धरती से नाता / मोतीलाल जोतवाणी

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बसस्टॉप पर काफी भीड़ लग रही थी और बस के आते ही सभी लोग उसके भीतर घुसने को लपकने लगे। बसन्ताणी को बस से नीचे उतरने में काफी मुश्किल का सामना करना पड़ा। नीचे उतरकर उन्होंने जरा पीछे की ओर नंजर घुमाकर देखा, भीड़ में कुछ औरतें और मर्द, औरतें और मर्द नहीं, बल्कि निरर्थक व नपुंसक वासना के मानसिक रोग से ग्रस्त जानवर थे।

सन्ध्या उतर आयी थी। महानगर की सन्ध्या गांवों की सन्ध्या से अलग हो गयी है। गांवों की सन्ध्या क्षितिज से धीरे-धीरे पहले घरों में, और फिर खेतों पर उतरती है। शहरों की शाम में घर जल्द पहु/चने की तमन्ना नहीं, आत्मीय नहीं, तृप्ति नहीं है। यहां बिजली के तेंज उजाले में भी नितान्त व्यक्तिगत भरी चादर ओढ़े हुए नहीं रहते, सभी कुछ उघड़ा-उघड़ा नंगा है।

बसन्ताणी आगे बढ़े। फैड्रेशन हाऊस अभी कुछ दूरी पर है। बीच शहर में रीगल सिनेमा-घर के पास फैडे्रशन हाऊस नामक एक बड़ा भवन है। वह भवन मानो समूचे भारत का एक छोटा-सा रूप है। उसमें इस महानगर में रहनेवाले भारत के सभी प्रान्तों के लोगों ने अपनी-अपनी सांस्कृतिक संस्थाएं स्थापित की हैं। जब वह भवन बनकर तैयार हुआ था तब उस भवन के सभी खंड ऐसी संस्थाओं से घिर गये। बसन्ताणी ने सोचा, देश-विभाजन के पश्चात् उस समय हमारे लोगों का ध्यान खाना, कपड़ा और मकान की बुनियादी समस्याओं उलझा हुआ था, अन्यथा निस्सन्देह उनकी सांस्कृतिक संस्था को भी उस भवन में यथोचित स्थान मिल जाता। हमारी संस्था के लोगों का कोई एक प्रान्त नहीं है। वे सभी प्रान्तों में बिखरे हुए हैं। देश-विभाजन की दुर्घटना से सबसे अधिक हानि उनकी हुई है। गनीमत यह है कि उन्हें उस भवन की छत पर एक कमरा डालने की इजाजत दी गयी है। तब से वह प्रत्येक रविवार को नियमित रूप से अपनी इस संस्था की बैठक में सम्मिलित होते रहे हैं।

शहर के इस रौनकदार हिस्से में शाम को मानो एक मेला-सा जुड़ा रहता है। लोगों की काफी चहल-पहल थी। नाना रंगों के कपड़े ओढ़े वे लोग अत्यन्त व्यस्त लगते थे, लेकिन, उन्होंने सोचा, यदि उनके नजदीक जाकर देखें और उनके दिलों में झाँककर जाँचें, तो वे सभी खाली समय काटने के लिए परेशान थे। मानव का काम-काज आजकल विज्ञान करता है और मानव इस प्रकार बढ़ गया समय इधर-उधर सिनेमा-घरों और कला-या व्यापार प्रदर्शनियों में व्यय करता है। परन्तु फिर भी, अपना घर-परिवार होने के बावजूद, उसे घर-परिवार के बाहर इधर-उधर झाँकने-फाँकने के लिए समय खाली मिल जाता है।

बसन्ताणी लगभग साठ साल के होंगे। लेकिन उनकी चाल में वही चुस्ती और विचार मे वही गरिमा है। वह शहर की एक दूर-दराज बस्ती में एक ढाई-मंजिले मकान की 'बरसाती' में किराए पर रहते हैं। प्राय: स्थानीय लोग और मकान-मालिक ही मकानों की निचली मंजिलों में रहते हैं। शहर में बाहर से आये लोग प्राय: दफ्तरों में मुंशी या क्लर्क हैं। इन मकानों के 'बरसाती' कमरों में उनका जीवन-निर्वाह होता है। बसन्ताणी स्वयं क्लर्क नहीं है, लेकिन उन्हें पता है कि उनकी संस्था के कुछ इने-गिने लोग हैं, जो बड़े व्यापार में लगे हैं, अन्यथा वे प्राय: छोटे दुकानदार या महज क्लर्क हैं। बसन्ताणी ने सोचा, बंगालियों को आधा बंगाल और पंजाबियों को आधा पंजाब मिला। लेकिन हम सिन्धियों को? हमारा सिन्ध पूरा-का-पूरा पाकिस्तान बन गया।

