धर्म और पाप / आचार्य चतुरसेन शास्त्री
भारत धर्म-प्रधान देश है और मनुष्य पाप का चोर है, इसलिए धर्म और पाप की बिना सहायता लिए मैं मानने वाला आदमी नहीं हूँ। मैं अपनी अंतरात्मा में भली भाँति जानता हूँ कि पाप और धर्म दोनों खातों से भरपूर धन है और उसका कुछ सदुपयोग नहीं हो रहा है।
पहले मैं धर्मांदाओं की बात कहूँगा। मंदिरों, मस्जिदों और मकबरों की करोड़ो रुपयों की आमदनी है। काशी, वृंदावन, नाथद्वारा के प्रख्यात मंदिर, गोकुलिया संप्रदाय के महंत, अजमेर ख्वाजा की दरगाह और हजारों संस्थाएँ हैं, जहाँ भावुक भक्तों के सोने का मेह बरसता है। बहुतेरे मंदिरों के पीछे जागीरें हैं, गाँव हैं। उस अतुल संपत्ति के स्वामी उनके महंत और पुजारी हैं। इन सबके सिवा गया, प्रयाग आदि तीर्थों के भारी-भारी दान भी कुछ कम श्रेणी की वस्तु नहीं हैं। अच्छा मैं यह पूछता हूँ कि यह धर्म का धन किसी एक व्यक्ति के विलास की वस्तु होने के योग्य है? यह बात छिपी नहीं कि अनेक महंतों के चरित्र राजाओं की तरह निकम्मे और भ्रष्ट हैं। मैं इनके प्रमाण दे सकता हूँ। फिर यह न भी हो तो यह धर्म का पैसा धर्म में लगे। सबसे बड़ा धर्म क्या है - यह सोच लेना चाहिए।
सर्व-साधारण संप्रदायों को धर्म के नाम से पुकारते हैं। भारत धर्म-प्रधान देश है। चिरकाल से यहाँ धर्म का आदर होता आया है - बड़ी-से-बड़ी शक्तियाँ भी धर्म के आगे सिर झुकाती चली आई हैं। यह एक साधारण बात है कि जिस वस्तु की ज्यादा खपत होती है उसकी दुकानें भी बहुत-सी खुल जाती हैं और यह भी स्वाभाविक है कि नकली चीजें बहुत बनने लगती हैं। भारत में धर्म की भी वही दशा है। मंदिरों में, सड़कों पर टके सेर धर्म मिलता है। घर के धनी महाशय जब भोजन नाक तक डाट चुकते हैं और थाली में जो जूठन दाल-भात बचा रहता है, तब कहा जाता है कि यह किसी भूखे को दे दो, धर्म होगा। कपड़े पहनते-पहनते जब नौकरों के भी काम के नहीं रहते तब कहा जाता है किसी नंगे को दे दो, धर्म होगा। इसी भारत के जब दिन थे और भारत में बड़प्पन था तब इसी धर्म के नाम पर राजाओं ने राज्य त्यागकर चांडाल की सेवा की थी, अपना माँस काटकर गिद्ध को खिलाया था, अपने पुत्र के सिर पर आरा चलाया था। वही महादुर्लभ और दुर्धर्ष धर्म इस कलयुग में इतना सस्ता हो गया कि जूठे टुकड़ों और फटे चिथड़ों के एवज चाहे जो उसे मोल ले सकता है। इससे अधिक उपहास और लज्जा की बात क्या होगी?
