धर्मारण्य और वाडव / ब्रह्मर्षि वंश विस्तार / सहजानन्द सरस्वती
जिस धर्मारण्य का विशेष जिक्र ग्रन्थ में आया है और जो सीतापुर के कानपुर तक बताया गया है उसके विषय में भी लोगों में बहुत सी भ्रान्त धारणाएँ हैं, जिनका निराकरण आवश्यक है। यह भ्रम भी लोगों को प्राय: इसी से हो जाता है कि प्राचीन ग्रन्थों में कई धर्मारण्यों का वर्णन है। परंतु 'अंधों के हाथी' की तरह जिसने जहाँ जो देख लिया उसी को मान कर शंका करने लगा कि आपने गलत लिखा है। यदि सभी ग्रन्थों के परिशीलन का सौभाग्य लोगों को मिले तो यह शंका ही न हो। जैसे भृगु, गौतमादि ऋषियों के नाम से बहुत से स्थान प्रसिद्ध है और वह सिर्फ इसलिए कि विभिन्न काल में विभिन्न स्थानों पर वे लोग रहे या वहाँ तप आदि किया। ठीक इसी तरह धर्म ने विभिन्न समय में जिन-जिन स्थानों में तप या निवास किया अथवा जो स्थान धर्म प्रधान थे वही धर्मारण्य कहलाए। इस प्रकार अभी तक हमारे जानते तीन स्थान धर्मारण्य के नाम से प्राचीन ग्रन्थों में विख्यात है, जिनमें से दो में तो धर्म के यज्ञ और तप करने का भी वर्णन मिला है। एक गया क्षेत्र, दूसरा बरेली, सीतापुर वगैरह का प्रदेश जिसे नैमिषारण्य भी कहते हैं और तीसरा पुष्कर क्षेत्र से दक्षिण-पश्चिम सिद्धपुर के निकट मोढ़ेरा के इर्द-गिर्द। इन तीनों का पता महाभारत के वनपर्व के तीर्थयात्रा प्रकरण, पर्पिुंराण के स्वर्ग खण्ड के तीर्थ निरूपण प्रकरण, स्कंदपुराण के धर्मारण्य प्रकरण और वायुपुराण के गया महात्म्य से चलता है। वनपर्व में अजमेर (पुष्कर) से पृथ्वी की दक्षिणरावत्त परिक्रमा करने में उसके बाद ही 82वें अध्याय में लिखा है कि -
कण्वाश्रमं ततो गच्छ्रेच्छीजुष्टं लोकपूजितम्।
धर्मारण्यं हि तत्पुण्यमाद्यं च भरतर्षभ॥ 45॥
‘हे युधिष्ठिर पुष्कर के बाद कण्वाश्रम में जाना चाहिए जहाँ लक्ष्मी रहती है और लोकपूजित है। वह सबसे प्रथम का और पवित्र धर्मारण्य है।’ फिर 84वें अध्याय में लिखा है कि :
ततो गयां समासाद्य ब्रह्मचारी समाहित:।
अश्वमेधमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत्॥ 82॥
ततो ब्रह्मसरो गत्वा धर्मारण्योपशोभितम्॥ 85॥
‘उसके बाद ब्रह्मचर्यपूर्वक मन को एकाग्र कर के गया जाने से अश्वमेध का फल और कुल का उद्धार होता है। फिर (गया में ही) ब्रह्मसर में जाना चाहिए जो धर्मारण्य से शोभित है।’ यही बात पर्पिुंराण के स्वर्गखण्ड में भी है। स्कंदपुराण में तो ब्रह्मखण्ड का एक भाग ही धर्मारण्य है जिसमें धर्म के तप आदि का सविस्तार वर्णन है। जिसे बरेली, सीतापुर वगैरह का प्रदेश या वर्तमान नैमिषारण्य ही कुछ विस्तृत रूप में धर्मारण्य सिद्ध होता है। जैसा कि उसके 25वें अध्याय में लिखा है :
