धनिया / गोवर्धन यादव
भिनसारे उठ बैठती धनिया और बाउण्ड्री वाल से चिपकर खड़ी हो जाती। उसकी खोजी नजरें, पहाड़ों की गहराइयों में अपना गाँव खोजने में व्यस्त हो जातीं। गहरे नीले-भूरे रंग के धुंधलके की चादर ताने, जंगल अब तक सो रहा था। इक्का-दुक्का चिडिय़ा फरफरा कर इस झाड़ से उड़ती और दूसरी पर जा बैठती। सोचती, आज तो कड़ाके की ठंड है। पंखों को फुलाकर वह अपने शरीर को गर्माने लगती।
काफी देर बाद सूरज उगा। उनींदा सा। अलसाया सा। थका-थका सा। पीलापन लिए हुए। जंगल में अब भी कोई हलचल नहीं हो रही थी। चारों तरफ सन्नाटा, मौत की सी खामोशी लिए पसरा पड़ा था।
सूरज अब थोड़ा ऊपर उठा। उसकी किरणों में अब तीखापन आने लगा था। धुंधलका अब पिघलने सा लगा था। तिस पर भी गाँव दिखलाई नहीं पड़ा। नजरें गड़ाकर उसने यहाँ वहाँ चलने का प्रयास किया तभी धुएँ की एक पतली सी रेखा आसमान की ओर उठती दिखलाई पड़ी, उसने सहज ही अन्दाजा लगा लिया कि वहीं कहीं आसपास उसका अपना गाँव होगा, तभी एक बड़ी सी चील सरसराती हुई उसके करीब से गुजरी और देखते ही देखते आँखों से ओझल हो गई।
उसे अपनी माँ की याद हो आयी। गर्मी के दिनों में महुआ खूब फलता था। साल भर खाने पुरता इकट्ठा कर लेती वह। फिर आँगन में फैलाकर सुखाती और फिर एक बड़े से मंधुले में भरकर रख देती। जब चारों ओर मूसलाधार बारिश हो रही होती तो वह मिट्टी की हाँडी में पकाती। बापू को दारू पीने का बड़ा शौक था, एक बड़े से मटके में महुआ सड़ाता। फिर आग पर चढ़ाकर पोंगली लगाता। गरमागरम बूंदें नली से टपाटप टपकने लगतीं। जब ढेर सारी इकट्ठी हो जाती तो देवी-देवताओं के नाम चढ़ाना कभी नहीं भूलता।
साँझ के गहरा जाने के साथ ही चांद भी निकल आया। सब लोग धीरे-धीरे एक जगह इकट्ठा होने लगे। बापू आले में से मटका उठा लाता। एक दोना भर दारू उसने देवता पर उड़ेला। फिर बारी-बारी से सभी स्वाद चखने लगे। बूढ़े-मरद, औरतें, यहाँ तक कि बच्चे भी दारू गटकते। जब सिर पर अच्छा खासा नशा सवार हो जाता तो वह टिमकी उठा लाता। कोई झांझर उठा लाता तो कोई तुरही। बापू टिमकी गजब की बजाता है। बीच-बीच में दोहरे डाले जाते और टिमकी की टिमिक-टिमिक पर सभी औरत-मर्द एक दूसरे की कमर में हाथ डाले थिरकने लग जाते। वासना से कोसों मील दूर जनजातियां इसी तरह के उत्सव मनाया करते रहती हैं।
एक दिन माँ आँगन में बैठी, महुआ सुखा रही थी, तभी बच्चों का एक हुजूम हो-हल्ला मचाता हुआ उधर से आ निकला। माँ को अकारण ही क्रोध आ जाता है। वह बच्चों को मारने दौड़ पड़ती है। इस अप्रत्याशित घटना से भीड़ बिदक जाती है। बच्चे तितर-बितर होकर पहाड़ उतरने लगते हैं। धनिया भी भला, पीछे रहने वाली कहाँ थी। वह भी भीड़ का हिस्सा बनी पहाड़ उतरने लगती है। पहाड़ उतरते समय उसे ऐसा लगता है कि वह चील बनी आकाश में उड़ रही है, उसके दोनों हाथ दाएँ-बाएँ फैल जाते हैं। अपने डैनों को विभिन्न मोड़ देते हुए वह पहाड़ उतरने लगती है और एक विशेष प्रकार की आवाज निकालने लगती है।
भीड़ देनवा के तट पर आकर ठहर जाती है। दूर-दूर तक फैली रेत पर बच्चे पसर जाते हैं और थकान मिटाने लगते हैं। कल्लू को पता नहीं क्या सूझा। उसने अपनी कोपिन उतार फेंकी और गहरे पानी में छलांग लगा दी। फिर क्या था देखा-देखी सब वैसा ही करने लगे।
जी भर कर तैरते-उतराते रहने के बाद लग आती भूख। दो-दो, तीन-तीन की टोलियां बनाई जातीं। टोलियां अब चारों ओर बिखर जातीं। जब वापिस होतीं तो किसी के हाथ में कंदमूल-फल होते, तो कोई महुआ ही बीन लाती। ढेर सारी खाने की चीजें इकट्ठी हो जातीं। तब लकड़ी-कण्डा बीनने लग जाते। जब अच्छा-खासा ढेर इकट्ठा हो जाता तो चकमक से आग पैदा की जाती और ढेर में लगा दी जाती। लाल-लाल दहकते अंगारों पर चीजें भूनी जाने लगतीं। भुने हुए महुए की मादक गंध से भूख और करारी हो उठती। आग खूर-खूरकर दोनों हाथों से बंदरों की तरह खाने भिड़ जाते। जब हलक तक पेट भर जाता तो प्यास सताने लगती। टिंगरा-टिंगरा पानी में उतर कर, पसो से पानी पीने लग जाते। खेल ही खेल में पता नहीं चल पाता कि सूरज सिर पर चढ़ आया है ... अब घर की याद सताने लगती। भीड़ अब अपने घरों को लौट पड़ती।
धनिया ने एक वृक्ष की ओर देखा। माँ बाहर ही बैठी हुई है। लकड़ी का टुकड़ा अब भी पास पड़ा था। आज जमकर धुनाई होगी, उसने मन ही मन सोचा। एक डर गहरे तक उतर आया जिसने उसे लगभग कंपा ही दिया। घर तो पहुंचना ही पड़ेगा, चाहे पिटाई ही क्यों न हो जाए। यह सोचते हुए वह आगे बढ़ती रही। माँ ने उसे लौटते देखा। अपनी टोकनी उठाई और आगे बढ़ गई।
धनिया को मालूम है कि माँ इस वक्त कहाँ जायेगी। वह सीधे खेत पहुंचेगी जहाँ बापू और दादू उसका इंतजार कर रहे होंगे। वह बड़ी सुबह ही खेत चले जाते हैं, खेत यही कोई ढाई तीन एकड़ का होगा, जिसमें वे हल-बख्खर चलाकर बोआई के लिए तैयार करेंगे। बापू इस बीच लकडिय़ां काट लेता है, कभी-कभी चार-चारोली भी इकट्ठी कर लेता है। हाट के दिन वह इन्हें बेचेगा। धनिया भी बापू के पीछे-पीछे हाट जाती है। जब भी वह हाट जाती है, गोलू हलवाई की दुकान से गुड़ की जलेबियां खाना नहीं भूलती। रकम अच्छी मिली तो चूड़ी कंघा-रिबिन का भी सेजा जम जाता है अथवा एकाध फ्राक व्राक का भी। गुड़ की जलेबी की याद आते ही उसके मुंह में मीठास घुलने लगी।
दोनों को दूर से आता देख वे खेत से निकलकर एक सघन वृक्ष के नीचे बैठकर सुस्ताने लगते हैं। माँ धीरे से अपनी पोटली खोलती है। ज्वार-बाजरा अथवा महुआ की मोटी-मोटी रोटी सभी के हाथ में पकड़ाते जाती है फिर उस पर टमाटर की चटनी अथवा बेसन या फिर प्याज हरी मिर्च व नमक रख देती है। हौले से निवाला तोडक़र वे मुंह में भरकर चबाने लगते हैं। जब पेट भर जाता है तो नारियल की नरेटी से पानी लेकर अपनी प्यास बुझाते हैं। धनिया को भूख तो थी नहीं, अत: वह ना-नुकुर करने लगती है। उसकी नजरें तो मचान से चिपकी हुई थीं, पलक झपकते ही वह मचान पर जा चढ़ी और बंदरों की सी हरकतें करने लगी। दादू ने एक मचान बना रखा था खेत में। फसल जब लहलहा रही होती है तो दादू उस पर बैठकर जागली करता है। गोफन भी चलाता है। गोफन से छूटा पत्थर बड़ी तेजी के साथ सूअर के थूथने पर पड़ता है तो वह भयंकर चीख के साथ भाग खड़ा होता है। जंगली सूअर से खेतों को ज्यादा ही नुकसान होता है। शाम ढलने से पहले सभी घर लौट आते। बैलों को कोठे में बाँधकर बापू उनको चारा-पानी डालता है। फिर बाप-बेटे दोनों ओसारी में बैठकर बतियाने लगते हैं। बतियाते हुए धुक-धुक करके बीड़ी का धुआँ भी उगलते जाते हैं। वैसे दादू को चिलम पीना कुछ ज्यादा ही अच्छा लगता है।
