धनिया की साड़ी / भैरवप्रसाद गुप्त
लड़ाई का ज़माना था, माघ की एक साँझ। ठेलिया की बल्लियों के अगले सिरों को जोडऩे वाली रस्सी से कमर लगाये रमुआ काली सडक़ पर खाली ठेलिया को खडख़ड़ाता बढ़ा जा रहा था। उसका अधनंगा शरीर ठण्डक में भी पसीने से तर था। अभी-अभी एक बाबू का सामान पहुँचाकर वह डेरे को वापस जा रहा था। सामान बहुत ज़्यादा था। उसके लिए अकेले खींचना मुश्किल था, फिर भी, लाख कहने पर भी, बाबू ने जब नहीं माना, तो उसे पहुँचाना ही पड़ा। सारी राह कलेजे का ज़ोर लगा, हुमक-हुमककर खींचने के कारण उसकी गरदन और कनपटियों की रगें मोटी हो-हो उभरकर लाल हो उठी थीं, आँखें उबल आयी थीं और इस-सबके बदले मिले थे उसे केवल दस आने पैसे!
तर्जनी अँगुली से माथे का पसीना पोंछ, हाथ झटककर उसने जब फिर बल्ली पर रखा, तो जैसे अपनी कड़ी मेहनत की उसे फिर याद आ गयी।
तभी सहसा पों-पों की आवाज़ पास ही सुन उसने सर उठाया, तो प्रकाश की तीव्रता में उसकी आँखें चौंधिया गयीं। वह एक ओर मुड़े-मुड़े कि एक कार सर्र से उसकी बग़ल से बदबूदार धुआँ छोड़ती हुई निकल गयी। उसका कलेजा धक-से रह गया। उसने सर घुमाकर पीछे की ओर देखा, धुएँ के पर्दे से झाँकती हुई कार के पीछे लगी लाल बत्ती उसे ऐसी लगी, जैसे वह मौत की एक आँख हो, जो उसे गुस्से में घूर रही हो। ‘हे भगवान्!’ सहसा उसके मुँह से निकल गया, ‘कहीं उसके नीचे आ गया होता, तो?’ और उसकी आँखों के सामने कुचलकर मरे हुए उस कुत्ते की तस्वीर नाच उठी, जिसका पेट फट गया था, अँतड़ियाँ बाहर निकल आयी थीं, और जिसे मेहतर ने घसीटकर मोरी के हवाले कर दिया था। तो क्या उसकी भी वही गत बनती? और जि़न्दा रहकर, दर-दर की ठोकरें खानेवाला और बात-बात पर डाँट-डपट और भद्दी-भद्दी गालियों से तिरस्कृत किये जाने वाला इन्सान भी अपने शव की दुर्गति की बात सोच काँप उठा, ‘ओफ़! यहाँ की मौत तो जि़न्दगी से भी ज्यादा जलील होगी!’ उसने मन-ही मन कहा और यह बात खयाल में आते ही उसे अपने दूर के छोटे-से गाँव की याद आ गयी। वहाँ की जि़न्दगी और मौत के नक्शे उसकी आँखों में खिंच गये। जि़न्दगी वहाँ की चाहे जैसी भी हो, पर मौत के बाद वहाँ के ज़लीलतरीन इन्सान के शव को भी लोग इज़्ज़त से मरघट तक पहुँचाना अपना फ़जऱ् समझते हैं! ओह, वह क्यों गाँव छोडक़र शहर में आ गया? लेकिन गाँव में ...
