग किसी बाबा के भक्त भी हों और यह भी विश्वास रखते हों कि 'हाँ! इन दिनों बाबाओं ने बहुत गंद फैलाई है लेकिन हमारे स्वामी जी ऐसे नहीं हैं।' आपके इसी विश्वास के दम पर ही तो बाबाओं की दुकानें चल रही हैं। असल में तो आप भी जानते हैं कि आपके बाबा भी वैसे ही हैं लेकिन अब आप अपने बाबा के साथ इतने आगे निकल आ चुके हैं कि अब आप ख़ुद भी बाबा ही हो चुके हैं। आपकी मजबूरी है अपने बाबा को स्थापित रखना। मेरी मजबूरी वैसी नहीं है। मैं तो बाक़ायदा वेतन प्राप्त करता हूँ अपने बाबा से। हर माह। मोटा वेतन। आप जो कुछ भी बाबा के दरबार में चढ़ाते हैं न, उसी में से आता है मेरा वेतन। आप चढ़ाकर स्थापित कर रहे हैं बाबा को, मैं प्राप्त करके कर रहा हूँ। आपकी भी मजबूरी है कि बाबा स्थापित रहें और मेरी भी। आपके भ्रम और मेरे वेतन का सवाल है। फिर भटक गया न? क्या करूँ नैरेटरी सीधे रास्ते पर चलने ही नहीं देती। ये तीनों तिरछे चलें।

तो मैं पीआरओ हूँ। जानता हूँ कि जिस प्रकार से दुनिया भर के बाबा गंद फैला रहे हैं, उसी प्रकार से मेरे बाबा भी फैला रहे हैं। मेरे बाबा कोई दूध के धुले नहीं हैं। बल्कि मेरा तो काम ही यही है कि मैं अपने बाबा को गंद फैलाने के नए-नए तरीके सुझाता हूँ। हम फुरसत पाते ही पूरी टीम के साथ बैठकर बाबा के साथ गंद पर विस्तार से चर्चा करते हैं। नए और यूनिक विचारों पर चर्चा करते हैं। खुल कर, बिना किसी झिझक के। बाबा उस समय बाबा नहीं होते, वह हमारा ही हिस्सा होते हैं। बढ़-चढ़ कर हमारी चर्चा में हिस्सा लेते हैं। कुल मिलाकर यह कि हम सब जानते हैं कि हम क्या हैं और हमारे बाबा क्या हैं। हम सबकी नौकरियाँ इसी सत्य के रहस्योद्घाटन के साथ शुरू होती हैं कि बाबा वास्तव में क्या हैं? हममें से कुछ शुरू में असहज होते हैं फिर धीरे-धीरे बाबामय हो जाते हैं। जो असहज ही रहते हैं, वह अचानक से किसी दिन ग़ायब हो जाते हैं। बाद में उनके परिजन उन्हें ढूँढ़ते हुए हमारे यहाँ आते हैं, बाबा भी चिंता करते हैं लेकिन वह लोग फिर नहीं मिलते।