मू. उ. - अथान्यत्संप्रवक्ष्यामि तीर्थमहात्म्यमुत्तामम्।
धर्मारण्ये यथानीता सत्यलोकात्सरस्वती॥ 1॥
भगवन्नैमिषारण्ये सत्रो द्वादशवार्षिके।
त्वयावतररिता ब्रह्मन्नदी या ब्राह्मण: सुता॥ 6॥
मा. - धर्मारण्ये मया विप्रा: सत्यलोकात्सरस्वती।
समानीता सुरेखाद्रौ शरण्या शरणर्थिनाम्॥ 10॥
‘सूत ने कहा कि हम धर्मारण्य का दूसरा महात्म्य सुनाते हैं कि जैसे ब्रह्मलोक से वहाँ सरस्वती लाई गई। मुनियों ने मार्कंडेय से प्रश्न किया कि आप ने नैमिषारण्य में सरस्वती कैसे लाई। उन्होंने उत्तर दिया कि शरणोच्छुओं को शरण देने वाली सरस्वती पहले मैंने सुरेख पर्वत पर ला कर फिर धर्मारण्य में लाई।’ इससे धर्मारण्य में सरस्वती का लाया जाना सिद्ध है और शल्यपर्व से पता लगता है कि सरस्वती की सात धाराओं में एक नैमिषारण्य में थी। इससे नैमिषारण्य और धर्मारण्य एक ही सिद्ध होते हैं और पूर्व के श्लोकों से भी। आगे चल कर धर्मारण्य में यज्ञ करने के लिए श्री रामचंद्र जी की यात्रा का वर्णन करते हुए 31वें अध्याय में लिखा है कि अयोध्या से प्रथम थोड़ा उत्तर और फिर पश्चिम जा कर 10वें दिन धर्मारण्य में पहुँचे। जैसा कि आगे है:
वसिष्ठं चाग्रत: कृत्वा महामाण्डलिकैनृपै:।
पुनश्चविधिं कृत्वां प्रस्थितश्चोत्तरां दिशम्॥ 82॥
वसिष्ठं चाग्रत: कृत्वा प्रतस्थे पश्चिमां दिशम्।
ग्रामाद्ग्रामतिक्रम्य देशाद्देशं वनाद्वनम्॥ 83॥
दशमेऽहनि सम्प्राप्तं धर्मारण्यमनुत्तामम्॥84॥
पहले जमाने में अयोध्या से 8-10 दिनों का पैदल रास्ता, सो भी नौकर-चाकर और दल-बादल के साथ और उत्तर-पश्चिम दिशा में वही बरेली, सीतापुर का प्रदेश ही हो सकता है। वहाँ यह भी लिखा है कि यज्ञ के बाद श्री राम जी ने सीता जी के नाम से सीतापुर बसाया है। अब भी सीतापुर में सीता जी की मूर्ति मौजूद है। वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड के 91-92वें सर्गों में श्री राम जी का नैमिषारण्य में ही अश्वमेध करना यों लिखा है :
यज्ञवाटश्च सुमहान्गोमत्या नैमिषे वने॥ 15॥
अनुभूय महायज्ञ नैमिषे रघुनन्दन:॥ 17॥
ऋत्विग्भिलक्ष्मणं सार्द्धमश्वेच विनियुज्य च।
ततोऽभ्यगच्छत्काकुत्स्थ: सहसैन्येन नैमिषम्॥ 2॥
