धर्मचक्र, राजचक्र / मनोज श्रीवास्तव
बदलाव के बयार में सारा गाँव बह गया। लोगबाग ही नहीं, कच्चे-पक्के घर, घास-फूंस के झोपड़े, पेड़-पल्लो, खेत-खलिहान आदि सभी पर बौद्धधर्म का ठप्पा लग गया। दरवाजे-दरवाजे 'बुद्धम् शरणम् गच्छामि' लिखा गया। बच्चों को छोड़, सभी ने मूड़ मुड़वाए। गेरूए लबादे पहने। यहाँ तक कि अंबेडकर की आदमकद प्रतिमा को भी बाकायदा गेरूआ वस्त्र पहनाकर 'बुधबाबा' बनाया गया। इस बौद्धीकरण के खुमार में गाँववालों ने मध्यम मार्ग पर चलकर असीम शांति का अनुभव किया। उन्हें हिन्दुओं की सड़ी-गली संस्कृति से तौबाकर बेहद सुकून मिला। दीर्घकालीन शोषण से निजात मिला। छुआछूत और ऊँच-नीच की घिनौनी परंपरा से छुटकारा मिला। भेदभाव मिटा। जातीय संकीर्णता दूर हुई। बेशक, सारा अंबेडकर गाँव निर्मल हो गया। बौद्धर्धम में स्नानकर तरोताजा हो गया।
इस सामूहिक धर्मपरिवर्तन के कुछ महीनों बाद तक वे बौद्धगुरूओं और बौद्धभिक्षुओं की तरह आचरण करते। परस्पर उनके उपदेश सुनते-सुनाते रहते। क्योंकि स्वाजी जी अपने दल-बल समेत जाते-जाते उन्हें बता गए थे कि, "तुमलोग मन-कर्म-वचन से बौद्ध धर्म धारण करना......" इसलिए, जब बिरजू बाप भी बना तो बड़े विधि-विधान और नेम-धरम से.... इस मौके पर अपने परिजनों और गाँववालों को सुअर के माँस की दावत देते हुए उनसे हाथ जोड़कर कहा, "अब आपजने बुधबाबा का सुमिरन करके ईं हमारा भोज जीमिए।" तब, सभी 'अहिंसा परमौ धर्म:' हुंकारते हुए भोज चांभने लगे। भरूके में ठर्रा उड़ेलने लगे।
हल्देव सत्यार्थी दाँत पीस रहे थे। क्योंकि यह सब कुछ एकदम उनकी नाक के नीचे घटित हो रहा था जो उन्हें बिल्कुल नागवार गुजर रहा था। अभी उन्हें विधायक बने जुम्मे-जुम्मे तीन साल ही तो हुए हैं। गाँववालों ने उन्हें चुनाव जिताने में क्या-क्या नहीं किया था? यह भी परवाह नहीं की कि उन्हें एक सवर्ण पार्टी से टिकट मिला है। बस, मन में एक धुन था कि वे हल्कू भैया को ताज पहनाने के लिए आकाश-पाताल एक कर देंगे। लेकिन, यह क्या? हल्देव सत्यार्थी गिरगिट-सरीखा रंग बदलने लगे। वह ज्यादातर समय तो लखनऊ में गुजारते। जब अंबेडकर गाँव आते तो मुलाकातियों से सिर दर्द का बहाना बनाकर अपने आरामगाह में दुबके रहते। यों तो, चार-पाँच महीने तक सब ठीक-ठाक चलता रहा। महीने में गाँव का दो-तीन चक्कर तो लगा ही जाते। आते ही कहते कि शहरी रौनक में उनका एकदम जी नहीं लगता है। वह सभी के साथ उठते-बैठते। साथ-साथ खैनी मीसते, खाते। किसी भी परिचित के घर जाकर लिट्टी-चोखा खाते। अपने लंगोटिया यारों का अंगोछा खरहरी जमीन पर बिछाकर और एक-दूसरे को टेककर सूरज के ढलने तक बतियाते रहते कि 'चन्द सालों में ही हम अपने गाँव का नक्शा बदल देंगे'.....'कि हमारे गाँव का धधकता लिलार देखकर बड़े-बड़े सनातनी बांभन भी इसको चमरौटी कहने से बाज आएंगे'.....'कि हमारे गाँव की कीरत दूर-दूर फैलेगी' आदि-आदि। तब, बिरजू का सीना गुरूर से चौड़ा हो जाता और वह एकदम से चिल्लपों करने लगता-'हल्कू भइया, देख लेना, हम मिलजुलकर अपने जीवट और मेनहत से अपन गांव में सरग उतार लाएंगे......'
पता नहीं क्या सोचकर हल्देव सत्यार्थी ने गाँववालों की महत्तवाकांक्षाओं को इस तरह एड़ लगाई कि वह फुर्र-फुर्र उड़कर आसमान छूने लगी? वह उन्हें दिवास्वप्न दिखाकर उनकी इच्छाओं को पंख लगा देते। ऐसे मे, खासकर नौजवान बढ़-चढ़कर बातें करने लगते। गाँव के बाहर छाती तानकर घूमते। दूसरे गाँव के बड़े लोग भी उन्हें देख, कतरा जाते। विधायक के गाँव के लौंडों से लफड़ा कौन मोल ले? हल्कू पासवान अब कोई मामूली आदमी नहीं रहा। बड़ा आदमी बन गया है। नाम बदलकर हल्देव सत्यार्थी बन गया है। टुटपुंजिया नेता नहीं, राजनेता बन गया है। कितने बाबूसाहब भी उसकी पैलगी करने से नहीं चूकते!
