धर्म का विकास / रामचन्द्र शुक्ल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धर्म का दर्शन इस पूर्वधारणा के साथ प्रारम्भ होता है कि धर्म और धार्मिक विचारों को अनुभूतियों तथा सामाजिक अनुभवों के क्षेत्र से अलग कर वैज्ञानिक चिन्तन का विषय बनाया जा सकता है। इससे यह ध्वनित होता है कि धर्म और दर्शन की विषय वस्तु समान है पर इन दोनों के सन्दर्भ में मानवीय प्रवृत्ति भिन्न-भिन्न होती है। एक तरफ तो यह (विषय वस्तु) चित्त में आभ्यन्तर रूप से श्रद्धा या आध्यात्मिक आनंद की वस्तुओं के रूप में उपस्थित होती है और प्रत्यक्ष रूप से (इसके समक्ष) अधिकांशत: बाह्याचार या प्रतीकात्मक निरूपण (कर्मकांड) के रूप में आती है। दूसरे रूप में यह (विषय वस्तु) चिन्तन या बौद्धिक प्रज्ञा का विषय बनती है और अंतत: विशुद्ध या मीमांसापरक बुद्धिव्यापार के रूप में प्रतिपादित की जाती है। (यहाँ) सहज विश्वास की पवित्रता का परित्याग कर हम उस तटस्थ किन्तु उदात्ता क्षेत्र में प्रवेश करते हैं जहाँ तर्कबुद्धि स्वयं को विषय के सम्मुख खड़ा करती है, इसकी नैसर्गिक संगति ज़िसमें विचारों का अंतर्विरोधॉ बना रहता है, क़ो विघटित करती है और एक अधिक गहन एवं चिरस्थायी अन्विति की खोज में आगे बढ़ती है। जो कुछ भी यथार्थ है वह तर्कमूलक है और जो भी तर्कमूलक है, दर्शन उन सब पर विचार करने का दावा करता है। इसका कार्य प्रकृति और मानव जीवन की समान्यरूपता की रूपरेखा प्रस्तुत करना ही नहीं, बल्कि प्रकृति में, मानव मन में, सभी सामाजिक संस्थाओं में, राष्ट्रों के इतिहास में तथा विश्व के प्रगतिशील उत्थान में तर्कबुद्धि की उपस्थिति और (इसकी) सुव्यवस्थित गतिविधि या प्रक्रिया का पता लगाना भी (इसका कार्य) है। दूसरे शब्दों में, ससीम और सापेक्ष तक ही रुक जाने की बजाय दर्शन का विशिष्ट कार्यक्षेत्र निरपेक्ष सत्य (absolute truth) है।

संक्षेप में, यथार्थ के सम्पूर्ण साम्राज्य में ऐसा कुछ भी नहीं है जो दर्शन के कार्यक्षेत्र से बाहर हो। दर्शन की सर्वसमावेशी परिधि के लिए धर्म कोई अपवाद नहीं, बल्कि यह तो वह क्षेत्र है जो इसके सबसे अधिक निकट है। क्योंकि एक दृष्टि से धर्म तथा दर्शन की विषय वस्तु और अंतर्वस्तु एक समान है और यह कहा जा सकता है कि धर्म की व्याख्या करने में दर्शन स्वयं अपनी व्याख्या करता चलता है।

यह माना जाता है कि धार्मिक ज्ञान का अव्य्व तर्क नहीं, अनुभूति या विश्वास अथवा आभ्यंतर और अतक्र्य बोध मात्र है। आस्था तर्क की पकड़ से बाहर होती है, यह सत्य की एक तार्किक पद्धति या ढाँचे के रूप में प्रतिपादित किए जाने योग्य नहीं होती। यदि धर्मपरक सत्य मानव बुद्धि की सीमा से परे है या तार्किक अंतर्दृष्टि की बजाय मात्र स्वयंप्रकाश्य ज्ञान (intution) द्वारा प्राप्य है या (यह) किसी रूढ़िबद्ध अतिप्राकृतिक रहस्योद्धाटन (revelation) की अंतर्वस्तु को थोड़ा भी रूप देता है तो धर्म के दर्शन का निर्माण, शब्दों के किसी भी उपयुक्त अर्थ में एक असंभव कार्य है।

