धर्म, धर्मतंत्र और राजनीति / निर्मल वर्मा
एक लंबी मुद्दत से मेरे लिए कुछ अनुभव बहुत अस्पष्ट और अशरीरी रहे हैं; कभी-कभी संशय भी होता है, कि उनमें मेरा विश्वास कितना वास्तविक और आत्मीय है - कितना सिर्फ दूसरों से ग्रहण किया हुआ, और कितना सिर्फ विश्वास करने की आकांक्षा से उत्प्रेरित हुआ है। मैं कोशिश भी करता हूँ, तो उनके पीछे कोई युक्ति, कोई तर्क, कोई ठोस कार्य-कारण प्रणाली नहीं ढूँढ़ पाता। बुरे और अँधेरे क्षणों में यह भी संदेह होता है, कि ये अनुभव असल में मेरे भीतर के माया-संसार की धुँध मात्र हैं, जो यथार्थ का जरा-सा धक्का खाते ही धुल जाएँगे - मुझे उतना ही अकेला छोड़ कर, जितना अकेलापन एक आदमी को अपनी जिंदगी में भोगना पड़ता है।
मुझे शुरू में ही कह देना चाहिए कि इन अनुभवों में मेरे लिए सबसे अधिक जीवंत और प्रमुख दो तरह के अनुभव रहे हैं - एक वह, जो किसी विराट कलाकृति के समक्ष महसूस होता है - अचानक किसी संगीत-अंश को सुनते हुए, किसी चित्र को देख कर या मेरे लिए विशेषकर सबसे अधिक उद्वेलित करनेवाला अनुभव - जो किसी कविता या महान उपन्यास को पढ़ते समय होता है। हम ऐसे अनुभवों को संकीर्ण ढंग से सौंदर्यमूलक अनुभव कह कर संतुष्ट हो लेते हैं, किंतु यह अनुभव महज सौंदर्य भोगने से कहीं ज्यादा संश्लिष्ट और पेचीदा है।
किंतु यहाँ मैं एक दूसरी तरह के अनुभव का उल्लेख करना चाहूँगा - जो अपनी गहनता, व्यापकता और इंटेन्सिटी में कलात्मक अनुभव के बहुत समीप है, किंतु उससे बहुत अलग भी; यह एक ऐसा विचित्र अनुभव है, जो अपनी उपस्थिति में हमें संपन्न नहीं बनाता, उलटे वह एक विराट अनुपस्थिति से साक्षात करवाता है। एक गहरे अभाव का अनुभव - जिसे इस धरती पर अपने अकेलेपन में ठिठुरता सिर्फ एक मनुष्य महसूस कर सकता है। हम सिर्फ उस 'चीज' का अभाव महसूस करते हैं, जो पहले कभी उपस्थित थी, हमारे होने के साथ जुड़ी थी - और अब वह नहीं है। यह विचित्र विरोधाभास है कि पशु, पक्षी, पेड़ जिस आत्म-सहजता के साथ अपने को समय और सृष्टि के साथ जुड़ा पाते हैं - मनुष्य उतना नहीं - जिस आत्मचेतना के रहते मनुष्य को अपने होने का अहसास होता है, उसी के कारण उसे अपने अधूरेपन की विवशता भी महसूस होती है। यह नहीं कि वह अपने मनुष्यत्व को छोड़ कर कुछ और होना चाहता है, बल्कि उसे स्वयं अपने मनुष्य होने की परिभाषा में कोई चीज छूटी हुई जान पड़ती है। एक अपूर्ण परिभाषा नहीं, बल्कि एक ऐसी परिभाषा जिसका एक हिस्सा हम इतिहास की रोशनी में पढ़ पाते हैं, किंतु उसे पूरा करनेवाला शेष अंश लिखित होता हुआ भी कहीं अँधेरे में छिपा है। हमे अनिवार्यत: इस प्रश्न का सामना करना पड़ता है कि अब तक जो मनुष्य की परिभाषा दी गई है, क्या वे संपूर्ण परिभाषाएँ हैं? क्या वे अपने में उन समस्त अनुभवों को समाहित करती हैं, जो धरती पर एक ऐसे प्राणी को होते हैं जिसे हम 'मनुष्य' कहते हैं? और तब हमें सहसा पता चलता है कि मनुष्य की समस्त परिभाषाएँ उसके और सृष्टि के बीच संबंधों को उद्घाटित करती हैं - मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वह एक प्राणी है, जो औजार बनाता है, वह जो आनेवाले कल और बीते हुए समय का बोध रखता है, वह प्रकृति पर विजय प्राप्त करता है - वह भाषा ईजाद करता है, ताकि अपने आशय और अर्थों को दूसरे तक संप्रेषित कर सके - एक सामाजिक, ऐतिहासिक, तार्किक, संप्रेषणशील प्राणी - जिसे हम मनुष्य कहते हैं। मनुष्य कहाँ दूसरों से भिन्न है, इस जिज्ञासा का उत्तर हमें इन परिभाषाओं में मिलता है किंतु स्वयं इस जिज्ञासा का जीवट अनुभव कि मनुष्य अपने में क्या है - हमें नहीं मिलता। इसलिए ये परिभाषाएँ अधूरी हैं - और तब तक अधूरी रहेंगी जब तक पूछनेवाला मनुष्य यह न पूछे, कि मैं कौन हूँ, जो मनुष्य का अर्थ जानना चाहता हूँ?