जब यशस्वी सत्यार्थी जी पर कुबेर की दयादृष्टि पड़ी तो उनके तेवर बदलने लगे। आदमी के स्वभाव को समय नहीं बदलता, उसकी उपलब्धियाँ उसे बदलने लगती हैं। जिस बूढ़े बौने का कद अचानक बढ़ने लगे, उसे सारी दुनिया ही ठिगनी दिखने लगती है। उन्होंने गाँव में अपने झोपड़ मकान के स्थान पर ऐसी कोठी खड़ी की कि इसकी चर्चा से दूर-दराज के हवेलीनुमा मकानों की आँखें भी चौंधिया गईं। कोठी के परिसर में पक्का तालाब खुदवाया और तालाब के चारो ओर रंग-बिरंगे फूल-पौधे लगवाए ताकि वह जलक्रीड़ा करके सीधे फूलों से रू्-ब-रू् हो सकें। फिर, कोठी की रौनक में चार-चाँद लगाने की गरज से अपनी हैसियत के मुताबिक एक चमचमाती कार खरीदी। प्रवेशद्वार पर पहाड़ी संतरी तैनात किया। कोठी से मुख्य मार्ग तक पक्का रास्ता बनवाया ताकि उनकी गाड़ी ऊबड़-खाबड़ रास्ते से चलते हुए हिचकोले न खाए।
एक दिन जब वह टेलीफोन पर मुख्यमंत्रीजी से गुफ्तगू कर रहे थे तो उन्हें एकबैक एहसास हुआ कि वह बहुत बड़े हो गए हैं। सो, उन्हें आम आदमी और खासकर अपने वाहियात गाँववालों से एक मुनासिब दूरी बनाए रखनी चाहिए। वह गंभीरता से आत्ममंथन करने लगे और बड़ा बनने की कवायद में उन्होंने पहले गंवई बच्चों की उपेक्षा की, फिर अपने दोस्तों की और उसके बाद बुजुर्गों की।
गाँववालों की यह बात बेहद अखर गई थी कि हल्कू भइया ने एमेल्ले बनते ही अपना नाम बदलकर हल्देव सत्यार्थी क्यों रख लिया। लेकिन जब वह कुछ समय बाद गाँववालों से मुंह चुराने लगे तो सभी भांप गए कि कुछ दाल में काला जरूर है। बिरजू ने मन ही मन कहा - 'हमारी ही बिरादरी का मनई हमीं से भेदभाव करता है। हमारे बच्चों की हिकारत करता है। बड़े-बुजुर्गों से कतराकर उनकी तौहीन करता है। स्साला देश का नेता बनते ही आसमान में उड़ने लगा। हमसे ऐसे परहेज करता है जैसेकि वह बांभन हो और हमलोग चमार।'
चुनांचे, सत्यार्थीजी को जो बात सबसे बेहूदी लगी थी, वह थी - गाँववालों का सामूहिक बौद्धीकरण। दूसरे, जो आदमी आँखों की किरकिरी बना हुआ था, वह था - बिरजू, जो गेरूआ लबादा पहन, मूड़मुड़ाकर खांटी बौद्ध बनने की नौटंकी कर रहा था और लोकप्रियता में उन्हें खुल्लमखुल्ला चुनौती दे रहा था। उन्हें इस बात का बड़ा कोफ्त हो रहा था कि बिरजू ने गांववालों के सामूहिक बौद्धीकरण में शत-प्रतिशत सफलता हासिल करके गाँव के पालिटिक्स में बाजी मार ली है। इसलिए, सियासी उसूलों के मुताबिक रास्ते के ऐसे काँटे को दरकिनार करना ही फायदेमंद होगा। क्योंकि छोटे लोगों में सामाजिक जागरूकता शीघ्र ही राजनीतिक जागरूकता में तब्दील हो जाती है। अत: उनकी बिरजू से व्यक्तिगत स्पर्धा ही उनकी बौद्धधर्म के प्रति नफरत की इकलौती वज़ह बनी।
हल्देव के व्यक्तित्व में एक भारी बदलाव यह आया था कि वह स्वर्गीय धनीराम मिसिर की मुक्त कंठ से प्रशंसा करने लगे थे। वह मन से मान चुके थे कि मिसिर जी के ही अदम्य संघर्ष के बदौलत मुसहरों का एक मामूली-सा टोला अंबेडकर गांव में परिणत हुआ और नीच जाति के उपेक्षित लोग सामाजिक स्वीकृति और सम्मान के पात्र बने। बेशक, गाँववालों द्वारा ऐसे आदर्शवादी व्यक्ति की सपरिवार जलाकर हत्या किया जाना बड़ी शर्मनाक घटना थी। उनके घर को हवनकुंड बनाने में बच्चे-बूढ़े, सभी ने योगदान किया था। अर्धरात्रि तक सभी ने नाच-नाचकर, समवेत 'अरे, ओ बुड़भक बंभना......अरे, ओ बुड़भक बंभना' गाया था। सभी ने ठर्रा चढ़ाया था, मूस भुन-भुन खाया था। उस वक्त, हल्कू तो नासमझ लौंडा था। उस उम्र में होश कहाँ रहता है? बस, जोश ही जोश रहता है। उस पर तो सिर्फ माहौल में छा जाने का जुनून सवार था। बेशक, अगर बड़े-बुजुर्गों ने कोई एतराज या रोक-टोक किया होता तो मिसिर परिवार अग्नि की खुराक कभी नहीं बनता।
हल्देव सत्यार्थी, स्वर्गीय धनीराम मिसिर के भक्त बन गए। जब वह गाँव में होते तो तड़के विधिवत् नहा-धोकर मिसिरजी के शहीद स्मारक में उपस्थित होते, मिसिरजी की आदमकद प्रतिमा पर माला-फूल चढ़ाते और कम से कम बीस मिनट तक आँख मूदकर प्रार्थना करते। वापस लौटने से पहले वहाँ तैनात गार्ड को हिदायत देते कि पंडिज्जी की मूरत को झाड़-पोंछकर साफ रखना.....कि फूल-पौधों को सुबह-शाम पानी देते रहना.......कि गाँव के लहेड़े लौंडों को पार्क में फटकने मत देना......वगैरह, वगैरह।