माँ आले में रखा भपका जला देती है। पीली-पीली रोशनी से झोंपड़ी नहा उठती है। अब वह चूल्हा जलाकर आटा रांधने लगती है। खाना खा चुकने के बाद सभी अपनी कथड़ी-गोदड़ी में दुबक जाते हैं। माँ भपका बुझा देती है। भपके के बुझते ही काला-कलूटा अंधियारा झोंपड़ी में घुस आता है। माँ के पास ही सोती है धनिया। सोते समय खुरदरी हथेलियों से सिर को सहलाती और बालों में उंगलियां चलाती रहती। बीच-बीच में किसी जंगली जानवर का गुरगुराना तो कभी जंगल के राजा का दहाडऩा सुनाई दे जाता। शेर की दहाड़ सुनकर वह माँ के सीने से चिपक जाती। माँ के धडक़ते दिल की आवाज उसे साफ-साफ सुनाई पड़ती। जब आदम जात का सोने का वक्त होता है जो जंगली जानवर के जागने का वक्त हो जाता है। जंगली जानवर रात में शिकार पर निकल पड़ते हैं। उनींदे से हो आए लता-वृक्ष शेर की दहाड़ सुनकर चौंक-चौंक पड़ते हैं। डरे सहमे से ये वृक्ष शायद ही अच्छी नींद में सो पाते होंगे। शेर जब ऊपर मुंह करके दहाड़ता है तो डाल पर बैठा मोर अथवा बंदर मारे डर के टपक पड़ता है। और शेर का शिकार हो जाता है। बापू ने झोंपड़ी के चारों ओर कांटों का सघन बाढ़ लगा दिया था ताकि कोई जानवर अंदर न घुस आए। बाड़ी के उस पार कभी किसी जंगली जानवर की गोल-गोल कंचे की सी आँखें चमकती दिखलाई दे जातीं। आँखें ऐसी चमकतीं जैसे अंधेरी रात में कोई हीरा जगमगा रहा हो। माँ उसे हिम्मत बंधाने की गरज से यह सब दिखाने की कोशिश करती। पर वह उसके सीने से जोर से चिपट जाया करती।
पूरा परिवार सूरज की पहली किरण के साथ ही जाग जाता। जम्हाते हुए धनिया उठ बैठती और आँखें मलते हुए प्रकृति का नजारा देखने लग जाती। लाल-पीले सुनहरे रंग से जंगल मुस्कराने लगता। पहाड़ों की उंचाइयों से उतर रही देनवा का पानी ऐसे लगता जैसे सोना पिघलकर बहा जा रहा हो।
खुशनुमा सुबह नहीं थी आज की। भयमिश्रित मातमी एकांत में भीगी हुई थी। दादू को तो जैसे काठ मार गया था। माँ के अंदर गहरे तक मोम ही जम आई थी। दादू से गिड़गिड़ाते हुए उसने कारण जानना चाहा तो उसकी बूढ़ी आँखों से टपाटप आँसू बह निकले और जब वह माँ के पास पहुंची कारण जानने, तो बजाय कुछ कहने के उसने उसे सीने से चिपका लिया और फफक कर रो पड़ी। वह लगातार रोए जा रही थी। शंका और कुशंकाओं के जहरीले नाग उसके कोमल मन में, आँगन में, यहाँ वहाँ विचरने लगे थे। जब माँ ने जी भर रो लिया और बतलाया कि उसका बापू पहाड़ी के उस पार गया, लौटकर नहीं आया। लगता है कि किसी चुड़ैल ने उसे फंसा लिया है। चुड़ैल तक तो बात ठीक थी पर ‘चुड़ैल ने फंसा लिया है’ यह जुमला उसकी समझ में नहीं आया। उसने फंसाने का अर्थ माँ से पूछा, तो उसने एक ही उत्तर दिया कि जब बड़ी हो जायेगी, तो खुद-बखुद समझ जायेगी कि फंसाना क्या होता है। अपनी सहेलियों एवं मित्रों से उसने इस गुत्थी को सुलझाना चाहा, पर असफलता ही हाथ लगी थी, वह बार-बार सोचती कि बापू पहाड़ी के उस पार क्या करने गया होगा। तभी उसे ध्यान आया कि एक दिन दादू ने कहानी बतलाते हुए कभी बतलाया था कि पहाड़ी के उस पार किसी रानी का राज है। वहाँ मरद नाम का कोई प्राणी नहीं रहता। उसकी फौज-फटाका में भी औरतें ही रहती हैं। यदि कोई मरद धोखे से उस ओर चला गया तो जिन्दा वापिस नहीं लौटा है। यह ठीक है कि बापू वहाँ चला गया होगा, रानी ने बापू को फंसा लिया होगा। पर फंसाया किस चीज से होगा, उसकी समझ में नहीं आया। अब वह माँ के कथन के अनुसार बड़ी होने की सोचने लगी। धनिया अब सुबह-शाम माँ के पल्लू से ही चिपकी रहती। अंदर से बरफ क ी सी ठंडी हो चुकी माँ की उसे अब ज्यादा ही चिन्ता रहती। बापू वापिस आ जाये, इस वास्ते उसने न जाने कितने ही देवी-देवताओं की मिन्नतें माँगी थीं। पर बापू जो गया तो लौटकर नहीं आया। एक दिन वह ओझा के घर जा पहुंची।
ओझा के घर में घुसने से पहले एक तीखी-बदबूदार गंध उसकी नाक से आ टकराई। इससे पहले उसने ऐसी गंध नहीं सूंघी थी। अंदर प्रवेश करते ही उसने देखा कि चारों तरफ जानवरों की खालें एवं ढांचे लटके पड़े थे। ओझा एक ऊंचे से चबूतरे पर बैठा हुआ था और उसके ठीक सामने, एक धूनी जल रही थी, तथा पास ही इंसान की खोपड़ी व हड्डियां पड़ी थीं। लाल-पीले-काले रंग से उसने अपने चेहरे को और भी वीभत्स बना डाला था। माँ को देखते ही उसने बड़बड़ाना शुरू कर दिया और आँय-बाँय बकते हुए, उसने मुट्ठी में कुछ उठाया और आग पर दे मारा। एक काला बदबूदार धुआँ ऊपर-ऊपर तक उठ आया। डर के मारे उसकी तो घिग्घी ही बंध गई थी। उसने माँ की ओट लेते हुए बचने का प्रयास किया। माँ अब जमीन पर बैठ गई और अपना दुखड़ा सुनाने लगी। वह बार-बार हाथ जोडक़र गिड़गिड़ाती और कहती, जो भी माँगोगे दूंगी, पर धनिया के बापू को वापिस बुला लो।
ओझा, अब अपनी जगह पर बैठे-बैठे ही, जोर-जोर से उछलकूद करने लगा। पता नहीं, क्या-क्या अर्र-सर्र बकता जाता। धनिया ने गौर से देखा कि उसकी कामुक नजरें माँ के जिस्म से बुरी तरह चिपकी हुई हैं। माँ के शरीर पर भरपूर गोश्त था। सिर के बाल जमीन से छू रहे थे। वक्ष उन्नत व कठोर थे। साड़ी से कमर तक ढकने के बाद, उसने शेष साड़ी से पीठ और वक्ष ढक रखा था। इतनी गोरी-चिट्टी थी माँ कि उसके जैसी दूसरी कभी देखने में नहीं आई। हमारी जाति में औरत, मरद सभी काले कलूटे रहते हैं। बापू उसे प्यार से गोरी-कबूतरी जो कहा करते थे। ओझा ने हूं-हाँ-हूं-हाँ बकते रहने के बाद उसे रात में आने को कहा और यह भी कहा कि इस लौंडिया को साथ लेकर न आए। कुछ विशेष जतन करना होगा, तीसरे दिन तेरा मरद वापिस आ जायेगा। रात में बुलाने का मतलब कुछ-कुछ उसकी समझ में आ रहा था। फिर भला माँ को तो अच्छी तरह समझ में आ ही गया होगा। माँ दुबारा पलटकर वहाँ नहीं गई और न ही उसने कभी जाने का मानस ही बनाया।