धर्म की आवश्यकता

सभी धार्मिक अनुभवों में ऐसी दुर्बोध अनुभूतियाँ और गतिविधियाँ होती हैं जो केवल आध्यात्मिक एवं बुद्धिशील प्राणि के लिए संभव हैं। ये देवत्व के संग मानवीय प्रवृत्ति के सुनिश्चित आवश्यक संबंधों पर आधारित होती हैं और इस कारण ये अकस्मात् नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक प्रक्रिया के गोपन तर्क के अनायास अनुपालन में होती हैं। अब यह दर्शन का कार्य है कि इन संबंधों को उद्धाटित करे और वह प्रक्रिया ज्ञात करे, जिसके द्वारा ससीम जीवात्मा (spirit) अपनी सीमाओं के परे जाकर अनदेखी और शाश्वत वस्तुओं से सम्पर्क के लिए बढ़ती है, दूसरे शब्दों में, (दर्शन का कार्य) यह दिखाना है कि मन के रूप में एक मन के लिए ईश्वर से स्वयं को जोड़ना क्यों आवश्यक है और ईश्वर की वह धारणा निर्धारित करना भी, जो इसके धार्मिक अनुभवों में सम्मिलित है। दर्शन यह कार्य निष्पादित करते हुए धर्म की आवश्यकता दिखलाता है।

कहने की आवश्यकता नहीं कि 'धर्म की आवश्यकता' पद में कोई ऐसा स्पष्ट असत्य अंतर्निहित नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक होना ही चाहिए। मनुष्य हेतु धर्म आवश्यक है, इसे दिखाने के लिए एक मनुष्य के रूप में हमें यह सिद्ध करना होगा कि कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं है जिसने यह आवश्यकता अनुभव न की हो। हम धर्म की आवश्यकता पर उसी तरह बात करते हैं जिस तरह हम नैतिकता या कानून या विज्ञान या फिर दर्शन की आवश्यकता पर बात करते हैं। यह दिखाना संभव हो सकता है कि यह आवश्यकता धर्म में ही सबसे ज्यादा होती है। यह एक ऐसी आवश्यकता है जो तर्कबुद्धि के स्वभाव में और इसी कारण उसी रूप में सभी तार्किक सत्ता की प्रकृति में ही समाविष्ट होती है। यद्यपि व्यक्ति के विकास में आकस्मिकता या यादृच्छिकता का तत्व हो सकता है जो उसके वास्तविक स्वभाव और भाग्य में कमी संभव कर दे।

पुन:, धर्म की आवश्यकता का समर्थन करने में हमें यह सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है कि सभी मनुष्यों के या सभी प्रजातियों और युगों के धार्मिक विचार समरूप रहे हैं और इसके विपरीत न ही यह कि धर्म में मात्र आज्ञापत्र (chit) आवश्यक है जिसके लिए सभी मनुष्य और युग एकमत रहे हैं। धर्म का सार्वभौम सत्य सभी धर्मो में सामान्य रहने के बाद भी, (किसी भी) श्रेष्ठ तथा सम्पूर्ण धर्म में एक भी ऐसा विचार नहीं होता है जो उसी रूप में रहे जिस रूप में वह अपने पूर्ववर्ती धर्मो में था। हरेक सुव्यवस्थित विकास में परिपक्व अव्य्व अपने जीवन के प्रारम्भिक और अपरिपक्व चरणों से संबंध हर चीज को अच्छी तरह से समझता और आत्मसात् करता है तथा साथ-साथ उन्हें नष्ट और रूपान्तरित करता चलता है।

धर्मो में सार्वभौम (तत्व) को ज्ञात करने के लिए हमें उनके पार जाने और उनकी जगह उस विचार तक पहुँचने में अवश्य सक्षम होना चाहिए जो अपने सम्पूर्ण बोध की ओर सदैव आगे बढ़ रहा होता है, जो अपने विकास की प्रत्येक क्रमिक अवस्था में कुछ खोता नहीं, पर किसी अपरिवर्तित चीज को ढोता भी नहीं है तथा उस रिक्तांश की पूर्ति अतीत के तत्वांतरण मात्र से करता है। विचार का परिपक्व और सम्पूर्ण स्वरूप हमें अन्य सभी स्वरूपों की सामान्य वस्तु देते हुए भी, ऐसे एक भी अपरिवर्तित तत्व को धारण नहीं करता जो उन सबसे संबंध हो। अपरिपक्व धर्मो में जो कुछ भी सत्य था, उनके गोपन महत्व की व्याख्या करते हुए यह उनसे श्रेष्ठ हो जाएगा और इस क्रम में यह उन सबको निरस्त या विनष्ट करता चलता है।