लोग सत्यार्थीजी के पाखंड को देख, हैरान रहने लगे कि उनकी ही बिरादरी का एक गंवई छोरा जब बड़ा होकर खुशकिस्मती से नेता और विधायक बनेगा तो वह ब्राह्मणों का पिट्टू बन जाएगा। लेकिन कोई उनसे शिकायत करने की हिम्मत नहीं जुटा सका। एक दिन तो गांववालों की जुबान पर लगा ताला एकबैक खुल गया जबकि उन्होंने अखबार में यह खबर पढ़ी कि सत्यार्थी जी का राजधानी में सहजा पांडे नामक किसी लड़की के साथ प्रेम-प्रपंच चल रहा है। उस समय सत्यार्थी जी विधानसभा अधिवेशन में व्यस्त चल रहे थे।
उन्हें नीचा दिखाने का एक बढ़िया मुद्दा बिरजू के हाथ लगा। वह चट पंचायत बैठांकर सत्यार्थीजी को कटघरे में खड़ा करने का तिकड़म भिड़ाने लगा। उसने ग्रामप्रधान लखई बाबा के खूब कान भरे और भिक्खू चच्चा की जी-भरकर चम्पी-मालिश की। फिर, भूतपूर्व विधायक धनेसर पासवान के गाँव जाकर उन्हें उनके भांजे यानी हल्देव सत्यार्थी के खिलाफ बरगलाने में अपनी सारी शक्ति लगा दी। जैसे-जैसे बिरजू, धनेसर का कान पकाने में सफल होता गया, वैसे-वैसे वह गरम से गरम होते गए। जब वह एकदम आग-बबूला हो गए तो बिरजू आश्वस्त होकर और उन्हें पंचायत में हाजिर होने की कसम खिलाकर चैन की नींद सोने चला गया।
धनेसर बिस्तर पर लेटे-लेटे गुस्से में पागल हुए जा रहे थे। उन्होंने ही अपने भांजे यानी हल्देव सत्यार्थी की शादी अपने दूर के रिश्ते की एक लड़की-मीना से कराई थी। ऐसी सुलक्षणा लड़की पूरे मुसहर समाज में नहीं मिलने वाली थी। हाईस्कूल पास थी और फर्राटेदार बोलती थी। अंगरेजी के शब्द भी पिटर-पिटर चुबलाती थी -- जैसेकि खीर में काजू-पिस्ता-बादाम। हल्देव की माई-परबतिया तो मीना की काबलियत और चिकनी--चुपड़ी सूरत देखते ही उस पर लट्टू हो गई थी। उसने तो हल्कू की 'हाँ' पूछे बगैर ही इस प्रस्ताव पर हामी भर दी थी।
यों भी, परबतिया अपने बेटे के ब्याह को लेकर चिंता में घुल-घुलकर चिचुकती जा रही थी। हल्कू के यार-दोस्त उसके कान भर जाते थे कि हल्कू दूसरे गाँवों के ब्राहमण, कायस्थ और ठाकुर की लौंडियों के पीछे मंडराता फिरता है। कालेज के गेट पर अपना अड्डा जमाए रहता है और आने-जाने वाली सुघड़ छोरियों पर इश्क के डोरे डालता रहता है। ऐसे में परबतिया के भाई--धनेसर ने मीना का प्रस्ताव लाकर उस पर बड़ा भारी उपकार किया था। आखिर, विधवा औरत का सहारा तो उसका सगा भाई ही होगा! उसने अपने मनचले बेटे से कोई उल्टा-सीधा होने से पहल ही उसके पैर में बेड़ी डाल दी। ब्याह के दिन तक हल्कू शादी करने से ना-नुकर करता रहा। लेकिन, बड़े-बुजुर्गों के हठ के आगे उसकी एक न चली।
ब्याह के बाद हल्कू ने धनेसर मामा से जो मंुह फुलाया, वह अंततोगत्वा दुश्मनी में तब्दील हो गया। भांजा अपने ही मामा की खिलाफत करने लगा। शुरू-शुरू में धनेसर उसे अनाड़ी लौंडा समझकर समझाता-बुझाता रहा कि अपने मामा से खुन्दक मोल लेकर उसका नुकसान ही होगा। आखिर में, उसे अपने मामा के नक्शे-कदम पर चलकर ही राजधानी की राह पकड़नी होगी।
हल्कू तो उसी दिन से पालिटिक्स खेलने लगा था जिस दिन उसने धनीराम मिसिर को सपरिवार अग्निदेव की बलि चढ़ाकर गांववालों से अपनी पीठ थपथपवाई थी। लोग कितने खुश थे कि हल्कू ने उनके पुश्तैनी दुश्मन अर्थात् ब्राहमणजाति के एक समूचे खानदान को खाक़ में मिलाकर उनके अहं को पोषित किया था। उनकी निगाहों में हल्कू एक जादू की तरह चढ़ गया था। उसके बाद से हल्कू ने अपनी औकात को भुनाना शुरू किया। स्थानीय नेतागिरी से उसे क्या हासिल होने वाला था? उसने अपने ही मामा--विधायक धनेसर को खुलेआम ललकारना शुरू किया।
इस दरमियान, समय अपनी स्वाभाविक गति से कुछ अधिक तेज भाग रहा था। इधर हल्देव और धनेसर के बीच शीतयुद्ध चल रहा था उधर विधानसभा चुनाव सिर पर मंडराने लगा। तब, दोनों में पारिवारिक दुराव राजनीतिक द्वंद्व के रूप में मुखर हुआ। धनेसर को दलित मोर्चे से चुनाव लड़ने का टिकट मिला जबकि राजनीतिक कैरियर की शुरूआत करने वाले हल्देव को सवर्ण पार्टी से टिकट मिला। हल्देव अपने ही मामा के खिलाफ ताल ठोंककर भिड़ गए। गाँववाले आश्चर्य में डूब गए। पर, हल्देव ने उनकी आँखों पर सम्मोहिनी का परदा डाल दिया। दरवाजे-दरवाजे जाकर उनसे यह कहा कि हमारा मकसद तो हुकूमत में हिस्सेदारी करना है। जब हमें पावर मिलेगा तो हम समूचे देश तक का अंबेडरीकरण करने में नहीं हिचकेंगे। जो लुच्चे-लफंगे नेता पार्कों और सड़कों का अंबेडरीकरण करके ही फूले नहीं समा रहे हैं, उन्हें भी हम दिन में तारे दिखा देंगे।
गांववाले उसकी बातों पर अंधा विश्वास करके उसे चुनाव जिताने के लिए कमर कसकर भूखे-प्यासे जुट गए। दूरदराज के दीयरों में जा-जाकर लोगों से निष्ठा व ईमानदारी से हल्कू भइया के लिए वोट मांगे। फलस्वरूप, उनकी मेहनत रंग लाई। लगातार तीन-तीन बार विधायक चुने गए धनेसर पासवान चारो खाना चित हो गए। उन्होंने अपने ही भांजे से ऐसी शिकस्त खाई कि उनकी जमानत ज़ब्त हो गई। हल्कू की जीत की खुशी में गांववालों ने बिना होली के रंग खेले और बिना दीवाली के अपने घरों में दीए जलाए।
