धड़कन खोज रही है नाड़ी वैद्य को / जयप्रकाश चौकसे

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धड़कन खोज रही है नाड़ी वैद्य को
प्रकाशन तिथि :09 मार्च 2016


आश्चर्य है कि अभी तक राम गोपाल वर्मा जैसे किसी त्वरित फिल्मकार ने विजय माल्या के जीवन से प्रेरित फिल्म की घोषणा नहीं की। फिल्म उद्योग को शो बिज़नेस कहते हैं और लटके-झटके दिखाने वाले फिल्मकार को शो-मैन कहा जाता है। सुभाष घई को शो-मैन कहलाना बेहद पसंद था। गौरतलब है कि सत्यजीत राय को कभी शो-मैन नहीं कहा गया, क्योंकि वे तो मनुष्य की करुणा के गायक रहे हैं। चार्ली चैपलिन या गोडार्ड को भी कभी शो-मैन नहीं कहा गया। यह सिलसिला हॉलीवुड के सेसिल बी.डीिमल के साथ शुरू हुआ, जिन्होंने 'टेन कमांडमेंट्स' और 'बेनहर' जैसी भव्य फिल्म बनाई। अपने लंबे कॅरिअर के एक दौर में शांताराम को शो-मैन कहा गया, जब उन्होंने 'नवरंग' और 'झनक-झनक पायल बाजे' जैसी फिल्में बनाई परंतु उन्होंने 'दुनिया न माने' और 'दो आंखें बारह हाथ' जैसी फिल्में भी रची हैं। स्वयं शांताराम ने यह स्वीकार किया था कि उनके जीवन के जिस दौर में उनकी आंखों के इलाज के समय उनकी आंखों पर पट्‌टी बांधी गई थी, तब उन्होंने रंग और भव्यता के सपने देखे थे और 'नवरंग' तथा 'झनक झनक पायल बाजे' उसी का परिणाम है। यह शांताराम का लालन-पालन ही है कि उन्होंने जीवन के उस संकट काल में रंग और भव्यता के स्वप्न देखे अन्यथा सामान्य आदमी तो उन हालात में टूट जाता है या मृत्यु के विचार उसके मन में आते हैं। इसी कारण कहते हैं कि मृत्यु के आने के पहले ही मनुष्य कई बार मर जाता है। मृत्यु का अर्थ होता है और समय तथा स्थान बोध से मुक्ति। अत: इस अर्थ में तो मृत्यु भी सकारात्मक हो जाती है, क्योंकि समाधि की अवस्था के लिए लोग तप करते हैं। ताराशंकर बंधोपाध्याय ने अपने उपन्यास 'आरोग्य निकेतन' में नाड़ी वैद्य नायक के लिए लिखा है, 'वह मृत्युु की पायल की आवाज साफ सुन सकता है, अभी वह खेत के किनारे से चलकर उसकी ओर आ रही है। उसकी पायल की आवाज अब तेज हो गई है अर्थात वह निकट आ गई है।' उस कृति में मृत्यु का विवरण प्रेमिका की तरह किया गया है, जो अभिसार में लीन है। इस तरह की कृतियों को पढ़ने से मौत का भय कम हो जाता है। मौत का काल्पनिक हव्वा उसके यथार्थ से अधिक भयावह हो जाता है। नाड़ी वैद्य न केवल बीमार की नाड़ी देखकर रोग का निदान करते थे वरन् उन्हें आने वाली मृत्यु का भी अनुमान हो जाता था। यह विज्ञान अब लुप्त हो चुका है। नाड़ी आज भी देखी जाती है परंतु उसमें मौत की पायल की ध्वनि सुन पाने वाले लोग नहीं रहे। उस उपन्यास में वैद्य देखता है कि मरीज के माथे पर चंदन का शीतल लेप लगा है परंतु फिर भी माथे पर पसीने की बूंदें देखी जा सकती हैं, तो वह मरीज की पत्नी को सलाह देता है कि उसे मछली का सिर खाना चाहिए, क्योंकि उस दौर में विधवा के लिए मछली का सिर खाने पर पाबंदी थी। कितने सूक्ष्म ढंग से कितनी बड़ी बात की अभिव्यक्ति हुई है। ताराशंकर की 'गणदेवता' पर फिल्म बन चुकी है परंतु 'आरोग्य निकेतन' अभी तक फिल्माई नहीं गई है।

विजय माल्या का प्रकरण दरअसल, उस रोग का लक्षण मात्र है, जिसने हमारी बैंकिंग प्रणाली की कमजोरी को उजागर किया है। आम आदमी के जूते घिस जाते हैं, जब वह कर्ज की अर्जी लगाता है परंतु विजय माल्या की तरह अनेक बड़े उद्योगपति बैंक से लिए कर्ज पर चलते हैं और उद्योग में घाटा होने पर वह कर्ज डुबा दिया जाता है। कर्ज के कारण किसानों की आत्महत्या की लंबी शृंखला है और अब तक उसका कोई समाधान नहीं हुआ है। कर्ज प्राप्त करने की प्रक्रिया में दी गई रिश्वत भी कर्ज के भार को असहनीय बना देती है। कर्ज वसूल करने के तरीकों में उस समय दी गई रिश्वत की वापसी पर भी गौर किया जाना चाहिए। यह कितने दुख और चिंता की बात है कि किसान और छात्र आत्महत्या कर रहे हैं। 2012 में आठ लाख लोगों ने आत्महत्या की है। देश की रीढ़ की हड्‌डी ही चटक रही है और देश के तारणहार जादू-टोना और टोटकों में ही लगे हैं तथा न तो किसान व छात्र आत्महत्याओं का सामाजिक अध्ययन हो रहा है और न ही उपचार के बारे में सोचा जा रहा है। हमारी पूरी व्यवस्था की ही शल्य चिकित्सा की जानी चाहिए। आम आदमी भी अपने आपको बरी नहीं कर सकता। वह इस मुकदमे में गवाह के कटघरे में नहीं खड़ा हैवरन वह मुजरिम भी है। हम नारेबाजी और हुल्लड़बाजों से क्यों प्रभावित हैं? दरअसल, व्यवस्था ने डर की अदृश्य चादर सब ओर फैला दी है। हर आदमी अपनी पीठ पर लहराते खंजर को महसूस कर सकता है। समाज बीमार है और यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है परंतु इस दौर के डॉक्टर ही सबसे अधिक बीमार हैं। इंदू श्रीवास्तव की 'पहल' में प्रकाशित रचना की कुछ पंक्तियां हैं : 'कई मजबूर बैठे हैं कई लाचार बैठे हैं तुम्हें रंगीनियां सूझी है सब बेजार बैठे हैं।'