मेरे विचार में मैंने अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं बताया है, जो मेरी नौकरी की शर्तों के हिसाब से नहीं बताया जाना चाहिये। लेकिन वह सब तो बताना ही पड़ेगा न, जो कि कहानी को समझने के लिए आवश्यक है। जैसे यह बात कि बाबा ने दस साल पहले मेरे ही कहने पर अपना पैसा ब्याज पर मार्केट में उतारना शुरू किया। शुरू किया कुछ व्यवसायी शिष्यों के माध्यम से। बेनामी। व्यवसाय में पूँजी की आवश्यकता हमेशा रहती है और कौन व्यवसायी है जिसने ब्याज पर पैसा नहीं उठा रखा हो। तो अपने कुछ विश्वस्त व्यवसायी शिष्यों के माध्यम से बाबा ने दस साल पहले यह काम शुरू किया और बाबा का मुख्य कार्य यही हो गया है। आप लोग बाबा के दरबार में चढ़ाते हैं, बाबा उसे ब्याज़ पर चढ़ाते हैं और किसी के पास से शायद आप ही ज़रूरत पड़ने पर उसी पैसे को ब्याज़ पर ले आते हैं। इसी लिए तो कहा जाता है न कि दुनिया गोल है। पैसा भी तो गोल है। बाबा का काफ़ी पैसा बाज़ार में बँटा हुआ है। बाबा हमेशा इस प्रकार के शिष्यों की तलाश में रहते हैं, जिनके माध्यम से और पैसा मार्केट में उतारा जा सके। ब्याज़ का पैसा डूबने की संभावना हमेशा बनी रहती है, इसलिए जितने अधिक माध्यमों से उतारा जाए उतना अच्छा है। एक जगह पर अगर डूब भी गया तो उसकी मात्रा अधिक नहीं होगी। बाबा का मानना है कि यदि सौ रुपये हैं, तो सौ स्थानों पर इन्वेस्ट किया जाए बजाए यह कि एक ही स्थान पर इन्वेस्ट किया जाए। सौ स्थानों पर इन्वेस्ट करने से रिस्क फेक्टर एक प्रतिशत प्रति इन्वेस्ट हो जाता है, बजाय सौ प्रतिशत के।

बात उस दिन शुरू होती है, जिस दिन हम सब किसी स्थान पर चल रहे बाबा के प्रवचन के पहले दिन आए चढ़ावे को रात में बाबा की उपस्थिति में गिन रहे थे। जब एक गंगाल में दान पेटी को उलटा गया, तो अचानक धप्प की आवाज़ आई। आवाज़ ने सबका ध्यान आकर्षित किया। बाबा का भी। बाबा की निगाहें उस गंगाल पर केंद्रित हो गईं। उस गंगाल में एक कुछ बड़ा-सा पैकेट पड़ा हुआ था। पैकेट बाबा के सामने लाकर रखा गया। बाबा के इशारे पर मैंने उसे खोला। पैकेट में नोट थे। नहीं पैकेट में नोटों के बंडल थे। एक दो नहीं पच्चीस बंडल। हज़ार के नोटों के पच्चीस बंडल। पच्चीस लाख रुपये। दान करने वाले का कहीं कोई नाम नहीं था। न कोई नाम की पर्ची, न कोई संकेत। सब हैरत में पड़ गए। हैरत यह नहीं कि इतने सारे पैसे, बल्कि यह कि यह पैकेट दानपेटी में डाला कैसे गया? एक सेवादार ने रहस्य खोला कि एक दंपती ने अनुरोध करके पेटी का ताला खुलवाया था यह पैकेट डालने हेतु। सेवादार ने कहा कि उसने दंपती से कहा भी था आपको अधिक दान देना हो, तो मंच पर जाकर बाबा के चरणों में चढ़ाइये, मैं आपको ले चलता हूँ मगर उन्होंने विनम्रता से मना कर दिया था। सेवादार ने बताया कि दोनों जवान स्त्री-पुरुष थे। उनकी इच्छा गुप्त दान देने की थी। पूरा घटनाक्रम हम सबके गले उसी प्रकार से नहीं उतर रहा था, जिस प्रकार अभी पढ़ते समय आप सबके गले नहीं उतर रहा है। बात पच्चीस लाख की नहीं थी, बात गुप्त दान की थी और वह भी इतने रहस्यमय तरीके से। ख़ैर बाबा ने दानपेटियों के सेवादारों को ताकीद दी कि आगे से इस प्रकार के गुप्त दान देने वाले को उनसे मिलवाया जाए।