गांववाले हल्देव सत्यार्थी के लिए की गई अपनी मेहनत-मशक्कत को कैसे भूलते? वे सोच-सोचकर उबाल खा रहे थे कि जिस शख्श के लिए उन्होंने इतना कुछ किया उसने ही उनकी ख्वाहिशों का गला घोंट दिया। हल्कू तो रंग बदलने में गिरगिट से भी ज़्यादा माहिर निकला।
हल्देव सत्यार्थी के खिलाफ पंचायत बैठ ही गई। गांव के रिवाज़ के मुताबिक, आदमी कितना ही बड़ा हो, अगर उसने अपराध किया है तो उसे पंचायत में उपस्थित होकर न केवल पंचों की बात सुननी होगी बल्कि सरपंच के फैसले को पूरा सम्मान भी देना होगा। हल्देव ने गांववालों की निगाह में संगीन जुर्म किया था। एक ब्याहता के रहते हुए, एक दूसरी औरत और वह भी 'कुजात' औरत से नाजायज संबंध बनाए थे। बिरजू ने भरी भीड़ में हल्देव पर दोषारोपण किया। मीना की तरफदारी की, जिसने अपने मर्द की बेवफाई पर छाती पीट-पीटकर सिर पर आसमान उठा लिया। हल्देव के साथ आईंदा जिंदगी न गुजारने के लिए चिल्ला-चिल्लाकर अपने पुरखों की कसम खाने लगी। पंचों द्वारा गरमजोशी से किए गए जिरह और पूछताछ में सत्यार्थी जी को जोरदार पटकनी मिली। जब तमाम सबूतों और गवाहों के मद्देनजर उन्हें सहजा पांडे के साथ अपने संबंध स्वीकार करने पड़े तब माहौल में खुशी की लहर फैल गई। सरपंच भिक्खू पासवान ने अपना फैसला नंबरवार सुनाया।
"नंबर एक, हल्देव, वल्द खुरपन पाशवान ने एक लुगाई के रहते दूसरी मेहरारू से टाँका भिड़ाया है; मतलब हमारे शमाज के खलाफ शंगीन जुरम किया है। नंबर दो, उशकी लुगाई खुद उसके शंग जिनगी बशर करने शे मना करत है; शो, उशको त्याजने के बाद भी हल्देव ओके खाना-खर्चा देगा। ये हमारे कुटुम का रिवाज़ है। नंबर तीन, हल्देव ने कुजात में इशक लड़ाकर हमारे जात का इनशलट किया है। अगर ऊ कुजात की मउगी से ब्याह रचाएगा ता हम ओके अपने शमाज में हिलने-मिलने नहीं देंगे। नंबर चार, हल्देव को अपनी दूशरी मउगी को दिन में गांव में लाने का परमीशन नईं होगा -- इशशे हमारे छोरों पर खराब परभाव पड़ेगा। शो, वह अपनी मेहरारू को रात को लाएगा और रात को ही कहीं भाहर ले जाएगा......"
जब पंचों ने सरपंच का फैसला स्वीकार कर लिया तो भीड़ ने भी खुशी से चीत्कार कर हल्देव को दी गई सजा पर अपनी सहमति दी। उसके बाद हल्देव और मीना में वैवाहिक संबंध तोड़ने की रश्म अदा की गई। राख भुरभुराकर एक वृत्त बनाया गया और हल्देव व मीना को आमने-सामने खड़ा करवाया गया। उनसे एक पुरानी धोती के दोनों छोर पकड़वाकर खिंचवाया गया। जब धोती दो फांक में हो गई तो मीना ने एक बंधी पोटली में सिंदूरदानी और कांच की चूड़ियां हल्देव के सुपुर्द किया। तत्पश्चात् उनमें विवाह-विच्छेद लागू हो गया।
गांववालों के सामने जलील होकर हल्देव सत्यार्थी ने सारी रात गुस्से में दाँत किटकिटाकर और दीवारों से बड़बड़ाकर गुजारी। प्रतिशोध में उनके बाजू फड़कते रहे, मुट्ठियां बंधी रहीं। रतौंधी से ग्रस्त उसकी माँ--परबतिया ने उनके हाथ-पैर टटोल-टटोलकर ढाँढस बंधाया। वह कर भी क्या सकती थी? जब मीना ने ही उसके बेटे के साथ रहने से इनकार कर दिया तो वह अपने नालायक बेटे को डाँट-फटकार कर उसका जीना और भी दूभर तो नहीं करेगी। आखिर, उसका बेटा बड़ा आदमी बन गया है। अफसरों का अफसर बन गया है। बड़े-बड़े हाकिम आकर उसे सलूट मारते हैं। शायद, बड़े आदमी ऐसे ही औरत बदलते हैं। वह अन्तर्द्वंद्व से विचलित थी। पर, अब उसे अपने बेटे के दुर्गुणों से भी प्यार हो गया है। उसने ही तो उसे एक बड़े आदमी की माँ होने का गौरव प्रदान किया है।
गाँव में बस एक ही घर हिंदू का रह गया था। विधायक सत्यार्थीजी का। शेष सभी घर बौद्ध बन गए थे। गाँववालों को मिसिर पार्क में शहीद धनीराम की प्रतिमा से भी बेहद गुरेज था। जब भी चार जने इकट्ठे होते तो इन दो विषयों पर चर्चा छिड़ जाती। बिरजू तो एकदम से फट पड़ता -- "जब अंबेडकर बाबा अपनी महारि जात से तौबा करके बुधबाबा बन गए थे तो इ हरामी हल्देउवा को बुधबाबा बनने से क्यों एतराज है....." सभी को उसकी बात जायज लगती। वे सिर हिलाते और हाँ में हाँ मिलाते। लेकिन, जब कोई शरारती लौंडा हल्देव को 'मिसिर भगत' कहकर बिरजू को छेड़ देता तो वह गुस्से में काफूर हो जाता। "अगर आज मिसिरवा जिन्दा होता तो उसका सिर मुड़ाकर, पहले ददरी मेला में मरकटहा गदहा पर घुमाते, फिर तबियत से उसे बुधबाबा बनाते....."