‘‘ओ ठेलेवाले!’’ एक फ़िटन-कोचवान ने हवा में चाबुक लहराते हुए कडक़कर कहा, ‘‘बायें से नहीं चलता? बीच सडक़ पर मरने के लिए चला आ रहा है? बायें चल, बायें!’’ और हवा में लहराता हुआ उसका चाबुक बिलकुल रमुआ के कान के पास से सन सनाहट की एक लकीर-सा खींचता निकल गया।
विचार-सागर में डूबे रमुआ को होश आया। उसने शीघ्रता से ठेलिया को बायीं ओर मोड़ा।
लेकिन रमुआ की विचार-धारा फिर अपने गाँव की राह पर आ लगी। वहाँ ऐसी जि़न्दगी का आदी न था। जोतता, बोता, पैदा करता और खाता था। फिर उसे वे सब बातें याद हो आयीं, जिनके कारण उसे अपना गाँव छोडक़र शहर में आना पड़ा। लड़ाई के कारण ग़ल्ले की क़ीमत अठगुनी-दसगुनी हो गयी। गाँव में जैसे खेतों का अकाल पड़ गया। ज़मींदार ने अपने खेत ज़बरदस्ती निकाल लिये। कितना रोया-गिड़गिड़ाया था वह! पर जमींदार क्यों सुनने लगा कुछ? कल का किसान आज मज़दूर बनने को विवश हो गया। पड़ोस के धेनुका के साथ वह गाँव में अपनी स्त्री धनिया और बच्चे को छोड़, शहर में आ गया। यहाँ धेनुका ने अपने सेठ से कह-सुनकर उसे यह ठेलिया दिलवा दी। वह दिन-भर बाबू लोगों का सामान इधर-उधर ले जाता है। ठेलिया का किराया बारह आने रोज़ उसे देना पड़ता है। लाख मशक़्कत करने पर भी ठेलिया का किराया चुकाने के बाद डेढ़-दो रुपये से अधिक उसके पल्ले नहीं पड़ता। उसमें से बहुत किफ़ायत करने पर भी दस-बारह आने रोज़ वह खा जाता है। वह कोई ज़्यादा रक़म नहीं होती। पता नहीं, ग़रीब धनिया इस महँगी के ज़माने में कैसे अपना खर्च पूरा कर पाती है।
और धनिया, उसके सुख-दुख की साथिन! उसकी याद आते ही रमुआ की आँखें भर आयीं। कलेजे में एक हूक-सी उठ आयी। उसकी चाल धीमी हो गयी। उसे याद हो आयी बिछुडऩ की वह घड़ी, किस तरह धनिया उससे लिपटकर, बिलख-बिलखकर रोयी थी, किस तरह उसने बार-बार मोह और प्रेम से भरी ताक़ीद की थी कि अपनी देह का ख़ याल रखना, खाने-पीने की किसी तरह की कमी न करना। और रमुआ की निगाह अपने-ही-आप अपने बाज़ुओं से होकर छाती से गुज़रती हुई रानों पर जाकर टिक गयी, जिनकी माँस-पेशियाँ घुल गयी थीं और चमड़ा ऐसे ढीला होकर लटक गया था, जैसे उसका माँस और हड्डियों से कोई सम्बन्ध ही न रह गया हो। ओह, शरीर की यह हालत जब धनिया देखेगी, तो उसका क्या हाल होगा! पर वह करे क्या? रूखा-सूखा खाकर, इतनी मशक्कत करनी पड़ती है। हुमक-हुमककर दिन-भर ठेलिया खींचने से माँस जैसे घुल जाता है और खून जैसे सूख जाता है। और शाम को जो रूखा-सूखा मिलता है, उससे पेट भी नहीं भरता। फिर गयी ताक़त लौटे कैसे? जब धनिया उससे पूछेगी, सोने की देह माटी में कैसे मिल गयी, तो वह उसका क्या जवाब देगा? कैसे उसे समझाएगा? जब-जब उसकी चिट्ठी आती है, वह हमेशा ताक़ीद करती है कि अपनी देह का ख़ याल रखना। कैसे वह अपनी देह का ख़ याल रखे? इतना कतर-ब्योंतकर चलने पर तो यह हाल है। आज करीब नौ महीने हुए उसे आये। धनिया के शरीर पर वह एक साड़ी और एक झूला छोडक़र आया था। वह बार-बार चिठ्ठी में एक साड़ी भेजने की बात लिखवाती है। उसकी साड़ी तार-तार हो गयी होगी। झूला कब का फट गया होगा। पर वह करे क्या? कई बार कुछ रुपया जमा हो जाने पर एक साड़ी खरीदने की गरज़ से वह बाज़ार में भी जा चुका है। पर वहाँ मामूली जुलहटी साड़ियों की कीमत जब बारह-चौदह रुपये सुनता है, तो उसकी आँखें ललाट पर चढ़ जाती हैं। मन मारकर लौट आता है। वह क्या करे? कैसे साड़ी भेजे धनिया को? साड़ी खरीदकर भेजे, तो उसके खर्चे के लिए रुपये कैसे भेज सकेगा? पर ऐसे कब तक चलेगा? कब तक धनिया सी-टाँककर गुज़ारा करेगी? उसे लगता है कि यह एक ऐसी समस्या है, जिसका उसके पास कोई हल नहीं है। तो क्या धनिया ... और उसका माथा झन्ना उठता है। लगता है कि वह पागल हो उठेगा। नहीं, नहीं, वह धनिया की लाज ...