अगला दिन। नहीं, अगली रात। हम सब उसी प्रकार से पैसों के हिसाब-किताब की प्रक्रिया में लगे हुए थे। आज किसी दान पेटी से धप्प की आवाज़ नहीं आई थी। दान पेटी वाले सेवादार जब चले गए, तो कंट्रोल रूम के सेवादार रसीदें लेकर आ गए। पता चला कि आज भी यह घटना बिना किसी धप्प की आवाज़ के घट चुकी थी। बाबा के प्रवचन पांडाल के बाहर बाबा की संस्था के स्टॉल लगे हुए हैं। अलग-अलग तरह के स्टॉल। बाबा का धार्मिक साहित्य बेचने हेतु स्टॉल, बाबा की अगरबत्तियाँ बेचने हेतु, बाबा की सीडी बेचने हेतु और भी तरह-तरह के स्टॉल। उन्हीं के बीच में बाबा की संस्था का भी एक अस्थाई कार्यालय बना हुआ है। कंट्रोल रूम। आज वहाँ कोई पच्चीस लाख रुपये की गुप्त दान की रसीद कटवा कर गया। कोई? वही दंपती। कंट्रोल रूम में बैठे लोगों का कहना था कि जब मंत्री जी बाबा का आशीर्वाद लेने मंच पर आए हुए थे, उसी गहमा-गहमी में यह दोनों आए और रसीद कटवा कर चले गए। उस समय मंत्री जी बाबा के पास थे इसलिए बाबा के पास उन लोगों को ले जाना संभव ही नहीं था। चूँकि बाबा ने एक दिन पहले जो निर्देश दिये थे, वह दानपेटियों के सेवादारों को दिये थे, कंट्रोल रूम के सेवादारों को उसकी जानकारी नहीं थी। बाबा के सारे डिपार्टमेंट अलग-अलग काम करते हैं और किसी भी डिपार्टमेंट को अपनी जानकारी दूसरे को बताने की सख़्त मनाही है। दो दिन में पचास लाख? आख़िर हैं कौन यह दोनों? इस बार बाबा के माथे पर की लकीरें गहरी हो गईं।

उस रात अलग-अलग डिपार्टमेंटों के सेवादारों की अलग-अलग बैठकें ली गईं। सबको निर्देश दिये गए कि बड़ी रक़म यदि कोई भी दान में आ रही है, तो दान देने वाले व्यक्ति को बाबा से मिलवाया ही जाए। बिना मिलवाए रक़म नहीं ली जाए, किसी भी सूरत में। दान या तो दानपेटियों में आता था, या कंट्राल रूम पर, या फिर सीधे ही मंच के पास चढ़ावे के रूप में। मंच के नीचे कुछ सेवादार बैठते हैं बाबा की पादुका लेकर। प्रवचन के बाद प्रभावशाली भक्तों को वहाँ आकर चढ़ावा चढ़ाने का मौका मिलता है। बाक़ी लोग तो दानपेटियों में डालते हैं। पादुका पर जो चढ़ावा आता है, उसमें यदि सेवादारों को किसी चढ़ावे को देखकर ऐसा लगता है कि इस भक्त को बाबा से मिलवाया जाना चाहिये, तो उसे मंच पर ले जाया जाता है। जैसा कि तीसरे दिन हुआ।

तीसरे दिन एक दंपती ने पैकेट चढ़ाया पादुकाओं पर और श्रद्धा से सिर टेका। पैकेट? सेवादारों के कान खड़े हो गए। एक सेवादार ने पैकेट को उठाकर अलग रखने के दौरान उसे टटोला। बंडल थे। नोटों के। काफी। उसने दूसरे सेवादारों की ओर इशारा किया। सेवादार तुरंत दंपती के आस-पास हो गए। दोनों पच्चीस से तीस वर्ष के बीच के थे। स्मार्ट, आधुनिक और समृद्ध। स्त्री ने अर्द्ध पारदर्शी साड़ी पहनी हुई थी, जो दिखाने और छिपाने दोनों का काम कर रही थी। सलीके से अपने आप को उसने सजा रखा था। कुल मिलाकर यह कि आकर्षक थी और आकर्षण का केंद्र बनने की पूरी संभावनाओं से युक्त थी। उसके साथ का पुरुष भी आकर्षक था। उसके पूरे शरीर पर सब कुछ ब्रांडेड था और वह भी एकदम से हाई-फाई वाला ब्रांडेड। एकदम फ़िल्मी हीरो की तरह नज़र आ रहा था वह। सब कुछ स्टाइलिश-सा। दोनों एकदम 'मेड फार ईच अदर' की तरह लग रहे थे। पादुकाओं से कुछ दूरी पर आते ही सेवादारों ने उन दोनों से कहा कि आइये आपको बाबा के दर्शन करवा देते हैं। दोनों ने विनम्रता से हाथ जोड़ दिये। मगर अंततः सेवादार उन दोनों को बाबा के पास ले ही आए।