मुझे लगता है कि हम जिसे धर्म या धार्मिक अनुभव कहते हैं, उसका मूल स्रोत इस प्रश्न में छिपा है। यह प्रश्न केवल मनुष्य के बारे में नहीं है, उन सब परिभाषाओं के अधूरे और अँधेरे पक्ष के साथ भी जुड़ा है, जो अब तक मनुष्य के संबंध में दी गई हैं। कितनी अजीब बात है कि सब धर्मतंत्र मनुष्य को प्रकाश देने का दावा करते हैं, किंतु जिस अँधेरी आकुलता और अकेलेपन के बीच धर्म का बीज गड़ा है, उसे कोई परिभाषित नहीं करना चाहता। यह वही आतप्त, बदहवास और मर्मांतक आकुलता है जिसे किसी ने आत्मा की अँधेरी रात (डार्क नाईट ऑफ द सोल) कहा है - जिसकी झलक हमें पास्कल के चिंतन में, दोस्तोएव्स्की और तॉलस्तॉय के उपन्यासों में, सिमोन वायन की असह्य आत्म-यातना, रामकृष्ण परमहंस के आरंभिक जीवन की आर्त-विह्वलता में दिखाई दे जाती है; आज हमारे बीच सैकड़ों धर्मतंत्र हैं किंतु मनुष्य की आदिम जिज्ञासा की वेदना ज्यों-की-त्यों है।
यह वेदना कहीं बाहर से नहीं उपजती - मनुष्य की इसी जिज्ञासा के भीतर सन्निहित है; ये प्रश्न पूछते ही कि मैं क्या हूँ, कौन हूँ, किसलिए इस धरती पर आया हूँ, मेरे होने का क्या अर्थ है - मनुष्य को समूची सृष्टि से अलग कर देते हैं, किंतु यह भी संभव है कि वह सृष्टि से अलग है, इसलिए ये प्रश्न पूछता है? कुछ भी हो, किंतु इस अलगाव के कारण मनुष्य अपनी आँखों में एक संदिग्ध प्राणी बन जाता है! समूची सृष्टि का साक्षी मनुष्य हो सकता है, किंतु मनुष्य का साक्षी कौन है? मनुष्य सब वस्तुओं, प्राणियों, प्राकृतिक शक्तियों को नाम देता है, किंतु जब मनुष्य को नाम देने का प्रश्न आता है, तो समूची सृष्टि चुप रहती है। हिंदू धर्म के बारे में कहा जाता है कि यह नाम उसका अपना नहीं है, दूसरों ने दिया है; किंतु क्या यह सत्य मनुष्य मात्र पर लागू नहीं होता - दो पैरों पर चलनेवाले इस जीवन को मनुष्य का नाम किसने दिया है? यदि समूची सृष्टि चुप है और मनुष्य को नाम देनेवाला कोई नहीं - सिवाय स्वयं मनुष्य के -तो हम एक असाधारण सत्य की ओर पहुँचते हैं कि मनुष्य में एक ऐसी शक्ति है - जो किसी अन्य पशु या प्राणी में नहीं - जो उसे अपने से बाहर स्वयं अपने को देखने के लिए सक्षम बनाती है। वह द्रष्टा ही नहीं, आत्मद्रष्टा है; और ज्यों ही हम 'आत्मद्रष्टा' का नाम लेते हैं, पहली बार एक धुँधला-सा बोध होता है, कि मनुष्य का यह आत्म-सिर्फ उसका मैं, अहम या ईगो नहीं - उससे कुछ बड़ा है, बृहत्तर है, अधिक है... क्या यही बोध मनुष्य को पहली बार उस अजीब, रहस्यमय अनुभव से साक्षात नहीं कराता, जिसे 'ईश्वर' कहा जाता है?
मनुष्य यदि अपने को बाहर से देख सकता है, तो यह 'बाहर' असीम और विराट है और थोड़ा-सा भयानक भी। किंतु जब वह बाहर से अपने को देखता है तो वह अपने को समूची सृष्टि से जुड़ा हुआ भी पाता है; अकेलेपन के भय के साथ एक दूसरी भावना का जन्म होता है - लगाव। यह एक असाधारण अनुभूति है; ईश्वर अदृश्य है - किंतु सृष्टि प्रत्यक्ष है, मांसल है, सामने है... वह एक ऐसी किताब है, जिसमें लगाव से उपजा प्रेम और आत्म का अदृश्य बोध, दोनों ही पहली बार अपनी भाषा ग्रहण करते हैं। इसलिए कुछ धर्मों के टेक्स्ट 'मंत्र' कहलाते हैं; हम जो दोहराते हैं, स्वयं उसमें ध्वनित होते हैं, दुनिया ही एक ऐसी निराली किताब है, जिसे पढ़ते हुए लगता है कि यह मैं हूँ, जिसे पढ़ा जा रहा है।