धर्म का प्रश्न बहुत भ्रांत है। श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं 'धर्म क्या है और क्या नहीं है इस विषय में अच्छों-अच्छों की अकल चकरा जाती है।'
लोग धर्म करने काशी-प्रयागजाते हैं। कोई गया में सिर मुँडाता है। कोई व्रत-उपवास करता है। कोई पशु-बलि देता है। कोई धर्मशाला-मंदिर बनाता है। कोई पूजा-पाठ, जप-तप करता है। अनेकों प्रकार हैं, पर मैं यह कहता हूँ कि यह सब धर्म नहीं है।
भूखों को अन्न, प्यासों को जल, नंगों को वस्त्र, रोगी को औषध, असहाय को सहायता देना - यह हमारे मनुष्य-योनि का साधारण कर्तव्य है, यह हम पर सामाजिक कृपा है और उसे अपनी शक्ति भर पालन करके हम किसी पर कुछ अहसान नहीं कर रहे हैं, न वह धर्म ही है।
अच्छा कल्पना कीजिए कि आपने गर्मी में प्याऊ लगवाई है। आप कहते हैं कि वह धर्म है। अब उस प्याऊ पर कोई प्रतिष्ठित पुरुष आकर पानी पीता है तो क्या वह तुम्हारा धर्मादा खाता है? जरा उसके मुँह पर कह देखिए तो मजा आ जाए। मैंने देखा है गर्मी के दिनों में उत्तर प्रदेश के उत्साही सज्जन युवक शीतल पानी से भरे घड़े कंधे पर धर स्टेशन पर फिरते हैं और नम्रता और प्रेम-भरे शब्दों में सब यात्रियों से जल पीने का अनुरोध करते हैं। क्या वह पानी धर्मादे का है ?
तब धर्म क्या है? मनुस्मृति कहती है कि धैर्य, क्षमा, दया, अस्तेय, शौच, इंद्रियनिग्रह, बुद्धि, विद्या,अक्रोध, सत्य ये दस धर्म के लक्षण हैं। मैं कहूँगा कि ये भी धर्म के लक्षण नहीं हैं। ये मनुष्यत्व के चिह्न हैं अथवा इन्हें धर्म की ओर ले जाने वाले मार्ग कह सकते हैं - यह वास्तव में धर्म की सच्ची व्याख्या नहीं हुई।
क्या सर्वत्र अहिंसा धर्म है? यदि यही बात है तब मेरे एक प्रश्न का कोई उत्तर दे कि एक सिपाही युद्ध में हजारों मनुष्यों को मारकर भी हत्यारा तथा अधर्मी नहीं कहलाता और मैं चींटी मार देने पर भी हत्यारा और पापी कहा जाऊँगा, यह क्यों ?
फिर तो अपराधी को फाँसी देने वाला जज आदि सभी पापी हो जाएँगे। परंतु नहीं, कारण और अर्थ देखने पर कभी हत्या भी धर्म है और कभी अधर्म।
उसी प्रकार सत्य की बात लीजिए। कल्पना कीजिए कि रात को एक चोर आपकी छाती पर चढ़ बैठा। उसने कहा रख दो जो पास में है, आपके पास जाहिरा दो हजार रुपए थे, पर गुप्त दस हजार रखे थे। आपको सत्य बोलना था, आपने वे दस हजार भी चोर का बता दिए। अब विचारिए कि एक तो वह झूठ था जिसमें असली मालिक को लाभ और चोर का हानि थी और एक वह सत्य है जिसमें चोर को लाभ और मालिक को हानि है। ऐसी दशा में मैं यह पूछता हूँ कि धर्म क्या है? सत्य या झूठ? यदि सत्य धर्म है तो वह धर्म नहीं है जो पापियों को लाभ पहुँचाए और सज्जनों का नाश करे। धर्म के विषय में तो यही कहा गया है कि धर्म सदा पापी का नाश और धर्मात्माओं की रक्षा करता है। ऐसी दशा में झूठ भी धर्म है।
