धन्यवाद, शुक्रिया, परतवारिश / जयप्रकाश चौकसे

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धन्यवाद, शुक्रिया, परतवारिश
प्रकाशन तिथि :11 नवम्बर 2015


आज के दिन ही कई वर्ष पूर्व इस कॉलम का प्रकाशन प्रारंभ हुआ और पहले लेख का टाइटल था 'एक बंगला टूटे न्यारा!' अमर गायक सहगल का गीत था 'इक बंगला बने न्यारा!' उन दिनों कई सितारे अपने बंगले तोड़कर बहुमंजिला इमारत बना रहे थे। इस यात्रा का विचार श्री सुधीर अग्रवाल का था। उन दिनों फिल्म पर प्रतिदिन कॉलम किसी भी अखबार में नहीं था। बहरहाल प्रारंभ में मुझे भय था कि प्रतिदिन लंबे समय तक लिख न पाऊं परंतु पहले ही दिन से पाठकों के स्नेह ने यह ऊर्जा दी कि इतने लंबे समय तक मैं इसे निभा पाया। दरअसल, लेखक और पाठक के बीच का रिश्ता ही लेखन ऊर्जा का निर्माण करता है। ठीक इसी तरह सिनेमा की भाषा का निर्माण भी निर्देशक और दर्शक के भावनात्मक तादात्म्य से बनता है। अगर सिनेमा हाल खाली है तो जो महान बात आप करने आए, वह लोगों तक पहुंची नहीं। अत: फिल्म में सामाजिक सौदेश्यता हो या वह फूहड़ मनोरंजन हो, सिनेमा घर का भरा होना और दर्शक से तादात्म्य बनना ही महत्वपूर्ण है।

उपरोक्त सारी बातें अपने आप में संपूर्ण सत्य नहीं है। बरसों पूर्व विदिशा का एक युवा मुझसे मिलने आया। उसने कहा कि वह मेरे सभी लेख पढ़ता है परंतु कुछ लेख उसे समझ में नहीं आते, फिर भी उसकी अवधारणा थी कि वे लेख अच्छे हैं। मुझे समझ में आया कि मुझे शास्त्रीय संगीत सुनने में आनंद आता है परंतु उस महान विधा का मुझे कोई ज्ञान नहीं है। संसार में ऐसा बहुत कुछ है, जिसे हम समझ नहीं पाते परंतु हम उसे पसंद करते हैं। समझ से ज्यादा समझ न पाना भी हमारे आनंद के रास्ते में अवरोध नहीं बनता। दरअसल हजारों वर्षों के विकास के बाद भी जीवन और सृष्टि के संचालन के रहस्य को हम कहां समझ पाते हैं। कोई रोग किसी पुरोधा को हुआ है और कई पीढ़ियों के गुजरने के बाद वही रोग वर्तमान पीढ़ी में आ जाता है। अब बताइए जिन पारीवारिक पुरोधाओं की संपत्ति या संस्कार हमने नहीं लिए, उनके रोग कैसे आ गए। जीन्स की यात्रा पर कुछ किताबें लिखीं गई हैं, जिनमें से एक 'जर्नी ऑफ जीन्स' की तलाश मैंने शुरू कर दी है। वैचारिक संसार का थोड़ा-सा कोना ही ज्ञान के प्रकाश में है और अंधकार असीमित है परंतु महत्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य के प्रयास जारी हैं, इसीलिए कहते हैं कि मंजिल से अधिक महत्वपूर्ण है, उसकी ओर सतत चलते रहना। शैलेंद्र की गैर फिल्मी पंक्तियां हैं, 'चलते-चलते थक गया मैं और सांझ भी ढलने लगी तब राह खुद मुझे अपनी बांहों में लेकर चलने लगी।'

इस कॉलम के लिखने की प्रक्रिया ने मुझे बेहतर इंसान बनाने का काम किया है अौर यह प्रक्रिया जारी है, इसकी अज्ञात एवं अदृश्य मंजिल का पता नहीं परंतु चलना जारी है। इस कॉलम में कई बार चूक हुई है और पाठकों ने मुझे बताया है। मैं कोई नेता तो नहीं, जो अपनी गलती पर खेद न जताऊं। कई बार इसमें उद्‌धृत कविता या शेर में मात्रा व वज़न सही नहीं था परंतु मेरा अाशय पाठकों तक पहुंचा और मैंने गलती भी स्वीकार की है।

आज कॉलम लिखना प्रारंभ करते ही कवि चंद्रसेन विराट का फोन आया कि आज मेरा यह साधारणीकरण गलत था कि सृजन करने वाले आम आदमी के दर्द को महसूस करते हैं और सारे अच्छे लेखक वामपंथी हैं। विराट ने बताया कि शेक्सपीयर, जयशंकर प्रसाद व निराला वामपंथी नहीं होते हुए भी महान हैं। मैंने अपनी चूक स्वीकार कर ली और साथ ही यह विचार भी आया कि शेक्सपीयर, प्रसाद व निराला वामपंथी नहीं हैं परंतु वे 'राइटिस्ट' भी नहीं हैं। बहरहाल, महत्वपूर्ण यह है कि जो पाठक मुझसे सहमत नहीं, वे भी संवाद करते हैं और मुझे अच्छा लगता है। आज की राजनीति का यही दुर्भाग्य है कि जो हमारे साथ सहमत नहीं, वह हमारा शत्रु है।

बहरहाल, आज पत्रकारिता के क्षेत्र में संपादक द्वारा दी गई जंजीर तक ही लेखक का सारा सैर-सपाटा है परंतु श्री सुधीर अग्रवाल ने मेरी स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखा और समय-समय पर इस आशय के आदेश भी जारी किए। मुझे जंजीर मुक्त रखने का शुक्रिया। भास्कर की इस पहल का भी स्वागत किया जा रहा है कि हम गैर-जवाबदार वक्तव्य नहीं प्रकाशित करेंगे। आज गणतंत्र का ढांचा चरमरा रहा है और गणतंत्र के चौथे पाए पत्रकारिता का महत्व अत्यंत बढ़ गया है। बहरहाल, पाठकों को दीप उत्सव की बधाई और स्नेह देेने के लिए धन्यवा। 'औरों जैसे होकर भी बाइज्जत हैं बस्ती में कुछ लोगों का सीधापन है, कुछ अपनी अय्यारी भी।'