सब धर्म-संप्रदायों के अपने धर्मग्रंथ हैं, किंतु मनुष्य का धर्मग्रंथ सिर्फ यह सृष्टि है, जिसके बिना ईश्वर की अवधारणा असंभव होती। क्या यह कारण नहीं है कि विभिन्न धर्मों के सिद्धांत एक-दूसरे से भिन्न हो सकते हैं किंतु एक भाव शाश्वत रूप से सबमें समान रूप से रहता है - पवित्रता का भाव? चीजों की अपनी जन्मजात मर्यादा है, वे अपने अस्तित्व में स्थिर प्रतिज्ञ हैं - पवित्रता का भाव इस विश्वास में निहित है। यह उस पश्चिमी धारणा से बिलकुल मेल नहीं खाता, जिसके अनुसार मनुष्य सृष्टि के केंद्र में है, सब चीजों का मापदंड; जब हम मनुष्य को सर्वोपरि मान लेते हैं, तो उस वृहत्तर शक्ति का कुछ क्षय तो होता ही है, जो मनुष्य को समूची सृष्टि के साथ जोड़ती है - बल्कि प्रकृति की मर्यादा भी नष्ट होती है जिसमे हर पशु-पक्षी, प्राणी अपनी स्वायत्त गरिमा में जीता है। यूरोप में रेनेसां के बाद जिस मनुष्य - केंद्रित संस्कृति का सूत्रपात हुआ, उसमें मनुष्य नहीं, उसमें अहम का प्रभुत्व था। पहली बार मनुष्य के अहम और आत्मन में एक फाँक दिखाई दी, जिसका भीषण परिणाम हम आज भुगत रहे हैं। अपने को मानववादी कहनेवाला दर्शन किस तरह स्वयं मानव को सिर्फ उसके अहम में सिकोड़ कर उसकी समग्र और अखंडित गरिमा को विपन्न बनाता है - यह इतिहास का एक सबसे त्रासदायी विरोधाभास रहा है।
किंतु मैं एक बार फिर पवित्रता बोध की ओर लौटना चाहूँगा, क्योंकि उसे समझे बिना हम उस विशिष्ट 'दृष्टि' का मूल्य नहीं समझ पाएँगे, जो धर्मबोध से उत्पन्न होती है। हमने ऊपर देखा है कि मनुष्य में पहली बार ईश्वर की अवधारणा उसके आत्म की विस्तृत चेतना के भीतर ही जाग्रत हुई थी - एक ऐसी अतिरिक्त शक्ति जो मनुष्य को -मनुष्य से इतर सृष्टि से जोड़ती है। अब मनुष्य एक नामहीन, अनाथ और अकेला प्राणी नहीं रहता, समूची सृष्टि के कार्यकलाप का महज दर्शक मात्र नहीं, बल्कि उसमें सक्रिय रूप से हिस्सा बँटाता है; यह उसके जीवन-निर्वाह के लिए ही नहीं, जीवन-अर्थ के लिए भी अनिवार्य है। पहले उसके कर्म का कोई साक्षी नहीं था; इसलिए उसे अपना समूचा अस्तित्व एक प्रयोजन-रिक्त, चारी कृति जान पड़ती थी, किंतु इस आंतरिक चेतना के भीतर (हम उसे ईश्वर कहें या कुछ और, इससे अंतर नहीं पड़ता), अब उसे न केवल जन्म से मृत्यु तक फैला अपना जीवन, बल्कि अपने चारों ओर फैली विराट प्रकृति और समूची सृष्टि अर्थों से भरे जान पड़ते हैं। मनुष्य और सृष्टि के बीच फैला अथाह मौन अचानक टूट जाता है और जहाँ शून्य था, वहीं अब समूचा परिदृश्य संकेतों, अर्थों, गोपनीय रहस्यों से भरा दिखाई देने लगता है। पहली बार सृष्टि एक 'कृति' में बदल पाती है - मनुष्य को वैसे ही अभिभूत, आलोड़ित और रोमांचित करती हुई - जैसे हम किसी विराट कलाकृति के समक्ष महसूस करते हैं। दुनिया अब एक खाली पन्ना नहीं, विचित्र संकेतों से लिखी एक पूरी किताब जान पड़ती है - एक खुली किताब-जिसका लेखक अदृश्य है, किंतु ज्यों-ज्यों हम इन संकेतों का अनुवाद करते जाते हैं, उतना ही उसका लेखक एक विशिष्ट किस्म की दृश्यता ग्रहण करने लगता है। हर धर्म इसी किताब की टीका है, अनुवाद है, व्याख्या है। अनुवाद की भाषा एक-दूसरे से कितनी ही भिन्न हो, किंतु पुस्तक आज भी वही है, जो हजारों वर्ष पहले थी।
यहीं पर हर धर्म के कर्मकांड, अनुष्ठानों-व्रतों, बिंबों और प्रतीकों का महत्व उद्घाटित होता है। हम आधुनिक बुद्धिजीवी प्राय: किसी धर्म के कर्मकांड को महज 'बाहरी आडंबर', उसका केवल ऊपरी और उथला पक्ष मान कर उपेक्षा करते हैं और उसे धर्म के किसी अंदरूनी सत्य से अलग कर देना चाहते हैं; यह कुछ वेसा ही है जैसे हम किसी कविता के अर्थ को उसकी भाषा से अलग करके देखने की चेष्टा करें। धर्म ही नहीं, किसी भी अनुभव का सत्य केवल उसके बाहरी रूपों में उद्घाटित होता है - स्वयं 'शब्द' ही अपने में उस सत्य का उद्घाटन है, जो उसके भीतर छिपा है। कितना अजीब है, हम छिपे हुए सत्य को ढूँढ़ना चाहते हैं, किंतु उस रूप की उपेक्षा करते हैं, जिससे वह उद्घाटित हुआ है। इसीलिए कभी-कभी मुझे ईसाइयों और इस्लाम द्वारा 'मूर्ति खंडन' अजीब जान पड़ता है - किसी देवता की मूर्ति अपनी प्रतीकात्मकता में उतनी ही अर्थवान है, जितना कुरान और बाइबिल में लिखा हुआ शब्द; दोनों ही अपने रूप में उसी सत्ता को आलोकित करते हैं जो अदृश्य है। इसीलिए धर्म के बाहरी रूप किसी भी आस्थावान व्यक्ति के लिए इतने पवित्र और महत्वपूर्ण होते हैं। ऑस्कर वाइल्ड ने एक बार कहा था, 'खोखले लोग ही प्रकट के आधार पर निर्णय नहीं लेते। संसार का रहस्य उसमें है, जो प्रकट है, अप्रकट में नहीं।' इस संसार को 'माया' जरूर माना जाता रहा है किंतु माया के संकेत समझे बिना संसार का सत्य समझ में आ सकता है, मुझे इसमें गहरा संदेह है।