बापू के जाने के बाद से, माँ में एक कठोरता घर कर गई थी, जो उसके व्यवहार से साफ झलक भी आया करती थी। अंदर तक वह इतने क्रोध में भरी हुई होती थी कि जब वह किसी लकड़ी के ल_ट्ठे पर, कुल्हाड़ी का भरपूर वार करती तो वह फक से दो टुकड़ों में बंट जाता था। एक दिन वह लकड़ी काटने जंगल में घुसी तो आदमखोर के हत्थे चढ़ गई। लोगों ने जंगल की खाक छान मारी, पर माँ का कहीं भी पता नहीं चला। कुछ दिन बाद उसके शरीर का पिंजड़, एक ऐसी जगह मिला, जहाँ आम आदमी का पहुंच पाना संभव नहीं था।
माँ और बापू के इस तरह चले जाने के बाद से दादू और व्यथित सा रहने लगा। उसके मन में अब एक ही आस बची थी कि वह किसी तरह उसके हाथ पीले कर दे और चैन से मौत को गले लगा ले। पर क्या वह उसके बस में था। समय पंख लगाकर उड़ता रहा। दादू के कलेजे में लगे जख्म शायद ही भर पाए होंगे। इसका अहसास उसे भी बराबर बना रहता। वह खुद भी दोनों के वियोग में कितना तड़पती रहती है, यह तो उसका अपना दिल ही जानता है।
दादू की देखरेख करते, घर का कामकाज सम्हालते, उसे पता ही नहीं चल पाया कि बचपना रेंगकर कब जवानी की देहलीज पर आ पहुंचा। बूढ़ी हड्डियां कब तक जोर मारतीं। एक बार वह बिस्तर से जा लगा, तो दुबारा उठ न पाया।
दिन पर दिन गिरती उसकी हालत को देखकर चिन्तित हो उठी वह। अगर उसका दादू यूं ही चल बसा तो उसका क्या होगा। यह ख्याल उसे बेचैन कर देता। अपने दादू के लिए वह कुछ भी करने को तैयार थी। मूसलाधार बारिश हो रही थी। बिस्तर पर पड़ा दादू हिचकियां ले रहा था। जब वह साँस लेता तो खर्र-खर्र की आवाज आती जो दूर तक सुनाई पड़ती। असह्ïय दर्द से वह बीच-बीच में चीख भी पड़ता था।
धनिया के जी में आया कि दौडक़र ओझा को बुला लाए। शायद उसका जन्तर-मन्तर कुछ काम आ जाए और दादू बच जाये, तभी उसको पिछली घटना याद हो आई। माँ भी तो गई थी ओझा के पास। बापू को वापिस लिवा लेने के लिए। माँ के गदराए जिस्म को देखकर वह किस प्रकार की हरकतें करने लगा था। उसे आज भी याद है। तभी उसकी नजर अपने समूचे जिस्म पर दौड़ पड़ी। माँ ही के जैसी तो दिखती है वह भी। उसने उसके ही जैसा जिस्म पाया है, जो कपड़े में नहीं समा पा रहा है। फिर साड़ी तो चिन्दी-चिन्दी हो आयी है और फटी जगह से उरोज बाहर तक उचक आए हैं। क्या ऐसी हालत में उस दरिन्दे के समीप जाना उचित होगा उसका। तरह-तरह के प्रश्नों के पहाड़ खड़े हो गए थे उसके सामने जिसके उस पार जाने की वह न तो हिम्मत जुटा पाई और न ही उसमें उतनी सामथ्र्य थी। असमंजस की स्थिति में उसे डाक्टर का ध्यान हो आया। आशा की एक किरण कौंधी और बारिश केट्ठे थमते ही वह सरपट दौड़ पड़ी डाक्टर को लिवा लाने। घिर आई साँझ में उसके मन में न तो किसी हिंसक पशु के खौफ का ही डर समाया और न ही कंटीली ऊबड़-खाबड़ रास्तों की चुभन। वह सरपट बिना रुके ही चली आई थी, डाक्टर को लिवा लाने। वह तब तक दौड़ती रही जब तक डाक्टर का मकान नहीं आ गया।
अजीब खब्ती किस्म का था यह डाक्टर। शहरों की चकाचौंध से दूर वह इस बीहड़ में चला आया था। शोषित-पीडि़त-अज्ञानी आदिवासियों की सेवा करने का जुनून सवार था उसके सिर पर। चढ़ती दोपहरी तक वह अपने दवाखाने में इलाज करता फिर पहाड़ों की तलहटी में बसे गाँवों में घुस पड़ता। ऊबड़-खाबड़ रास्तों के बीच चलता। कभी उसका वास्ता जंगली जानवरों से भी पड़ता। पर वह निर्भीक अपनी ही धुन में रमा रहता। दिन में दो-चार गाँवों की फेरी लगा लेना उसकी आदत सी बन गई थी। पत्नी-बच्चे और माँ भी उसने ऐसे ही पाये थे जिन्हें आदिवासी जनजीवन से गहरा लगाव था।
अपने ही विचारों की तंद्रा में खोई थी धनिया। तभी उसकी नजर बाउण्ड्री वाल से ठीक सटकर, पहाड़ों के उतार में उतर रही पगडण्डी पर पड़ी। उसने सहज में ही अंदाजा लगा लिया कि यह वही पगडण्डी है, जिस पर चलकर वह यहाँ दूसरी बार आई थी। पहली पहल जब, उसका दादू सख्त बीमार पड़ गया था और दूसरी बार वह डाक्टर के साथ चली आई थी सदा-सदा के लिए दुबारा वापिस न लौटने के लिए।
दादू के मरने की खबर प्राय: आसपास के सभी गाँवों में फैल गई थी। आहत ओझा ने इस अवसर का भरपूर लाभ उठाने की सोची। अपने दो-चार लग्गू-भग्गूओं के साथ वह आ धमका था। क्रोध से भरा हुआ वह थर-थर कांप भी रहा था। प्राय: सभी के हाथ में कोई न कोई हथियार था। आते ही उसने डाक्टर को घेर लिया और उपस्थित समुदाय को उसके विरुद्ध भडक़ाने लगा। उसका अपने हक में ऐसा किया जाना भी शायद अनिवार्य था क्योंकि उसका फलता-फू लता धंधा एकदम चौपट जो हो गया था। आदिवासी लोग अब उसके पास न जाकर, सीधे डाक्टर के पास चले जाया करते थे। बीमार पडऩे पर वहाँ उन्हें दवा-दारू भी मिलती और वे शीघ्र ही स्वास्थ्य लाभ पा लेते थे। डाक्टर की पत्नी आदिवासी बच्चों को पढ़ाती थी। शायद यही कारण था कि इस दम्पति के आने के बाद से इनके जीवन स्तर में अच्छा खासा परिवर्तन आ गया था। इस बात को रेखांकित करना भी लोग नहीं भूले थे। शायद यही कारण था कि उसके भडक़ाऊ भाषण का किसी पर भी असर नहीं पड़ा था बल्कि लोगों ने उसके विरुद्ध मुंह खोलना भी शुरू कर दिया था। अपने ही समाज में, जहाँ उसे सिर आँखों पर बिठाया जाता था आज बेइज्जत किया जाने लगा था। डाक्टर के बढ़ते प्रभाव व अपनी घटती इज्जत से वह बुरी तरह बौखला सा गया था और अंदर गहरे तक आहत भी हो उठा था।
सारे क्रियाकर्म निपट जाने के बाद वह डाक्टर के साथ हो ली थी। दादू की स्वयं की भी यही इच्छा थी कि वह डाक्टर के साथ चली जाए। दादू के मन में एक अज्ञात भय ने घर कर लिया था कि वह अकेली इस बीयावान में कैसे रह पायेगी। अत: मरने से पहले उसने लडख़ड़ाती जबान से डाक्टर से अनुनय किया था कि वह उसे अपने साथ ले जाये— रूखा- सूखा जो भी इसे मिलेगा खाकर रह लेगी और घर के कामकाज कर देगी। आश्वस्त होने के बाद ही बुड्ढे ने अपने प्राण त्याग दिए थे। डाक्टर जब उसे अपने साथ लिवा लेने लगा तब भी ओझा ने खासा विरोध किया परन्तु उसे असफलता ही हाथ लगी थी। बदला लेने की प्रतिज्ञा के साथ ही वह जंगल में समा गया था।