एक दिन बिरजू के दिमाग में शैतान बैठ गया -- "चलो, मिसिर की मूरती को गेरूआ लबादा पेन्हा के उसको बुधबाबा बनाने का डरामा खेलें। हल्देउवा पिनपिना के लाल-पीला हो जाएगा, बड़ा मजा आएगा। देखें, उ ससुरा क्या करता है....." वहाँ मौजूद बुजुर्गों में लल्लन ने उसे तत्काल घुड़का -- "बड़ा बुरा नतीजा भोगना पड़ेगा। सत्यार्थी विधायक के गुंडे तोहें जिंदा कबर में गाड़ देंगे। दीवान और थानेदार उसके सामने लट्टू सरीखा नाचते हैं....." पर, ढीठ बिरजू कहाँ मानने वाला था? उसने अपने कुछ चेले-चपाड़ों की मदद से अपनी योजना को रातों-रात अमली जामा पहनाया।
सुबह हंगामा खड़ा हो गया। सत्यार्थी जी के लिए यह घटना चुनौतीपूर्ण थी। उन्होंने पुलिस को फौरन इत्तला किया। पुलिस ने आते ही पार्क को घेर लिया और संतरी को एक झाड़ी में से बरामद किया। जब उसके बंधे हाथ-पैर खोले गए और ठूंसे हुए कपड़े मुंह में से निकाले गए तो उसने रात को पार्क में आए उपद्रवियों को नकाबपोश बताकर अपना पिंड छुड़ाया। बिरजू की जान से मारे जाने की धमकी के चलते ही उसने यह झूठ बोला था। पुलिस को किसी ठोस सबूत के अभाव में कोई धर-पकड़ किए बगैर वापस लौटना पड़ा। हल्देव मुंह ताकते रह गए। हाथ मलने के सिवाय कोई और चारा भी नहीं था। लिहाजा, उनकी विधायकी को बड़ी शर्मींदगी झेलनी पड़ी।
विधायक हल्देव सत्यार्थी की दशा कमोवेश मिसिरजी जैसी हो रही थी। गाँव के पैदाइशी मुसहर होकर भी उन्हें मुसहर समाज से अलग समझा जाता था। जब वह सहजा पांडे को बतौर बीवी अपनी कोठी में रखने लगे तो गाँववाले उनसे और भी कुढ़ने लगे। वे लुक-छिपकर उनके खिलाफ पंचायतबाजी करते। बिरजू तो उन्हें हमेशा पंचायत में घसीटने के फिराक में रहता। लेकिन, वह इस बात से एकदम गाफिल था कि वह खुद एक बड़े लफड़े में फंसने जा रहा है।
उस दिन सूरज अंगारा होकर, सिर पर दनादन धूप का हथौड़ा चला रहा था। यकायक, एक पुलिस की जीप धड़धड़ाती हुई गाँव में दाखिल होकर बिरजू की मड़ई के ठीक सामने धांय से आकर रूकी। गाँववालों को बड़ा अचंभा हुआ कि बिरजू को बलात्कार के मामले में गिरफ्तार कर लिया गया है। किसी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ जबकि उन्होंने यह सुना कि बिरजू ने बम्हरौली गाँव की मधु मिश्रा का बलात्कार तब किया जबकि वह साँझ ढले शौच के लिए जा रही थी। लेकिन, जब बिरजू के खिलाफ जुर्म साबित हो गया तब सभी उसे अपराधी मानने लगे। उसके रोने-गाने पर भिक्खू ने तत्काल ताना कसा - "सत्तर चूहा खाय के बिलरी चली हज करने......" उसके माँ-बाप ने किन-किन हाकिमों के आगे अपनी नाक नहीं रगड़ी कि 'हमारे बुड़भक बबुआ को जानबूझकर फंसाया गया है।' लाचार होकर जब वे हल्देव जी के सामने जाकर उनके पैरों पर साष्टांग गिर पड़े तो उन्होंने हँसकर कहा -- "मामला हाथ से निकल गया है। बहुत देर हो गयी है। अब हम कुछ नहीं कर सकते।"
सत्यार्थीजी मन ही मन बाग-बाग हो रहे थे क्योंकि पंचायत में उनकी पगड़ी उतारने वाला बिरजू जेल की हवा खा रहा था। अगर उसे यह अंजाम पता होता तो वह उनसे कत्तई झगड़ा मोल नहीं लेता। अपने सगे मामा तक को तो उन्होंने बख्शा नहीं। बड़ी पहँुच वाले एमेल्ले थे। फिर, बिरजू किस खेत की मूली है?