अत: धर्म की आवश्यकता दिखलाने का अर्थ यह दिखलाना है कि धार्मिक संबंध लोकानुभवों से परे होने की स्थिति के उपरान्त सभी ससीम और सापेक्ष सत्ता का औदात्य और असीम परमात्मा से मिलन के उपरान्त ससीम जीवात्माओं की उदात्त अवस्था मनुष्य की प्रकृति में ही आवेष्टित है। असीम के ज्ञान को केवल माया और भ्रान्ति समझने की जगह हम यह निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि ससीम ज्ञान सीमित होने के कारण मायावी और मिथ्या है तथा सभी सत्य ज्ञान में एक परम एवं असीम तत्व होता है, जिसके अभाव में सीमित ज्ञान और अनुभव का पूरा समूह अराजक हो जाएगा।

यदि यह पूरी व्यवस्था भौतिक सह रासायनिक गतियों द्वारा ही व्याख्यायित की जानी है तब 'धर्म की आवश्यकता' पद निरर्थक है। एक बुद्धिमान आत्मचेतस प्राणी के रूप में यह मनुष्य की प्रकृति में ही अंतर्निहित है, जो उसे भौतिक तथा ससीम से ऊपर उठने और असीम सर्वसमावेशी मन तक पहुँचने के लिए बाध्य करता है।

भौतिकवादी सिध्दान्तों की अपर्याप्तता

संसार के वर्तमान भौतिकतावादी सिध्दान्तों की अपर्याप्तता द्विस्तरीय कही जा सकती है:-

1. मन को वर्ज्य या अंतत: इसे भौतिक तत्व (matter) के कार्य व्यापार तक सीमित दिखाते हुए ये (सिद्धांत) वस्तुत: प्रारम्भ से ही इसे (मन को) मान्यता दे देते हैं या फिर मौन भाव से ग्रहण कर लेते हैं।

2. बल या भौतिक कार्यकारण संबंध वाले जिस सिद्धांत को वे संसार की समस्त परिघटनाओं की कुंजी के रूप में प्रयुक्त करते हैं, वह मात्र अजैविक प्रकृति पर लागू होता है ज़ैविक या अत्यावश्यक परिघटनाओं पर नहीं। चेतना तथा ज्ञान के स्पष्टीकरण के तौर पर यह पूर्णत: बेकार हो जाता है।

बल या भौतिक कार्यकारण संबंध की जिस धारणा से भौतिकवाद (materialism) संसार की समस्त क्रियाओं की मन से स्वतंत्र रचना करना चाहता है, वह स्वयं मन की ही सृष्टि या वैचारिक रूप है। अंतिम उत्पाद के रूप में विचार या मानसिक ऊर्जा ज़िसमें यह बल परिवर्तित हो सकता है क़ी खोज करने की बजाय हमें उस बल पर ही ध्यान देना चाहिए जो विचार के लिए ही अपना अस्तित्व बनाए रखता है। अभी तक सारी भौतिकतावादी व्याख्याएँ इस दोषपूर्ण चक्र का पोषण करती हैं कि विचार का विषय भौतिक तत्व ही विचार को जन्म देता है। विचार को भौतिक तत्व या पदार्थ का कार्य व्यापार बनाना इस तरह सीधे-सीधे विचार को स्वयं विचार का ही कार्य व्यापार बना देना है।

वह कौन सी आन्तरिक या विवेकपूर्ण आवश्यकता है जो मन को धर्म के दृष्टिकोण तक जाने के लिए बाध्य करती है? दूसरे शब्दों में, जिसे हमने धर्म की आवश्यकता कहा है उसे इनमें से कौन सी (आवश्यकता) बनाती है?