इस बीच बाबा के पास सूचना आ चुकी थी कि वह दोनों आज भी आए हैं और आज भी पच्चीस लाख चढ़ा चुके हैं। मतलब यह कि कुल मिलाकर आज तक आँकड़ा पचहत्तर लाख हो चुका है। प्रवचन के बाद वी-वी आई पी टाइप के भक्तों से बाबा मंच पर अपने आसन पर बैठे घिरे हुए थे। बड़े मंत्री, बड़े अफ़सर, बड़े उद्योगपति और भी बहुत-से बड़े-बड़े। सेवादार उन दोनों को लेकर बाबा के पास आए। दोनों ने बाबा को प्रणाम किया। बाबा ने अपने को उढ़ाए गए दो कीमती शॉल उठाए और दोनों के गले में एक-एक डाल दिये। दोनों ने विनम्रता से एक बार फिर से प्रणाम किया। 'कुटिया पर चलिये वहीं बात हो पाएगी। यहाँ तो आप देख ही रहे हैं।' बाबा ने स्त्री की ओर देखते हुए पुरुष से कहा। साथ ही उन्होंने अपने सेवादारों को भी इशारा कर दिया कि लेकर ही आना है दोनों को। कुटिया का मतलब वह स्थान जहाँ पर बाबा किसी भी शहर में प्रवचन के दौरान रुकते हैं। इसकी शर्त यह होती है कि यह कोई ऐसा मकान हो, जो कि पूरी तरह से खाली पड़ा हो। बाबा को कोई डिस्टर्ब न हो साधना में। अक्सर किसी नवनिर्मित मकान को ही कुटिया बनाया जाता है, जिसमें मकान स्वामी अभी रहने नहीं पहुँचा हो। वह भी अपना सौभाग्य समझता है कि कितने बड़े संत के पैर उसके नवनिर्मित मकान में पड़ रहे हैं। कितना महान संत उसके मकान को साधना के लिये चुन रहा है।

कुटिया में बाबा के निजी कक्ष में दोनों बाबा के पास थे। कमरे में। कक्ष बंद था। मैं अंदर ही था, उन तीनों के अलावा केवल मैं। बाबा ने कुछ देर तक इधर-उधर की बातें की। दोनों के बारे में जानकारी प्राप्त की। पुरुष ने विनम्रता पूर्वक बताया कि वह मार्केट में ब्याज पर पैसा चलाता है। यह उसका पुश्तैनी कार्य है। बहुत जमा हुआ काम है। उसने बताया कि उसके दादाजी कहा करते थे कि ब्याज का पैसा अच्छा नहीं होता है। इस पैसे का एक हिस्सा हमेशा दान-पुण्य में लगाते रहना चाहिए और वह भी गुप्त रूप से। इससे पैसे की शुद्धि हो जाती है। बस उसी बात के कारण वह इस प्रकार के छोटे-मोटे (पचहत्तर लाख, छोटे-मोटे?) गुप्त दान करता रहता है। उसी ने बताया कि उसकी शादी को चार साल हो गए हैं लेकिन अभी तक कोई संतान नहीं हुई है। इसी कारण वह जब भी दान देने जाता है, तो अपनी पत्नी को भी साथ ले जाता है। बाबा ने इस बात के दौरान स्त्री की ओर देखा। वहाँ उदासी फैली हुई थी। चूँकि मैं अपने बाबा को सबसे ज़्यादा जानता हूँ, इसलिए कह सकता हूँ कि यह बात पता चलते ही उस विज्ञापन जैसा कुछ हुआ, जिसमें कहा जाता है मन में लड्डू फूटा।