उसकी गली का मोड़ आ गया। इस गली में ईंटें बिछी हैं। उन पर ठेलिया और ज़ोर से खडख़ड़ा उठी। उसकी खडख़ड़ाहट उस समय रमुआ को ऐसी लगी, जैसे उसके थके, परेशान दिमाग़ पर कोई हथौड़े की चोट कर रहा हो। उसके शरीर की अवस्था इस समय ऐसी थी, जैसे उसकी सारी संजीवनी-शक्ति नष्ट हो गयी हो। और उसके पैर ऐसे पड़ रहे थे, जैसे वे अपनी शक्ति से नहीं उठ रहे हों, बल्कि ठेलिया ही उनको आगे को लुढक़ाती चल रही हो।
उस दिन से रमुआ ने और अधिक मेहनत करना शुरू कर दिया। पहले भी वह कम मेहनत नहीं करता था, पर थक जाने पर कुछ आराम करना ज़रूरी समझता था। किन्तु अब थके रहने पर भी अगर कोई उसे सामान ढोने को बुलाता, तो वह ना-नुकर न करता। खुराक में भी जहाँ तक मुमकिन था, कमी कर दी। यह सब सिर्फ़ इसलिए कर रहा था कि धनिया के लिए वह एक साड़ी खरीद सके।
महीना ख़ त्म हुआ, तो उसने देखा कि इतनी तरूद्दद और परेशानी के बाद भी वह अपनी पहले की आय में सिर्फ़ चार रुपये अधिक जोड़ सका है। यह देख उसे आश्चर्य के साथ घोर निराशा हुई। इस तरह वह पूरे तीन-चार महीनों मेहनत करे, तब कहीं एक साड़ी का दाम जमा कर पाएगा। पर इस महीने के जी-तोड़ परिश्रम का उसे जो अनुभव हुआ था, उससे यह बात तय थी कि वह ऐसी मेहनत अधिक दिनों तक लगातार करेगा, तो एक दिन खून उगलकर मर जायगा। उसने तो सोचा था कि एक महीने की बात है, जितना मुमकिन होगा, वह मशक्कत करके कमा लेगा और साड़ी खरीदकर धनिया को भेज देगा। पर इसका जो नतीजा हुआ, उसे देखकर उसकी हालत वही हुई, जो रेगिस्तान के उस प्यासे मुसाफ़िर की होती है, जो पानी की तरह किसी चमकती हुई चीज़ को देखकर थके हुए पैरों को घसीटता हुआ, और आगे चलने की शक्ति न रहते भी सिर्फ़ इस आशा से प्राणों का ज़ोर लगाकर बढ़ता है कि बस, वहाँ तक पहुँचने में चाहे जो दुर्गति हो जाय, पर वहाँ पहुँच जाने पर जब उसे पानी मिल जायगा, तो सारी मेहनत-मशक्कत सुफल हो जायगी। किन्तु जब वहाँ किसी तरह पहुँच जाता है, तो देखता है कि अरे, वह चीज़ तो अभी उतनी ही दूर है। निदान, रमुआ की चिन्ता बहुत बढ़ गयी। वह अब क्या करे, उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। कई महीने से वह धनिया को बहलाता आ रहा था कि अब साड़ी भेजेगा, तब साड़ी भेजेगा, पर अब उसे लग रहा है कि वह धनिया को कभी भी साड़ी न भेज सकेगा। उसे अपनी दुरावस्था और बेबसी पर बड़ा दुख हुआ। साथ ही अपनी जि़न्दगी उसे वैसे ही बेकार लगने लगी, जैसे घोर निराशा में पडक़र किसी आत्महत्या करनेवाले को लगती है। फिर भी जब धनिया को रुपये भेजने लगा, तो अपनी आत्मा तक को धोखा दे उसने फिर लिखवाया कि अगले महीने वह ज़रूर साड़ी भेजेगा। थोड़े दिनों तक वह और किसी तरह गुज़ारा कर ले।
उस सुबह रमुआ अपनी ठेलिया के पास खड़ा जँभाई ले रहा था कि सेठ के दरबान ने आकर कहा, ‘‘ठेलिया लेकर चलो। सेठजी बुला रहे हैं।’’
बेगार की बात सोच रमुआ ने दरबान की ओर देखा। दरबान ने कहा, ‘‘इस तरह क्या देख रहे हो! सेठजी की भैंस मर गयी है। उसे गंगाजी में बहाने ले जाना है। चलो, जल्दी करो!’’