ओझा के रौद्र रूप का ख्याल आते ही वह आशंकित हो उठी थी। उसकी आशंका कुछ ज्यादा ही बलवती हो चली थी कि ओझा, डाक्टर से भी बदला जरूर लेगा। अत: डाक्टर को भी चाहिए कि वह अकेला घाटी में न उतरे बल्कि अपने साथ किसी न किसी को लेकर अवश्य चला करे।
पहाड़ों की गहराई में नजरें झुकाए धनिया अपने अतीत के भंवर में गोते खा रही थी। पता नहीं, वह और कितनी देर पाषाणी प्रतिमा बनी बैठी रहती यदि दादी आकर उसे झकझोर न देती।
जब तक अपने ठाकुर जी की पूजा पाठ और रामायण का एक मास पारायण नहीं कर लेती दादी तब तक वह अनाज का एक दाना भी हलक के नीचे नहीं उतारती थी। पूजा पाठ समाप्त कर उन्हें भूख भी लग आई होगी और उन्होंने मुझे ढूंढऩा शुरू किया होगा। जब पूरा घर छान मारा उन्होंने और मुझे कहीं नहीं पाया होगा तो वे चिन्तित अवश्य हो उठी होगी और मुझे यहाँ खड़ा पाया तो चली आई लेने। धनिया ने अपने आप से कहा। दादी को सामने पा वह मुस्कराने लगी। दादी ने नीचे झांककर देखा। एक गहरी निस्तब्धता कुण्डली मारे बैठी थी, उन्होंने व्यंग्यात्मक लहजे में बोलते हुए पूछा, “क्यों री तू रोज यहाँ खडी होकर क्या देखती है- मुझे तो कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा है।” धनिया की समझ में नहीं आया कि वह दादी को क्या और कैसे समझाए कि उसका अपना अतीत इन्हीं गहराईयों में कहीं दफन हो चुका है और आज वह भूत बनकर उसका पीछा कर रहा है। जवाब न देते हुए वह दादी को बाँहों का सहारा देते हुए घर की ओर लौट पड़ी।
गहरी नींद में सो रही धनिया। चर्र-मर्र चर्र-मर्र की आवाज सुनकर वह जाग गई। उसने ध्यान से उस आवाज को पहचानने की कोशिश की— अरे- ये तो बैलगाडिय़ों की चलने की आवाज है। याने कि कल हॉट भरेगा। उसने सहज में अंदाज लगा लिया।
पहाड़ों के कंधों पर से एक सर्पाकार सडक़ रेंगते हुए आती है और इस गाँव को छूते हुए दूर निकल जाती है। सडक़ कहाँ से आती है और कहाँ चली जाती है उसे नहीं मालूम, पर वह इतना जरूर जानती है कि व्यापारी लोग दूर-दूर से अपनी-अपनी गाडिय़ों में माल लादे रातभर चलते हैं और सुबह यहाँ अपनी दुकान सजाते हैं और माल बेचते हैं। सडक़ के उस पार मैदानी इलाका है, जहाँ यह गाँव बसता है, यहाँ अस्पताल है, गेस्ट हाउस है, रेस्ट हाउस है, रिहायशी मकान भी हैं। अब तो जगह-जगह होटलों ने भी अपने पैर पसार लिए हैं। दूरदराज से सैलानी अक्सर यहाँ आते हैं, होटलों की शरण में रात बिताते हैं और पौ फटते ही जंगलों में उतर जाते हैं। पहाड़ों की तहलटी में जलप्रपात है, पुराने महलों के भग्नावशेष हैं, प्रकृति यहाँ नित्य नूतन शृंगार करती है। हिरण-बारहसिंगा, लोमड़ी-बायसन और भी न जाने कितने रंग बिरंगे पक्षी यहाँ डेरा डाले रहते हैं। सामने वाली काली पहाड़ी पर से सूर्योदय व सूर्यास्त का नजारा देखने लायक होता है। लोग-बाग यहाँ बड़े-बड़े कैमरे लेकर आते हैं और नयनाभिराम दृश्यों को कैद करके ले जाते हैं। इन्हीं तलहटियों में सैकड़ों आदिवासी गाँव अपनी धरोहरों एवं परम्पराओं को जीवित रखते हुए, तिल-तिल करके मर रहे हैं। पल-पल मुसीबतों का सामना करते हुए नंगे-अधनंगे रहते हुए, घास-पास की झोंपड़ी में सिर छिपाते हुए भूखे-नंगे आदिवासी जन आज भी अपनी ही लीक पर चलने को मजबूर हैं। विकास के नाम पर करोड़ों की राशि अधिकारियों व अफसरों द्वारा डकार ली जाती है। इन्हें कुछ भी पता नहीं होता। यदि जान भी जाए तो इन्हें कोई शिकवा-शिकायत नहीं और न ही ये अपना दुखड़ा लेकर किसी के पास जाते हैं। जो कुछ भी सहज-सुलभ उपलब्ध है उसी में जिंदगी काट देते हैं। उदासी-लाचारी-मजबूरी जैसे घटिया शब्द शायद इनकी डिक्शनरी में लिखे ही नहीं गए हैं। जो भी करते मिलजुल कर करते हैं। सुख तो इनके नसीब में लिखा ही नहीं है। अक्सर सुख बाँटने के चक्कर में ही झगड़े-फसाद मचते हैं। सुख है भी कहाँ जिसे बराबर-बराबर बाँटा जा सके। हिस्से में सभी के आते हैं दुख-तकलीफें। तो वे सब हिलमिल कर बाँट ले जाते हैं। दुख मिटाने का उपाय भी जानते हैं ये लोग। कड़वी घूंट हलक के नीचे उतरी नहीं कि पाँव थिरकने लग जाते हैं। समूची देहराशि नाच उठती है। औरत मरद एक दूसरे की कमर में हाथ डाले, घेरा बनाए घंटों नाचते रहते हैं। टूटे-फूटे शब्दों में गीत भी मुखरित हो उठते हैं। क्या मजाल कि कभी किसी के मन जरा सा खोट भी आ जाए। कभी-कभार कोई टंटा खड़ा हो भी जाए तो पंचायत बैठ जाती है और फैसला हो जाता है। मन में गाँठ बाँधकर रहने की इनकी आदत ही नहीं है। पलभर को तकरार फिर गले में हाथ डाले-हंसने बोलने लगते हैं। चार-चारोली, महुआ-लकड़ी गोंद न जाने कितनी ही वनोपज लेकर ये हॉट आते हैं, इन्हें बेचकर मिट्टी का तेल व नमक खरीदना नहीं भूलते। कभी-कभार अगर गंडे ज्यादा मिल गए तो अन्य आवश्यक वस्तुएँ खरीदी जातीं।
लगभग सम्पन्नता की सोपानों पर चढ़ते हुए भी, व्यापारी लूट-खसोट की परम्पराओं को बरकरार रखे हुए, हॉट में टूट पड़ते हैं। औने-पौने में माल खरीदकर लाखों कमा लेते हैं। आदिवासी जन जानते हैं कि उन्हें लूट लिया गया है फिर भी उनके चेहरे पर शिकन तक दिखलाई नहीं पड़ती। जानते हैं वे अपनी हद और सरलता की हल्की फुल्की सी मुस्कान ओढ़े रहने की जैसे इनकी आदत ही बन गई है।
सप्ताह में एक दिन भरता है हॉट। तरह-तरह की चीजें यहाँ सजने लगती हैं। गाँव के बहुत सारे लोग हॉट में आएँगे। आएँगे शब्द की कल्पना मात्र से वह रोमाँचित हो उठी। सतिया, सलोजी, सोमत, झीनी, बसंती, कल्लू, भीमा, माखन इन सारे संगी साथी में से कोई न कोई हॉट में मिलेगा। मिलते ही गले लग जाएँगे फिर एक कोने में बैठकर गपियाएँगे। संभव हुआ तो गोलू हलवाई कीदुकान से जलेबी अथवा मूमपट्टी अवश्य ही खाई जायेगी। जलेबी की याद आते ही मुंह में मिश्री सी घुलने लगी। वह चट से उठ बैठी और सीधे बाथरूम में जा घुसी। उसे मालूम है कि इस वक्त चुन्नु-मुन्नु माँजी स्कूल के लिए जा चुके होंगे। डाक्टर अपनी क्लीनिक के पास पहुंच चुके होंगे। दादी या तो पूजाघर में बैठी गुरिया सटका रही होगी या घर में अस्त-व्यस्त फैले सामानों को करीने से सजा रही होगी। फिर उसे खाना भी तो पकाना है। यदि पूजा समाप्त हो गई हो तो सीधे ठाकुरजी के भोग के लिए कुछ माँगेगी। बिना नहाए-धोए चौके में घुसना यहाँ वर्जित सा है।