पुरुष का ऐसा कहना था कि उसका मानना है कि यह जो ब्याज का पैसा है, उसीकी सज़ा उसे मिली है, जो वह अभी तक पिता नहीं बन पाया है। उसका कहना था कि उसने अब दान-पुण्य और अधिक करने शुरू कर दिये हैं। उसने बताया कि वह मुम्बई का रहने वाला है। किसी मित्र से बाबा के बारे में उसने बहुत सुना था। इसीलिये इतनी दूर से यात्रा करके वह दोनों यहाँ आए हैं। रोज़ बाबा के प्रवचन सुन रहे हैं। पूरे सात दिन रुकेंगे, जब तक बाबा यहाँ हैं। बाबा ने उसे आश्वासन दिया कि वह निंश्चिंत रहे, यह दान-पुण्य व्यर्थ नहीं जाएगा। बाबा ने उसे निर्देश दिये कि वह अपनी पत्नी के साथ रोज़ आए और प्रवचन के बाद यहाँ कुटिया में कुछ समय दोनों रहें। बाबा कुछ प्रयोग करेंगे, जिसके परिणाम जल्द ही दोनों को मिलेंगे। बाबा के प्रयोग के बारे में मुझसे ज़्यादा कौन जान सकता था। सत्य के साथ बाबा के प्रयोग। जाने से पहले दोनों ने बाबा को साष्टांग प्रणाम किया और बाबा के मना करने के बाद भी पुरुष ने हज़ार के नोटों की पाँच गड्डियाँ चढ़ा दीं बाबा के चरणों में। मैंने मन ही मन जोड़ा पचहत्तर और पाँच, अस्सी।

अगले दिन जब दोनों कुटिया पर आए, तो उनके हाथों में बहुत-सी दूसरी सामग्री भी थी। फल, मेवे, मिठाइयाँ। बाबा ने उनको बताया कि उन्होंने दोनों के लिये विशेष साधना प्रारंभ करवा दी है। दोनों के चेहरे खिल उठे और वह बाबा के चरणों में झुक गए। बाबा ने उनके झुकने के दौरान मुझे कमरे से बाहर जाने का इशारा किया। मैं बाहर हो गया। कुछ देर बाद पुरुष भी बाहर आया। मुझे मालूम था कि उसे तो बाहर आना ही है। वह अपनी कार में बैठ कर कहीं चला गया। सामग्री लाने। साधना की सामग्री। कमरे का दरवाज़ा बंद था। शक्तिपात द्वारा दीक्षा। इसी हेतु तो बाबा फेमस हैं। उस दिन वह दोनों कुटिया पर काफ़ी रात तक रुके। दोनों ने खाना भी बाबा के साथ ही खाया। जाते समय पुरुष ने फिर से पाँच लाख बाबा के चरणों में चढ़ा दिये। बाबा ने फिर मना किया लेकिन पुरुष का कहना था कि उसकी दादी ने कहा था कभी भी संत के पैर खाली हाथ नहीं छूते। बाबा निरुत्तर हो गए। मैंने हिसाब लगाया अस्सी और पाँच, पिच्यासी।