वे इन्हीं विचारों में लीन, फैडे्रशन हाउस के बाहरी आँगन में आ पहुँचे। इतने में किसी ने पीछे से आकर उनके कन्धे पर हाथ रखा। उन्होंने पीछे मुड़कर देखा, मोहन अभिवादन में मुस्कराकर कह रहा था, “बसन्ताणी जी, नमस्कार। तारों-भरे आकाश तले मकान की छत पर खाट बिछाकर लेटने से आप किसी अदृष्ट रहस्य की बात बूझ लेते हैं। पिछली रात को भी आपने ऐसा कुछ अवश्य अनुभव किया होगा। बताइएन!”

आज बसन्ताणी का दिल बस से नीचे उतरते ही उदास हो गया था और जब-जब कोई बुध्दिजीवी उदास घड़ियाँ बिताता है, तब-तब निस्सन्देह वह जीवन के किसी गहरे सत्य तक का पहुंचता है। उन्होंने गम्भीर होकर कहा, “कल रात को तो नहीं, अब इस सन्ध्या के समय मुझे ऐसा लगता है कि हम शायद अभी कितने ही साल ऐसी कोई साहित्यिक कृति ने द सकेंगे, जिसे कोई राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्तहो।”

छ: बजे बैठक की कार्यवाही आरम्भ होनेवाली थी और छ: बजने को थे। अलग-अलग रास्तों से अन्य कई लोग भी आ पहुँचे। उन सबकी कृत्रिम, खोखली हँसी में बसन्ताणी की बात खो गयी। भवन की निचली मंजिल पर गोष्ठियाँ आरम्भ हो चुकी थीं। उनके बाहर से निकलते-निकलते राम ने मोहन से कहा, “हमारी अपनी भाषा खिचड़ी हुई जा रही है। अब अपना एक प्रान्त ने होने से हमारे कान पर विभिन्न भाषाओं की आवांज पडती है। फिर क्या यह स्वाभाविक नहीं है कि उनके शब्द हमारी जबान या कलम पर चढ़ जाएं?”

मोहन ने काई उत्तर न दिया, लेकिन उसने मन-ही-मन यह अवश्य अनुभव किया कि हमारी जिन्दगी अधिकतर शहरी है और इसलिए हमारी भाषा का, शहरों में निर्वाह के योग्य, सीमित और मिश्रित शब्द-भंडार हो गया है। वह अपनी कहानी की केन्द्रीय भाव-भूमि में खोया था। उसे लगा कि उसके साथियों को वह कहानी अवश्य पसन्द आएगी। सचमुच, उसकी नायिका आधुनिक 'काम्पलेक्स' जीवन का सही-सही प्रतिनिधित्व करती है। वह एक स्कूल में अध्यापिका है। उसका नया-नया विवाह हुआ है। लेकिन उसके चेहरे पर नई-नई शादी के बाद जो ताजा चमक प्राय: दिखती है, वह नहीं है। जब-जब उसका पति उसके निकट आता है और वे दोनों बाहुपाश में बँध जाते हैं तो उसे यह विचार सताता है कि उसे इस महीने नहीं, बल्कि आनेवाले महीने ही अपने-आपको पूर्ण रूप से अर्पित करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से ही वह अपने 'मैटर्निटी लीव' को ग्रीष्मावकाश से मिलाकर स्कूल से पूरे चार महीने के लिए फरागत पा सकेगी।

राम ने पूछा, “तुमने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया। क्या सोच रहे हो तुम?”