वैसे निषिद्घ काम की बात सोच उसे कुछ क्षोभ हुआ। गाँव में मरे हुए जानवरों को चमार उठाकर ले जाते हैं। वह चमार नहीं है। वह यह काम नहीं करेगा। पर दूसरे ही क्षण उसके दिमाग़ में यह बात भी आयी कि वह सेठ का ताबेदार है। उसकी बात वह टाल देगा, तो वह अपनी ठेलिया उससे ले लेगा। फिर क्या रहेगा उसकी जि़न्दगी का सहारा? मरता क्या न करता? वह ठेलिया को ले दरबान के पीछे चल पड़ा।
कोठी के पास पहुँचकर रमुआ ने देखा कि कोठी की बग़ल में टीन के छप्पर के नीचे मरी हुई भैंस पड़ी है और उसे घेरकर सेठ, उसके लडक़े, मुनीम और नौकर-चाकर खड़े हैं, जैसे उनका कोई अज़ीज़ मर गया हो। ठेलिया खड़ी कर, वह खिन्न मन लिये खड़ा हो गया।
उसे आया देख , मुनीम ने सेठ की ओर मुडक़र कहा, ‘‘सेठजी, ठेलिया आ गयी। अब इसे जल-प्रवाह के लिए उठवाकर ठेलिया पर रखवा देना चाहिए।’’
‘‘हाँ, मुनीमजी तो इसके कफ़न बगैरा का इन्तज़ाम करा दें। मेरे यहाँ इसने जीवन-भर सुख किया। अब मरने के बाद इसे नंगी ही क्या जल-प्रवाह के लिए भेजा जाय। मेरे विचार से बिछाने के लिए एक नयी दरी और ओढ़ाने के लिए आठ गज़ मलमल काफ़ी होगी। जल्द दुकान से मँगा भेजें।’’
देखते-ही देखते उसकी ठेलिया पर नयी दरी बिछा दी गयी। उसे देखकर रमुआ की धँसी आँखों में जाने कितने दिनों की एक पामाल हसरत उभर आयी। सहज ही उसके मन में उठा, ‘काश, वह उस पर सो सकता!’ पर दूसरे ही क्षण इस अपवित्र खयाल के भय से जैसे वह काँप उठा। उसने आँखें दूसरी ओर मोड़ लीं।
कई नौकरों ने मिलकर भैंस की लाश उठा दरी पर रख दी। फिर उसे मलमल से अच्छी तरह ढँक दिया गया। इतने में एक खैरख़्वाह नौकर सेठजी की बगिया से कुछ फूल तोड़ लाया। उनका एक हार बना भैंस के गले में डाल दिया गया और कुछ इधर-उधर उसके शरीर पर बिखेर दिये गये।
यह सब-कुछ हो जाने पर सेठ के बड़े लडक़े ने रमुआ की ओर मुडक़र कहा, ‘‘देखो, इसे तेज़ धारा में ले जाकर छोडऩा और जब तक यह धारा में बह न जाय, तब तक न हटना, नहीं तो कोई इसके क़फ़न पर हाथ साफ़ कर देगा।’’
उसकी बात सुनकर नमकहलाल मुनीम ने रद्दा जमाया, ‘‘हाँ, बे रमुआ, बाबू की बात का ख़ याल रखना!’’
रमुआ को लगा, जैसे वह बातें उसे ही लक्ष्य करके कही गयी हों। कभी-कभी ऐसा होता है कि जो बात आदमी के मन में कभी स्वप्न में भी नहीं आती, वही किसी के कह देने पर ऐसे मन में उठ जाती है, जैसे सचमुच वह बात पहले ही से उसके मन में थी। रमुआ के ख़ याल में भी यह बात नहीं थी कि वह कफ़न पर हाथ लगाएगा, पर मुनीम की बात सुन सचमुच उसके मन में यह बात कौंध गयी कि क्या वह भी ऐसा कर सकता है?