तब धर्म का अर्थ क्या हुआ। धर्म किसे कह सकते हैं। ये भी सोचना चाहिए। इसका उत्तर दर्शन शास्त्रों में है। गौतम ऋषि कहते हैं - 'यतो अभ्युदयनिश्रेयस सिद्धिः स धर्म।' जिस काम के करने से अभ्युदय और निश्रेयस की सिद्धि हो वह धर्म है। अब यह देखना है कि अभ्युदय और निश्रेयस के क्या अर्थ हैं।
अभ्युदय का संक्षिप्त किंतु सच्चा अर्थ है ऐहिलौकिक सर्वोच्च सुख और वह सुख यही हो सकता है कि मनुष्यतत्व के सामाजिक और व्यक्तिगत अधिकारों की स्वाधीनता और क्षमता की प्राप्ति। निश्रेयस का अर्थ है मोक्ष अर्थात पारलौकिक सर्वोच्च आनंद, जो कि अभ्युदय की पूर्ण प्राप्ति कर जीवन के निर्बंध होने के कारण होगा।
जो पुरुष अभ्युदय और निश्रेयस दोनों की समान भाग से प्राप्ति करेगा वही धर्मात्मा कहलाएगा।
एक बात यहाँ ध्यान में रखने की है। संसार के बड़े-बड़े ऋषि हुए, परंतु किसी ने अपने को धर्म-संस्थापक कहने का साहस नहीं किया। वे सत्यवक्ता, धैर्यवान, मानस्वी, दमनशील आदि सब कुछ थे। किंतु कृष्ण ने अपने को निःसंकोच भाव से धर्म-संस्थापक कहकर घोषणा की है। किसलिए? लोग कहते हैं कि ये ईश्वर थे। मैं कहता हूँ नहीं। इसमें ईश्वरत्व की कोई बात नहीं। वे धर्मात्मा थे और धर्म को उन्होंने ठीक समझा था। एक ओर अभ्युदय में वे इतने आदर्श थे कि महाभारत जैसे अमर युद्ध के नेता और जबर्दस्त राष्ट्र-निर्माता, साथ ही इतने मस्त और मौजी कि आनंदकंद की अमर पदवी उन्होंने प्राप्त की। दूसरी ओर ऐसे भारी कि जिनको योगियों ने ध्येय बनाया। यही पुरुष थे जिन्होंने अभ्युदय और निश्रेयस दोनों की प्राप्ति की थी। इसी से ये धर्म-संस्थापक स्वीकार किए गए। वैरागी ऋषि लोग पूरे-पूरे धर्मात्मा नहीं हैं, क्योंकि उनमें इतनी क्षमता न थी कि ऐहिक लौकिक सर्वोच्च सुखों को भोगते-भोगते कृष्ण की तरह निश्रेयस सिद्धि करते। उन्हें विरक्त होना पड़ा। साथ ही वे लोग भी धर्मात्मा नहीं हैं जो संसार के सुखों में डूबकर परलोक का चिंतन नहीं करते।
धर्मात्मा वे हैं जो संसार में रहकर, संसार की यातनाओं का नाश करके, संसार के लिए सुख,कल्याण, शांति और आनंद के मार्ग निर्माण करते हुए साथ ही अपनी आत्मा के कल्याण के लिए मुक्ति के साधन भी ढूँढ़ लेते हैं। यही सच्चा धर्म है जो बहुत गहन, बड़ा दुर्धर्ष और अत्यधिक विषम है।
हम ईश्वर का भय करें, पाप से बचें, स्वार्थ को त्यागें, दया, प्रेम, वीरता और आत्मशक्ति का अभ्यास करें और तब लोक-सुख की चाहना करें, यही सत्य धर्म है।
यह धन का काल है। यहाँ तक धन का महात्म्य बढ़ गया है कि प्राचीन काल में जो राज्य शासन तलवार पर होता था, आज धन पर है। कालिदास ने दिलीप की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि उसकी सेना आदि तो दिखावे की शोभा थी। वास्तव में राज्य-संचालन के योग्य तो उसके पास दो वस्तु थीं - चढ़ा हुआ धनुष और दूसरी तीव्र बुद्धि। आज चढ़ा हुआ धनुष कुछ काम का नहीं है, तीव्र बुद्धि आज भी दरकार है, किंतु चढ़े हुए धनुष के स्थान पर भरा हुआ खजाना चाहिए।