बाथरूम में घुसकर उसने अपने कपड़े उतारे और नहाने बैठ गई। शरीर को सुंगधित साबुन से मलमल कर नहाने के बाद उसने कपड़े बदलने शुरू किए। बाथरूम में टंगे आईने में उसने अपने शरीर को देखा तो बस देखते ही रह गई। मैली-कुचैली सी रहने वाली धनिया का रूप रंग कितना खिल गया है, उसने मन ही मन निहारते हुए कहा और आईने के और करीब खिसक आई। जरूरत से ज्यादा विकसित हो आए उरोजों को उसने छूकर देखा। छूते समय उसकी उंगलियों के पोर, घुण्डियों से जा टकराए। एक अजीब सी सनसनी और मादकता से उसका पोर-पोर थरथरा गया। लगा पूरा शरीर ही झंकृत हो उठा है। सुर्ख हो आए लरजते ओंठ, उभरे हुए गालों पर एक छोटा तिल, शराबी सी हो आई आँखें देखकर खुद अपने आपको रोक नहीं पाई और उसने आगे बढक़र अपने अक्स को चूम ही डाला। अपने ही ओठों पर ओंठ टिकाते समय उसने स्पष्ट रूप से महसूस किया कि वह किसी अन्य लोक में पहुंच चुकी है।
आहट पाकर वह चौंक पड़ी। उसकी नजरें पुन: आईने से जा चिपकीं। देखा, ओझा उसे घूर रहा था। उसका माथा ठनका। ओझा और यहाँ। हो सकता है वह बदला लेने के लिए यहाँ आ धमका हो। उसने पलटकर देखा। सचमुच ओझा सामने खड़ा अपनी वीभत्स मुस्कान बिखेर रहा था। और बार-बार अपनी जीभ ओठों पर फेर रहा था। उसका शरीर डर के मारे पीपल के पत्ते के मानिंद थरथर कांपने लगा। पता नहीं कितनी देर से खड़ा वह उसकी नग्न देह को घूर रहा होगा। उसने तत्काल लपककर साड़ी उठानी चाही। साड़ी के उठाते ही बघनखा एक ओर लुढक़ पड़ा। उसने उसे उठाया और बचाव की मुद्रा में खड़ी हो गई। अब वह आक्रमण करना ही चाहती थी। जैसे ही उसने अपना हाथ हवा में उछाला और उसकी ओर लपकी, वार खाली गया। वहाँ तो कोई भी नहीं है। बुदबुदाते हुए उसने अपने आप से कहा। चारों ओर नजरें घुमाकर भी देखा। सचमुच वहाँ कोई भी नहीं था। उसे अपने आप पर ही क्रोध हो आया। बघनखे को कमर में खोंसकर उसने साड़ी लपेटी और बाहर आ गई। बाहर आकर उसने एक-एक कोना छान मारा कोई भी नहीं था वहाँ। उसने बाउण्ड्री वाल के उस पार भी झांककर देखा। पहाड़ अपनी अनन्त गहराईयां लिए हुए दूर-दूर तक पसरा पड़ा था और हवा साँय-साँय करके बह रही थी। उसने इत्मिनान से लंबी गहरी साँस ली और अपने आपको संयत करने लगी। उसके अपने हाथ पुन: कमर के इर्द-गिर्द घूम गए। बघनखा बंधा हुआ पाकर उसने फिर एक गहरी साँस ली। तभी उसे माँ के ये शब्द अक्षरत: याद हो आए, “बेटी- इसे अपने से कभी भी अलग मत करना। जरूरत पडऩे पर ये काम आयेगा।” कितने विश्वास के साथ कहा था माँ ने। तभी उसे एक पुरानी घटना याद हो आई।
माँ के ही साथ गई थी धनिया महुआ बीनने। इस बार भी महुआ गजब का फूला था। माँ महुआ बीन रही थी। तभी एक भालू उधर से आ निकला। एक वृक्ष की आड़ लेकर बचाव की मुद्रा में खड़ी हो गई माँ। भालू ने झपट्टा मारा। पर दुर्भाग्य से उसका वार खाली गया। भालू के दोनों पंजे तने से बाहर निकल आए। माँ ने पलटकर फुर्ती से उसके दोनों पैर पकड़ लिए और पूरी ताकत से उसे अपनी ओर खींचा। भालू का सीना तने से टकराया और वह बुरी तरह से चीख उठा। तने पर एक पैर टिकाते हुए माँ ने उसे परे ढेला फिर ताकत से अपनी ओर खींचा। रस्साकशी का ये खेल काफी देर तक चलता रहा, जब तक भालू निढाल होकर गिर नहीं पड़ा। भालू के गिरते ही माँ ने कमर में लिपटा बघनखा निकाला और उसका पेट चीर दिया। एक भयंकर चीख के साथ वह ढेर हो गया। माँ की बहादुरी का नमूना उसने अपनी आँखों से देखा था। उसे गर्व हो आया था अपनी माँ पर। एक बड़ी-सी चट्टान पर बैठकर अपनी तेज हो आई साँसों पर नियंत्रण करने लग गई थी। संयत होते ही उसने इसी बघनखे को उसकी कमर में बाँध दिया था तथा चलाने का प्रशिक्षण भी दे दिया था। काश यह बघनखा माँ के पास उस समय होता, जब शेर ने उस पर आक्रमण कर दिया था तो वह अपने आपको शायद बचा ले आती, पर होनी को कौन टाल सकता है। उसने अपने आपसे कहा।
चुन्नु-मुन्नु और माँजी स्कूल से लौट चुके थे। चारों ने मिलकर खाना खाया। खाना खा चुकने के बाद वे गिल्ली-डंडा खेलने में व्यस्त हो गए। माँजी का अब बाजार जाने का वक्त था। उन्होंने थैलियां उठाईं और जाने को उद्धत हुईं। तभी उन्होंने धनिया से भी हॉट चलने को कहा। धनिया तो कभी की तैयार थी। बस उसे इशारे भर की जरूरत थी।
आधा-एक फर्लांग की दूरी पर भरता है हॉट। रास्ता चलते समय उसकी नजरें आने जाने वालों के चेहरों से जा चिपकतीं। इन अजनबी चेहरों में वह अपने स्वजनों को खोजने का प्रयास करती। जब कोई परिचित मिल जाता तो रास्ता चलते चटर-पटर करने लगती।
पूरे सप्ताह की चीजें खरीदती जाती माँजी और धनिया को पकड़ाती जातीं। सारी खरीददारी निपटाने के बाद वे वापिस होने को हुई तो धनिया ने मासूमियत के साथ थोड़ी देर रुककर आगे आने को कहा क्योंकि वह जानती थी कि हॉट से थोड़ा हटकर आदिवासी जन बैठकर बतियाते हैं। उसे उम्मीद थी कि कोई न कोई परिचित उसे जरूर मिल जायेगा। बहुत दिन हो गए सबसे मिले हुए। यही कोई छह महीना अथवा साल भर अथवा इससे भी ऊपर ठीक से याद नहीं उसने सोचा।
