धारणा / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
मैं इस शहर में बिल्कुल अनजान था। काफी भाग-दौड़ करके किसी तरह पासी मुहल्ले में एक मकान खोज सका था। परसों ही परिवार शिफ़्ट किया था। बातों ही बातों में आफ़िस में पता चला कि मैं अपना परिवार पासी मुहल्ले में शिफ़्त कर चुका हूँ। बड़े साहब चौंके-आप सपरिवार इस मुहल्ले में रह पाएँगे?
क्या कुछ गड़बड़ हो गई सर? मैंने हैरानी से पूछा।
बहुत गन्दा मुहल्ला है। यहाँ आए दिन कुछ न कुछ लफड़ा होता रहता है। सँभलकर रहना होगा। साहब के माथे पर चिन्ता की रेखाएँ उभरी–यह मुहल्ला गन्दे मुहल्ले के नाम से बदनाम है। गुण्डागर्दी कुछ ज़्यादा ही है यहाँ।
मैं अपनी सीट पर आकर बैठा ही था कि बड़े बाबू आ पहुँचे-सर आपने मकान गन्दे मुहल्ले में लिया है?
लगता है मैंने ठीक नहीं किया है-मैं पछतावे के स्वर में बोला
हाँ, सर ठीक नहीं किया है। यह मुहल्ला रहने लायक नहीं है। जितना जल्दी हो सके, मकान बदल लीजिए-उन्होंने अपनी अनुभवी आँखें मुझ पर टिका दीं।
इस मुहल्ले में आने के कारण मैं चिन्तित हो उठा। घर के सामने पान-–टाफ़ी बेचने वाले खोखे पर नज़र गई. खोखेवाला काला-कलूटा मुछन्दर एक दम छंटा हुआ गुण्डा नज़र आया। कचर-कचर पान चबाते हुए वह और भी वीभत्स लग रहा था।
सचमुच मैं ग़लत जगह पर आ गया हूँ॥ मुझे रात भर ठीक से नींद नहीं आई. छत पर किसी के कूदने की आवाज़ आई. मेरे प्राण नखों में समा गए. मैं डरते-डरते उठा। दबे पाँव बाहर आया। दिल ज़ोरों से धड़क रहा था। मुण्डेर पर नज़र गई, वहाँ एक बिल्ली बैठी थी।
आज दोपहर में बाज़ार से आकर लेटा ही था कि आँख लग गई. कुछ ही देर बाद दरवाज़े पर थपथपाहट हुई. दरवाज़ा खुला हुआ था। मैं हड़बड़ाकर उठा।
सामने वही पान वाला मुछन्दर खड़ा मुस्करा रहा था। दोपहर का सन्नाटा। मुझे काटो तो खून नहीं
क्या बात है? मैंने पूछा।
शायद आपका ही बच्चा होगा। टाफ़ी लेने के लिए आया था मेरे पास। उसने यह नोट मुझको दिया था-कहते हुए पान वाले ने सौ का नोट मेरी ओर बढ़ा दिया। मैं चौंका। यह सौ का नोट मेरी कमीज़ की जेब में था। देखा-जेब खाली थी। लगता है सोनू ने मेरी जेब से चुपचाप सौ का यह नोट निकाल लिया था।
'टाफ़ी के कितने पैसे हुए?'
'सिर्फ़ पचास पैसे। फिर कभी ले लेंगे'-वह कचर-कचर पान चबाते हुए मुस्कराया। दूधिया मुस्कान से उसका चेहरा नहा उठा–'अच्छा। बाबू साहब, प्रणाम!' कहकर वह लौट पड़ा।
मैं स्वयं को इस समय बहुत हल्का महसूस कर रहा था।