अगले दिन जब हम चारों कमरे में थे तो बाबा ने धीरे-से अपने पत्ते खोले। पुरुष से कहा कि मानव कल्याण के लिए वह बहुत काम करना चाहते हैं। चाहते हैं कि संस्था की कुछ नियमित आय होने लगे हर माह। जिससे सारी कल्याणकारी योजनाएँ ठीक प्रकार से चलती रहें। अभी उनको बहुत चिंता रहती है इस बात की कि किस प्रकार से यह सारे कार्य जारी रहेंगे। उन्होंने पुरुष को बताया कि वे चाहते हैं कि संस्था का कुछ पैसा ब्याज पर चला दिया जाए, बेनामी रूप से। क्या ऐसा संभव है? हालाँकि वह जानते हैं कि यह ग़लत है, फिर भी जन कल्याण के लिए क्या ग़लत और क्या सही। बाबा जब भी किसी के माध्यम से पहली बार पैसा मार्केट में उतारते थे, तो उससे यही सवाल पूछते थे। एड़ा बन कर पेड़ा। पुरुष ने बाबा की बात को तुरंत समर्थित कर दिया। क्यों नहीं, बिल्कुल संभव है। उसने कहा कि उसका तो काम ही यही है। वह सहर्ष बाबा के लिये यह कार्य करना चाहेगा। उसने बताया कि किसी बड़ी और भरोसेमंद पार्टी को उसे तीन करोड़ ब्याज पर देने हैं, यदि बाबा चाहें तो वह उनका ही पैसा दे देगा। तीन करोड़...? बाबा कुछ सँभल कर बैठ गए। पुरुष ने बताया कि स्त्री के रिश्तेदारों में किसी को आवश्यकता है। बाबा ने स्त्री की ओर देखा। देखते रहे। उस रात को बाबा ने उन दोनों की संतान हेतु विशेष साधना की। केवल महिला के साथ। पुरुष अकेला वापस लौटा था उस रात। पाँच लाख चढ़ाकर। पिच्यासी और पाँच नब्बे हो चुके थे। बाबा ने सारी रात साधना की। बाबा सारी रात साधना करने में सक्षम थे।

अगले दिन बाबा ने डील फाइनल कर दी। तीन करोड़ डन। यहाँ का चढ़ावा सब मिलाकर अभी तक बाबा के पास दो करोड़ आ चुका था। वह अभी दिया जाएगा और बाक़ी का एक करोड़ यहाँ से वापस आश्रम पहुँच कर, वहाँ से भिजवाया जाएगा। यहाँ का प्रवचन भी अब अंतिम दिन तक आ पहुँचा था। युवक का कहना था कि वह अभी अपने पास से एक करोड़ मिलाकर तीन करोड़ फायनेंस कर देगा। उसने बाबा से कहा कि कोई जल्दी नहीं है बाक़ी के एक करोड़ की। वह लोग बाबा के अगले प्रवचन वाली जगह पर जब आएँगे, तो वहीं से ले लेंगे। युवक ने कहा कि अब तो वह दोनों बाबा के सारे प्रवचनों में आएँगे। बाबा मुस्कुरा दिये। आज फिर से पुरुष अकेला ही वापस लौटा। नब्बे और पाँच पंचानवे करके। बाबा ने पहली बार किसी महिला के साथ लगातार दूसरी रात भी साधना की। आम तौर पर वह कभी ऐसा नहीं करते थे। लेकिन यह महिला आम थी भी तो नहीं।

अगला दिन अंतिम दिन था। हम लोग अमूमन प्रवचन समाप्त होते ही उसी रात को वापस आश्रम रवाना हो जाते हैं। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। हम अगली सुबह रवाना हुए। बाबा ने एक रात और साधना की। युवक ने पूरा फिगर कर दिया एक करोड़ का। जब हम रवाना हो रहे थे तो वह दोनों भी वहाँ थे, बाबा के चरणों में बिछे हुए से। कृतज्ञ भाव से। बाबा बार-बार स्त्री को अपने हाथों से आशीर्वाद दे रहे थे। आशीर्वाद देते-देते बाबा को अचानक कुछ याद आया, उन्होंने युवक को बताया कि साधना का एक अंतिम आवश्यक कार्य शेष रह गया है। वह महिला के साथ एक बार फिर कक्ष में चले गए। बाबा ने एक और नियम तोड़ा, दिन में साधना नहीं करने का। इसी बीच युवक को मैं बाबा के आदेश पर दो करोड़ रुपये दे चुका था। जिसकी उसने बाक़ायदा अपने कंपनी के लेटर पेड पर रसीद दी, कच्ची रसीद। बेनामी ब्याज के धंधे में कच्ची रसीद ही चलती है। यहाँ ज़ुबान की ही क़ीमत होती है और विश्वास पर ही सारा खेल होता है। हम अपने आश्रम की ओर रवाना हो गए और वह दोनों भी मुम्बई चले गए।