व्यग्रता से वह हॉट के उस पार जाना चाहती है। अपने स्वजनों से मिलने की आतुरता में उसकी चाल दोहरी हो उठती है। उसने दूर से ही देखा। लोग घेरा बनाए बैठे बतिया रहे थे। अपने स्वजनों से भेंट करने एवं खबरों का आदान-प्रदान करने के लिए हॉट से बढक़र और क्या हो सकता है। उसकी नजरें फुर्ती के साथ सभी के चेहरों पर फिसलने लगीं। उसने सतिया को बैठे देखा। फुर्ती से बढक़र उसने थैला एक ओर रखा और उसे अपनी बाँहों के घेरे में आलिंगनबद्ध कर लिया। इस अप्रत्याशित घटना से सतिया घबरा सी उठी। धनिया उसे पूरी ताकत के साथ अपने सीने से चिपकाती तो कभी उसके गालों पर चुम्बन जड़ देती। उसने उसे परे ढेलने की कोशिश की पर धनिया की पकड़ काफी मजबूत थी। लोग-बाग दो सहेलियों के मिलन को देखकर गद्ïगद्ï हुए जा रहे थे। फिर दोनों सहेलियां वार्तालाप में निमग्न हो गईं तभी उसकी नजर चट्टान पर बैठे एक बाँके छैला पर पड़ी जो घेरे से दूर बैठा, न जाने किन विचारों में गुम बीड़ी धुनक रहा था। सिर पर पगड़ी, रौबदार चेहरा, चेहरे पर नुकीली मूंछें, कुर्ता बंडी व घुटने-घुटने तक धोती बाँधे शांत भाव से इन्हें ही घूर रहा था। धनिया ने इशारे से पूछा तो सतिया ने बतलाया कि यह और कोई नहीं बल्कि उसका कल्लू है। अरे वही कल्लू जो अक्सर तुझसे ही ज्यादा तकरार किए रहता था और तुझसे ही चिपका डोलते रहता था। याद है तुझे, देनवा के गहरे पानी में ये मुआ नंग-धड़ंग कूद पड़ा था और तैरते हुए मुझे ही सता रहा था। बचपन की छेड़छाड़ की याद आते ही उसके गाल लाल हो उठे।
उसकी मनभावन सुगठित देह यष्टि देखकर उसके मन में कुछ-कुछ होने लगा। जी में आया कि दौडक़र गले लगा डाले और जड़ दे ढेर सारे चुम्बन। बचपन में यह सब संभव था। क्या आज वह इस उमर में और सबके सामने ऐसा कर पायेगी। विचारों के आते ही उसे लाज -सी भी हो आई। उसकी नजरें अब भी उसके इर्द-गिर्द ही घूूम रही थीं और वह बाँका छोरा भी कनखियों से उसे ही देख रहा था। शायद न देखने का बहाना बनाते हुए अपनी सहेली से बातों में उलझी धनिया ने पुन: पलट कर देखना चाहा तो वह अपनी जगह पर नहीं था। ‘कहाँ चला गया होगा कल्लू’ उसने अपने आपसे प्रश्न किया। उसका मन कल्लू को देखने के लिए बेताब हो उठा और वह चारों ओर नजरें घुमाकर उसे खोजने का प्रयास करने लगी।
तभी उसने देखा। वह लौट रहा है और उसके हाथ में कुछ दिखलाई भी पड़ रहा है। न जाने क्या ला रहा होगा? उसने अपने आपसे कहा। तब तक कल्लू लंबे डग भरता हुआ वहाँ आ पहुंचा। उसके हाथों में गरमागरम जलेबी से भरा दोना था। सतिया ने फुर्ती से दोना छुड़ाकर अपने कब्जे में कर लिया फिर एक जलेबी उठाकर धनिया के मुंह में ठूंस दिया फिर कल्लू के मुंह में। हास-परिहास-ठिठौली के इस खेल को देखकर प्राय: सभी ठहाका मार कर हंस पड़े। मुंह में मिठास पड़ते ही धनिया को याद हो आया कि बचपन में जब भी वह बापू के साथ हॉट आती थी। कल्लू और वह हलवाई की दुकान में सरपट भागकर जाते थे और जलेबी अवश्य खाते थे। आज कल्लू स्वयं आगे बढक़र जलेबी उसके लिए लाया है। यह देखकर वह आनन्द से विभोर हो उठी।
अब उसे आने वाले हॉट की प्रतीक्षा रहती। हॉट वाले दिन वह अपने आपको खूब सजाती संवारती और माँ के साथ हो लेती। आज कुछ हॉट ज्यादा ही भरा था। लगुन-सरा का मौसम जो था। उसने कल्लू को यहाँ वहाँ ढूंढ़ा पर कहीं भी दिखलाई नहीं पड़ा। तरह-तरह के प्रश्न मन में आते जो उसे छलनी कर जाते। किसी अंदेशे के चलते उसका दिल धडक़ने लगा। काफी खोज खबर के बाद सतिया मिली तो उसने बतलाया कि ओझा ने उन दोनों को मिलते देख लिया था। उसने कल्लू को रोकना चाहा पर कल्लू के सिर चढ़ी जवानी कहाँ मानती। फिर क्या था। ओझा के दो-चार लग्गु-भग्गु उस पर टूट पड़े और तब तक पीटते रहे, जब तक वह बेदम नहीं हो गया।
कल्लू के साथ घटित घटना को सुनते ही वह चीत्कार कर उठी। आँखों से आँसू टपटपाकर बह निकले। वह जानती थी कि ओझा इसे बर्दाश्त नहीं कर पायेगा और वह नीच, कुछ भी कर बैठेगा। हुआ वही, जिसका उसे अंदेशा था। उसके जी में आया कि घाटी उतरकर सरपट दौड़ पड़े और अपने कल्लू को बचा ले। उसने गाँव जाने की जिद ठानी तो लोगों ने उसे समझाया कि वह ऐसा न करे क्योंकि यह भी संभव है कि अकेली दुकेली पाकर, वह उसे भी घायल कर दे। संयोग से डाक्टर भी हॉट पहुंच गए थे। जब उन्होंने इस हृदय विदारक घटना को सुना तो एक अच्छा खासा जत्था लेकर घाटी में उतर गए और जब लौटे तो गंभीर हालत में पड़े कल्लू को उठा लाए और अस्पताल में दाखिला देते हुए उसका इलाज शुरू कर दिया। किसी चाकरी की तरह सेवा करती रही धनिया। कुछ दिन बाद वह पूर्णरूपेण स्वस्थ हो गया। स्वस्थ होते ही वह घर जाने की जिद करने लगा। हालांकि धनिया चाहती थी कि यहीं रुक जाये, पर ऐसा कर पाना उसके लिए संभव नहीं था।
अब आए दिन ओझा के उत्पात बढ़ते ही चले गए। कभी वह अस्पताल आकर डाक्टर को धमकी दे जाता तो कभी धनिया को। कभी-कभी तो वह पूरे परिवार को जादू-मंतर से मार डालने की धमकी दे जाता। डाक्टर के परिवार को आतंकित करने के लिए वह आटे का पुतला बनाता। हल्दी कुमकुम से उसे लाल-पीला कर देता और डाक्टर की चौखट पर धर आता। कभी नींबू में कीलें टोंच देता और दरवाजे पर बाँध आता। यह काम वह बड़ी सफाई से देर रात करता ताकि कोई उसे आता-जाता न देख पाए। आखिरकार तंग आकर डाक्टर ने पुलिस में रपट दर्ज करवा डाली।
शायद पुलिस वालों की यातना के भय से अथवा किसी अन्य कारण के चलते वह दुबारा उस गाँव में दिखलाई नहीं पड़ा और न इस बीच आतंक ही मचाया। लगा कि सब कुछ एकदम शांत हो गया है।
दोपहर का यही कोई तीन अथवा चार बजा रहा होगा। परिवार के सभी सदस्य आँगन में बैठे बतिया रहे थे। तभी कल्लू आता दिखलाई पड़ा। धनिया का मन कल्लू को देखकर प्रसन्नता से नाच उठा। वहीं शंका-कुशंकाओं के चलते निराशा से भर उठा। पता नहीं कल्लू क्यों आ रहा होगा- क्या बात होगी- कारण क्या है उसका इस वक्त आने का। तरह-तरह के प्रश्न उसके जेहन में उतर कर उसे अशांत कर देते। वह जानती थी कि बड़े-बूढ़ों के समक्ष वह उससे बात नहीं कर पायेगी और न ही उससे आँख मिला पायेगी। किसी काम का बहाना बताकर वह अन्दर चली गई और दीवार की ओट लेते हुए सुनने का प्रयास करने लगी।
कल्लू ने आते ही शिष्टता से अपने दोनों हाथ जोड़े और फिर परिवार के सभी सदस्यों को सतिया के विवाह में आने का निमंत्रण देने लगा। धनिया ने जब सतिया के विवाह की बात सुनी तो वह प्रसन्नता से नाच उठी। कितने दिन बीत गए वह अपने गाँव नहीं जा पाई थी। अब वह सतिया की शादी में जायेगी तो झूमझूम कर नाचेगी-गायेगी। सारे लोगों से उसकी भेंट भी होगी। दीवार की ओट में खड़ी धनिया कल्पना लोक में विचरने लगी थी।