'विचार मस्तिष्क की उपज है।' (इन शब्दों को रामचन्द्र शुक्ल ने हाशिए पर लिखा है।)

विचारों की प्राथमिकता असीम या निरपेक्ष मन की प्राथमिकता को प्रमाणित करती या धर्म में अंतर्निहित असीम से ससीम मन के संबंध की माँग करती हुई नहीं जान पड़ती।

'हम' होने के लिए हमें निश्चय ही 'हम' से अधिक होना चाहिए। जिसे हम सच में अच्छा मानते हैं वह अपने जीवन को दूसरों के जीवन में अनुभव करना है, अपने व्यक्तिगत आत्म को खोकर एक विस्तारित आत्म को पाना है।

जब हम मनुष्य की विवेकपूर्ण और आध्यात्मिक प्रकृति और जीवन के वास्तविक महत्व की परीक्षा करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि जिसे वस्तुत: ईश्वर और उससे हमारे अनिवार्य संबंध का बोध कहा जाता है, इसमें सम्मिलित है।

इसी धारणा पर थोड़े भिन्न दृष्टिकोण से (इस) सिद्धांत का आश्रय लेते हुए विचार किया जा सकता है कि किसी सीमा (limit) के ज्ञान में इसका आभासी और कुछ अर्थों में वास्तविक अतिक्रमण भी निहित होता है। यह कहा जा सकता है कि हम केवल अपूर्णता के प्रति सचेत हो सकते हैं, क्योंकि प्रच्छन्न या प्रकट रूप से हमारे भीतर निरपेक्ष (absolute) पूर्णता का एक स्तर होता है जिसके द्वारा हम स्वयं को ऑंकते हैं। यह ईश्वर का और आध्यात्मिक प्राणियों के तौर पर हमारी प्रकृति तथा ईश्वर के संबंध का अस्पष्ट या प्रतीयमान ज्ञान ही है जो हमारे अपूर्ण ज्ञान को पूर्णता प्रदान करता है और हमें सचेत करता है कि यह अपूर्ण है। निश्चय ही, यह कहा जा सकता है कि जिस सिद्धांत का हमने ऊपर सन्दर्भ दिया है उसमें ऐसा कोई निष्कर्ष सम्मिलित नहीं है। यह निवेदन किया जा सकता है कि हमारे अंदर अपनी ससीमता का बोध जागृत करने के लिए किसी असीम सत्ता के ज्ञान जैसी अगाधा वस्तु की आवश्यकता नहीं है।

धार्मिक चेतना

एक विचारशील आत्मचेतस प्राणी के रूप में मनुष्य की प्रकृति के सत्व में ही धर्म का आधार स्थित होता है। अपनी वैयक्तिकता से परे होने, अनुभूतियों तथा संवेदनाओं के क्षेत्र से ऊपर उठकर सार्वभौम तथा निरपेक्ष से जुड़ने की हमारी क्षमता जैसे गुणों के कारण ही हम विवेकशील या धार्मिक प्राणी हैं। एक चेतस आत्म वह होता है जो सभी विशिष्ट तथा परिवर्तनीय अनुभवों और बाह्य विषयों या वस्तुओं के साथ अपने संबंधों के दौरान अपनी विशुद्ध सार्वभौमिकता अचल रखता है। यह केवल स्वयं के प्रति और अपने विरोधी विषयों के संसार के प्रति ही सचेत नहीं होता, बल्कि इसके पास उस विरोध को लांघने और इन दोनों तत्वों को संयुग्मित कर देनेवाली उच्चतर एकता पर विचार करने की क्षमता भी होती है। एक विचारशील प्राणी के रूप में मैं अपने व्यक्तिगत आत्म के साथ-साथ बाहर के संसार को भी अपने विचार का विषय बना सकता हूँ। दूसरे शब्दों में, 'आत्म' (self) और 'पर'/'अन्य' (not self) के मध्य का घोर विरोध विचारों में ढह जाता है। हम अपनी क्षुद्र वैयक्तिकता से ऊपर उठते हैं उन संकीर्ण सीमाओं से, जिसमें अपनी छाप छोड़ने और मनोवेगों के पीछे निरा प्राणी कैद रहता है, और (तब) हम एक सार्वभौम तथा असीम क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। हम व्यक्ति के तौर पर अनुभव करते हैं पर सोचते हैं विवेकशक्ति के सार्वभौम जीवन के सहभागी के रूप में ही। सार्वभौम क्रिया व्यापार के रूप में विचार ही मनुष्य को उस असीम विषय के समक्ष आत्मनिषेधा या आत्मसमर्पण की क्षमता प्रदान करता है, जिसमें धर्म को स्थित कहा जा सकता है।

