धनवा पियर भइलें मनवा पियर भइलें / विद्यानिवास मिश्र
धान पियरा गया और 'धाना' (ग्राम-प्रेयसी) का मन भी पियरा गया है, धानी सारी अब उसे नहीं सुहाती। मघा में पछुआ की हहकाई ने माघ में घनघोर पाले की नोटिस भी दे दी है। मन पीला न हो तो क्या?'धनिया' का 'बलमु' परदेस गया हुआ है, परदेसिया न बने तो रोटी-कपड़ा कहाँ से चले? दशहरे-दिवाली में गाँव में राम-लीला और भरत मिलाप देखने वह इस वर्ष भी आएगा कौन जाने सदा की भाँति इस साल भी धानी रंग की साड़ी लाने वाला हो, इसलिए जाँत के स्वर में अपना झीना स्वर डुबाते हुए भोर के बयार के द्वारा ग्राम-प्रेयसी संदेश भेजती हैं - 'ए राजा ल अइह धानी के सरियान धानी, धनवा पियर भइलें मनवा पियर भइलें। अब जब धान ही पीला पड़ गया तो 'धाना' को धानी साड़ी कहाँ सुहाने लगी? उसका तन-मन-धन धान में मिलकर एकाकार हो गया है, वह दूर बसे प्रियतम के उठाह पर पानी फेर सकती है, पर अपने 'धानापन' से लगाव कैसे तोड़े? गीत लहरा रहा है, कुआर की ओस लदी बयार थर्रा रही है - 'मनवा पियर भइलें'।
जाँत की चक्की की चुरुर-मुरुर से दूर कालजुगी देवताओं की हवाचक्की बोल रही है - यह आकाशवाणी है। भारत की खाद्य-स्थिति सुधर गई है। 1952 तक भारत स्वावलंबी हो जाएगा। खाद्य-मोरचे पर हमारा अभियान सफल रहा… हाँ, जरूर सफल रहा, तभी तो सुबह-शाम सावन के नजारों के गीत सुनाए जा रहे हैं, पपीहे की पुकार गुंजाई जा रही है और 'बादल', 'बरसात', 'काली घटा' की लरज छाई जा रही है। आखिर आकाशवाणी को दुख दैन्य से क्या लेना देना? आकाशवाणी देवता की वाणी है, देवता का शरीर ही है सुख-भोग के लिए, पीड़ा की रंगीनी के लिए तो है ही नही।
पर जाँत की चक्की हवा में हलती नहीं, वह तो जमीन पर चलती है, उसके राग में हवा का हलकापन नहीं, उसमें तो धरती का भारीपन है। धरती में जीने-मरने वाले पृथ्वी-पुत्रों की व्यथा के भार से वह चक्की दबी हुई है, उस की कंठध्वनि उस व्यथा की कंठध्वनि है। वह कंठध्वनि धरती में ही खो जाने वालो की कंठध्वनि है, गगन में विहरण करने वालों की कंठध्वनि बनने का वह कभी दावा नहीं करती। वह कंठध्वनि धरती से पुरस्कार नहीं माँगती, निर्ममता के साथ वह अपना मिहनताना नहीं वसूलती और न अपने को फैलाने और विश्व को कँपाने का दम भरती है। वह सूखती धरती को स्वर-सिंचन देती है,सोई मिट्टी को साँस देती है और खोई आत्मा को ध्वनि की राह देती है। आकाशवाणी की पहुँच पंचायत विभाग के बावजूद भी शहर गली पान की दुकान से आगे नहीं हो सकी, पर इस चक्की की ध्वनि कण कण में समाई हुई है। उसमें चहक न हो, पर जनसमूह के अंतर्मन की लहक तो है ही, नहीं तो भोजपुरी देहात की वेदना कलकतिया दरबान या झरिया के कोयल-कुली या मोरंग के आराकश या बम्बइया भइया के हृदय में एक साथ कैसे गूँजती? मीलों का अंतर होते हुए भी धान की 'पियरई' उनकी आँखों में कैसे छा पाती? धान की 'पिरयई' उनके लिए कुछ अर्थ रखती है। उसकी पहली माँग है, शहर की महँगी में पैट काट कर कुछ अधिक पैसे जुटाने का दमतोड़ परिश्रम। उस परिश्रम का मतलब है मौत को नेवता देना।...