बिरजू के खुराफाती दोस्तों को उसकी गैर-मौजूदगी बेहद नागवार लग रही थी। उनका मानना था कि चाहे कुछ भी हो बिरजू किसी लौंडिया का बलात्कार नहीं कर सकता। उसे लौंडियों के चक्कर में पड़ते कभी नहीं देखा गया। लौंडियाबाज तो हल्कू था। अपने लड़कपन में उसने क्या-क्या गुल नहीं खिलाए थे? तभी तो उसका जबरन ब्याह कराया गया था। इसलिये, यह बात तो बिल्कुल साफ है कि बिरजू को फंसाया गया है। और फंसाने वाला कोई और नहीं खुद विधायक जी हैं।
जब यह बात गांव के बुजुर्गों के कान में पड़ी तब वे सच्चाई के तह में जाने के लिए बेचैन हो उठे। एक दिन उनके शुबहा पर सच का ठप्पा तब लगा जबकि कुछ गांववालों ने बम्हरौली गांव की मधु मिश्रा को तहसील में सत्यार्थीजी के साथ विहंस-विहंस अंतरंग बातों में मशगूल देखा। उसके बाद सभी की जुबान पर बस यही प्रश्न था - क्या दोनों ने सांठगांठ कर बिरजू के खिलाफ कोई साजिश रची थी? क्या फर्जी केस में फंसाकर बिरजू को जेल की चक्की पीसने के लिए मजबूर किया गया है?
सत्यार्थीजी के खिलाफ बगावत का बयार बहने लगा। बुजुर्गों ने विचार-विमर्श करके यह फैसला किया कि सत्यार्थीजी को फिर पंचायत के कटघरे में खड़ा किया जाए। सारा गाँव उन पर नजर रखने लगा कि वह उनके रश्मो-रिवाज़ के खिलाफ कुछ अनापशनाप करें और फिर उनके सिर नाजायज़ हरकत करने का दोष मढ़ा जाए। अब तक उनकी जान इसलिए बख्शी गई थी क्योकि वह उन्हीं की मिट्टी में पले-बढ़े थे। लेकिन, वह भी बड़े फंक-फूंककर कदम रख रहे थे। उन्हें गांववालों की नाराज़गी का पूरा एहसास था। जब से उन्होंने मीना का परित्याग किया था तब से वह पंचायती फैसले के एक-एक लफ्ज़ पर अमल कर रहे थे। गांव में रहकर भी घूमने-फिरने से परहेज कर रहे थे। घरेलू नौकर शिउवा सिंह तक को हिदायत दे रखी थी कि वह साग-सब्जी की खरीदारी भी गाँव की दुकानों से न करे। यह सब कोई चूक होने से बचने के लिए किया जा रहा था। यों भी, वह गाँववालों से सख्ती से नहीं निपटना चाहते थे क्योंकि एक तो वे संगठित थे दूसरे, वह अगले चुनाव के मद्देनजर अलोकप्रिय होने के भय से सहमे हुए थे। नि:संदेह, अगला चुनाव आसन्न था।
पर, होनी को कैसे टाला जा सकता है? एक शाम गाँव में दाखिल होते समय उनकी कार की ब्रेक फेल हो गई और वह सामने पार्क को रौंदते हुए अंबेडकर की प्रतिमा से जा टकराई। सत्यार्थी जी ने ड्राइवर की चेतावनी मिलते ही कूदकर अपनी जान बचा ली और ड्राइवर ने भी समय रहते छलांग लगा ली। लेकिन, कार की भीषण टक्कर से प्रतिमा चूर-चूर होकर धराशायी हो गई। लल्लन ने सबसे पहले घटनास्थल पर आकर तानाजनी की -- "बांभन की मेहरारू ब्याह के हरामजादे पर बांभन होने का झख सवार हो गया है......" उसने चिल्ला-चिल्लाकर गाँव को सिर पर उठा लिया। लोगबाग धमाकेदार टक्कर के बाद छाए घुप्प सन्नाटे से आतंकित होकर वहाँ एकत्रित होने लगे। सत्यार्थी जी अपनी क्षतिग्रस्त कार के पास अपनी चोट सहलाते हुए अपराधी की भाँति सिर झुकाए खड़े थे। जब कौतुक भीड़ आपस में घटना की जानकारी ले रही थी, तभी भिक्खू आगे आकर एकदम से चींखने लगा -- "तोड़ दिया, अंबेडकर बाबा की मूरती का कबाड़ा कर दिया। इ ससुरा बांभन का पिट्टू बन गया है। बरहम हत्या करके ब्रह्मन की पूजा करते है। तुम सबजने जान लो इसने बदला लिया है, मिसिर को बुधबाबा बनाने का बदला.....इ अंबेडकर बाबा को मटियामेट करने का काम जानबूझकर किया है....."
अंबेडकर की अंधभक्त बन चुकी भीड़ गुस्से में पागल हो रही थी। ऐसा आवेश दूसरी बार देखा गया था। उस स्थान से कुछ ही दूर पर मिसिरजी का खपरैल मकान था जो जातीय द्वेष के कारण अग्निदेव की खुराक बन गया था। उस वक्त, हल्कू यानी वर्तमान सत्यार्थी जी उस जातीय उन्माद के पोषक थे। मुसहर समाज के हिमायती और सवर्णों के जानी दुश्मन थे।
लखई मुसहर ने दोनों हाथ उठाकर भिक्खू को शांत किया।
"सत्यार्थी ने अंबेडकर बाबा की मूरती को धूर में मिलाके बहुत बुरा किया है। हम सब इसकी सजा देंगे। सत्यार्थी होंगे बहुत बड़े हाकिम। राजा होंगे। सरकार होंगे। गुंडे और पुलिस को नचाते होंगे। पर, उन्हें हमारे पंचायत के सामने जवाब देना पड़ेगा। किसी को दखल नहीं करने देंगे......."