यद्यपि यह सत्य है कि धर्म का आधार मनुष्य की विवेकशील या बुद्धिमतापूर्ण प्रकृति में निहित है अथवा विचार या बुद्धि ही उसे धर्म के लायक बनाती है, पर इससे यह दावा नहीं किया जा सकता कि धर्म विशुद्धत: एक बौद्धिक वस्तु है। यह कहना कि मनुष्य विवेकशील होने के कारण धार्मिक है, यह कहने के समान नहीं है कि मनुष्य की प्रकृति के भावनात्मक और सक्रिय अंशों से भिन्न बौद्धिक अंश में धर्म का आसन होता है।

जिस प्रश्न के विषय में अत्यधिक विचार किया जा चुका है वह यह है कि मानवीय चेतना का वह कौन सा विशेष विभाग या अंश है जिसके लिए धर्म विशिष्ट रूप से ज्ञान या अनुभूति की या संकल्प और कर्म की वस्तु है। वस्तुत: यह भ्रान्त अथवा त्रुटिपूर्ण मनोविज्ञान (Psychology) पर आधारित प्रश्न है। मनुष्य की चेतना और आध्यात्मिक जीवन को खंडित नहीं किया जा सकता। आध्यात्मिक एकता किसी भंडार गृह की तरह या उपकरणों के एक डिब्बे या फिर औजारों की उस पेटी के समान सह अस्तित्वपरक नहीं हो सकती, जिसमें कई चीजें अगल बगल रखी होती हैं। बल्कि यह तो ऐसी एकता होती है जिसमें विभिन्न तत्व एक दूसरे को अनिवार्यत: आवेष्टित करते हैं और एक सामान्य सिद्धांत की सहसंबंध अभिव्यक्ति होते हैं और यदि हम यह पूछें कि वह केन्द्रीय सिद्धांत क्या है जो हमारे जीवन के बहुपक्षीय पहलुओं, हमारी उत्तेजना, अनुभूतियों, कामनाओं, कल्पनाओं, अवधारणाओं, उद्देश्यों, विचारों आदि में उपस्थित रहता है और जिसकी कुछ क्रमवार एवं थोड़ी बहुत ठोस विशेषताएँ होती हों तो उत्तर केवल यह हो सकता है कि वह सिद्धांत 'विचार' है। सभी परिवर्तनशील अनुभवों के दौरान अपरिवर्तनीय तत्व रहा है, 'अहम' सचेत और विचारशील आत्म, जिसके लिए ये सभी समान रूप से संबंधित हैं।

विचार का वह विशेष रूप क्या है जिससे धर्म संबंध रखता है? ईश्वर और ईश्वरीय वस्तुएँ हमारी अनुभूतियों को स्पर्श कर सकती हैं, हमारी भावनाओं को प्रदीप्त कर सकती हैं, हममें कामनाएँ एवं मनोवेग जागृत कर सकती हैं, हमारी व्यावहारिक गतिविधियों पर हावी हो सकती हैं। किन्तु इन सबके क्रम में अंदर ही अंदर उस अव्य्व की गतिविधि अवश्य रहनी चाहिए जो अकेले दम पर हमें अपने आप से ऊपर उठा सके, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अथवा शाश्वत सत्ता के साथ हमारा संबंध जोड़ सके और वह अव्य्व है विचार।

हमारे निष्कर्ष जिस बौद्धिक प्रक्रिया द्वारा उभरे हैं उसकी रूपरेखा प्रस्तुत करने और उसका तार्किक रूप से बचाव करने में अक्षम होने के उपरान्त भी इस पर सोच विचार करना संभव है। क्योंकि सुन्दरता या उत्तमता का विचार ऐसे मन के ऊपर भी अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर सकता है जिसने अपने अनुभवों में अथवा नैतिकता या सौन्दर्यशास्त्र के किसी स्पष्ट सिद्धांत में इसे कभी रूपायित नहीं किया है या फिर, ऐसा करने में सक्षम नहीं हो सकता है। यह संभव है कि मनुष्य के जीवन और हृदय पर धार्मिक विचार अप्रत्यक्ष रूप से हावी हों और वह इन्हें भाँप भी न पाया हो। वस्तुनिष्ठ विचार के रूप में तो वह इन्हें भाँप भी नहीं सकता।

धार्मिक चेतना की प्रकृति

(इस उपशीर्षक के बाद स्थान रिक्त छोड़ दिया गया है।)

धर्म और विज्ञान : बी रसेल

धर्म और विज्ञान सामाजिक जीवन के दो पक्ष हैं। इनमें से पहला तब से महत्वपूर्ण रहा है, जबसे हम मनुष्य के मानसिक इतिहास के विषय में लेशमात्र जानते हैं, जबकि दूसरा यूनानियों और अरबों के मध्य अनियमित टिमटिमाते अस्तित्व के उपरान्त सोलहवीं सदी में अकस्मात् महत्व में आया और तब से इसने हमारे विचारों और संस्थाओं को वर्तमान रूप में ढाला है। धर्म और विज्ञान के मध्य एक चिरकालिक द्वन्द रहा है, जिसमें विगत कुछ वर्षों तक विज्ञान निरन्तर विजयी सिद्ध हुआ है। लेकिन रूस और जर्मनी में नए धर्मो के उदय....