मौन? मौत तो बुरी चीज नहीं है। जनसंख्या की बेथाम्ह बढ़ती पर रोक ही न लगेगी, इन घने बसे जनपदों में चार मुँह खाने वाले और कम होंगे। हाँ, पर ये चार मुँह खाने वाले ही नहीं ये अपने पंचगुने मुँहों को खिलाने वाले भी हैं। उनकी मौत की अर्थ इन जनपदों का उजड़ना है। मंत्री लोग कहेंगे स्थिति इतनी भयावह नहीं है, यह तो केवल जमींदारी के उन्मूलन तक रहेगी, उसके बाद सुराज आ जाएगा। आखिर मनु ने जो लिखा था 'महतो देवता हयोंषा नररूपेण निष्ठति' यह मनुष्य के रूप में बहुत बड़ा देवता हैं वह इन मंत्रियों के लिए ही तो। उस देवता का अपमान मामूली पाप है? उसे पद्य, अर्ध्य और आचमीय न देकर गँवई के डीह-डाबर पर बेला-कुबेला गीले गातों का दूध चढ़ाना उसका घोर अपमान है। देवता कभी अपने विद्राहो को क्षमा करता है? सो भी ऐसे विद्रोही को जिसके जीवन का युगों-युगों से विद्रोह ही महामंत्र रहा है।
सो देवता की दृष्टि भी इन पूर्वी जनपदों से (गोरखपुर, देवरिया, आजमगढ़, गाजीपुर, बलिया, बस्ती) फिर गई है। देवता इधर आते भी कम हैं पर हाँ एक बात है, ये देवता अमर नहीं है, ये तो पनसाला हैं हर पाँच बाद इनकी फेरी बदलती रहती है, इसलिए दूसरी फेरी में फिर घुसने के लिए शायद अब राजगद्दी से उतर कर इधर भी रीझने-रिझाने आएँगे। किंतु फूल-अक्षत उन्हें नहीं मिलेगा। फूल मुरझा गए हैं,अक्षत क्षत-विक्षत हो उठा है, धान में बाली ही नहीं आने वाली है, वहाँ से धान नहीं निकलेगा और उस धान में से कूटकर चावल तो और भी नहीं! उन्हें मिलेगा अपनी उपेक्षा में विहँसने वाला गान - 'ले आइह धाना के सरिया न धानी, (अपनी धन्या के लिए धानी साड़ी न लाना) जनरागिनी की यह आत्म-उपेक्षा इसलिए इतनी तीव्र है कि उसके आस-पास का 'पर' दु:खी है। अपने सुख से जग का सुख मापने वाली प्रतिभा इस जनरागिनी को मिली ही नहीं, यह उसका बहुत बड़ा दुर्भाग्य है। किसी ने कहा है 'आगम का अज्ञान ईश का परम अनुग्रह' 'ईश के इस परम अनुग्रह' से इन हत भागे जनपदों को अंतर्वाणी वंचित है,लुभावनी आत्मवंचना की प्रसादी उसे कभी मिली नहीं, इसीलिए 'स्वर्णधूलि' का स्वप्न भी वह नहीं देख पाती, वह तो बस 'आगम' के अँधेरे की चिंता में डूबती चली जा रही है।… 'मनवा पियर भइलें।ʼ
मन पीला हो गया है, कदंब की डाल में कजली की तान नहीं उमड़ी, कहीं इसलिए तो नहीं पीला हुआ है। कजली की तान का क्या दोष, उसे उमड़ाने वाले कजरोर बादल तो इंद्रपुरी में गोरे वाली अप्सराओं के नृत्य देखने के लिए अटके रहे, उन्हें काली कजली की सुधि खो गई। घनश्याम की सुधि लिए भादों की कृष्णाअष्टमी तो आई, पर अपनी अवधि पर आने वाले श्याम घन नहीं आए। धनश्याम से श्यामघन का जब नाता ही टूट गया, तब भला घनश्याम की दुलारी कजली भवानी हो क्यों उमगने लगीं। कजली की 'हरी हरी' तान नहीं मिली, इससे मन की हरियाली को पियराते ही बना। बादल ऐसे दगाबाज कि इंद्र की बधूटियों को भी सरसाना उन्हें भूल गया। इंद्र-बधूटियों की लाली भी नहीं छा पाई, ग्राम-बधटियों