परिवार के प्राय: सभी सदस्यों ने शादी में आने का वादा किया। आश्वस्त कल्लू अब वापिस होने को था। उसकी नजरें धनिया को बराबर खोज रही थीं। जब उसने उसे कहीं नहीं पाया तो वह उद्विग्न मन से लौट पड़ा। आगे बढक़र उसने गेट खोला। बाहर निकला, गेट लगाया और उतार में उतरने लगा। पच्चीस-पचास कदम ही चल पाया होगा कि उसने धनिया को सामने खड़ी पाया। कहाँ से आ गई धनिया। उसने अपने आपसे प्रश्न किया और लपककर उसने धनिया के हाथ पकड़ लिए। एक सघन वृक्ष की छांव तले बैठते हुए काफी देर तक बतियाते रहे और सहज प्यार के चलते अपना भविष्य तलाशते रहे। जब कल्लू ने अंदाज लगा लिया कि यहाँ बैठे काफी देर हो गई है तो शादी में आने का पुन: वादा करवाते हुए उसने धनिया से विदा माँगी और पहाड़ी की गहराईयों में उछलता-कूदता आगे बढ़ गया। धनिया तब तक खड़ी उसे निहारते रही जब तक वह आँखों से ओझल नहीं हो गया। जब वह लौटी तो उसके ओठों पर कोई सुरीला प्यार भरा गीत मुखरित हो रहा था।
अब उसे आने वाले हॉट का बेसब्री से इंतजार था। घर का कामकाज सम्हालते, दादी से नोंकझोंक करते रहने में पूरा सप्ताह यूं ही बीत गया जैसे कोई कल ही की बात रही हो।
दोपहर बाद वह माँजी के साथ हॉट पहुंची। रास्ता चलते उसकी खोजी आँखें अपने स्वजनों को ढूंढ़ती। जब कोई राह चलते मिल जाता, चटर-पटर करती चलती। एक मनीहारी की दुकान के सामने जाकर ठहर गई। माँजी ने कालीपोत की माला-ढेरों सारे टिकुली के पैकेट-आईना-कंघा-रिबिन और न जाने कितनी ही चीजें खरीदीं। धनिया बार-बार सोचती भला क्यों खरीद रही होंगी माँजी। शायद उसके लिए अथवा सतिया के लिए जिसका अगली पूरनमासी पर ब्याह जो होना था। यंत्रवत्ï धनिया खरीदी गई वस्तुएँ करीने से झोले में रखती जाती। फिर गोटा-चांदी के दुकान में रुकते हुए हंसली-दोहरी-कंगन-पायल-बाजूबंद और न जाने कितनी ही वस्तुएँ खरीदीं। “माँजी, ये सब किसके लिए हैं?” लगभग मध्यम स्वर में धनिया ने पूछा।
“कुछ तो तेरे लिए और कुछ तेरी सहेली सतिया के लिए।”
“कितना प्यार करती हैं आप हम आदिवासियों से।” धनिया ने सहजता से कृतघ्नता प्रकट करते हुए कहा।
“हाँ, ये बात तो सच है कि दिल में तुम लोगों के प्रति हमेशा से ही प्यार का ज्वारभाटा मचलता रहता है, फिर ये हमारा ही नहीं बल्कि सभी लोगों के मन में भी इस तरह की भावनाएँ होनी चाहिए। चल अब घर चलें।” माँजी ने कहा।
“मैं अगर थोड़ी देर ठहर कर आऊं तो आप बुरा न मानेंगी न?” धनिया ने अहिस्ता से कहा। माँजी जानती थीं कि धनिया का मन कल्लू का सानिध्य पाना चाह रहा होगा तभी तो लजाते हुए उसने रुक जाने का मन बनाया था।
“अच्छा जल्द ही लौट पडऩा।” कहती हुई वे आगे बढ़ गईं।
बाजार से थोड़ा हटकर पुरुष-महिलाएँ घेरा बनाए हुए बतिया रहे थे। धनिया की चाल में एक अलग ही किस्म का आवेग था। तितली बनी उड़ती डोलती सी वह मस्तानी चाल में उड़ी चली जा रही थी। दूर से जब उसने अपने स्वजनों को बैठा पाया तो उसकी प्रसन्नता का पारावार देखने लायक था। सतिया से मिलते हुए उसने अपने सीने से चिपका लिया और न जाने किस आवेश के चलते उसके गाल पर अनेक चुंबन जड़ दिए। सतिया भी परेशान सी हो उठी कि आज धनिया को हो क्या गया है। फिर एक ओर बैठते हुए बतियाने लगी। बातों ही बातों में उसने उसके लिए क्या-क्या खरीदा है सब उगल दिया। अनायास ही सतिया की आँखें डबडबा आईं। शायद इस सोच के चलते कि दोनों पति-पत्नी आदिवासी जनजीवन से कितना जुड़ाव रखते हैं। सप्ताह भर पहले आ जाने का वादा करते हुए धनिया वापिस हो ली।
आए दिन गए ओझा कोई न कोई षड्ïयंत्र अवश्य रचता। कभी डराने की गरज से तो कभी भय पैदा करने की गरज से वह आटा का पुतला बना लाल पीले रंग में रंगता और अंधियारा गहरा जाने के साथ ही डाक्टर के आवास के सामने रख आता। कभी नींबू पर कीलें गड़ा कर, उस पर सिंदूर अथवा कुमकुम डालकर रख आता। उसकी दिली इच्छा थी कि ऐसा करने पर डाक्टर डर जायेगा और फिर घाटी में उतरने की हिम्मत नहीं करेगा। सारे धतकरम करने के बाद भी डाक्टर ने अपनी हिम्मत नहीं हारी और वह अब प्राणपन से अपने काम को अंजाम देता रहा।
सतिया की शादी में सप्ताह भर पहले जाने की जिद धनिया करने लगी। डाक्टर तो यह चाहता था कि शादी के दिन सभी जाएँगे इक_ट्ठे और वापिस भी हो लेंगे। पर धनिया अपनी ही जिद पर अड़ी रही। डाक्टर यह भी जानता था कि ओझा अपनी सीमाएँ तोड़ बैठेगा और अकेली दुकेली जान धनिया को शारीरिक नुकसान भी पहुंचा सकता था। धनिया के मन में कहीं डर न बैठ जाए शायद इसके चलते वह खुलकर बोल नहीं पा रहे थे। जब धनिया नहीं मानी तो उन्होंने एक आदमी को साथ लेकर जाने के लिए कहा। डाक्टर चाहता था कि वह आदमी उसे सही सलामत सतिया के यहाँ तक छोड़ आए। थोड़ी दूर तक तो वह भेजे गए आदमी के साथ चलती रही फिर उसे वापिस हो जाने के लिए प्रार्थना करती रही। अब एक आजाद परिन्दे की तरह वह फुदकती-इठलाती-गुनगुनाती पहाड़ी उतरने लगी।
ढेरों सारे सामान की गठरी लादे जब वह सतिया के घर पहुंची तो वहाँ का उत्साह देखने लायक था। हर कोई अपने आप में मगन था। धनिया को अपने बीच पाकर शायद उनका आनन्द द्विगुणित हो गया था। देर रात तक गीतगारी होती। मटकों से दारू उतारी जाती और औरत-मरद साथ बैठकर गटकते। बच्चे भी भला पीछे रहने वाले कहाँ थे। वे भी नजरें चुराकर दोना दो दोना गटक जाते। हास-परिहास ठिठोली में दिन कब बीत जाता, पता ही नहीं चलता। सखी-सहेलियों के आग्रह पर उसने भी चढ़ा रखी थी। फिर कल्लू भी तो चाहता था कि धनिया के साथ रात भर ठुमका लगाता रहे। देर रात तक नाचना-गाना-बजाना चलता रहा।