वह इन्हीं विचारों में खोया हुआ ठेलिया उठा आगे बढ़ा। अभी थोड़ी ही दूर सडक़ पर चल पाया था कि किसी ने पूछा, ‘‘क्यों भाई, यह किसकी भैंस थीं?’’
रमुआ ने आगे बढ़ते हुए कहा, ‘‘सेठ गुलजारी लाल की!’’
उस आदमी ने कहा, ‘‘तभी तो! भाई, बड़ी भागवान थी यह भैंस! नहीं तो आजकल किसे नसीब होता है मलमल का कफ़न!’’
रमुआ के मन में उसकी बात सुनकर उठा कि क्या सचमुच मलमल का कफ़न इतना अच्छा है? उसने अभी तक उसकी ओर निगाह नहीं उठायी थी, यही सोचकर कि कहीं उसे देखते देखकर सेठ का लडक़ा और मुनीम यह न सोचें कि वह ललचायी आँखों से कफ़न की ओर देख रहा है। उसकी नीयत ख़ राब मालूम होती है। पर वह अब अपने को न रोक सका। चलते हुए ही उसने एक बार अगल बग़ल देखा, फिर पीछे मुडक़र भैंस पर पड़े कफ़न को उड़ती हुई नज़र से ऐसे देखा, जैसे वह कोई चोरी कर रहा हो।
काली भैंस पर पड़ी सफ़ेद मलमल, जैसे काली दूब के एक चप्पे पर उज्ज्वल चाँदनी फैली हुई हो। ‘सचमुच यह तो बड़ा उम्दा कपड़ा मालूम देता है’ उसने मन में ही कहा।
कई बार यह बात उसके मन में उठी, तो सहज ही उसे उन झिलँगी साड़ियों की याद आ गयी, जिन्हें वह बाज़ार में देख चुका था और जिनकी क़ीमत बारह-चौदह से कम न थी। उसने उन साड़ियों का मुक़ाबला मलमल के उस कपड़े से जब किया, तो उसे वह मलमल बेशक़ीमती जान पड़ा। उसने फिर मन में ही कहा, ‘इस मलमल की साड़ी तो बहुत ही अच्छी होगी।’ और उसे धनिया के लिए साड़ी की याद आ गयी। फिर जैसे इस कल्पना से ही वह काँप उठा। ओह, कैसी बात सोच रहा है वह! जीते-जी ही धनिया को कफ़न की साड़ी पहनाएगा? नहीं-नहीं, वह ऐसा सोचेगा भी नहीं! ऐसा सोचना भी अपशकुन है। और इस ख़ याल से छुटकारा पाने के लिए वह अब और ज़ोर से ठेलिया खींचने लगा।
अब आबादी पीछे छूट गयी थी। सूनी सडक़ पर कहीं कोई नज़र नहीं आ रहा था। अब जाकर उसने शान्ति की साँस ली। जैसे अब उसे किसी की अपनी ओर घूरती आँखों का डर न रह गया हो। ठेलिया कमर से लगाये ही वह सुस्ताने लगा। तेज़ चलने में जो ख़ याल पीछे छूट गये थे, जैसे वे फिर उसके खड़े होते ही उसके मस्तिष्क में पहुँच गये। उसने बहुत चाहा कि वे खयाल न आएँ। पर ख़ यालों का यह स्वभाव होता है कि जितना ही आप उनसे छुटकारा पाने का प्रयत्न करेंगे, वे उतनी ही तीव्रता से आपके मस्तिष्क पर छाते जायँगे। रमुआ ने अन्य कितनी ही बातों में अपने को बहलाने की कोशिश की, पर फिर-फिर उन्हीं ख़ यालों से उसका सामना हो जाता। रह-रहकर वही बातें पानी में तेल की तरह उसकी विचार-धारा पर तैर जातीं। लाचार वह फिर चल पड़ा। धीरे-धीरे रफ़्तार तेज़ कर दी। पर अब ख़ यालों की रफ़्तार जैसे उसकी रफ़्तार से भी तेज़ हो गयी थी। तेज़ रफ़्तार