ऑस्कर वाइल्ड ने जिसे 'प्रकट' (एपीयरेंस) कहा है, हमारे यहाँ वही 'लीला' में अवतरित होता है : हम एक पुराने सत्य को अपने समय में दोहराते हैं, ताकि हम उसकी पवित्रता में पुन: पैठ सकें। रामलीला का 'राम' कलियुग का प्राणी है जो हमें त्रेता के राम से साक्षात करवाता है। किंतु यदि वही व्यक्ति जो राम की भूमिका निभाता है, 'रामलीला' के बाहर अपने को राम कहने का दावा करे, तो उसे कोई स्वीकार नहीं करेगा, क्योंकि लीला का पवित्र समय, दुर्भाग्यवश धीरे-धीरे जीवन के सेक्युलर समय से अलग होता गया है। धर्मों के बीच वैषम्य का यह एक बड़ा कारण रहा है कि हर धर्म-प्रतिष्ठान अपने पवित्र समय में अर्जित किए हुए सत्य को बाकी दुनिया के सांसारिक समय पर आरोपित करना चाहता है, जबकि सच्चे धार्मिक बोध का तकाजा यह है कि वह दुनिया के सांसारिक समय को लीला के शाश्वत सत्य में परिणत कर सके। धर्म की यह आधुनिक विडंबना है कि लोग ईसाई, मुसलमान, हिंदुओं की हैसियत से गिरजों, मस्जिदों, मंदिरों में जाते हैं - किंतु भीतर जा कर वे जिस धर्म की आदिम स्मृति को अपनी प्रार्थना में जाग्रत करते हैं, वह देहरी के बाहर आते ही सांसारिक समय के उजाले (या अँधेरे में) धूमिल पड़ जाती है। हम एक तरफ स्मृतिहीन अनुभव और दूसरी तरफ अनुभवहीन स्मृति में जीते हैं। एक धर्मविश्वासी की संकीर्णता या कट्टरता इससे साबित नहीं होती, कि वह अपने धर्म के कर्मकांड या अनुष्ठानों से चिपका है - वे तो उसके धर्म की भाषा हैं, जिसमें उसके धर्म का सत्य छिपा है; एक धर्मावलंबी व्यक्ति की दयनीयता उसकी कट्टरता में नहीं, विस्मृति में है; वह अपने धर्म की भाषा तो पढ़ता है, किंतु उसके प्रतीकों और संकेतों के अर्थ को भूल गया है।
एक धर्मतंत्र और कुछ नहीं, इन्हीं संकेतों और प्रतीकों को एक स्थान में संयोजित करने का प्रयास है। मैंने जान-बूझ कर 'स्थान' शब्द का प्रयोग किया है, एक मंदिर या गुरुद्वारा सिर्फ पूजा के स्थान नहीं हैं, वे चार सीमाओं के बीच पवित्र समय को रूपायित करते हैं, तंत्र का मतलब ही सीमावृत्त होना है। जब कोई 'स्थान' किसी विश्वास या मर्यादा को अपने भीतर प्रतिष्ठित करता है, तभी वह 'संस्थान' बन पाता है। ईसा ने कहा था, जहाँ तीन-चार लोग जमा हों, मैं वहाँ उपस्थित हूँ। वह स्थान अपने में पवित्र हो जाता है। दिल्ली के गांधी-प्रतिष्ठान में - गांधी जी का चित्र है, बाहर हॉल में उनकी पुस्तकें हैं; चौबीस घंटों में हम कितनी बार गांधी को याद करते हैं? किंतु यहाँ, इस स्थान में आते ही, हमेशा मेरी सब स्मृतियाँ, अनुभव, अपने से की गई प्रतिज्ञाएँ, इस एक व्यक्ति पर केंद्रित हो जाती हैं। एक ऐसा स्थान - जहाँ पहुँचते ही हमारा बिखरा हुआ, विश्रृंखलित, औसत जीवन एक असाधारण सत्य पर बिंध जाता है। मैं किसी ईश्वर या धर्म-प्रतिष्ठान का अनुकरण नहीं करता - किंतु यही अलौकिक बोध मुझे कैथोलिक गिरजों या रामकृष्ण मिशन की इमारत में महसूस होता है। ठीक यहीं एक तंत्र और संस्थान का अंतर्विरोध भी प्रकट होता है। ईसा-गांधी या नानक भटकते हुए लोग थे, वे किसी गिरजे, गुरुद्वारे या संस्थान में स्थिर हो नहीं सकते, विरोधाभास यह है, कि मेरी भटकती हुई आत्मा इसी गिरजे, गुरुद्वारे, राजघाट के भीतर ही स्थिरता ग्रहण कर पाती है। क्या हम दो जीवन जीते हैं - जिनका एक-दूसरे से कोई संबंध नहीं? हम अपनी प्रार्थना और आकांक्षाओं में एक अखंडित, अविभाजित जीवन जीने का स्वप्न देखते हैं, जबकि हमारा व्यावसायिक और सांसारिक जीवन हर कदम पर इसी स्वप्न को विकृत, खंडित और दूषित करता रहता है! हमारे धर्मतंत्र और लौकिक संसार के बीच जो इतनी गहरी खाई फैल गई है, क्या इसे कभी नहीं पाटा जा सकता?