मैं यह कहूँगा जिसमें परोपकार हो वह धर्म है। निःस्वार्थ भाव से त्याग निष्ठा से परिपूर्ण देश-सेवा सबसे बड़ा परोपकार है। मनुष्य अपने दारिद्रय की परवाह न कर देश-सेवा में शक्ति भर धन दें, तब धर्म का पैसा तो वास्तव में उसी की संपत्ति है यह उसे पाई-पाई मिलनी चाहिए।
बड़े-बड़े मंदिरों में लाखों-करोड़ों की संपत्ति और आमदनी है। बड़ी-बड़ी दरगाहों के महंत राजाओं की तरह रहते हैं। मैं यह पूछने का साहस करता हूँ कि धर्म की कमाई के ये लोग स्वाधीन स्वामी बनने का क्या अधिकार रखते हैं। ये देवता के सेवक वीतराग पुरुष होने चाहिए। परंतु अतुल संपत्ति के स्वामी होने के कारण इनमें भयंकर दोष उत्पन्न हो गए हैं। मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ कि इनकी रत्ती-रत्ती संपत्ति और आय इस समय देश के समर्पण होनी चाहिए - ये लोग केवल देवता के भोग का उच्छिष्ट खाने का ही अधिकार रखते हैं।
जब मैं मंदिरों और दरगाहों में जाकर उन लोगों की भक्ति, अंधविश्वास, प्रेम और त्याग देखता हूँ तो मेरी छाती फट जाती है। मैं यह सोच सकता हूँ कि यदि इन महंतों के मन और कर्म महात्मा गांधी के समान लोकोपकार के मार्ग पर हों, तो उनका जीवन सार्थक है। अरबों रुपए के ढेर के साथ-साथ करोड़ों हृदय एक क्षण भर में मन-वचन-कर्म से देश के चरणों में झुक जाएँ। पर मैं देखता हूँ कि अधिकांश में ये लोग विलासी, मूर्ख, अनाचारी, पाखंडी और स्वार्थी हैं। प्रत्येक मनुष्य का धर्म है कि इनके कब्जे में गई संपत्ति को जो वास्तव में धर्म की संपत्ति है, धर्म के ऊपर लगानी चाहिए और वह धर्म देश-सेवा और देशोन्नति है।
इसके साथ ही मैं पाप-कमाई को भी जोड़ता हूँ। मेरा मतलब ठग, चोर, सट्टेबाज, सूदखोर और वेश्याओं से है। इन भाई-बहनों को यह अधर्मोपार्जित धन रत्ती-रत्ती करके देश के चरणों में देकर अनुपात करके अपनी आत्मा का बोझ इसी मनुष्य जन्म में उतार देना चाहिए।
संसार क्षण-भंगुर है और मनुष्य अनाचार से कभी सुखी नहीं हुआ। परोपकार के लिए शरीर की बोटियाँ कटाने में जो आनंद आता है, वह आनंद स्वार्थ के लिए किसी भी भोग को भोगने में नहीं आता है।
वीर प्रताप के मंत्री वैश्य भामाशाह ने ऐसी ही आपत्ति के समय अपनी समस्त संपत्ति प्रताप के चरणों में रख दी थी और उसी में मेवाड़ का उद्धार हुआ। उनका नाम अमर रहा - न प्रताप रहे, न भामशाह, न वह संपत्ति।