से लगातार चलते-चलते उसके शरीर से पसीने की धाराएँ छूट रही थीं, छाती फूल रही थी, चेहरा सुर्ख हो गया था, आँखें उबल रही थीं और गर्दन और कनपटियों की रगें फूल-फूलकर उभर आयी थीं। पर उसे उन-सब का जैसे कुछ ख़ याल ही नहीं था। वह भागा जा रहा था कि जल्द-से-जल्द नदी पहुँच जाय और भैंस की लाश धारा में छोड़ दे। तभी उसे उस अपवित्र विचार से, उस धर्म-संकट से मुक्ति मिलेगी।
अब सडक़ नदी के किनारे-किनारे चल रही थी। उसने सोचा, क्यों न कगार पर से ही लाश नदी की धारा में लुढक़ा दे। पर दूसरे ही क्षण उसके अन्दर से कोई बोल उठा, अब जल्दी क्या है? नदी आ गयी। थोड़ी दूर और चलो। वहाँ कगार से उतरकर बीच धारा में छोडऩा। वह आगे बढ़ा। पर बीच धारा में छोडऩे की बात क्यों उसके मन में उठ रही है? क्यों नहीं वह उसे यहीं छोडक़र अपने को कफ़न के लोभ से, उस अपवित्र ख़ याल से मुक्त कर लेता? शायद इसलिए कि सेठ के लडक़े ने ऐसा ही करने को कहा था। पर सेठ का लडक़ा यहाँ खड़ा-खड़ा देख तो नहीं रहा है- फिर ? तो क्या उसे अब उसी वस्तु से, जिससे जल्दी-से-जल्दी छुटकारा पाने के लिए वह भागता हुआ आया है, अब मोह हो गया है? नहीं, नहीं, वह तो ...वह तो ...
अब वह श्मशान से होकर गुज़र रहा था। अपनी झोपड़ी से झाँककर डोमिन ने देखा, तो वह उसकी ओर दौड़ पड़ी। पास आकर बोली ‘‘भैया यहीं छोड़ दे न!’’
रमुआ का दिल धक-से कर गया, तो क्या यह बात डोमिन को मालूम है कि वह लाश को इसलिए लिये जा रहा है कि ... नहीं, नहीं! तो?
‘‘भैया, यहाँ धारा तेज़ है, छोड़ दो न यहीं!’’ डोमिन ने फिर विनती की।
हाँ, हाँ, छोड़ दे न! यह मौक़ा अच्छा है। डोमिन के सामने ही, उसे गवाह बनाकर छोड़ दे। और साबित कर दे कि तेरे दिल में वैसी कोई बात नहीं है। रमुआ के दिल ने ललकारा। पर वह योंही डोमिन से पूछ बैठा, ‘‘क्यों, यही क्यों छोड़ दूँ?’’
‘‘तुम्हें तो कहीं-न-कहीं छोडऩा ही है। यहाँ छोड़ दोगे, तो तुम भी दूर ले जाने की मेहनत से छुटकारा पा जाओगे और मुझे ...’’ कहकर वह कफ़न की ओर ललचायी दृष्टि से देखने लगी।
‘‘तुम्हें क्या?’’ रमुआ ने पूछा।
‘‘मुझे यह कफ़न मिल जायगा,’’ उसने कफ़न की ओर अँगुली से इशारा करके कहा।
‘‘कफ़न?’’ रमुआ के मुँह से यों ही निकल गया।
‘‘हाँ-हाँ! कहीं इधर-उधर छोड़ दोगे, तो बेकार में सड़-गल जायगा। मुझे मिल जायगा, तो मैं उसे पहनूँगी। देखते हो न मेरे कपड़े? कहकर उसने अपने लहँगे को हाथ से उठाकर उसे दिखा दिया।’’
‘‘तुम पहनोगी कफ़न?’’ रमुआ ने ऐसे कहा, जैसे उसे उसकी बात पर विश्वास ही न हो रहा हो।
‘‘हाँ-हाँ, हम तो हमेशा कफ़न ही पहनते हैं। मालूम होता है, तुम शहर के रहने वाले नहीं हो। क्या तुम्हारे यहाँ ...’’