इस प्रश्न का उत्तर खोजते समय हमारा साक्षात उस 'शक्ति' से होता है, जिसे इस निबंध के शीर्षक में 'राजनीति' कहा गया है। राजनीति का तंत्र एक विशिष्ट समाज में मनुष्यों के पारस्परिक संबंधों को निर्धारित करता है। इस प्रक्रिया में उन नियमों विधियों और कानूनों का विधान बनता है, जो उन आदर्शों को रेखांकित करते हैं, जिनसे कोई राज्य सत्ता अपनी वैधता (लेजिटिमेसी) प्राप्त करती है। राज्य सत्ता के ये दो पहलू महत्वपूर्ण हैं - आदर्श और बल-प्रयोग-बल-प्रयोग, जो वर्तमान में किया जाता है; आदर्श, जो अमूर्त है और जो कहीं भविष्य में निहित है। फ्रांसीसी क्रांति के बाद शायद ही कोई ऐसी राज्य सत्ता हो, जिसने कुछ आदर्शों के नाम पर अपनी वैधता न साबित की हो। राजनीति को मनुष्य के जीवन में हस्तक्षेप करने का औचित्य भी इन्हीं आदर्शों से प्राप्त होता है।
किंतु यहाँ एक अजीब समस्या उत्पन्न हो जाती है। जिन आदर्शों से एक राज्य सत्ता मनुष्य का जीवन निर्धारित करती है - उनकी अपनी वैधता का स्रोत कहाँ है? हमें मालूम है, एक समय में राज्य सम्राट अपनी सत्ता का स्रोत दैवी मानते थे लेकिन बेचारी प्रजा के लिए अक्सर राजा की अपनी स्वार्थपरक इच्छा और उसेक ईश्वरीय स्रोत के बीच भेद करना असंभव हो जाता था; इसलिए बाद में ईश्वर की जगह 'जन' ने ले ली; क्रांति का स्रोत जन-इच्छा - (रूसो की जनरल विल) में, निहित था। यही 'जन-इच्छा' कैसे एक दल और फिर एक व्यक्ति की निरंकुश इच्छा में सिकुड़ती गई, मैं यहाँ इसकी तफसील में जाना नहीं चाहता। इस तथाकथित जन-इच्छा को कैसे एक आततायी सर्वसत्तावादी व्यवस्था में विकृत किया जा सकता है, हमारे समय में सोवियत क्रांति इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। इसलिए पिछले दो सौ वर्षों के कटु अनुभव के बाद आज यह प्रश्न फिर उठ खड़ा हुआ है कि यदि राज्य शक्ति का स्रोत न किसी दैवी सत्ता में है, न जन जैसी अमूर्त भीड़ में, तो वह किस नैतिक आधार पर मनुष्य के जीवन में हस्तक्षेप कर सकती है? वह कौन-सा स्रोत बचा रहता है, जहाँ से राज्य या शासन-सत्ता अपनी प्रामाणिक वैधता प्राप्त कर सकती है?
इसका एक उत्तर उन्नीसवीं शताब्दी के उन मनीषियों ने दिया था, जिन्हें हम - काफी गलत नाम से - एनार्किस्ट या अराकतावादी मानते आए हैं। ये लोग राज्य को एक हिंसात्मक और अमानवीय सत्ता मानते थे - और उसके उन्मूलन में ही मनुष्य की मुक्ति खोजते थे। आज जिस भीषण रूप से राज्य की राक्षसी सत्ता फैली है, उसे देखते हुए मनीषियों का राज्य के प्रति संदेह मार्क्स की उस सरल आशावादिता से कहीं अधिक सही जान पड़ता है, जो सोचते थे कि क्रांति के बाद राज्य सत्ता अपने आप लुप्त हो जाएगी। राज्य सत्ता अपने में पाप है, चाहे उसके उद्देश्य और आदर्श अपने में कितने उदात्त क्यों न हों। उसका पाप सिर्फ इसमें निहित नहीं है कि वह बल-प्रयोग और हिंसा पर आधारित है, बल्कि इसमें भी है कि वह मनुष्य की स्वतंत्रता पर आघात करती है - जो अपने में एक स्वयंसिद्ध सत्य है।
अराजकतावादी चिंतकों का मनुष्य की स्वतंत्रता को महत्व देना अपने में एक मूल्यवान सत्य था - किंतु एक धर्म-निरपेक्ष समाज, जहाँ मनुष्य के आत्म और उसके अहम के बीच कोई सार्थक संबंध न हो, सिर्फ ऐसे अकेले व्यक्ति को जन्म दे सकता है, जिसके लिए स्वयं अपनी स्वतंत्रता एक बोझ बन जाती है। वह अपने बोझ से मुक्ति पाने के लिए कभी भी सत्ता, दल, नायक, डिक्टेटर या संप्रदाय के प्रति अपनी स्वतंत्रता को समर्पित कर देता है - ताकि वह अपने से बड़ी किसी वृहत्तर शक्ति में जुड़ कर सुरक्षित महसूस कर सके। इतिहास का यह एक ऐसा दुष्चक्र है जहाँ व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता को पाते ही उसे खोने का उपाय ढूँढ़ने लगता है। राज्य की सत्ता और तानाशाही के बीज कहीं बाहर से नहीं आरोपित किए जाते, स्वयं मनुष्य के भीतर से उगते हैं। व्यक्ति की स्वतंत्रता उस परिवेश में बहुत कमजोर पड़ जाती है, जहाँ मनुष्य अपने आत्म से विलगित हो गया है; एक आत्महीन व्यक्ति की स्वतंत्रता उस आहत पक्षी की तरह है जिसके पंख तो हैं, किंतु उड़ नहीं सकता; इसीलिए कोई भी सर्वसत्तावादी शक्ति एक बाज की तरह उसे अपने पंजे में दबोच सकती है। मनुष्य की स्वतंत्रता का स्रोत केवल व्यक्ति का आत्म हो सकता है, किंतु कोई ऐसा राजनीतिक दर्शन नहीं, जो इस आत्म की समुचित परिभाषा देता हो।