नेपाल के भूतपूर्व राजा त्रिभुवन ज्यूरिच में रोग-शय्या पर मर गए। उनका शव जब दिल्ली लाया गया,तब पालम हवाई अड्डे पर एक घंटे की गंभीर रस्मों और सैनिक सम्मान के बाद शव को भारतीय हवाई सेना के डकोटा विमान द्वारा काठमांडु के लिए रवाना किया गया। प्रधानमंत्री नेहरू, अन्य केंद्रीय मंत्री,विदेशी राजदूत, उच्च अधिकारी, तीन सेनाओं के प्रधान, नई दिल्ली स्थित नेपाली राजदूत तथा सहस्रों दिल्ली के नागरिकों ने शव को श्रद्धांजलि अर्पित की। दस मिनट के लिए राजकीय सम्मान के लिए रखे हुए शव पर श्री नेहरू ने, राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति की ओर से उपसेना सचिव ने तथा तीनों सेना के प्रधानों ने एवं दिल्ली के मुख्यमंत्री ने फूल चढ़ाए। भारतीय सेना के एक हजार सैनिक हवाई अड्डे पर तैनात थे तथा बैंड और ढोल काले कपड़े से ढके थे। भारतीय सेना के छह जनरलों ने सैनिक सम्मान के साथ शव को वायुयान से उतारकर तोपगाड़ी पर रखा। सैनिकों ने सैनिक ढंग से शव का सम्मान किया। बैंड ने'मृत्यु गीत' गाया। भारत और नेपाल के झंडे शव पर लपेटे गए। दिल्ली के नागरिकों ने फूल चढ़ाए और अंत में उन्हीं छह जनरलों ने शव को विमान पर चढ़ाकर नेपाल रवाना कर दिया। इस दिन भारत सरकार के सारे कार्यालय बंद रहे और राष्ट्रीय झंडे झुका दिए गए।
नेपाल में बागमती नदी के किनारे, पशुपतिनाथ मंदिर के निकट राजा का दाह-संस्कार संपन्न हुआ। दाह-संस्कार को लगभग एक लाख नर-नारियों ने देखा। जब शव नेपाल के हवाई अड्डे पर पहुँचा तब 49तोपों की सलामी दागी गई। शवदाह में भारत, ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका और स्वीडन के सरकारी प्रतिनिधि उपस्थित हुए।
राजा की मृत्यु पर शोक प्रदर्शन करने के लिए नेपाल के प्रत्येक पुरुष को उस्तरे से अपना सिर तथा दाढ़ी, मूँछें मुँडानी पड़ीं। नेपाल राज्य के प्रत्येक व्यक्ति को तेरहवीं हो जाने तक निरामिष भोजन करना, चमड़े का जूता नहीं पहनना और किसी प्रकार का उत्सव नहीं करने का नियम पालन करना पड़ा। इस नियम के उल्लंघन का दंड छह माह की जेल थी।
सामंतशाही प्राचीन राजाओं में यह प्रथा रही थी कि राजा के मरते ही दूसरा राजा गद्दी पर बैठ जाता था। भारत के अन्य मित्र देशों में भी ऐसा ही रिवाज था। 'राजा मर गया' 'राजा चिरंजीवी रहे' ये दोनों घोषणाएँ एक साथ ही होती थीं। राजपूतों में ऐसा होता था कि राजा के मरते ही सब राजवर्गी जल्द-से-जल्द नए राजा के कृपा पात्र बनने के लिए राजा को सिसकता ही छोड़ जाते थे। गुजरात के सोलंकी राजा कुमारपाल जिसके प्रताप का दिग्दिगंत में डंका बजता रहा, मृत्यु-शय्या पर अकेला पड़ा -मल-मूत्र और गलित्कुष्ठ के घाव पीपों से भरा हुआ छटपटाता मर गया। उस समय एक भी व्यक्ति उसके पास न था। प्रथा थी कि राजा के मरते ही जब उसका पुत्र या कोई भी उत्तराधिकारी गद्दी पर बैठता था,तब सबसे पहली सूचना उसे दी जाती थी कि एक सैनिक मर गया है, उसके क्रिया-कर्म की राजाज्ञा प्रदान हो। तब नया राजा कहता था - 'उचित सम्मान के साथ उसकी क्रिया की जाए।' राजा न उस मातम में सम्मिलित होता था न शव को देखता था। ऐसा ही इस अवसर पर नेपाल के नए राजा ने किया।
