धर्मनिरपेक्ष साधुराम /गिरिराज शरण अग्रवाल
कुछ लोग स्वभाव के साधु होते हैं, कुछ लुभाव के. साधुराम जी दूसरी श्रेणी के साधु थे। वे अक्सर कहा करते थे कि दुनिया की सारी कहावतों में यदि कोई कहावत उन्हें पसंद है तो वह है-'अजगर करे न चाकरी, साधू करे न काम।'
साधुराम जी न तो अजगर थे, न ही सचमुच के साधु, परंतु काम से उनका वैर पूरी ईमानदारी के साथ, उस समय तक चलता रहा, जब तक वह एक अदद पत्नी के पतिदेव नहीं बन गए. इससे पहले कि हम उनके व्यावसायिक जीवन का वर्णन करें, उनसे आपका विस्तृत परिचय करा दें। वे मज़बूत शरीर और ढुलमुल विश्वास वाले व्यक्ति थे। उनकी नाक मोटी थी, चेहरा गोल-मटोल था, आँखें छोटी और कमर चौड़ी थी। हमने कई बार सोचा, अगर किसी कार्टूनिस्ट को शैतानी सूझे तो वह उनके व्यक्तित्व के किस पुर्जे के साथ खींचतान करेगा, ताकि उनकी विशेष पहचान उभरकर सामने आ सके. हमें लगा कि माथे से सिर तक का जो भाग उनका है, उसी में पूरे साधुराम जी कहीं अंकित हैं। दरअसल, साधुराम जन्म के गंजे थे या यों कहिए कि गंजेपन पर उनका जन्मसिद्ध अधिकार था। इसलिए माथे और सिर के बीच अंतर करना काफी मुश्किल काम हो गया था। कभी लगता कि माथे ने सिर की सीमा का अतिक्रमण किया है और कभी महसूस होता कि सिर ने माथे की वास्तविक नियंत्रण-रेखा का उल्लंघन करने की भूल की है। माथे और सिर के बीच यह छीना-झपटी उस वक़्त तक चलती रहती, जब तक साधुराम जी चंदन की तीन सीधी रेखाएँ अपने माथे पर खींच न लेते।
लिबास में उन्हें सबसे बढि़या पहनावा धोती-कुर्ता लगता था। क्योंकि कुर्ते से वह रूमाल का काम और धोती से तौलिया का काम सफलतापूर्वक ले सकते थे और इसीलिए उनके दोनों कूल्हों से चिपकी हुई धोती वाला भाग हल्दी का रंग चढ़ते-चढ़ते पीला हो गया था। मुफ़्त का माल खाकर वह ताव मूँछों पर नहीं, धोती पर देते थे, क्योंकि मूँछें हर तीसरे दिन पड़ोस के नाई को प्यारी हो जाती थीं। साधुराम मानते थे कि इस ज़माने में अगर किसी वस्तु की उपयोगिता है तो पूँछ की है, मूँछ की नहीं। इसीलिए वह पूँछ का काम अक्सर जीभ से लेते और सफल रहते।
लगभग चालीस साल उन्होंने जिस ठाठ से गुज़ारे, शायद ही किसी और ने गुज़ारे हों। दिन निकलते ही किसी-न-किसी मित्र के यहाँ धावा बोल देते, नाश्ता-पानी करते, गप-शप करते और दोपहर होते-होते किसी और मित्र के यहाँ जाकर जम जाते। 'मान न मान, मैं तेरा मेहमान' का जो सिद्धांत है, उसे क्रियान्वित करने का जो सलीक़ा भाई साधुराम जी को आता था, वह शायद ही कम लोगों को हासिल हुआ होगा। जब भी कोई पूछता कि भाई साधुराम जी, जीवन की गाड़ी ऐसे कब तक चलेगी, कुछ धंधा तो करना ही चाहिए, तब उनका एक ही जवाब होता-'जिसे मिले यों, वह खेती करे क्यों?' लेकिन मामला उस समय बिगड़ गया, जब छोटे-छोटे धंधे करनेवाले उनके मित्र देखते-ही-देखते लखपति या करोड़पति बन गए. उन्हें पहली बार ज्ञात हुआ कि जब आदमी लखपति बन जाता है तो उसके जीवन की सारी गति ही बदल जाती है। ऐसे में उसकी प्रगति तो होती है, लेकिन मित्रो की दुर्गति होने लगती है। ऐसी दुर्गति साधुराम जी को बार-बार झेलनी पड़ी। कभी किसी मित्र के द्वार पर दस्तक दी तो जवाब मिला कि 'हैं नहीं, किसी ज़रूरी काम से बाहर गए हैं?' कभी मित्र तो मिला, लेकिन बात नहीं बनी। बर्तन रसोई में खनकते तो रहे, लकिन नाश्ता बाहर नहीं आया।