व्यक्ति की संदिग्ध स्वतंत्रता और राज्यतंत्र की संदिग्ध वैधता - इन दो चरमों के बीच झूलते हुए मनुष्य निरंतर झूठे मसीहाओं और आततायी व्यवस्थाओं का शिकार होता रहा है। इसीलिए लोकतांत्रिक व्यवस्था अन्य शासन तंत्रों की अपेक्षा अधिक मानवीय, दायित्वपूर्ण और संवेदनशील जान पड़ती है - वह किसी अमूर्त सिद्धांत या आदर्श की मरीचिका के पीछे न भाग कर मनुष्य जैसा है, उसे वैसा स्वीकार करती है, इसलिए किसी भविष्य के यूटोपिया की वेदी पर उसके वर्तमान को बलिदान नहीं करती।
लेकिन अपनी मानवीयता के बावजूद वह 'वर्तमान' कितना विपन्न, जर्जरित और सूखा है, इसका अनुमान लगाना भी कठिन नहीं है। मनुष्य के कितने मर्मशील, मूल्यवान और महत्वपूर्ण अनुभव आज की लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर अतृप्त, दमित और बाँझ पड़े रहते हैं। वह जो जीवन जीता है, उसकी संपूर्णता और सच्चाई में उसे विश्वास नहीं; वह जिन मूल्यों पर विश्वास करना चाहता है, वे उस व्यवस्था में उपलब्ध नहीं। एक तरफ सोवियत व्यवस्था है, जिसमें मनुष्य की स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं; दूसरी तरफ लोकतांत्रिक व्यवस्था है, जिसमें मनुष्य स्वतंत्र है, किंतु स्वयं स्वतंत्रता के मूल्य के प्रति वह बहुत आश्वस्त नहीं जान पड़ता। एक व्यवस्था अपनी वैधता भविष्य में ढूँढ़ती है, दूसरी व्यवस्था एक ऐसे वर्तमान में रहती है, जहाँ व्यक्ति के सब आयाम और आदर्श उसके निजी-निजी मामले हैं, जिनका समाज से कोई संबंध नहीं है। किंतु इस बुनियादी अंतर के बावजूद दोनों व्यवस्थाओं में एक चीज आश्चर्यजनक रूप से समान है-दोनों ही के लिए मनुष्य एक साधन है - अंतिम रूप से साध्य नहीं। लोकतंत्र के लिए 'औसत व्यक्ति' (एवरेज मैन) और तथाकथित कम्युनिस्ट समाज के लिए 'आदर्श कम्युनिस्ट' - वही है, जो अपने समूचे मनुष्यत्व को एक उपयोगी साधन के रूप में घटा सके। आधुनिक राज्य-व्यवस्थाओं की यह तार्किक परिणति है कि समूची सृष्टि पर विजय प्राप्त कर लेने के बाद जिस 'मनुष्य' के लिए विजय पाई है, वहाँ स्वयं मनुष्य के लिए कोई स्थान नहीं है। एक धार्मिक तंत्र में ईश्वर अदृश्य होने पर भी हर जगह मौजूद था, आधुनिक मानववादी सभ्यता में मनुष्य हर जगह दिखाई देता है, किंतु वह मौजूद कहीं भी नहीं है... मौजूद, एक निरीह पराश्रित व्यक्ति की तरह नहीं, बल्कि एक संपूर्ण मनुष्य की गरिमा से संपन्न।
इस दुनिया में मनुष्य एक संपूर्ण मनुष्य की तरह मौजूद रहे - हर राजनीतिक तंत्र के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। यह चुनौती केवल वही राजनीतिक दर्शन स्वीकार कर सकता है, जो मनुष्य को संपूर्ण और अंतिम रूप से स्वीकार करे - महज एक साधन या माध्यम के रूप में नहीं। ठीक इसी बिंदु पर यह राजनीतिक दर्शन उस धार्मिक बोध की अभिव्यक्ति बन जाता है, जो मनुष्य को चिरंतन काल से सृष्टि से जोड़ता आया है। धार्मिक बोध से - मेरा अभिप्राय किसी एक खास धर्म या संस्थान से नहीं है, बल्कि उस धीमी आवाज से है जिसने पहली बार मनुष्य और सृष्टि के बीच फैले अँधेरे मौन को तोड़ा था। यह उस शक्ति की आवाज थी, जिसे हम ईश्वर कहते हैं या उस मनुष्य की, जो पहली बार अपनी शक्ति से परिचित हुआ था - कहना असंभव है। वह किसी की भी आवाज हो - किंतु इस धरती पर मनुष्य की उपस्थिति की ओर