धाराधीश की दान-धारा / अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
महाराज भोज की गणना भारतवर्षीय प्रधान दानियों में होती है। वे अपने समय के धन-कुबेर तो थे ही, दानि-शिरोमणि भी थे। यदि वे मुर्तिमन्त दान थे तो उनकी धारानगरी दानधारा-तरंगिणी थी। हृदय इतना उदार था कि उनके सामने याचक हाथ फैलाकर अयाच्य हो जाता था।
प्रात:काल का समय था। भगवान भुवन-भास्कर की किरणें उषा देवी से गले मिलकर धरातल को ज्योति प्रदान कर रही थीं। समीर धीरे-धीरे बह रहा था। दिशाएँ प्रफुल्ल थीं। धारा अंक विलसिता सरिता विहँसिता थी। लोल लहरें नर्तन-रत थीं और किरणों के साथ कल्लोल कर रही थीं। सरिता-तट पर खड़े भोजराज अंभोजोपम नेत्रों से इस दृश्य को देख रहे थे और प्रकृति सुन्दरी की मनोहारिणी छवि अवलोकन कर विमुग्ध थे। इसी समय उन्हांने सरिता में से एक ब्राह्मण को निकलकर वस्त्र बदलते देखा और पूछा-'नद्यां कियज्जलं विप्र' हे विप्र, नदी में कितना जल है? उसने कहा-'जानुदध्नम् नराधिप' 'हेनराधिप, जाँघ भर'। कहा जाता है, यह 'जानुदध्नम्'वाक्य महाराज को इतना प्रिय हुआ, और उसके विन्यास को उन्होंने इतना पसन्द किया कि उसको एक लाख रुपए का पुरस्कार दिया। सम्भव है, यह कहा जावे कि यह गढ़ी हुई बात है,इसमें अत्युक्ति है, तिल को तोड़ बनाया गया है। प्राय: देखा जाता है कि किसी राजा-महाराज अथवा महज्जन की साधारण बातों को भी चापलूस असाधारण बना देते हैं। फिर भी यह कथानक उनकी दानशीलता और उदार वृत्ति पर अच्छा प्रकाश डालता है। क्योंकि, ख्याति प्राय: साधार होती है, निराधार नहीं। विशेषता का अधिकारी विशिष्ट पुरुष ही होता है।
धाराधीश के प्रबल दान-धारा-प्रवाह और उनकी सबल मुक्तहस्तता से ज्ञात होता है कि काल पाकर राज्य के व्यवस्थापक विचलित हुए और उन लोगों ने एक चाल चली। किसी योग्य विद्वान् के समादर में उन लोगों को कोई आपत्ति न थी। परन्तु, प्रति दिवस साधारण-से-साधारण संस्कृतज्ञों का नये श्लोक बनाकर सभा में पहुँचना और श्लोक में किसी विशेषता के न होने पर पुरस्कृत हो जाना उन लोगों को सहन न हुआ। अतएव, उन लोगों ने राज-सभा के तीन ऐसे विद्वानों को चुना, जिनमें एक को एक बार, दूसरे को दो बार और तीसरे को तीन बार सुनने पर कोई श्लोक कंठ हो जाता। नियम यह रक्खा गया कि अब उसी विद्वान को पुरस्कार दिया जावेगा, जिसके श्लोक को ये तीनों विद्वान् सहमत होकर नया बतावेंगे। जिसका परिणाम यह हुआ कि पंडितों का पुरस्कृत होना उतना सुगम नहीं रह गया, जितना पहले था। जब कोई पण्डित सभा में आकर श्लोक पढ़ता तो सभा का पहला विद्वान् कहता कि 'यह श्लोक पुराना है। देखो,मुझको याद है।' कारण यह था कि उसको एक बार श्लोक सुनने से ही याद हो जाता था। आगत पण्डित ने श्लोक पढ़ा नहीं कि उसे श्लोक याद हो जाता और वह उसे पढ़ यथातथ्य सुना देता। क्रमश: श्लोक पढ़े जाने पर दूसरे और तीसरे विद्वान् को भी श्लोक याद हो जाता और वे भी उसको सुनाकर यही कहते कि यह श्लोक प्राचीन है। ऐसी अवस्था में आगत पण्डित उनका मँह देखता रह जाता। सम्मानार्ह पूज्य विद्वानों के साथ यह व्यवहार नहीं होता था। उन्हीं लोगों के सिर यह बला आती जो लाख रुपए के मोह में पड़कर साधारण-से-साधारण श्लोक रचकर राजसभा में उपस्थित होते। प्रतिभा-सम्पन्न विद्वान् सभा में सदा पुरस्कृत होते रहे और धारा नगराधीश की दान-धारा सदा प्रवाहित होती रही। एक बार एक विद्वान् ने राज सभा में आकर यह श्लोक सुनाया-
राजन्श्रीभोजराजत्रिभुवनविजयी धार्मिकस्तेपिताऽभूत।
पित्रतेनगृहीता नवनवतिमिता रत्नकोटिर्मदीया।
तां त्वं देहि त्वदीयैस्सकलबुधवरै : ज्ञायते वृत्त मेतत्।
नो चेज्जानन्ति तेवै नवकृतमथवा देहि लक्षम् ततो मे।
'हे त्रिभुवन-विजयी महाराज भोज! आपके पितृदेव धार्मिक थे। उन्होंने निन्यानवे करोड़ रत्न मुझ से ऋण लिए। आप उसको दीजिए। आपके विवुधवर इसको जानते हैं। यदि वे नहीं जानते हैं, और मेरा यह श्लोक नवकृत है, तो जाने दीजिए, मुझको एक लाख ही दीजिए।'
इस श्लोक को सुनकर राजसभा के विवुध चिन्तित हो गये। उन्होंने सोचा कि यदि हम इसे प्राचीन कहते हैं, तो निन्नानवे करोड़ का झगड़ा सामने आता है। इसलिए उनको विवश होकर श्लोक को नया कहना पड़ा और श्लोक में कोई उल्लेखनीय काल-क्रम न होने पर भी महाराज भोज ने कवि को एक लाख मुद्रा प्रदान किया। श्लोक में अभद्रता है, असंयत भाव है। अतएव आधुनिक पण्डित जब इस श्लोक को सुनते हैं, नाक-भौं सिकोड़ते हैं और कहते हैं, यह श्लोक कदापि पुरस्कार योग्य नहीं है। मैं कथानक को सत्य नहीं मानता। एक दूसरे विद्वान् की राय यह है कि श्लोक में रचना-चातुरी है, निर्भीकता है, एक विरोधी संगठन का मानमर्दन है और है विलक्षण प्रतिभा-विकास। इसलिए वह पुरस्कार योग्य अवश्य है। मतभिन्नता स्वाभाविक है;किन्तु, जिसमें सहृदयता, उदारता, द्रवणशीलता, लोकपरायणता और परोपकार-प्रवृत्ति होती है,साथ ही जिसके हाथ में विशेषाधिकार और उत्तरदायित्व भी होता है, उसकी सूझ-बूझ भी असाधारण होती है। अनेक अवस्थाओं में वह सर्व-साधारण को बोधगम्य नहीं होती। धाराधीश की दान-धारा ऐसी ही है। अतएव वह प्रशंसनीय है, और उनकी कलित कीर्ति की वह कान्त ध्वजा है, जो आज तक भारत-धारा में उड़-उड़कर उनको उन गौरवों से गौरवित कर रही है,जिसका अधिकारी उन जैसा कोई महादानी हो सकता है।