साधुराम जी नितांत अकेले थे बेचारे! माता-पिता इतने स्वार्थी निकले कि उन्हें नरक में छोडक़र ख़ुद स्वर्ग सिधार गए. मित्र उनसे भी स्वार्थी सिद्ध हुए कि माया-मोह में फँसकर उनका साथ छोड़ दिया। स्थिति जब असहनीय हो गई तो साधुराम जी ने विचार किया-'अब घर बना ही लेना चाहिए. न सही लखपति, कम-से-कम पति तो वह बन ही सकते हैं।' लेकिन साधुराम जी से फिर एक चूक हो गई. वह यह बात नहीं समझ सके कि पत्नी चाहे कोई भी हो, उसे पति से अधिक लखपति प्यारा होता है। घर में रोज़-रोज़ टंटा होने लगा तो साधुराम जी ने कोई व्यवसाय करने की बात सोची। लेकिन व्यवसाय क्या हो, जटिल समस्या यह थी। चाहते थे कि ऐसा हो, जिसमें हर्र लगे न पि टकरी, रंग चोखा आएँ विचार-विमर्श हुआ। एक-एक धंधे पर नज़र डाली गई. बाल की खाल उधेड़ी गई. ऐसा कौनसा धंधा हो सकता है, जो रातोंरात पति को लखपति बना दे और मेहनत भी कम-से-कम करनी पड़े।
साधुराम जी को यह चिंता तो थी नहीं कि कारोबार के लिए जिस पूँजी की आवश्यकता होगी, वह कहाँ से प्राप्त की जाएगी। मालदार मित्रो से उन्हें कोई आशा नहीं थी। घर में कोई ऐसी संपत्ति पुरखे छोड़ नहीं गए थे जिसे बेचकर वह अपना धंधा शुरू करते। हाँ, वह यह जानते थे कि पत्नी का और ससुराल का सदुपयोग कैसे किया जाता है? वह यह भी जानते थे कि सीधी उँगलियों से घी न कभी पहले निकला है, न आगे निकलेगा। यह बात सीखने की उन्हें कोई आवश्यकता नहीं थी। बस सवाल यह था कि धंधा क्या हो?
बहुत सोच-समझकर भाई साधुराम जी ने एक ऐसी दुकान खोलने का निश्चय किया, जिससे जनता की धार्मिक आवश्यकताएँ पूरी हो सकें। शहर में ऐसी कोई दुकान थी भी नहीं। सो उन्होंने 'हिंदू-मुस्लिम आस्था सामग्री भंडार' के नाम से अपना व्यवसाय शुरू करने की ठान ली। पैसे का जुगाड़ सोच लिया था। तलाश हुई एक ऐसी दुकान की, जो शहर के बीचोंबीच हो। दुकान मिली तो पगड़ी आड़े आ गई. अब तक तो वे पगड़ी को सिर की शोभा समझते थे, किंतु पगड़ी का जो अवैध सम्बंध अब दुकान के साथ जुड़ गया था, उसे देखकर भाई साधुराम जी बौखला गए. फिर पगड़ी भी ऐसी तगड़ी कि आदमी अपनी छकड़ी भूल जाएँ साधुराम जी ने हिम्मत नहीं हारी। वे एक छोटी-सी दुकान लेकर बैठ गए.
दुकान पर बड़ा-सा बोर्ड लग गया-
'हिंदू-मुस्लिम आस्था सामग्री भंडार।'
हमारे यहाँ हर प्रकार की धार्मिक सामग्री उपलब्ध है।
एक दिन हम पहुँच ही तो गए भाई साधुराम जी की दुकान पर। वे आलती-पालथी मारे बैठे थे। दुकान में अद्भुत चीज़ों का भंडार था। एक ओर त्रिशूल थे तो दूसरी ओर रामपुर के प्रसिद्ध चाकू। भगवा झंडे भी थे, तो चाँद-सितारा वाले परचम भी। कुरान की प्रतियाँ थीं तो गीता के संस्करण भी। हजरत अली का जंगनामा भी था तो हनुमान चालीसा भी। ताबीज गंडे थे, भगवान शंकर के चित्र थे तो अल्लाह रसूल के कैलेंडर भी। मालाएँ भी थीं और तस्वीह भी। हर संकट को दूर करने और हर कठिनाई पर विजय पाने के टोटके भी थे, हिंदुओं के अलग और मुसलमानों के अलग। हमें यह देखकर पहली बार विश्वास हुआ कि भाई साधुराम जी सचमुच बहुत विवेकशील व्यक्ति हैं। वह हवा के रुख़ को पहचानते हैं और यह जानते हैं कि समय की माँग क्या है?