अरे हाँ...! उस शुरुआत के क्षेपक की याद आ गई। वही, जो आपको शुरू में सुनाया था। धकीकभोमेग वाला। जिसमें मुझे तमाचा पड़ने तक बात हुई थी। आप उत्सुक होंगे की उसमें आगे क्या हुआ, उस शब्द का अर्थ क्या पता चला। असल में उसका अर्थ मुझे बुधवार को पता चला, जब मैं स्कूल गया। अर्थ मुझे मेरे साथ पढ़ने वाले एक लड़के ने मुझे बताया, जो उसी मोहल्ले में रहता था जहाँ वह मंदिर है। उसने बताया कि मंदिर का जो पुजारी है वह मोहल्ले की किसी महिला के चक्कर में पड़ा हुआ है। मंदिर में चढ़ावे का जो भी पैसा आता है, वह सब वह उस महिला पर उड़ा देता है। मेरे उस दोस्त ने धीमे स्वर में फुसफुसा कर भी बहुत कुछ बताया, जो यहाँ अगर मैं नहीं भी लिखूँ, तो भी आप समझ ही लेंगे। उसने कहा कि मोहल्ले के लोग पुजारी से बहुत नाराज़ हैं और उसी कारण कुछ युवकों ने मंदिर की दीवारों पर लिख दिया था धकीकभोमेग। धकीकभोमेग का मतलब 'धर्म की कमाई, भोस—में गँवाई'। मुझे अब समझ में आया कि इसी कारण कल मंगलवार को लोग मुँह दबा कर मुस्कुरा रहे थे मंदिर में।

ख़ैर, तो अब आपको मैं यह अलग से तो नहीं बताऊँ न कि वह दोनों स्त्री-पुरुष फ्रॉड थे। औरत जो थी वह कोई हाई प्रोफाइल कॉल गर्ल थी, जिसे इस कार्य के लिए हायर किया गया था। युवक को भी हायर ही किया गया था। बाबा का पैसा ब्याज पर चलाने वालों में से ही किसी ने दोनों को पूरी योजना के साथ भेजा था। एक करोड़ इन्वेस्ट करके तीन करोड़ कमाने हेतु। तीन करोड़ तो नहीं लेकिन दो तो मिल ही गए। एक करोड़ में से ख़र्चे आदि भी काटें तो भी सत्तर पचहत्तर लाख तो उसने बना ही लिये। किसने भेजा था, यह आज तक पता नहीं चला। कोई भी पता ठिकाना सही नहीं निकला, सब कुछ ग़लत था। आपको यह भी बताने की आवश्यकता नहीं है कि मामला न तो पुलिस तक पहुँचा और न मीडिया तक। जिसने उन दोनों को बाबा के पास भेजा था, उसे मालूम था कि मामला पुलिस तक नहीं जाएगा। बेनामी मामले पुलिस तक नहीं पहुँचते। हम लोगों ने भी उस मामले को दबा दिया, भुला दिया। अपनी हिसाब की डायरी में मैंने डूबी हुई एक करोड़ की रक़म (दो करोड़ में से एक करोड़ तो उस युवक ने हमें दे ही दिये थे।) के आगे लाल स्याही से लिख रखा है 'धकीकभोमेग' । हालाँकि सोचता हूँ कि उसे काट दूँ, किसी दिन ग़लती से बाबा ने अगर मेरी डायरी देख ली और वहाँ पर वह लिखा देख कर, मुझसे उसका अर्थ पूछ लिया, तो क्या उत्तर दूँगा मैं?