मोहन ने उसे अपनी कहानी की समूची पेचीदगी से परिचित कराया। पास ही बसन्ताणी जीने की रेलिंग का सहारा लिए धीरे-धीरे ऊपर सरक रहे थे। भवन की दूसरी मंजिल तक आते राम ने अपनी सिगरेट का आंखिरी कश लेकर बाकी बची आधी सिगरेट का मोह त्याग दिया। उसने सिगरेट बुझाते हुए कहा, “मोहन, मेरी कहानी में भी एक ऐसा ही 'टेंशन' हैं, लेकिन मैंने वह कहानी मूल हिंदी में लिखी है। मित्र, मैं तो हिंदी-जगत में मान्य होना चाहता हूं।” और वह आधी सिगरेट का टोटा फेंककर दूसरी मंजिल पर हो रही हिंदी-गोष्ठी में चला गया। मोहन सोचने लगा, देश का विभाजन कराने में हमारा कोई हाथ न था। फिर क्यों राम से उसका असली, प्रामाणिक माध्यम छिन जाएगा? एक राम हिंदी-जगत में सफलता प्राप्त कर भी ले। बाकी लोगों की सर्जनात्मक शक्ति का क्या होगा? क्या हम केवल छोटे दूकानदार होकर ही रह जाएंगे?

बसन्ताणी का अनायास ही एक उच्छ्वास उभर आया। पीछे दो-तीन जने नजदीक आ गये थे। हरि ने बसन्ताणी से कहा, “क्यों दादा, आज आपको इस तरह जीने पर धीरे-धीरे चढ़ते देखकर मुझे लग रहा है कि आप सचमुच बूढ़े हो रहे हैं!”

उत्तर में बसन्ताणी की, जीने में जल रहे 'जीरो पावर' के बल्ब की-सी, एक फीकी मुस्कान प्रकट हुई। भवन की छत पर पहुँचे तो देखा, एक दरी बिछी हुई थी। कितने समय से उस संस्था के लोगों ने सरकार से अन्यान्य संस्थाओं की तरह अनुदान पाने का अनुरोध किया था, जिससे कम-से-कम दरी की बजाए कुर्सियाँ और मेज डाली जा सकें, लेकिन यहाँ हमारी कौन सुनता है? आज अपने रीति-रिवाज को सुरक्षित रखने के लिए भी राजनीतिक सत्ता की दरकार है। और वह सत्ता बदले हुए हालात में हमारे यहाँ कहाँ है?

वे अपने-अपने बूटों के तस्मे उतार, बूट एक किनारे लगाकर बैठते गये। बसन्ताणी का बैठने को दिल न हुआ। वह भीतर कमरे में जाकर दीवार पर टँगे शाह लतीफ, सचल और सामी के तैल-चित्र देखने लगे। उनकी आँखें नम हो आयी। वे सभी चित्र चित्रकार की उर्वर कल्पना-शक्ति के नतीजे थे। उस दूर-दराज जमाने में कवि और लेखक चित्र तो एक तरफ रहे, अपने जीवन का विवरण तक नहीं छोड़ जाते थे। लेकिन आज ऐसा नहीं है। परन्तु आज के इन कवियों और लेखकों की ये सब तस्वीरें समय की धारा में सलिम रहेंगी? वह बाहर निकल आये और छत पर रखे फूलों के गमलों को देखते रहे, देखते रहे। गमलों में सदाबहार के फूल खिले थे। बड़े सुन्दर लगते थे।

इतने में कृष्ण ने आकर उनका ध्यान भंग किया। कृष्ण के चेहरे पर सदा मुस्कान खेलती रहती है। परन्तु उसकी इस मुस्कान में कभी दूसरों पर दया का, कभी अपने-आप पर तरस का अलग-अलग भाव निहित रहता है। उसने अभिवादन में अपनी मुस्कान को गहरा बनाते हुए बसन्ताणी से कहा, “क्यों बसन्ताणीजी, यहाँ खड़े हैं? आइए, चलकर न बैठें?”