कुछ ही दिनों में साधुराम का धंधा चल निकला। जब भी उधर से गुज़रे, यही देखा कि आस्था सामग्री भंडार के सामने ग्राहकों की भीड़ लगी है और साधुराम सभी को उनकी धार्मिक आस्थाओं के अनुसार सामान बेच रहे हैं। गीता भी, कुरान भी, जंगनामा भी, हनुमान चालीसा भी, चाकू भी, त्रिशूल भी। एक दिन हमने भाई साधुराम जी से पूछा, 'क्यों भाई, इस प्रकार लोगों का धार्मिक शोषण करके तुम्हें शर्म नहीं आती?' हमारी बात सुनते ही भाई साधुराम ग़ुस्से से लाल-पीले हो गए. बोले-'तुम्हें यह शोषण दिखाई देता है। राष्ट्रीय एकता के लिए इससे ज़्यादा मौलिक काम और कौन कर रहा है, हमारे सिवा इस देश में? तुम जैसे अकल के पीछे लठ लेकर घूमनेवाले लोग इस बात को नहीं समझेंगे। तुम्हें तो बस एक ही तोता-रट याद है, शोषण-शोषण। अरे भाई! यदि कोई माँ अपने बच्चे को दूध पिलाती दिखाई दे, तब भी तुम यही कहोगे कि बच्चा माँ का उत्पीड़न कर रहा है, शोषण कर रहा है। क्यों, ठीक कह रहा हूँ ना!'
भाई साधुराम जी ने फर्राटे से अपनी गज़-भर लंबी बात कह डाली। इससे पहले कि हम उन्हें यह समझाते कि जिस प्रकार का धंधा तुम लिए बैठे हो, वह भी जनता का धार्मिक भावनाओं का खुले-आम शोषण ही है, तब तक साधुराम एक नए ग्राहक को त्रिशूल बेचने में व्यस्त हो गए. कुछ ही देर में हमने महसूस किया कि भाई साधुराम जी का धंधा जितना सुरक्षित एवं लाभदायक है, दूसरा धंधा नहीं हो सकता। हमारा अनुभव तो यह था कि सीधे-से-सीधा ग्राहक भी दुकान पर आते ही एकदम टेढ़ा हो जाता है। ज़रूरत की चीज़ को बार-बार उलट-पलटकर देखता, सौ खोट निकालता है, मोल-तोल करता है, तब कहीं जाकर गाँठ से दाम निकालता है; परंतु भाई साधुराम जी के पेशे में ऐसा कोई झंझट ही नहीं, मुँहमाँगे दाम लिए और छुट्टी की। भला दीन-धर्म के मामले में मोल-भाव कैसा? ऐसा पक्का और सुरक्षित धंधा कौनसा हो सकता है। मन-ही-मन हमने साधुराम जी की बुद्धि को सराहा और-और घर आ गए.