मृत राजा के पुत्र और उसकी रानी ने न शोक मनाया, न बाल मुँड़ाये, न शव-दाह में सम्मिलित हुए। यह राज-मर्यादा थी। उसका आंशिक उल्लंघन करके उन्होंने और उनकी रानी ने तेरहवीं तक सादा भोजन करने और चटाई पर सोने का नियम पाला।
'ग्यारहवी' के दिन उनका समस्त वैयक्तिक सामान एक दक्षिण भारतीय महाराष्ट्रीय ब्राह्मण श्री कृष्णंभूता को दे दिया गया, जो इन वस्तुओं के साथ-साथ नेपाल नरेश के भूत को भी अपने ऊपर लेकर बागमती नदी के पार चला गया और पुनः काठमांडु की घाटी में प्रविष्ट नहीं हुआ।
एकादश के दिन, बागमती नदी के तट पर एक विशेष समारोह किया गया और ब्राह्मण की कुटिया में मृत राजा त्रिभुवन के सोने-चांदी के बर्तन सजाए गए, सोफा सेट तथा पलंग पर बहुमूल्य गलीचे आदि बिछाए गए। कुटिया के बाहर नेपाल नरेश के हाथी तथा कई मोटरें खड़ी की गईं और इन सबके बाद ब्राह्मण नेपाल नरेश के कीमती वस्त्र धारण कर आया और उसे स्वीकार किया। उसे उत्तम प्रकार का भोजन, सोन-चाँदी के बर्तनों में कराया गया। उसे 40 हजार नकद तथा राजा का निजी सामान जो 10लाख रुपए का था, दे दिया गया। ब्राह्मण ने श्राद्ध का दान स्वीकार करते ही ब्राह्मणत्व को छोड़ दिया। उसके बाद उसे वहाँ से भेज दिया गया।
प्राचीन परंपरा के अनुसार नेपाली ब्राह्मण निरामिषभोजी होने के कारण पवित्र होते हैं, इसलिए वे श्राद्ध का दान नहीं ले सकते। इसी से इस दक्षिण भारतीय ब्राह्मण को, जो काठमांडु में पुस्तक बेचने का व्यवसाय करता था, श्राद्ध का दान दिया गया।
बहुत दिन हुए, संभवतः यह सन 1910-1911 की या इससे कुछ पहले की बात है कि उन दिनों मैं जयपुर संस्कृति कालेज में पढ़ता था। अवस्था उन्नीस-बीस वर्ष की होगी। तभी जयपुर के राजा माधोसिंह का देहांत हो गया। तभी मैंने देखा कि सिपाहियों के झुंड के साथ नाइयों की टोली बाजार-बाजार, गली-गली घूम रही थी। वे राह चलते लोगों को जबरदस्ती पकड़कर सड़क पर बैठा अत्यंत अपमानपूर्वक उसकी पगड़ी एक ओर फेंक सिर मूँड़ते थे, दाढ़ी-मूँछ साफ कर डालते थे। मेरे अड़ोस-पड़ोस में जो भद्र जन थे उन्होंने स्वेच्छा से सिर मुँड़ाए थे। अजब समाँ था, जिसे देखो सिर मुँड़ाए आ जा रहा था। यह देख मेरा मन विद्रोह से भर उठा। मेरी अवस्था कम थी, दाढ़ी-मूँछें नाम की ही थीं। सिर पर लंबे बाल अवश्य थे, पर उन पर मेरा कुछ ऐसा मोह न था। फिर भी जबरदस्ती सिर मुँड़ाने के क्या माने। परंतु लोगों ने मुझे डरा दिया। बाहर निकलोगे तो जबरदस्ती मूँड़ दिए जाओगे। छिपकर बैठोगे और पुलिस को पता लगा तो पकड़ ले जाएँगे, राजद्रोह में जेल में ठेल देंगे। परंतु ज्यों-ज्यों इस जोर-जुल्म की व्याख्या होती थी, मेरे तरुण रक्त की एक-एक बूँद विद्रोही हो उठती थी। मैंने निश्चय किया, सिर कटाना मंजूर है, पर सिर मुँड़ाना नहीं। मैं दिन भर घर