धरती आबा / हृषीकेश सुलभ
लौटकर आऊंगा मैं, ...जल्द ही लौटूंगा मैं अपने जंगलों में, अपने पहाड़ों पर। ...मुंडा लोगों के बीच फिर आऊंगा मैं। ...तुम्हें मेरे कारण दुःख न सहना पड़े इसलिए माटी बदल रहा हूँ मैं। ...उलगुलान ख़त्म नहीं होगा। आदिम खून है हमारा। ...काले लोगों का खून है यह। भूख...लांछन...अपमान...दुःख...पीड़ा ने मिल-जुलकर बनाया है इस खून को। इसी खून से जली है उलगुलान की आग। यह आग कभी नहीं बुझेगी ...कभी नहीं। ....जल्दी ही लौटकर आऊंगा मैं।
बिरसा मुंडा का यह संवाद नाटक धरती आबा का मुख्या कथ्य है। धरती आबा मुंडा जनजाति के नायक बिरसा मुंडा के जीवन-प्रसंगों पर आधारित है। छोटानागपुर के जंगलों में मुंडा, हो, उराँव, संथाल आदि जनजातियाँ युगों से निवास करती रही हैं। ये प्रकृति के सहचर रहे हैं। प्रकृति से इनके आत्मीय संबंध ने इनके जीवन-बोध को निश्छल मानवीय संवेदनाओं से पूरित किया है। अपनी परम्पराओं, विश्वासों, आस्थाओं और अपनी सहज-सरल जीवन-पद्धति के कारण इन्होंने धरती को माँ की तरह पूजा है और धरती की सम्पदा की रक्षा की है। इसके बावजूद इन्हें लगातार तथाकथित सभ्य समाज के प्रपंचों का शिकार होना पड़ा है। इस तथाकथित सभ्य समाज ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए इनके जीवन की निजता को नष्ट किया और इनकी सम्पदा को लूटा। देखते-देखते इन जनजातियों का जीवन संकटग्रस्त हो गया। बाहरी लोग, जिन्हें ये आज भी दिकू कहते हैं, मालिक और जमींदार बन बैठे। अंग्रेज आए और उन्होंने भी इन दिकुओं-जमींदारों-महाजनों के साथ मिलकर दमनचक्र को तेज किया। अंग्रेजों और देसी जमींदारों की दुरभिसंधियों ने जनजातियों को उनके जंगलों, उनकी धरती, उनके वनोपजों और उनके पशुधन से बेदखल कर दिया। इस अन्याय के विरुद्ध सिधु-कानू, तिलका मांझी और बिरसा मुंडा जैसे नायकों ने संघर्ष किया और अपनी जातीय चेतना, परम्परा, धरती और मनुष्य की गरिमा को स्थापित किया।
बिरसा का जीवन संघर्ष का पर्याय है। पहले वह अपने मिशन स्कूल में मुंडाओं के प्रति अपमानजनक टिप्पणियों का विरोध करता है और स्कूल छोड़ देता है। जंगल के निवासियों के जीवन के दुःख उसे लगातार परेशान करते हैं और वह मुंडाओं को नई जीवन-पद्धति तथा नई सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था की ओर ले जाता है। धीरे-धीरे वह मुंडाओं के भीतर गुलामी से लड़ने के लिए साहस और भूख पैदा करता है। पहले से चला आ रहा सरदार मुंडाओं का आंदोलन भी बिरसा के आंदोलन के साथ हो जाता है। धरती और जंगल पर अधिकार वापसी के लिए शुरू हुआ यह आंदोलन विदेशी शासन से मुक्ति के संघर्ष में बदल जाता है। सूखा, अकाल, भूख, महामारी से जूझते हुए ब्रिटिश साम्राज्य को चुनौती देनेवाले मुंडाओं के नायक बिरसा की मृत्यु जेल में होती है। तमाम सरकारी अभिलेखों में दर्ज़ तथ्यों पर आज भी जनता विश्वास नहीं करती। बिरसा की बीमारी से मृत्यु का झूठ और अस्वाभाविक मृत्यु का सच विश्वास की तरह आज भी कायम है।
धरती आबा नाटक बिरसा मुंडा के वक्तित्व और उलगुलान आंदोलन के माध्यम से हमारे स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के कई ऐसे पन्नों को खोलता है, जिनमें समाज के अंतिम कतार में खड़े मनुष्य की चेतना शामिल है। यह नाटक बिरसा वह दावे जीवन संघर्षों पर केंद्रित है। बिरसा के संघर्ष भरे जीवन में मुंडाओं के लिए स्वप्न हैं। जनजातीय समाज के नायक बिरसा मुंडा पूरे भारतीय समाज के नायक के रूप में उभरते हैं और गुलामी के कठिन जीवन से मुक्ति के लिए आंदोलन आरम्भ करते हैं। बिरसा मुंडाओं के प्रति अपमानजनक टिप्पणियों के कारण मिशन स्कूल ही नहीं छोड़ देते, बल्कि जनजातीय देवताओं और प्रचलित हिंदू देवताओं से संबंधित कर्मकांडों के प्रति अनास्था भी प्रकट करते हैं। वह धर्म के महत्व और स्वरुप की अपनी निजी व्याख्या करते हैं और एक ऐसे धर्म की स्थापना करते हैं, जहाँ भय नहीं विस्वास है और साथ ही नए स्वतंत्र जीवन की चाहत है। वह मुंडाओं को संगठित करते हैं और नई सामाजिक व्यवस्था तथा आज़ादी के लिए लड़ते हैं। पहली बार की गिरफ्तारी और जेल की सज़ा काट कर लौटने के बाद वह मुंडाओं को नए सिरे से संगठित कर आंदोलन करते हैं।
धानी जनजातीय संघर्षों का पारंपरिक सूत्र है और बिरसा की कथा को उसके मध्यम से मंच पर नाटकीय विस्तार दिया गया है। कर्मी बिरसा की माँ है, पर वह धरती का प्रतीक बन जाती है। प्रचलित कथाओं के अनुसार बिरसा ने स्वयं को भगवान घोषित किया और मुंडाओं के बीच समतामूलक नए धर्म की स्थापना भी की। उन्होंने अपने आंदोलन को उलगुलान नाम दिया। उनके इस आंदोलन ने अंग्रेजों की प्रभुता को चुनौती दी तथा गैर-बराबरी पर आधारित तत्कालीन समाज-व्यवस्था, न्याय-व्यवस्था और सरकार की जड़ें हिला दीं। इस लड़ाई में मिली पराजय और जेल में बिरसा की मौत के बाद भी उनके आंदोलन उलगुलान की आग सुलगती रही, जिसने बाद में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को नई शक्ति दी। बिरसा के जन्म स्थान और तिथि के बारे में कई दावे हैं, पर यह तै है कि उनका जन्म उन्नीसवीं शती के आठवें दशक (सन्१८७२ से सन् १८७६ के बीच) में हुआ और ९ जून सन् १९०० को अल्पायु में जेल में उनकी मृत्यु हुई। भगवान और धरती के आबा (पिता) के रूप में उनका संघर्ष आज भी हमारे जीवन को प्रेरित करता है। बिरसा मुंडा का नायकत्व मनुष्य के मुक्ति-संघर्ष का धवल प्रतीक है। धरती आबा नाटक में तत्कालीन शासन और अंग्रेजों द्वारा बिरसा के सन्दर्भ में फैलाई तथा सरकारी अभलेखों में दर्ज़ की गई रूढ़ियों से परे जाकर भी बहुत कुछ रचने का प्रयास किया गया है।