(स्थान रिक्त छोड़ दिया गया है।)


....कैटेल (Cattell) का 'मनोविज्ञान' और धार्मिक 'अन्वेषण'।

विज्ञान और धर्म का सांस्कृतिक द्वन्द

सन्दर्भ : सोवियत संघ

सांस्कृतिक रूप से हम एक महत्वपूर्ण समय में जी रहे हैं। हम विज्ञान और धर्म के मध्य एक लंबें और विधवंसक युद्ध के समापन दृश्यों के दर्शक हैं। यह कथन संभवत: सम्पूर्ण सच्चाई व्यक्त करने में असमर्थ है, क्योंकि सांस्कृतिक द्वन्द सृर्जनात्मक होने के साथ-साथ उजाड़ने वाले भी होते हैं। वर्तमान परिस्थितियों की वाहक घटनाओं की रूपरेखा सही तरीके से चार सौ वर्ष पूर्व प्रारम्भ होती है जब दार्शनिक प्रतिष्ठा के मध्य सिंहासन रूढ़ राजनीतिक अधिकारों से लैस तथा विचित्र रूप से व्यवस्थित धर्मशास्त्र (theology) के विरुद्ध पुनर्जागरण की संस्कृति का स्फोट हुआ। वैसे कुछ कम आवश्यक अर्थो में यह विरोध अधिक प्राचीन है और इसकी जड़ों की खोज करनेवालों को यूनानी सभ्यता या फिर आदि मानवों की जादू-टोने वाली शत्रुता और जीववाद तक वापस लौटना पडेग़ा।

(इस) संघर्ष के आरम्भिक दौर के अधिकांश इतिहासकार उस अकारण क्रूरता पर विचार करने में प्रवृत्त रहे हैं जिसके द्वारा चर्च की सत्ता ने बौद्धिक विद्रोह की आरम्भिक चिंगारियों को बुझा दिया। पर उसके बाद की घटनाओं को देखते हुए व्यक्ति प्राय: चर्च के अनतर्व्याप्त स्वयंप्रकाश्य ज्ञान (pendrating intution) पर आश्चर्य करता है, जिसने उसे अबोध शैशवकाल में भी युक्तिसंगत विवेक के नुकीले दाँत युक्त (उस) सर्प को शीघ्र पहचान लेने में सक्षम बनाया। यह उन सबको विषाक्त कर सकता था जिन्हें धार्मिक जीवन ने जीवन योग्य पाया था। उस धार्मिक निरंकुश तंत्र के काल्पनिक भय और बर्बरतम दु:स्वप्न तभी से देखे जाने लगे थे। चार सौ वर्षों से भी कम समय में राजनीतिक और बौद्धिक रूप से हावी एक धर्म धाराशायी किया जा चुका है। प्रतियोगियों का स्थान, कम से कम बौद्धिक जगत् में, पूर्णत: उलट चुका है। सोवियत संघ के वैज्ञानिक पहले ही शरीर पर दक्षता प्राप्त कर रहे हैं, मानो उनके विकट प्रतिरोध का जीवन अब बिलकुल लुप्त हो चुका है और उनके साथ विवेकशील जनता भी लगातार जुड़ रही है। यह जनता जब कभी धर्म पर बात करती है तो इसे 'जनसमूह के लिए अफीम' या 'बड़ा भारी सामाजिक छल' मानती है। अपनी चिरस्थायी नैतिक शक्ति, तथ्य के साथ तथ्य के सुघड़ सामंजस्य, कार्य और कारण की स्पष्ट सत्यापन योग्य शृंखलाओं और हर प्रकार से उन्नत संसार की अपनी सच्ची प्रतिज्ञा के साथ जीवन का यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण अधिकांश शिक्षित जनता की मानसिकता का एक अनिवार्य अंश हो गया।