धार्मिक आख्यान, सिनेमा और लोकप्रियतावाद / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :25 नवम्बर 2014
हिन्दुस्तान में कथा फिल्म के जनक दादा फाल्के ने "लाइफ ऑफ क्राइस्ट' देखते समय महसूस किया होगा कि सिने माध्यम से श्रीकृष्ण कथा अच्छे ढंग से कही जा सकती है। इसी विचार से प्रेरित दादा फाल्के ने संघर्ष करके 1913 में "राजा हरिश्चंद्र' बनाई। मूक सिनेमा के दौर की सारी फिल्में धार्मिक आख्यानों पर बनाईं क्योंकि दर्शक उन कथाओं से परिचित थे। फ्रांस में फिल्म के प्रथम शो में मौजूद जादूगर जॉर्ज मेलिए ने कहा कि यह माध्यम विज्ञान फंतासी रचने का है और उन्होंने "जर्नी टू मून' सहित 47 विज्ञान फंतासी रची। अमेरिका के सिनेमा में बाइबिल की कथाओं के साथ ही विज्ञान फंतासी भी बनाई गई और उनकी मौलिक खोज रही हॉरर सिनेमा, जिसके क्लाइमैक्स में क्राइस्ट के पवित्र जल और क्रॉस से भूत-प्रेत भागते हैं और नष्ट भी होते हैं। भारत की हॉरर फिल्म में हनुमान चालीसा से प्रेतात्माओं का नाश होता है। यह बात अजीब लगती है कि भूत-प्रेत फिल्मों में धर्म का प्रयोग किया गया परन्तु भूत-प्रेत का आकल्पन भी धार्मिक उपाख्यानों में उप कथाओं के रूप में वर्णित है। मानव, दानव और देवता भी धार्मिक आकल्पन हैं।
जब हिन्दुस्तान में सामाजिक फिल्में बनने लगीं तो उसके पात्र भी धार्मिक आख्यानों के चरित्रों के आधार पर गढ़े गए और आज भी अपने को आधुनिक मानने वाले पात्रों का सोच उसी आकल्पन से प्रभावित है, कपड़े इत्यादि ही बदल गए हैं। नायक राम चरित्र से प्रेरित है तो खलनायक को रावण प्रेरित बनाया गया है? मामा शकुनि भी अनेक पात्रों की प्रेरणा है और नारद से पत्रकार पात्र लिए गए। हिन्दुस्तानी सिनेमा हमेशा माइथोलॉजी प्रेरित रहा है परन्तु समय के साथ मार्क्स के कैरिकेचर भी बने हैं। यह अधिकतम की पसंद का माध्यम है, अत: गरीब के लिए लड़ने वाले नायक का आकल्पन स्थायी भाव रहा है। कुछ लोग इस विचारधारा से इस कदर प्रभावित हैं कि राजकपूर की अपनी विशुद्ध प्रेम-कथा "आह' के पहले दृश्य में ही नायक ग्रामीण क्षेत्र में बांध बनाने का काम देख रहा है और उसका शहरी मित्र पूछता है कि अत्यंत धनाढ्य परिवार का अकेला वारिस इस बियाबान में क्यों बस गया है, क्यों उसने अपनी सुविधाओं को छोड़ा तो नायक का जवाब है कि इस "वीराने का सौंदर्य' तुम देख नहीं सकते। मैं देख रहा हूं कि हजारों मेहनतकश पहाड़ की छाती काटकर पानी लाने के लिए अथक परिश्रम कर रहे हैं, ये पसीने से नहाए हुए लोगों में दिव्य सौंदर्य है जो तुम देख नहीं पाते। ग्रामीण, गरीब मजदूर की मेहनत से बने बांध का पूरा लाभ महानगरों को मिलेगा और वहां रहकर भोजन करने वालों के मन में यह विचार ही नहीं आता कि उनके भोजन के नमक में मेहनतकश का पसीना शामिल है। मजदूर के लिए करुणा का भाव इतना सशक्त होता है कि वह उसके हर कार्य का हिस्सा बन जाता है। यह फिल्म संभवत: सन 1953 या 1954 में बनी है और "वीराने का सौंदर्य' कहा गया है, दशकों बाद किसी अन्य संदर्भ में कुमार अंबुज ने कमाल की कविता लिखी है "उजाड़ का सौंदर्य'। अब इस अजूबे के पीछे भी यही बात है कि दोनों ही समान राजनैतिक आदर्श से प्रेरित हैं।
ध्वनि और रंग आने के बाद "बेनहर' "टेन कमांडमेन्ट्स' जैसी महाकाव्यात्मक फिल्में बनी हैं। हॉलीवुड ने बाइबिल कथाओं पर भव्य फिल्में रची हैं। वहां भी भारत की तरह अनेक पात्र "क्राइस्ट' की प्रेरणा से रचे गए हैं। "क्राइस्ट' भी कस्बे में जन्म लेकर शहर आते हैं और मनुष्य की करुणा के लिए जीवन त्याग देते हैं। फ्रैंक कॉपरा का पात्र "डीड्स' इसी प्रेरणा से बना है और हमारे देश में अनगिनत फिल्मों में ग्रामीण और कस्बाई लोग काम की तलाश में महानगर आकर बुराई से लड़ते हैं। कुछ बुराई की दलदल में समा जाते हैं। प्राय: नायिका के प्रेम की डोर पकड़कर दलदल से बाहर जाते हैं। सारांश यह है कि "क्राइस्ट' के जीवन चरित में भी अनेक नायक रचे गए हैं। हिन्दुस्तानी फिल्मों के अनेक निर्देशकों ने क्रिश्चियन प्रतीकों का इस्तेमाल किया है। गुरुदत्त की "प्यासा' का शायर भी क्राइस्ट की मुद्रा में अनेक दृश्यों में दिखाई देता है। ऋषिकेश मुखर्जी की अनाड़ी, मेम दीदी, आनंद इत्यादि फिल्मों की प्रेरणा का स्रोत रही है। राजकपूर की "जोकर' का भाग एक तो हिन्दुस्तानी विदूषक की क्रिश्चियन रचना लगती है।
सभी देशों के सिनेमा में माइथोलॉजी का प्रयोग जमकर किया है और इसी माध्यम ने अपनी माइथोलॉजी गढ़ी है, इस माध्यम से सितारे गढ़े हैं जो अवतारवाद का ही अंग हैं। आज के सिनेमा का पोषक का कॉर्पोरेट वित्त है और यह वर्ग हर साल ें धार्मिक आख्यानों के नशे काे फिल्म माध्यम का अंग बनाए रखता है। दरअसल, सिनेमा लोकप्रिय संस्कृति है और आज "लोकप्रियतावाद' सभी राजनैतिक दर्शन को ध्वस्त कर चुका है। इसी लोकप्रियतावाद का सबसे भयावह असर यह है कि गुणवत्ता और अच्छाई का आकलन भी इसी विनाशकारी लोकप्रियता के आधार पर किया जाता है। इस आधार ने अवगुणों को समाज में स्थापित कर दिया है। किसी जमाने में जेल से आया आदमी बुरा समझा जाता है, आज वह सम्मानित है। जीवन मूल्यों के क्षेत्र में यह अनाचार भयावह परिणाम ला सकता है।