धरती और जीवन की रिपीट-वैल्यू / जयप्रकाश चौकसे

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धरती और जीवन की रिपीट-वैल्यू
प्रकाशन तिथि :26 दिसम्बर 2014


राजकुमार हीरानी की 'पीके' के अंतिम दृश्य में अन्य उपग्रह का व्यक्ति दोबारा धरती पर आता है आैर इस बार अपने साथी को भी लाता है। साथी के पात्र में रणबीर कपूर को देखते हैं। कुछ लोगों का अनुमान है कि राजकुमार हीरानी 'पीके' का दूसरा भाग बना सकते हैं, जैसे उन्होंने मुन्नाभाई एमबीबीएस के बाद 'लगे रहो मुन्नाभाई' बनाई थी। हमारे लिए यह जानना जरूरी नहीं है कि क्या भाग दो बनेगा। फिल्म का नायक अपनी प्रथम यात्रा में मनुष्य के अंधविश्वास, कुरीतियां आैर असमानता आधारित व्यवस्था को देखता है आैर इस तरह की अनेक बातें कहता है कि इस 'गोले' (पृथ्वी) के लोग प्रेम छुपकर करते हैं आैर हिंसा तथा अभद्र व्यवहार खुलकर सरेआम करते हैं। अब गौरतलब यह है कि इस 'गाेले' में असमानता, अन्याय इत्यादि जानते हुए भी वह दोबारा क्यों आता है? आखिर इस बिगड़ी आैंधी दुनिया का आकर्षण क्या है? फिल्म उद्योग की जबान में 'रिपीट वैल्यू' का अर्थ होता है मनोरंजक फिल्म को दोबारा देखना। क्या यह धरती भी 'रिपीट वैल्यू' वाली फिल्म है आैर अगर असंपादित भी है तो भी शायद बहुत मजेदार है कि अन्य उपग्रह के 'जीव' यहां बार-बार आना चाहते हैं। क्या यह प्रकरण 'ताजमहल' या अन्य सुरम्य स्थानों की तरह है, जहां पर्यटक बार-बार आते हैं। क्या यह प्रकरण कुछ इस तरह है कि 26/11 को मुंबई पर हुए नृशंस हत्याकांड वाले स्थानों पर पर्यटक बार-बार आते हैं आैर होटल की दीवार पर लगी गोली जिसके गिर्द अब फ्रेम लगा दी है, मानो वह यादगार चित्र है, की तरह 'उजाड़ के सौंदर्य' के लिए पर्यटक आते हैं। इस धरती पर तो आतंकवाद की भी 'रिपीट वैल्यू' है, क्योंकि आतंकवाद किसी का व्यापार भी है आैर वह ग्राहक की 'रिपीट वैल्यू' का मुंतजिर है।

नीरद चौधरी की किताब 'हिंदुइज्म' में वे लिखते हैं कि धरती के आकर्षण के कारण हमने पुनर्जन्म अवधारण को जन्म दिया है। हम इस धरती के भोग विलास में इतने मग्न रहे हैं कि यहां बार-बार आना चाहते हैं। किसी अन्य धर्म में यह अवधारणा नहीं है परंतु पुनर्जन्म पर साहित्य सिनेमा में अनेक रचनाएं होती रहीं हैं आैर डाॅ. वीज ने इस पर अनेक किताबें लिखी है। इस अवधारणा की लोकप्रियता का भी कारण संभवत: धरती में विलास की सुविधा या इसकी सर्वव्यापी विविधता है। 'पीके' का नायक भी कहता है कि वह एक बार चांद पर गया था परंतु वहां सिर्फ धूल है।

इस धरती पर अनेक कष्ट हैं, जीवन में भी जाने कितनी व्याधियां आैर संकट हैं, फिर भी इसका मोह कोई छोड़ना नहीं चाहता। यहां तक कि स्वर्ग के सुख की एकरसता भी उबाऊ हो सकती है अर्थात 'धरती' की तरह 'स्वर्ग' की रिपीट वैल्यू नहीं है। जीवन की अनिश्चितता, विविधता ही उसका स्थायी आकर्षण है। उसका अनप्रडिक्टिबल होने में ही उसका मजा है। जीवन अलिखित पटकथा पर बनी असंपादित रीलें हैं आैर प्रेम-कथा कोई सबप्लॉट नहीं वरन् केंद्रीय आकर्षण है। प्रेम ही एकमात्र भावना है जिसका कोई समापन है आैर ना कोई परिणाम। प्रेम कुछ ऐसा ही है जैसा शैलेंद्र के एक गीत की पंक्ति "तू आए आए, हम करेंगे इंतजार, ये मेरा दीवानापन है या मोहब्बत का सुरूर'।

इस धरती आैर जीवन के सुख- दु:ख, इसकी अन्याय आधारित व्यवस्था आैर इसका सनकीपन इतना आकर्षण रखता है कि मोक्ष अवधारणा भी खोखली लगती है क्या हम अस्तित्वहीन होकर अनंत में विलीन हो जाएंगे। इस आशय का महाभारत में एक श्लोक भी है। ज्ञातव्य है कि युधिष्ठिर अपने धरती के कुत्ते के बिना सशरीर स्वर्ग जा सकने वाले एकमात्र व्यक्ति हाेने से इनकार करते हैं। यह 'कुत्ता' क्या है? क्या यह धरती आैर जीवन है या उसकी चटपटी यादें हैं? इस 'गोले' के मनोरंजन का कोई जवाब नहीं है। 'यह धरती है इंसानों की, कुछ आैर नहीं इंसान हैं हम' (शैलेंद्र) हम इंसान सनकी भी हैं, विद्वान भी हैं, हम मूर्ख भी हैं, जीवन तर्कहीन भी है, हम प्रेमी भी हैं, हम कातिल भी हैं, हम जीवन संग्राम के निहत्थे सैनिक भी हैं परंतु इसकी रिपीट वैल्यू है।