लल्लन गुर्राकर जवान लौंडों को ललकारने लगे, "अरे, मुस्टंडों देखत क्या हो? धर लो सत्यार्थी को। कहीं भागने न पाए। कल, सुबेरे-सुबेरे इ हरामखोर को पंचायत में तलब करो।"
सत्यार्थीजी उन्हें आँखें लालकर डराते-धमकाते रहे। कानून और सरकार की दुहाई देते रहे। पर, लौंडों की दमदार बांहों में जकड़कर बेबस हो गए। उन्हें धकिया-घसीटकर उन्हीं की कोठी में कैद कर दिया गया। बाहर भीड़ मुस्तैद होकर चारो ओर चौकसी करने लगी। उनके निकास की नाकाबंदी कर दी गई। कुछ बदमाशों ने लल्लन के इशारे पर सत्यार्थी जी के टेलीफोन का कनेक्शन और बिजली की लाइन काट दी। उन्होंने जैसे ही पुलिस को बुलाने के लिए चोंगा कान से लगाया, वह समझ गए कि गंवार मुसहर कितने चालाक हो गए हैं। उन्होंने पसीना पोछा और नौकर को आवाज लगाई -- "शिउवा, पंखा चला और बलफ जला," तो वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया -- "सरकार, इन लुच्चों ने बिजुरी का तार भी खैंच के तोर दिया है।"
सत्यार्थीजी माथा पकड़कर बैठ गए। इतिहास स्वयं को दोहरा रहा था। नौ साल पहले उन्होंने धनीराम मिसिर को सपरिवार जलाने के पहले उनके ही घर में कैद कर दिया था। अब, वही घटना उनके साथ भी घटित होने जा रही है। पर, उन्होंने यह सोचकर राहत की साँस ली कि कुछ भी हो जाए, उनके अपने ही समुदाय के लोग उन्हें जिन्दा नहीं जलाएंगे। अभी कल पंचायत के फैसले के बाद ही किसी नतीजे पर पहुँचा जा सकेगा। तब तक वह कोई रास्ता ढूंढ ही लेंगे। उन्होंने अपनी रोती हुई माँ को डाँट लगाई -- "गाँववाले हमारी एक झाँट तक नहीं उपार सकते" और वह रात भर सहजा पांडे के साथ बिस्तरे में लेटे-लेटे सोच-विचार में डूबे रहे।
दूसरे दिन, सुबह की धूप की मिठास जल्दी ही गायब हो गई। आठ बजे ही धूप की तपिश से सिर चटकने लगा। पंचायत जाते हुए सत्यार्थी जी मुख्य रास्ते पर टकटकी लगाए हुए थे कि शायद कोई मुलाकाती संयोग से उनसे मिलने आ जाए और उनकी दुर्दशा के बारे में पुलिस को इत्तला कर गाँववालों की बर्बरता को सार्वजनिक कर दे। लेकिन, उन्हें क्या मालूम था कि उनसे मिलने आने वाले हर आदमी को पहले ही रोककर यह कह दिया जाता था कि सत्यार्थीजी को अचानक लखनऊ जाना पड़ा -- मुख्यमंत्री जी से जरूरी मीटिंग करने।
साढ़े आठ बजे पंचायत लग गई। गाँव की सारी भीड़ उमड़ पड़ी थी -- केवल यह देखने-सुनने के लिए कि उनके साथ दग़ा करने वाले के साथ कैसा सलूक किया जाता है। आस्तीन के सांप को कैसे कुचला जाता है। भीड़ कर्णभेदी गुहार कर रही थी कि उनके देवता की प्रतिमा तोड़ने वाले को सख़्त से सख़्त सजा दी जाए।
लल्लन ने दर्पपूर्वक अपनी पगड़ी पर हाथ फेरते हुए कहा -- "अब आया है ऊँट पहाड़ के नीचे। इसने हमारे साथ धोखा पर धोखा किया है। पहले इ बांभनों की पार्टी से विधायक बना, हमने कुछ नहीं कहा। मिसिरवा के नाम से शहीद पारक बनवाया, हम मुंह सीए बैठे रहे। मिसिर को देउता मानके पूजने लगा, हम कहे कि जाय दो, इ नादान बबुआ है। लेकिन, जब अपनी महरारू को तजके बांभन की छोरी ब्याह लाया तब हमारे सीने पर साँप लोटने लगा। तब भी, हम कहे कि चलो, इ लौंडे को हमी जने जमाए हैं, इसको माफी दे दो। लेकिन, अब इ हरामखोर ने हमारे देउता को धूल चटाया है। इसलिए, हम इसे नहीं बख्शेंगे। कोई मामूली सजा नहीं देंगे। सपोले को पोसके अपने पैर कुल्हाड़ी नहीं मारेंगे। यह हमारे बस की बात नहीं है।"
भीड़ की बेतहाशा चिल्लाहट में लल्लन की आवाज डूब गई।
".......हाँ-हाँ, इसके जुर्म की सजा मौत है........"
".......इसे जिन्दा जला दो........"
".......कुकरों से नोचना-नोचवाकर खिला दो........"
".......पत्थर से बाँध के इनार में गिरा दो........"
".......पेड़ से लटका के फाँसी दे दो; गीध, चील और बाज से नोच-नोचकर खिला दो........"