बसन्ताणी ने भी उत्तर में प्रश्न ही किया, “कैसे हो, कृष्ण? आज यहाँ तुम सिंधी काफी सुनाओगे न? काफी या वाई सुनने को जी कर आया है।”

कृष्ण बोला, “काफी या वाई में सिन्धु-घाटी की विशालता चाहिए। आजकल हम लोग शहरों की तंग गलियों में आ बसे हैं। आजकल गजल के भी वे छोटे-छोटे वजन काम आते हैं, जो हमारी इस तंग जिन्दगी से मेल खाते हैं।” बसन्ताणी ने बुझे हुए दिल से कहा, “तो तुम आज भी कोई गंजल ही पढ़ोगे?”

कृष्ण ने कहा, “हां, आधुनिक गंजल आधुनिक खम व पेच की जिन्दगी का भार वहन कर लेती है। आपको पता है, मैंने आज अपनी गजल के एक शेर में क्या कहा है?”

बसन्ताणी को कृष्ण के संवेदनशील हृदय का पता था; उन्होंने पूछा, “क्या?”

कृष्ण बोला, “अब बच्चे पैदा करने के पीछे पितृ-ॠण चुकाने जैसी कोई बात नहीं रह गयी है। बच्चे अनचाहे या केवल यौन-बुभुक्षा मिटाते पैदा हो जाते हैं; और वे बच्चे आगे चलकर अगर अपेक्षित कर्तव्य नहीं निभाते, तो उसमें उनका क्या दोष है?”

और कृष्ण ठहाका मारकर हंसने लगा। परन्तु बसन्ताणी न जाने क्यों उस ठहाके में शरीक न हो सके। उन्हें लगा, राजधानी अथवा राजधानी जैसे बड़े शहरों का जीवन भारत के जन-साधारण का जीवन नहीं है। ये शहर इन गाँवों की छत हैं। हम छत पर जीवन-यापन करते हैं। धरती से हमारा नाता टूट गया है, कट गया है। क्या आज का कामगार-किसान भी ऐसा अर्थहीन, निरर्थक जीवन बिताता है? किसान अपने बैलों को अपने बेटे जैसा मानता है, क्या उसे भी ये बैल हाँकने को अपना बेटा नहीं चाहिए? क्या उसका भी बेटा हो जाता है? वह चाहता नहीं है? चौपाया मात्र को अपनी सन्तान समझनेवाले ये गड़रिये भी क्या अपनी सन्तान की असली इच्छा नहीं रखते? उन्होंने कृष्ण से कहा, “तुम फूलों के वे गमले देखते हो?”

कृष्ण भौंचक्का-सा गमलों की ओर देखने लगा।

बसन्ताणी ने कहा, “इस छत पर हम सभी गमलों में लगे फूल हैं। अलग-अलग गमलों में, अलग-अलग प्रान्तों में, हमारी सदाबहार कला की खुशबू और खूबसूरती निश्चय ही विकास पा रही है, परन्तु ये फूल सीमित गमलों में लगे हैं और ये गमले धरती से बहुत ऊपर छत पर रखे हैं। हमारा अपनी भूमि से रिश्ता टूट गया है। इसलिए हम लोगों द्वारा रचित पात्र कृत्रिम हैं; वे नई दिल्ली के कनॉट प्लेस या बम्बई के फ्लोरा फाउंटेन क्षेत्रों में घूमनेवाले कोई भी लोग हैं। उन पात्रों का कोई चेहरा-मोहरा है? आल ऑफ दे आर फेसलेस-उनकी कोई अलग पहचान, कोई अलग व्यक्तित्व है? लगता है, सब भीड़-भाड़ में खो गये है।”

कृष्ण उनकी ओर एकटक देखता रहा। बसन्ताणी ने उच्छ्वास भरकर कहा, “आज छत पर इस बैठक में सम्मिलित होने को मेरा जी नहीं कर रहा।”

और वे लम्बे-लम्बे डग भरते हुए नीचे जाने के जीने की ओर चले गये। कृष्ण के मस्तिष्क में एक लोमहर्षक विचार बिजली की तरह कौंध गया, “अरे! ऐसा न हो कि कल समाचार-पत्रों में यह पढ़ने को मिले कि धरती से नाता जोड़ने के विचार से एक सिंधी-लेखक की फैड्रेशन हाऊस की छत पर से तेजी से जीना उतरते हुए मृत्यु हो गयी!”

और दूसरे ही क्षण, वह किसी ऐसी मृत्यु की प्रतीक्षा करने लगा।