संकेत करती थी - मानो सृष्टि के उस अथाह मौन में मनुष्य ने कहा हो कि मैं हूँ और दूर से उसकी प्रतिध्वनि सुनाई दी हो - हाँ, तुम हो! मनुष्य और सृष्टि-आवाज और प्रतिध्वनि-का संबंध एक ओर सृष्टि को पवित्र बनाता है, दूसरी तरफ मनुष्य को संपूर्णता देता है। कोई भी राज्य सत्ता, जो इस शाश्वत संबंध को धुँधलाती या झुठलाती हो, चाहे वह किसी भी आदर्श सिद्धांत या वाद के नाम पर हो - न केवल मनुष्य के जीवन को निर्धारित करने का अधिकार खो देती है, बल्कि मनुष्य के परिवेश में उसका हस्तक्षेप एक तरह का हिंसात्मक आघात (वॉयलेशन) हो जाता है।
शायद हम अब उस प्रश्न के उत्तर के पास पहुँच गए हैं - जो कुछ देर पहले हमने राजनीतिक सत्ता की वैधता के बारे में पूछा था। वह वैधता निर्धारण में नहीं, स्वीकृति से उत्पन्न होती है। वह कानूनों, नियमों और आदेशों द्वारा मनुष्य के संबंधों का निर्धारित नहीं करती, बल्कि उन संबंधों को स्वीकार करके चलती है, जो मनुष्य ने अपने भीतर नियमों द्वारा नहीं, निष्ठाओं द्वारा प्रतिष्ठित किया है। निष्ठाओं के परिवेश में मनुष्य और समाज, मनुष्य और उसकी दुनिया एक-दूसरे से अलग नहीं हैं; वहाँ मनुष्य का जीवन सेक्युलर और धार्मिक खंडों में विभाजित नहीं है, जो सप्ताह में रविवार की सुबह कुछ घंटों के लिए समन्वित है और बाकी दिनों में एक-दूसरे को छूता भी नहीं।
अत: आज प्रश्न यह नहीं है कि राजनीति को धर्मावलंबी होना चाहिए, या धर्मनिरपेक्ष - क्योंकि दोनों ही संज्ञाएँ आधुनिक मनुष्य की खंडित मानसिकता का बोध कराती हैं जबकि जिस धार्मिक बोध का उल्लेख हमने किया है, वहाँ इस तरह का विभाजन ही कृतिम और अर्थहीन है। इस विभाजन के कारण ही मनुष्य का संपूर्णता बोध और प्रकृति की पवित्रता दोनों ही अवमूल्यित होते हैं। यह एक विडंबना ही है कि पश्चिम में जिसे एक तरफ मनुष्य का आध्यात्मिक संकट और दूसरी तरफ पर्यावरण के संकट माना जाता है - उन्हें अलग-अलग उपायों से नहीं सुलझाया जा सकता - क्योंकि दोनों की जड़ें एक ही विभाजित मन:स्थिति में मौजूद हैं; यह वह स्थिति है, जब मनुष्य का 'आत्म' महज उसका 'अहम' रह गया और प्रकृति अपनी स्वायत्तता खो कर केवल एक उपयोग्य, शोषित वस्तु। मनुष्य ने जिस प्रगति की लालसा में प्रकृति को अपना दास बनाया था, वही प्रगति आज प्रकृति के विनाश और समूची मानव सभ्यता को आत्मसंहार की ओर ले जा रही है।
यही कारण है कि धर्म और राजनीति का संबंध आज केवल मात्र एक समाजशास्त्रीय बहस न रह कर स्वयं मनुष्य जाति और उसकी सृष्टि के जीवनमरण का प्रश्न बन गया है। यह एक ऐसा प्रश्न है जिसके सामने अब तक हुईं इतिहास की समस्त क्रांतियाँ अप्रासंगिक बन गई हैं - क्योंकि हर क्रांति मनुष्य के अंतहीन विकास और सृष्टि की शाश्वत निरंतरता को स्वसंसिद्ध सत्य मान कर चलती थी। आज इन दोनों सत्यों के आगे प्रश्नचिह्न लग गया है। आधुनिक व्यक्ति धर्म के अंधविश्वासों पर हँसता आया था, आज के अणु युग में जहाँ समूची धरती और मानवीय सभ्यता एक-दो मिनट में नष्ट हो सकती है - इन क्रांतियों के प्रगतिवादी अंधविश्वास कहीं ज्यादा हास्यास्पद साबित होते, यदि वे इतने दारुण परिणामों से न भरे होते।
क्या आत्मघात की इस अंधी प्रक्रिया को नहीं रोका जा सकता? यह महज संयोग नहीं है कि इस प्रश्न को बीसवीं सदी के आरंभ में एक ऐसे आदमी ने पूछा था, जो एक पिछड़े हुए गरीब देश का निवासी था; पश्चिम के आधुनिक समाज का नहीं, बल्कि एक ऐसे समाज का सदस्य था जिसे समाजशास्त्री हलकी हिकारत में 'परंपराग्रस्त, धर्मग्रस्त' समाज कहते हैं। गांधी जी ने 'हिंद स्वराज' में आधुनिक सभ्यता के विकल्प में एक ऐसे समाज की परिकल्पना की थी, जहाँ स्वराज और स्वधर्म के बीच कोई अंतर्विरोध नहीं रहता। वहाँ मनुष्य के 'स्व' में उसकी समस्त निष्ठाएँ और विश्वास और कर्मकांड शामिल हैं - अत: स्वराज वह तंत्र