‘‘हाँ, हमारे यहाँ तो कोई छूता तक नहीं। कफ़न पहनने से तुम्हें कुछ होता नहीं?’’ रमुआ की किसी शंका ने जैसे अपना समाधान चाहा, पर वह ऐसे स्वर में बोला, जैसे यों ही जानना चाहता हो।
‘‘गरीबों को कुछ नहीं होता, भैया! आजकल तो जमाने में ऐसी आग लगी है कि लोग लाशें नंगी ही लुढक़ा जाते हैं। नहीं तो पहले इतने कफ़न मिलते थे कि हम बाजार में बेच आते थे।’’
‘‘बाजार में बेच आते थे?’’ रमुआ ने ऐसे पूछा, जैसे उसके आश्चर्य का ठिकाना न हो, ‘‘कौन खरीदता था उन्हें?’’
‘‘हमसे कबाड़ी खरीदते थे और उनसे गरीब और मजदूर,’’ उसने कहा।
‘‘गरीब और मजदूर?’’ रमुआ ने कहा।
‘‘हाँ-हाँ , बहुत सस्ता बिकता था न! शहर के गरीब और मजदूर जियादातर वही कपड़े पहनते थे।’’
रमुआ उसकी बात सुन जैसे किसी सोच में पड़ गया।
उसे चुप देख डोमिन फिर बोली, ‘‘तो भैया, छोड़ दो न यहीं। आज न जाने कितने दिन बाद ऐसा कफ़न दिखाई पड़ा है। किसी बहुत बड़े आदमी की भैंस मालूम पड़ती है। तभी तो ऐसा कफ़न मिला है इसे। छोड़ दे, भैया, मुझ गरीब के तन पर चढ़ जायगा। तुम्हें दुआएँ दूँगी!’’ कहते-कहते वह गिड़गिड़ाने लगी।
रमुआ के मन का संघर्ष और तीव्र हो उठा। उसने एक नजर डोमिन पर उठायी, तो सहसा उसे लगा, जैसे उसकी धनिया चिथड़ों में लिपटी डोमिन की बग़ल में आ खड़ी हुई है, और कह रही है, ‘‘नहीं-नहीं, इसे न देना! मैं भी तो नंगी हो रही हूँ! मुझे! मुझे ...’’ और उसने ठेलिया आगे बढ़ा दी।
‘‘क्यों, भैया, तो नहीं छोड़ोगे यहाँ?’’ डोमिन निराश हो बोली।
रमुआ सकपका गया। क्या जवाब दे वह उसे? मन का चीर जैसे उसे पानी-पानी कर रहा था। फिर भी ज़ोर लगाकर मन की बात दबा उसने कहा, ‘‘सेठ का हुकुम है कि इसका कफ़न कोई छूने न पाये।’’ और ठेलिया को इतने ज़ोर से आगे बढ़ाया, जैसे वह इस ख़ याल से डर गया हो कि कहीं डोमिन कह न उठे, हूँ-हूँ! यह क्यों नहीं कहते कि तुम्हारी नीयत खुद खराब है!
काफ़ी दूर बढक़र, यह सोचकर कि कहीं डोमिन कफ़न के लोभ से उसका पीछा तो नहीं कर रही है, उसने मुडक़र चोर की तरह पीछे की ओर देखा। डोमिन एक लडक़े से उसी की ओर हाथ उठाकर कुछ कहती-सी लगी। फिर उसने देखा कि वह लडक़ा उसी की ओर आ रहा है। वह घबरा उठा, तो क्या वह लडक़ा उसका पीछा करेगा?
अब वह धीरे-धीरे, रह-रहकर पीछे मुड़-मुडक़र लडक़े की गति-विधि को ताड़ता चलने लगा। थोड़ी दूर जाने के बाद उसने देखा, तो लडक़ा दिखाई नहीं दिया। फिर जो उसकी दृष्टि झाऊँ के झुरमुटों पर पड़ी, तो शक हुआ कि वह छिपकर तो उसका पीछा नहीं कर रहा है। पर कई बार आगे बढ़ते-बढ़ते देखने पर भी जब उसे लडक़े का कोई चिन्ह दिखाई न दिया, तो वह उस ओर से निश्चिन्त हो गया। फिर भी चौकन्नी नज़रों से इधर-उधर देखता ही बढ़ रहा था।
काफ़ी दूर एक निर्जन स्थान पर उसने नदी के पास ठेलिया रोकी। फिर चारों ओर शंका की दृष्टि से एक बार देखकर उसने कमर से ठेलिया छुड़ा ज़मीन पर रख दी।
अब उसके दिल में कोई दुविधा न थी। फिर भी जब उसने कफ़न की ओर हाथ बढ़ाया, तो उसकी आत्मा की नींव तक हिल उठी। उसके काँपते हाथों को जैसे किसी शक्ति ने पीछे खींच लिया। दिल धड़-धड़ करने लगा। आँखें वीभत्सता की सीमा तक फैल गयीं। उसे लगा, जैसे सामने हवा में हज़ारों फैली हुई आँखें उसकी ओर घूर रही हैं। वह किसी दहशत में काँपता बैठ गया। नहीं, नहीं, उससे यह नहीं होगा! फिर जैसे किसी आवेश में उठ, उसने ठेलिया को उठाया कि लाश को नदी में उलट दे कि सहसा उसे लगा कि जैसे फिर धनिया उसके सामने आ खड़ी हुई है, जिसकी साड़ी जगह-जगह बुरी तरह फट जाने से उसके अंगों के हिस्से दिखाई दे रहे हैं। वह उन अंगों को सिमट-सिकुडक़र छिपाती जैसे बोल उठी, देखो, अबकी अगर साड़ी न भेजी, तो मेरी दशा ...