सत्यार्थी जी एक तो चिलचिलाती धूप से, दूसरे डर के मारे दोगुने बहने वाले पसीने से नहा रहे थे। नौजवान लौंडों से घिरे होने के कारण भागने की भी गुस्ताखी नहीं कर सकते थे। अब, उन्हें न चाहते हुए भी मौत का नंगनाच देखना था। वैसे वह लगातार गिड़गिड़ाए जा रहे थे, दया की भीख मांगे जा रहे थे। पर, सभी को उनके खस्ताहाल पर बड़ा मजा आ रहा था। तभी अचानक खामोशी फैल गई। यह क्या? सत्यार्थी जी सरपंच लखई के पैरों से चिपटकर घिघिया रहे थे।
लखई ने आँख मारकर कहा "अच्छा तो अब मुजरिम भी कुछ कहना चाहे है। चलो, उसकी भी बात सुन लो। उसकी आखिरी इच्छा पूरी कर दो।"
सत्यार्थी जी की आँखों में घड़ों आँसू आ गए। उनकी भर्राई आवाज में ग़ज़ब का आकर्षण पैदा हो गया था।
"हाँ, हम अपना कुसूर मानते हैं। हम गुमान में डूबकर अपने को भगवान मानने लगे थे। भूल गए थे कि हम भी मुसहर हैं। हम चाहे गंगासागर नहाएं या काशी में भीख मांग के अपने पाप का प्रायश्चित करें, हम बांभन कभी नहीं बन सकते। मुसहर थे, मुसहर रहेंगे। सिर्फ बांभनी को ब्याहने से कोई बांभन नहीं हो जाता। अरे, आपलोग ये क्यों नहीं समझते कि हमने एक बांभनी को मुसहर बना दिया। उसका धरम भ्रष्ट कर दिया। रही बात धनीराम मिसिर के पूजा करने की, तो इ हमारा राजनीतिक पाखंड है -- जो आप नहीं समळोंगे। इ पाखंड करके ही हम मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बनेंगे। इस खातिर हम कभी पंडित बनेंगे तो कभी चमार। हमारा धरम, राजनीति करना है। यही करके हम आपका भला कर सकेंगे......."
भिक्खू ने बीच में ही जुबान पकड़ ली -- "लेकिन, बिरजू को फर्जी केश में फंशा के और जेल में शड़ाके उशका क्या भला किया है?"
"आप इ बात नहीं समळोंगे, चच्चा। बिरजू के केस में बंभनाइन पर अत्याचार दिखाके औ' बलात्कारी के रूप में बिरजू को जेल पठाके हमने बांभनों की हमदर्दी बटोरी है। इ हमदर्दी को हम अगले चुनाव में भुनाएंगे......" सत्यार्थी जी के आत्मविश्वास से पगे शब्द लोगों के दिल पर असर करने लगे।
भिक्खू ने फिर टोका -- "लेकिन, हमारी हमदर्दी तज के तुम कहीं के नहीं रहोगे। विधायक क्या, तुम ग्राम परधान भी नहीं बन पाओगे....."
सत्यार्थी जी को एहसास हुआ कि उनके विरोधी नरम होते जा रहे हैं। वह भिक्खू का हाथ थामकर खुशामद करने के मूड में आ गए -- "चच्चा, हम आपकी हमदर्दी नहीं, आपका साथ ले के रहेंगे। क्या आप इ बूझते हैं कि हम कुजात हिंदू बनके आपके साथ रहेंगे? नहीं, नहीं। हम भी बुधबाबा बनेंगें। अंबेडकर बाबा का खांटी चेला बनेंगे। हम पूरी तैयारी करके आए हैं......"
सत्यार्थी जी के बौद्ध बनने की घोषणा से भीड़ में एकदम खलबली फैल गई। लोगों के मन में उनके लिए एकबैक मोह पैदा हो गया। सत्यार्थी जी ने पहली बार लोगों के चेहरे पर आँखें गड़ाकर देखा। वे विस्मयपूर्वक उनसे आकर्षित हुए जा रहे थे। उनका उत्साह दोगुना हो गया। उन्होंने आगे कहा --
"बिरजू हमारे सगा से भी सगा है। आप क्या समझते हैं कि यह खेल सिरफ मधु मिस्रा औ' हमारे बीच खेला गया था? अरे, नहीं, नहीं। इस खेल में बिरजू भी शामिल था। आपलोग जाके उसी से पूछ लीजिए। अब, देखिए, बिरजू को हम कैसे चुटकी में जेल से छुड़ाके लाते हैं। उ साला हमारे सटेट का कमान सम्हालेगा औ' हम सेंटर की लगाम थामेंगे......"
इस बार भिक्खू ने दोबारा प्रश्न नहीं किया। उसे सारी बात समझ में आने लगी थी। लल्लन ने कहा -- "अगर सत्यार्थीजी दो बात पूरा कर दें तो हम उन्हें माफी देके अपने समाज में वापिस रख लेंगे। एक तो, उ बुधबाबा बन जायं; दूसरे, बिरजू को जेल से छुड़ा लायं। अइसा न करने पर, फिर पंचायत बइठेगी औ' फिर से मुकदमा चलेगा। इ बात भी मालूम हो कि हम बड़ा सख़त फैसला देंगे......"
जब पंचायत उठी तो लोगों के मन से अपने सत्यार्थीजी के प्रति रोष धुल गया था। वे मन से उनकी प्रशंसा कर रहे थे। वे उन्हें तत्काल गले तो लगा नहीं सकते थे क्योंकि वे अभी-अभी उनकी मौत मांग रहे थे।
दोपहर तक अंबेडकर गांव का माहौल बदला-बदला सा था। सहजा पांडे पर से पंचायत की पाबंदी उठा ली गई थी। वह पहली बार बाहर निकलकर गाँव में चुहलकदमी कर रही थी। विधायक जी तो तत्काल लखनऊ रवाना हो गए थे। लेकिन, सहजा पांडे अंबेडकर की दूसरी आदमकद प्रतिमा को यथास्थान प्रतिष्ठापित करने के बंदोबस्त में लगी हुई थी।
दूसरे दिन, सत्यार्थीजी के गाँव वापस लौटते ही, लोग हैरत में डूब गए। उनके साथ सचमुच बिरजू था। सत्यार्थीजी राजनीतिक प्रभाव डालकर बिरजू को जेल से रिहा करा लाए थे। उस वक्त, उन्होंने खुद बौद्ध धर्म स्वीकार कर गेरूआ लबादा पहन रखा था। सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि सत्यार्थी जी मिसिरजी की प्रतिमा को अपने हाथों से बौद्ध पोशाक पहना रहे थे। मिसिर स्मारक के प्रवेशद्वार पर पत्थर पर यह सूचना खुदवा दी गई थी कि -- "महान समाजसेवी, श्री धनीराम मिसिर ने अपने अंतिम दिनों में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था।"