है, जिसमें मनुष्य सिर्फ राजनीतिक या आर्थिक प्राणी न रह कर एक समग्र मनुष्य की हैसियत से भाग लेता है। स्वतंत्रता के बाद हमने जिस धर्मनिरपेक्ष समाज का निर्माण किया, उसमें इस समग्र मनुष्य के लिए कोई स्थान नहीं। एक भारतीय का सबसे मूल्यवान, स्मृति संपन्न और समृद्ध अंश अँधेरे में चला गया। ऊपरी जिंदगी में हम भारतीय हैं, भीतर के अंडरग्राउंड अँधेरे में हम हिंदू, मुसलमान और सिख हैं; अँधेरे में कोई विश्वास पनपता नहीं, सड़ता है, इसीलिए जब कभी वह बाहर आता है, तो अपने सहज आत्मीय रूप में नहीं, बल्कि एक विकृत और दमित भावना के रूप में। समय-समय पर होनेवाले सांप्रदायिक दंगे हमें उस अँधेरे की झलक दिखाते हैं, जहाँ एक सेक्युलर समाज ने धर्म को फेंक दिया है। क्या आज का भारतीय - जिसमें केवल हिंदू, मुसलमान, सिख ही नहीं, वे लाखों आदिवासी शामिल हैं, जिनके अपने निजी धार्मिक विश्वास हैं - एक पीड़ायुक्त विभाजित मन:स्थिति में नहीं जीता - जहाँ पश्चिम की आधुनिकता में ढली शासन-सत्ता कदम-कदम पर उन्हें एक ऐसे परिवेश में जीने के लिए विवश करती है, जिसका उनके धार्मिक भावबोध की मर्यादाओं से कोई संबंध नहीं?
जीसस ने ईश्वर और सीजर के बीच जो भेद किया था, वैसा विभाजन भारतीय मानस में कभी मौजूद नहीं रहा। इसीलिए राजनीति तो दूर, हमारे देश का भूगोल भी पौराणिक स्मृतियों में स्पंदित होता है; गंगा महज एक नदी नहीं, जैसे हिमालय सिर्फ एक पहाड़ नहीं, वाराणसी और वृंदावन महज शहर नहीं हैं; मनुष्य का अतीत संग्रहालयों में बंद नहीं है, न ही उसके देवता यूनानी देवताओं की तरह किसी पौराणिक काल के स्मृति-चिह्न हैं; मिथक और यथार्थ, पौराणिक स्मृति और वर्तमान जीवन, देवता और मनुष्य आज भी एक साथ रहते हैं; सैकड़ों विश्वासों, आस्थाओं, स्मृतियों और संस्कारों का यह संगम केवल एक ऐसी संस्कृति में संभव हो सकता था - जिसमें संपूर्ण मनुष्य की परिकल्पना निहित रहती है।
किंतु हर परिकल्पना एक कलाकृति की तरह आधा स्वप्न है, आधा यथार्थ; स्वप्न में संपूर्ण मनुष्य है, प्रकृति का पवित्र परिवेश, सृष्टि और मनुष्य को जोड़नेवाले धार्मिक संस्कार - जो अहिंसा और आस्था से जन्म लेते हैं, यथार्थ में हजारों आदिवासी हैं, अपने परिवेश से उन्मूलित, उजड़ते हुए जंगल हैं, नष्ट होती हुई प्रकृति है, हरिजनों की जलती झोंपड़ियाँ हैं, जो अपने को अपने ही समाज में अनाथ पाते हैं। हमारे देश में ऐसे लाखों धर्मावलंबी हैं, जिन्हें एक समय अपने जीवन की अर्थवत्ता नानक और कबीर, विवेकानंद, अरविंद, गांधी और परमहंस में मिलती थी, आज वही लोग साईं बाबा, भगवान रजनीश और संत भिंडराँवले के पीछे जाते हैं, जिसका संबंध न आस्था से है, न धार्मिक बोध से। धर्म का पवित्र स्रोत सूखने के कारण लोग अपनी आध्यात्मिक प्यास बुझाने के लिए सिर्फ गंदले नाले के पास ही जा सकते हैं, जो सेक्युलर समाज के रेगिस्तान के बीचों-बीच बहता है। हम यथार्थ में नहीं, एक ऐसी स्वप्न की छाया में रहते हैं, जो हमारे भीतर है, किंतु जिसका बाहरी तंत्र - चाहे वह राजनीतिक तंत्र हो, धार्मिक प्रतिष्ठान हों, आर्थिक व्यवस्था हो - उसमें कोई अभिव्यक्ति नहीं मिलती। यह अकारण नहीं है - कि जिस संपूर्ण मनुष्य की कल्पना इस शताब्दी के शुरू में गांधी जी ने की थी, उसे वही क्रांति यथार्थ में अनूदित कर सकती है, जो अपने में संपूर्ण हो। किंतु संपूर्ण क्रांति की आवाज भी उसी संस्कृति से उठ सकती थी, जिसकी स्मृति में कभी मनुष्य की समग्रता का बोध रहा हो। क्या हम एक ऐसे राज्य तंत्र का निर्माण कर सकेंगे, जहाँ एक भारतीय की पुरातन पद्धति और आदि-स्वप्न-जिसे व्यापक अर्थों में हमने धार्मिक बोध माना है - अपनी मांस-मज्जा में साकार हो सके? यदि आज भी हम अपने से यह प्रश्न पूछ सकते हैं तो संभव है कि कहीं-न-कहीं इसके उत्तर देने की आशा और सामर्थ्य हममें बची है।