‘श्री रघुनन्दन ने इस बात की आवश्यकता अनुभव की कि अश्वमेध महायज्ञ गोमतीवाले नैमिषारण्य में ही होना चाहिए और वहीं महती यज्ञशाला बननी चाहिए। ऋत्विजों के साथ लक्ष्मण को यज्ञ के अश्व की रक्षा में नियुक्त कर सेना के साथ श्रीराम जी नैमिषारण्य को गए।’ इससे निर्विवाद सिद्ध है कि नैमिषारण्य का ही कुछ विस्तृत रूप धर्मारण्य हैं। सिद्धपुर के निकट और गया और धर्मारण्य न तो अयोध्या के 8-10 दिन के पैदल रास्ते पर हैं, न उत्तर-पश्चिम में है, न वहाँ गोमती ही है और न उन्हें नैमिषारण्य कहते ही हैं। पर, यहाँ एक बात ध्यान रखने की है कि सीतापुर से कानपुर तक विस्तृत रहने पर भी धर्मारण्यतीर्थ, जिसका विशेष महत्व है, उतना विस्तृत न था। किंतु वह तो संकुचित ही रहा होगा। जैसा कि काशी बृहत् और लघु पंचकोशी 84 और 25 की होने पर भी उसका विशेष महात्म्य वरुणा और अस्सी के बीच में ही है। इसीलिए वहाँ के ब्राह्मणों के बालकों का धर्मारण्य तीर्थ या क्षेत्र के निकट गाएँ चराने का वर्णन आया है, न कि समूचे धर्मारण्य से बाहर। उसी धर्मारण्य में प्रथम ब्रह्मा, विष्णु और महेश द्वारा जिन 18000 ब्राह्मणों की स्थापना हुई थी, उन्हीं को अश्वमेध यज्ञ के अनंतर रामचंद्र जी ने उस धर्मारण्य का राज्य ताम्रपत्र लिख कर दिया। वे ब्राह्मण चुन-चुन कर त्रिदेवों द्वारा अनेक देशों से लाए गए थे और साक्षात ऋषि थे। हमने ग्रन्थ में यह दिखलाया है कि इन्हीं पवित्रात्मा ब्रह्मर्षियों के वंश में वर्तमान जमींदार, भूमिहार आदि ब्राह्मण हैं, जिनका विस्तार (विस्तार) बहुत दूर तक हुआ है। इसी से ग्रन्थ का नाम भी ब्रह्मर्षि वंश विस्तर है। मगर इसका यह अभिप्राय नहीं है कि सिर्फ धर्मारण्य के ब्राह्मण ऋषियों (ब्रह्मर्षियों) के ही वंशज आजकल के अयाचक और याचक, त्यागी, महियाल, जमींदार, भूमिहार, पश्चिम, चितपावन, नागर, जगद्वंशी धानंजयी, जाजपुरी, मैथिल, कनौजिया, गौड़, सारस्वत आदि ब्राह्मण हैं। उनके वंशधार तो कुछ ही लोग हो सकते हैं। शेष ब्राह्मण तो अन्य ब्रह्मर्षियों के ही वंशज हैं, जिन्हें गोत्रकार ऋषि भी कहते हैं। अस्तु।
उन धर्मारण्य के ब्राह्मणों की सामाजिक स्थिति का मनोहर और विशद् वर्णन ग्रन्थ के 51वें पृष्ठ में आया है। उन्हें त्रिदेवों ने स्थापित किया था इसी से त्रौविद्य कहे जाते थे। मगर पीछे से राजा कुमारपाल द्वारा राज्य हरण कर लेने पर उनमें से 3000 तो रामेश्वर की ओर हनुमान की सहायता के लिए गए। क्योंकि उन्हें श्री राम जी का आदेश था कि संकट आने पर मेरा और हनुमान का स्मरण करने से वह दूर हो जावेगा। शेष 15000 वहीं राजा के बहकाव से और जप, होम, पूजा आदि के लिए भी रहे, जिन्हें राजा ने सुखवास स्थान में रखा था। यही लोग पीछे चातुर्विद्य कहे गए। क्योंकि तीन देवों के सिवाय चतुर्थ (राजा) की सहायता इन्होंने अपने रहने में ली। मगर उन 3000 ने दूसरे की सहायता न ली और रामेश्वर की ओर से हनुमान जी की कृपा से दो पुड़िया