ने हाथ-पाँव में इसी समवेदना में मेंहदी की लाली नहीं रची, क्योंकि दोनों ही तो 'बीर बहूटियाँ'हैं एक दूसरे से इतना भी स्नेह न हो। हाँ, दोनों के 'बीर' एक दूसरे से विलग चाहे हों। वे विलग हैं भी। उनके 'बीर' रमते ही हैं, खटते नहीं, पर इनके बीर खटते हैं, तब कहीं एकाध पल रम भी लेते हैं। उनके'बीर' को उनी व्याथा की परवाह न होगी, पर इनके 'बीर' इनकी व्याथा के दहकते अक्षर दूर से पढ़कर सुलगते होंगे। उस सुलगाव की आशंका में इनका जितना मन पीला पड़ गया है, अपने दुख में उतना नहीं।
असाढ़ में पहला डौंगरा बड़ी आशा ले के आया, सावन में धूल उड़ने लगी और भादों आए, उसके पहले ही कुआर आ गया, सूना अनंत आकाश लिए हुए और उजले बादलों की छितरान लिए हुए। अलका की ओर जाते हुए मेघ के दर्शन हुए पर वहाँ से उनके लौटानी दर्शन नहीं मिले, जाने कहाँ विलम गए,किस घाटी में अटक गए? इसका पता-थाह लेने भी कौन जाए, आसमानी लोगों का सदा से यही रवेया रह है। वे पृथ्वी से कर उगाहते हैं पर कौन उनसे पूछने जाए कि उतनी ही मात्रा मं अपना अन्रग्रह भी वे बरसाते हैं? समता और न्याय से भी उनको कुछ लेना-देना हो तो वे अपनी दायित्व समझें, वे तो बस किसी से छीन कर किसी दूसरे को देना जानते हैं, अपने आदान में सर्वग्राही बन जाते हैं, पर अपने दान में मनचाही छूट चाहते हैं। यही उनका बड़प्पन है। 'मधुकर सरिस संत गुन गहहीं' वे रस तो सब जगह से ले लेते हैं पर देते उसी को हैं, जो उनकी दृष्टि में उसका पात्र है। मधुकर की भी तो जाती आसमानी है। कभी-कभी वे नीर-क्षीर विवेक में हँस भी बन जाते हैं, ऊँचे मानसरोवर में पैरते हुए वे सृष्टि-रचियता के वाहन बनकर ऊँची-ऊँची बात भी करने लगते हैं। वे नीर नहीं छूते, बस क्षीर पीते हैं - क्षीर जो रक्त का ही एक रूपांतर है - क्षीर न मिले तो क्षीर जिससे बनता है, उसे भी पी लेते हैं, पर नीर नहीं लेते। आखिर पानी से परहेज न करें तो उनका पानी न चला जाए?
हँस पानी छोड़ देता है, उच्चवर्गीय सहित्यकार भी नीरस पानी साधारण लोगों के लिए छोड़ देता है,सरोवर के कमलों पर जीने वाला हंस इतनी दया तो दिखाता ही है। परंतु आकाश के मेघ, और धरती के'परजन्य' जनता के शासक तो धरती का पानी उगाह कर, धरती का रक्त उगाह कर, धरती का रस उगाह कर, धरती का मधु उगाह कर और धरती का दूध उगाह कर पानी की एक बूँद भी नहीं देना चाहते। वे अपना संचित संभार निभृत कोनों में चोरी-चोरी लुटाते रहते हैं। इसी में उनकी 'परजन्यता'सिद्ध होती है। धान पियराए या मन पियराए, इससे उनके ऊपर कोई असर नहीं पड़ता। उनके आस-पास मोर नाचते रहते हैं, वे उसी में आत्मविभोर रहते है, उन्हें कुररी का विलाप सुनाई नहीं पड़ता।
पर कृषिकुररी विलख रही है और शेषशायी की चौमासी नींद उस क्रंदन से भंग होके रहेगी। धान पीला पड़ेगा तो धान के मन में बसे हुए कृषि देवता का भी हरित मन पीला पड़ेगा। उस विराट मन की विराट पीतिमा कुछ रंग लाके रहेगी।
- मार्गशीर्ष 2007, देवरिया