कुछ ही दिनों में पता चला कि भाई साधुराम जी पति से लखपति बनने की ओर तेज़ी से अग्रसर हैं। वह बहुत गंभीरता से बल्कि निष्ठापूर्वक राष्ट्रीय एकता के लिए काम कर रहे हैं। उनका दावा है कि हिंदू और मुसलमान दोनों ही संप्रदायों में जितनी विश्वसनीयता उन्हें प्राप्त है, शायद ही किसी और को हुई हो। दोनों ही समुदायों के लोग उनकी दुकान से ख़रीदे गए 'या अली और बजरंग बली' के ताबीज़ों से अपनी शक्ति बढ़ाने में लगे हैं।
तभी एक विचित्र संयोग हुआ। शहर में इमामबाड़े की मस्ज़िद के सामने एक मैदान ख़ाली पड़ा था। धर्म के कुछ ठेकेदारों ने उस पर मंदिर-निर्माण की ठान ली। चंदा इकट्ठा होने लगा। भाई साधुराम जी ने भी धर्म के नाम पर पाँच हज़ार रुपए दिए. उधर इमामबाड़े और मस्ज़िद के ट्रस्टी ने अपने समुदाय के लोगों को इकट्ठा किया और मंदिर-निर्माण को बलपूर्वक रोकने का निर्णय लिया। मंदिर और मस्ज़िद एक साथ कैसे खड़े हो सकते हैं? प्रलय नहीं आ जाएगी दुनिया में! भाई साधुराम की दुकान पर मुल्ला अब्दुर्रहमान तो बैठ सकते हैं साथ-साथ, पर मंदिर और मस्ज़िद कदापि साथ-साथ नहीं हो सकते। कदापि नहीं।
हमने देखा, इधर मंदिर बनाने के लिए दान तो उधर उसे रोकने के लिए चंदा शुरू हो गया। चंदा उगाहने के लिए घर-घर टीम पहुँचने लगी। भाई साधुराम जी ने इनको भी गुप्त दान दिया। क्यों न देते! वे तो दोनों के विश्वासपात्र थे। दोनों ही के धार्मिक विश्वासों की तृप्ति कर रहे थे।
नगर में तनाव व्याप्त हो गया। संवेदनशील क्षेत्रों में प्रशासन द्वारा सशस्त्र पुलिस तैनात कर दी गई. लोगों को आशंका थी कि कुछ-न-कुछ अवश्य होने वाला है। चौकस हो जाना चाहिए. देखते-ही-देखते सब-के-सब चौकस होने लगे। चौकसी की यह लहर हमारे घर में भी घुस आई.
हमारी पत्नी अगले कुछ दिनों के लिए दाल-सब्ज़ी की व्यवस्था करने निकलीं। उन्हें डर था कि झगड़ा हुआ तो बाज़ार बंद रहेगा। हो सकता है कर्फ़्यू लगे। इसलिए आवश्यक चीज़ों का प्रबंध कर लेना चाहिए.
अपने मित्रो में उठ-बैठकर हम घर पहुँचे तो द्वार पर ठिठक गए. भीतर टेपरिकार्डर पर आल्हा-ऊदल की जोशीली आवाज़ गूँज रही थी-
एक को मारें दो मर जावें, तीसरा दहशत से मर जाय।
बड़े लड़ैया मोहबे वाले, इनका हाल कहा न जाय।
हमने अपनी पूरी ताक़त से चिल्लाकर पत्नी से पूछा-'यह क्या हो रहा है घर में? क्या वाहियात बात है।'
पत्नी ने टेपरिकार्डर का वाल्यूम थोड़ा कम किया और बोलीं-'तुम्हारे धर्मनिरपेक्ष वाले ठंडे रक्त को खौलाने के लिए लाई हूँ यह!'
हमें लगा, जैसे हमारा रक्त नहीं, खोपड़ी खौलने लगी है। पूछा-'कुछ सब्ज़ी आदि भी लाइंर् कि नहीं?'
बोलीं-'जेब में पैसे ही कहाँ रहे थे बाक़ी। दो त्रिशूल लिए. एक तुम्हारे लिए और एक अर्जुन के लिए. बजरंग बली का ताबीज़ लिया और चली आई. स्थिति ख़राब है। अब घर में कुछ तो है। यहाँ तो सब्ज़ी काटने का चाकू भी नहीं था। फिर यह ताबीज़ और आल्हा का कैसेट।'
हमने बीच में टोका-'हद हो गई मूर्खता की!' किंतु वह जो थीं अपनी ही धुन में कहती गइंर्, 'बड़ी लंबी लाइन लगी थी साधुराम जी दुकान पर। सारा स्टॉक ख़त्म हो गया। एक-एक त्रिशूल सौ-सौ रुपए का बिक गया। यही हाल चाकुओं और झंडों का रहा। दोनों तरफ़ के लोग धड़ाधड़ ख़रीदारी कर रहे थे। बड़ी मुश्किल से मेरा नंबर आया।' पत्नी ने यह बात इस प्रकार बताई. जैसे कोई बड़ा मैदान जीतकर आई हों और फिर टेप की आवाज ऊँची कर दी-'पतली नागिन उडक़र काटे, पतला तीर पार हो जाय।'
हमें लगा जैसे सचमुच भाई साधुराम जी का पतला तीर हमारे भीतर से पार हो गया हो, लेकिन कर क्या सकते थे! साधुराम तो हमारे ही घर में सेंध लगा चुका था।