धनिया की आँख खुली तो देखा सूरज सिर पर ऊपर तक चढ़ आया है। आँखें मटमटाते हुए उसने महसूस किया कि सारे लोग उदासी ओढ़े बैठे हैं। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक हो क्या गया। जब उसने कारण जानना चाहा तो पता चला कि सतिया रात में घर से भाग गई। सारे लोग उसे खोज-खोज कर थक गए। पर वह मिल नहीं पा रही है। धनिया ने पूरा किस्सा सुना तो उसके होंठ गोल हो आए। बनावटी उदासी का कारण उसकी समझ में भलीभांति आ चुका था। वह जानती थी कि शादी से पहले लडक़ी घर से भाग जाती है। वह साथ में अपने होने वाले खाविन्द को भी लेकर रफू-चक्कर हो जाती है। जंगल में छिपकर वे कहाँ रहते होंगे, ये सभी जानते हैं। पर भाग जाने पर शोक जरूर मनाते हैं। दो-चार दिन तक ये नाटक चलता रहता है। औरत मरद का जत्था जंगल का पत्ता-पत्ता छान डालने का ढोंग करता जाता है। साथ ही गीत-गारी का भी कार्यक्रम जारी रहता है। फिर शादी से एक दिन पहले दोनों को पकड़ लिया जाता है। रस्सी से बाँधकर वे दोनों को घर ले आते हैं। फिर दोनों को आमने-सामने किसी वृक्ष के तने से टिकाकर खड़ा कर देते हैं। दोनों के बीच अलाव जलता रहता है ताकि ठंड का उन दोनों पर कोई असर न पड़े। अलाव के चारों ओर औरत मरद घेरा बनाकर बैठ कर गपियाते हैं, औरतें गीत गाने लगती हैं। कोई दारू से भरी मटकी उठा लाता है तो कोई टिमकी-तुरही अथवा अन्य कोई वाद्य। टिमकी की टिमक-टिमक के बीच दोना भर-भर कर दारू बाँटी जाती है। जब अच्छा खासा नशा सवार हो जाता है तो औरत मरद एक दूसरे की कमर में हाथ डाले रात भर थिरकते। मस्ती मारते। हो-हल्ला मचाते। दूसरे दिन दोनों की रस्सी खोल दी जाती है। एक तरफ दुल्हन का साज सिंगार होता है तो दूसरी तरफ दूल्हे को खूब सजाया संवारा जाता है। सूरज की पहली किरण के साथ ही नगाड़ों की गूंज से जंगल मुस्कराने लगता है। ढेरों सारी रस्मों को पूरा कराता रहा ओझा। दोनों को आमने सामने बिठा आँय-बाँय न जाने क्या-क्या बकता। ये तो वही जाने। फिर एक दोना दारू बुलवाई जाती। आधी दुल्हन पीती तो उसी दोने में बची आधी दूल्हा। दोना खाली होते ही हो जाता दूसरा नेंग। जामुन की एक हरी डाली तोडक़र लाई जाती। उस डाली को जमीन में गड्ढा खोद कर लगा दिया जाता। फिर दूल्हा-दुल्हन उसके चार-पाँच चक्कर लगाते। इस तरह दो जान एक हो जाते।
धनिया को मालूम है कि सतिया और भद्दू इस समय कहाँ छुपे होंगे। अगर वह चाहे तो एक मिनट में दोनों को पकड़ कर ला सकती है। पर वह जानती है कि सामाजिक परम्पराओं को निबाहने के लिए ही ये सब किया जाना आवश्यक है। उसका मन तो कल्लू को ढूंढऩे के लिए उतावला हुआ जा रहा था।
अलाव के चारों ओर बैठे मरद और औरतें चुहलबाजियां कर रहे थे। यही तो मौका होता है शादी विवाह में, जब दोनों पक्ष बैठकर हास-परिहास करते हैं। मन नहीं लग रहा था धनिया का, वहाँ बैठने को। नजरें बचाकर वह उठ बैठी और अभी आती हूं कहकर चल पड़ी। जानती थी वह कि झरने के किनारे कल्लू बैठा उसका इंतजार कर रहा होगा।
पहाड़ की चोटी से उतरते हुए देनवा अपनी अधिकतम गति से शोर मचाती हुई आती है और फिर एक बड़ी-सी पहाड़ी पर से झरना का आकार लेते हुए गहराईयों में छलांग लगा जाती है। तेजी से नीचे गिरती हुई जलराशि, एक अट्टहास पैदा करते हुए झाग उगलने लगती है। साथ ही चारों ओर धुआँ-सा भी उठ खड़ा होता है। नदी में बनते भंवरों ने पहाड़ में जगह-जगह सुराख-से भी बना डाले थे। यह प्रक्रिया एक दो दिन की नहीं बल्कि बरसों से सतत चल रही प्रक्रिया का नतीजा था। आदमी एक सुराख में पूरा समा जाए इतनी गहराईयां तो बन चुकी थीं। वह एक दर्रे से घुसता तो दूसरे से जा निकलता।
धनिया नजरें बचाती हुई उस ओर बढ़ी चली जा रही थी। चांद अपने पूर्ण यौवन पर था। झरने के किनारे पहुंची तो लगा कि चांदी पिघल कर बही जा रही है। उसे मालूम था कि यहीं कहीं कल्लू बैठा उसकी प्रतीक्षा कर रहा होगा। दूर से ही उसने एक परछाई को घूमता देखा, फिर वह आँखों से ओझल हो गया। धनिया को लगा कि कल्लू ने उसे देख लिया होगा और अब वह छुप जाने का उपक्रम कर रहा होगा। शायद उसे चखाने के लिए।
मन में एक विशेष उमंग लिए धनिया आगे बढ़ती चली गई। वह उस ओर निर्भीकता से बढ़ी चली जा रही थी, जहाँ उसने एक परछाई को अभी-अभी डोलते देखा था। जब वह वहाँ पहुंची तो देखा, वहाँ कोई नहीं था। दिल धक से धक-धक करने लगा। कहाँ चला गया होगा कल्लू, उसने अपने आपसे प्रश्न किया। सफेद झक प्रकाश में उसकी नजरें अपने प्रियतम को खोज रही थीं। कभी उसकी नजरें पहाड़ की गहराईयों में जा समातीं तो कभी किसी झुरमुट में।
उसे तत्क्षण ऐसा लगा कि कल्लू इसी चट्टान के पीछे छुपा होगा। उसने आहिस्ता से बढ़ते हुए उस ओर जाना चाहा। तभी किसी की मजबूत बाँहों ने उसे अपने शिंकजे में कैद कर लिया। उसने सहज में ही अंदाजा लगाया कि हो न हो कल्लू ही होगा। पर बाँहों का कसाव कल्लू का न होकर किसी और का हो सकता है क्योंकि उसके कसाव से स्वत: ही स्पष्ट था कि वह प्यार की गरज से लिपटे हुए हाथ नहीं थे, बल्कि उसके शरीर के पुर्जे-पुर्जे को तोड़ डालने के लिए कसे गए थे। हड़बड़ा उठी धनिया। उसने अपने आपको उस चुंगल से छुड़ाना चाहा। पर कसाव लगातार बढ़ता ही चला जा रहा था। चीख उठी धनिया और कसाव से मुक्त होने के लिए हाथ पाँव मारने लगी। काफी छीना-झपटी के बाद वह मुक्त हो पाई थी। मुक्त होते ही उसने पलटकर देखा। ओझा अपनी वीभत्सता के साथ अट्टहास कर रहा था। पसीना-पसीना हो आई धनिया। साक्षात्ï मृत्यु को सामने पाकर वह हड़बड़ा उठी और किसी तरह अपनी जान बचाने की सोचने लगी। ओझा अपनी मस्ती में चूर उसकी ओर एक-एक कदम आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ा रहा था। किंकत्र्तव्यविमूढ़ धनिया पीपल के पत्ते के मानिंद थर-थर कांप रही थी। हड़बड़ाहट में उसके हाथ बघनखे से जा टकराए। बघनखा हाथ में आते ही उसे लगा कि बचाव का उपाय हाथ आ गया है। बचाव की मुद्रा लेते हुए उसने बघनखे को तत्क्षण अपने पंजे में फंसाया और ओझा के अगले कदम की प्रतीक्षा करने लगी। जैसे ही वह झपटने की मुद्रा में आगे बढ़ा, धनिया ने लपककर वार कर दिया। पल भर में उसने बघनखा उसके पेट में गहरे तक धंसा दिया और झटके से बाहर खींच लिया। एक चीख के साथ ओझा धरती पर जा गिरा। उसके गिरते ही उसने पलटकर जगह-जगह से उसका माँस नोंचना शुरू कर दिया। रणचण्डिका बनी धनिया तब तक वार करती रही जब तक वह बेजान होकर एक ओर लुढक़ नहीं गया। धनिया जैसे-जैसे वार करती जाती, ओझा भयंकर गर्जना के साथ चीखता-चिल्लाता। जब धनिया ने देखा कि वह निष्प्राण हो गया है तो उसने उसे पूरी ताकत के साथ घसीटा और देनवा में फेंक दिया।
उसने नीचे झांककर देखा। चांद के प्रभाव में चांदी सा हो आया जल सुर्ख लाल हो उठा था।