धर्म की बात / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
यह धर्म का प्रश्न इतना पेचीदा और खतरनाक है कि लोगों को इससे भ्रम हो सकता है। उस भाषण से कई लोग भ्रम में पड़े भी हैं,यह मैं जानता हूँ। इसलिए प्रसंगवश यहीं उसके बारे में दो-चार शब्द कह देना चाहता हूँ। कहते हैं कि आत्मा की भूख की शांति के लिएधर्मका आविष्कार हुआ। फिर उसके दो आकार हुए─ एक वैज्ञानिक और दूसरा व्यावहारिक। पहले में दर्शन और दार्शनिक विचार आ जाते हैं। उन्हीं विचारों को अमली जामा पहनाने के सिलसिले में बाहरी तथा व्यावहारिक पूजा-पाठ आदि आते हैं।
चाहे,शुरू में इसका कुछ भी रूप क्यों न रहा हो,इसका उद्देश्य भी कितना ही पवित्र और ऊँचा क्यों न रखा गया हो और कुछ लोगों ने ठीक वैसा ही अमल भी क्यों न किया हो,लेकिन इन सब बातों का हमें आज कतई पता नहीं है। उन्हें न हमने पहले देखा था और न आज ही देखते हैं। प्रत्यक्ष तो यही देखते हैं कि धर्म में तर्क, दलील और विचार को स्थान नहीं है। यही उसका व्यावहारिक रूप है। पंडित, मौलवी और धार्माचार्य जो कहें,उसे आँख मूँद कर मानो। नहीं तो तुम्हारे विरुध्द फतवा निकल जाएगा। चीं-चपड़ मत करो। “ऊँट बिलाई ले गई तो हाँजी हाँजी कहना!” ये धर्माचार्य,गुरु,पंडित वगैरह भी कैसे,कि अक्ल से उन्हें ताल्लुक ही नहीं। और ये चीजें पुश्तैनी हो जाने से उनके लिए पढ़ना-लिखना भी जरूरी नहीं। फलत:, वे लोग प्राय: निरक्षर भट्टाचार्य ही होते हैं। मगर मंतर और दीक्षा देकर बैकुंठ भेजने का, बहिश्त पहुँचाने का दावा जरूर रखते हैं। यहाँ तक कि सर्वाधिकार संरक्षित! फलत:, धर्म के नाम पर सबसे ज्यादा अँधेरा खाता देखते हैं। वह व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो गया है। भेड़ों की ही तरह हिंदू,मुसलिम,क्रिस्तान आदि के समूह होते हैं। इस प्रकार धर्म दिल की चीज न होकर बाहरी और दिखावटी वस्तु हो गई है। हम शिखा और दाढ़ी से ही प्राय: हिंदू और मुसलमान का परिचय करते हैं।
मगर मैं इस धर्म को कतई नहीं मानता। बल्कि कह सकते हैं कि मैं ऐसे धर्म को समाज, देश और मानवता का शत्रु मानता हूँ। यह हमारी आजादी का भी बंधक है। जहाँ विवेक को स्थान नहीं और फतवा या आदेश चले,मैं उस चीज को नहीं मानता। यदि बुध्दि ही कुंठित कर दी गई और विवेक को ही स्थान न रहा, तो फिर सब खत्म ही हो गया! मैं विवेक के ऊपर लगाम और जाब चढ़ाना बर्दाश्त नहीं कर सकता और जो बात बुध्दि में न समाए, विवेक में न आए, उसे धर्म के नाम पर मानने,मनवाने का मैं सख्त दुश्मन हूँ। इसीलिए बच्चों को धार्मिक शिक्षा─जिस मानी में आज धर्मकहा जाता है, उसकी शिक्षा─देने काविरोधी हूँ। धर्म तो मेरे विचार से सोलहों आने व्यक्तिगत वस्तु है, जैसे अक्ल, दिल, आँख, नाक आदि। दो आदमियों की एक ही बुध्दि या आँख नहीं हो सकती। तो फिरधर्मकैसे दो आदमियों का एक होगा? और जैसे रोगग्रस्त शरीर में अन्न की भूख नहीं होती उसी तरह पराधीन तथा विवेकहीन आत्मा मेंधर्मया अध्ययात्म की भूख कहाँ, कि उसकी शांति का यत्न हो?इसीलिए मेराधर्मविचित्र है। उसकेसंबंधमें लोगों को भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए।
साथ ही साथ,मैं यह भी मानता हूँ कि जिस धर्म को आज हम देखते हैं। उसका भी सीधे विरोध करना बड़ी भारी भूल है। उसके विकृत पहलुओं का एक- एक कर के विरोध किया जा सकता है, न कि सामान्य रूप से धर्म का ही। इसमें बड़ी हानि हो सकती है। पहलुओं का विरोध भी तर्क और दलील के बल पर होना चाहिए और जिन्हें धर्म के मामले में कहने और बोलने का अधिकार है, जिनके बारे में लोग ऐसा मानते हों, वही यदि यह विरोध और खंडनमंडन करें तो अच्छा हो। दूसरों को प्राय: इसमें नहीं पड़ना चाहिए। उन्हें इससे बचना चाहिए। हाँ, अमल तो सभी कर सकते हैं,ठीक उसी प्रकार का जैसी कि उनकी धारणा है। उसमें कोई खतरा या बाधा नहीं। परंतु समूह के ऊपर सहसा भयंकर प्रतिघात जिससे हो, वह काम बचाया जाए,खासकर समूह की जानकारी में। जहाँ ऐसा खतरा न हो वहाँ वह भी किया जा सकता है, अगर उसे ठीक मानते हों। जो लोग जनता में काम करते हैं, उन्हीं के लिए मेरा यह विचार है। बाकी लोग जो भी चाहें,कहें या करें। मुझे उनकी फिक्र नहीं।
हाँ,तो जमींदारी मिटाने के प्रस्ताव के साथ ही अनेक महत्त्व पूर्ण निश्चय कर के वह हाजीपुरवाला सम्मेलन संपन्न हुआ। यह समझ लेना चाहिए बकि उसके पहले कई बार ऐसा मौका आया जब कि साधारण किसान-सभाओं और जिला किसान सम्मेलनों में जमींदारी के विरुध्द प्रस्ताव आए थे और पास भी हुए थे। इस प्रकार वायुमंडल तैयार किया गया था। विशेष रूप से मुजफ्फरपुर के मनियारी मौजे में जो सम्मेलन जिले के किसानों का हुआ था , उसमें तो इस बारे में खूब चहल-पहल रही। वहाँ पहले-पहल यह सवाल उठाया गया था। कांग्रेस के कुछ ख्यातनामा लीडरों ने, जो जमींदारों के दोस्त और खुद नाममात्र के जमींदार हैं, इस प्रस्ताव के विरुध्द सारी शक्ति भी लगाई थी। मगर फिर वे बुरी तरह असफल रहे जिसका उन्हें सपने में भी खयाल न था। मैं भी वहाँ था और मेरे विचार से वे लोग फायदा उठाना चाहते थे। मगर वह भूलते थे कि मेरे विचारों के क्या मानी हैं।