ले कर आए और जैसाकि ग्रन्थ में लिखा जा चुका है, एक पुड़िया से राजा कुमारपाल का राजभवन जला कर उसके शरणागत होने पर दूसरी से अग्नि को शांत कर दिया और इस प्रकार अपनी तपो महिमा और शक्ति से फिर धर्मारण्य का राज्य प्राप्त कर लिया। क्योंकि राजा ने अपराध क्षमा कराके उनका राज्य उन्हें सौंप दिया। इसी से वे त्रौविद्य ही कहाते रह गए। यह सभी बातें नीचे के श्लोकों से स्पष्ट है :
यस्मिन्स्थाने च ये विप्रा: सदाचारशुभव्रता:
अशेषधर्मकुशला: सर्वशास्त्रविशारदा:॥ 19॥
तपोज्ञाने महाख्याता ब्रह्मयज्ञपरायणा:।
स्थापिता ऋषय: सर्वे सहस्राण्यष्टादशैवतु॥ 20॥
नानादेशात्समानीय स्थापितास्तत्र वै सुरै:॥ 219॥
त्रयीविद्यास्तु विख्याता: सर्वे वाडवपुंगवा:।
सहस्राणि च त्रीण्येव त्रैविद्याअभवन्धु्रवम्॥ 120॥
पंचदश सहस्राणि ततस्तु द्विजपुंगवा:।
यथागतं गता: सर्वे चातुर्विद्या द्विजोत्तमा:॥ 124॥
ते पंचदशसाहस्रा: पुनस्तानूचुरादरात्।
अस्माभिरत्रास्थातव्यमग्निसेवार्थतत्परै:॥ 138॥
त्रिसाहस्रास्तदातस्मात्प्रस्थिताद्विजसत्तामा:॥ 147। 36।
त्रयीविद्यास्तु ते ज्ञेया स्थापिता ये त्रिमूर्त्तिभि:।
चतुर्थेनैव भूपेन स्थापिता: सुखवासने॥ 80॥
ते बभूबुर्द्धिजश्रेष्ठाश्चातुर्विद्या: कलौयुगे।
चातुर्विद्याश्चतेसर्वे धर्मारण्ये प्रतिष्ठिता:॥ 81॥ 39॥
इन सभी का निचोड़ यह है कि ‘नाना देशों से ढूँढ़ कर 18000 वेदशास्त्र पारंगत, सदाचारी, तपस्वी, धर्मात्मा ब्राह्मण महर्षि (ब्रह्मर्षि) ब्रह्मा, विष्णु, महेश द्वारा धर्मारण्य में स्थापित किए गए। यद्यपि सभी त्रैविद्य कहलाते थे। पर, पीछे से 3000 ही कहलाते रह गए। 15000 उत्तम ब्राह्मण जैसे आए थे वैसे ही चले गए और वे चातुर्विद्य कहलाए। उन्होंने 3000 विप्रों को कहा कि हम लोग यहीं अग्निहोत्रादि करने के लिए रह जाते हैं। इसलिए उस समय वे 3000 ही रामेश्वर को रवाना हुए। जिन्हें त्रिदेवों ने प्रथम स्थापित किया था वे सभी त्रैविद्य कहाते थे। मगर पीछे जिनको चतुर्थ राजा ने रामेश्वर जाने से रोक कर सुखवास नामक स्थान में रख लिया वे लोग कलि में चातुर्विद्य कहलाए। वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण धर्मारण्य में प्रतिष्ठित हो गए।’ उन्हें वाडव भी कहा है और वाडव का अर्थ ब्राह्मण हैं, जैसा कि अमरकोश आदि में लिखा है। बडवा ब्राह्मणी को कहते हैं और उसके ब्राह्मण द्वारा जो पुत्र हो उसी का नाम वाडव हैं। यह बात अमरकोश के द्वितीय कांड के ब्राह्मण वर्ग और उसकी टीका रामाश्रमी ने स्पष्टतया लिखी है। ग्रन्थ के 129-132 पृष्ठों को देख कर इस इतिहास का मिलान कर लेना चाहिए।