‘‘नहीं, नहीं!’’ रमुआ हथेलियों से आँखों को ढँकता हुआ बोल उठा और ठेलिया ज़मीन पर छोड़ दी। फिर एक बार उसने चारों ओर शीघ्रता से देखा और जैसे एक क्षण को उसके दिल की धडक़न बन्द हो गयी, उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया, उसका ज्ञान जैसे लुप्त हो गया और उसी हालत में, उसी क्षण उसके हाथों ने बिजली की तेज़ी से कफ़न खींचा, समेटकर एक ओर रखा और ठेलिया उठाकर लाश को नदी में उलटा दिया। तब जाकर जैसे होश हुआ। उसने जल्दी से कफ़न ठेलिया पर रख उसे माथे के मैले गमछे से अच्छी तरह ढँक दिया और ठेलिया उठा तेज़ी से दूसरी राह से चल दिया।
कुछ दूर तक इधर-उधर देखे बिना वह सीधे तेज़ी से चलता रहा। जैसे वह डर रहा था कि इधर-उधर देखने पर कहीं कोई दिखाई न पड़ जाय। पर कुछ दूर और आगे बढ़ जाने पर वह वैसे ही निडर हो गया, जैसे चोर सेंध से दूर भाग जाने पर। अब उसकी चाल में धीरे-धीरे ऐसी लापरवाही आ गयी, जैसे कोई विशेष बात ही न हुई हो, जैसे वह रोज़ की तरह आज भी किसी बाबू का सामान पहुँचाकर खाली ठेलिया को धीरे-धीरे खींचता, अपने में रमा हुआ, डेरे पर वापस जा रहा हो। अपनी चाल में वह वही स्वाभाविकता लाने की भरसक चेष्टा कर रहा था, पर उसे लगता था कि कहीं से वह बेहद अस्वाभाविक हो उठा है और कदाचित उसकी चाल की लापरवाही का यही कारण था कि वह रात होने के पहले शहर में दाख़िल नहीं होना चाहता था।
काफ़ी दूर निकल जाने पर न जाने उसके जी में क्या आया कि उसने पलटकर उस स्थान की ओर एक बार फिर देखा, जहाँ उसने भैंस की लाश गिरायी थी। कोई लडक़ा कोई काली चीज़ पानी में से खींच रहा था। वह फिर बेतहाशा ठेलिया को सडक़ पर खडख़ड़ाता भाग खड़ा हुआ।
उस दिन गाँव में हल्दी में रंगी मलमल की साड़ी पहने धनिया अपने बच्चे को एक हाथ की अँगुली पकड़ाये और दूसरे हाथ में छाक-भरा लोटा कन्धे तक उठाये, जब काली माई की पूजा करने चली, तो उसके पैर असीम प्रसन्नता के कारण सीधे नहीं पड़ रहे थे। उसकी आँखों से जैसे उल्लाल छलका पड़ता था।
रास्ते में न जाने कितनी औरतों और मर्दों ने उसे टोककर पूछा, ‘‘क्यों, धनिया, यह साड़ी रमुआ ने भेजी है?’’
और उसने हर बार शरमायी आँखों को नीचेकर, होंठों पर उमड़ती हुई मुस्कान को बरबस दबाकर, सर हिला जताया, हाँ!