में छिपा बैठा रहा। पकड़ने का भय तो था ही। बहुत लोग घरों से पकड़े जाकर मूँड़े जा रहे थे। मुझे किसी अपरिचित के आने की जरा भी आहट मिलती मैं पाखाने में जा छिपता। अंत में रात आई और मैं किसी तरह घर से बाहर निकलकर अँधेरी रात में जंगल की ओर चल पड़ा। जयपुर के जंगल में। शहरपनाह के बाहर ही शेर लगते थे। सन '10 का जयपुर आज का जयपुर थोड़े ही था। मेरा इरादा अजमेर भाग जाने का था, पर स्टेशन पर पकड़े जाने का भय था। अतः आगे बढ़कर एक छोटे स्टेशन से रेल पकड़ी और 15 दिन बाद जयपुर लौटा। फिर भी डर था। 15 दिन में इतने बड़े बाल कैसे हो गए, किसी ने पूछा तो क्या जवाब दूँगा।
यह हुई आपबीती। अब लोकोक्ति सुनिए। किसी रियासत में गांधर्वसेन मर गए। कुम्हार ने सिर मुँड़ाया तो राजा तक दरबारी मुँड़ाते चले गए। पीछे पता लगा कि वह कुम्हार का गधा था।
जीवित जातियाँ वहीं हैं जो आधुनिकता का प्रतिनिधित्व करती हैं; अपने आज के जीवन में जीती हैं। नेपाल वीरों का देश है। भारत की जनता नेपाल की जागृति को आशा और सहानुभूति की नजर से देखती है। नेपाल को चाहिए वह अपने देश की भूमि से सामंतशाही, रूढ़िवाद और एकाधिकार का आमूल विनाश करके स्वाधीन राष्ट्र के रूप में अपना नया रूप प्रकट करे।
नेपाल के भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री मोहन शमशेर राणा के पिता श्री चंद्रशमशेर राणा से पहले-पहल मेरा परिचय तब हुआ था, जब वे कलकत्ता चिकित्सार्थ आए थे। मैं चिकित्सक की हैसियत से उन्हें देखने गया था। संभवतः ये बातें सन 1923-24 की होंगी। अंग्रेजी अमलदारी थी। उस समय कलकत्ते में नेपाल के उस बूढ़े रोगी प्रधानमंत्री ठाट देखकर क्षणभर के लिए मेरी धमनियों में से खून की गति रुक गई थी। परंतु जब मैंने उसे एक दुखी, बूढ़ा, रोगी और उसके शरीर को घावों से भरा तथा जर्जर देखा तो मेरे ऊपर से उस तेजस्वी राजपुरुष का सब रुआब उतर गया और जब बंदूकों की सलामी की बाढ़ की गड़गड़ाहट में प्रमुख पुरुषों से भरे भवन में दो आदमियों को सहारा ले उसने प्रवेश किया तो भवन का प्रत्येक पुरुष पुथ्वी पर झुक गया। अकेला मैं ही सीधा खड़ा रहा।
मेरा यह अभिनय देख झटपट श्री मोहन शमशेर के संकेत से कर्नल चंद्रजंग ने मुझे एक ओर आने का संकेत किया। इसी समय मैंने अकंपित स्वर सुना - हे कोण है?
मेरा परिचय पाकर उस वृद्ध राजपुरुष ने नर्म नेत्रों से मेरी ओर देखा और 'आइए' कहकर एकांत कक्ष में चला गया, जहाँ मैंने उसकी शरीर परीक्षा की, कातरवाणी सुनी, दिल खोलकर हँसाया और तब से वह परिवार अंत तक मेरा मित्र रहा।
एक यही बात नहीं और भी राजपुरुषों से मेरा संपर्क घनिष्ठ रहा है। सर्वत्र मैंने उन्हें दयनीय और असहाय पाया है। निज के नौकरों की दया पर निर्भर। प्रायः मूर्ख और दुखी। तभी तो उनका युग बीत गया। जनता जाग गई। जन जीवन का नया अध्याय शुरू हुआ।