धार्मिक सुधार का मार्ग / कमलेश कमल

Gadya Kosh से
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जी हाँ, अगर अपने समाज या धर्म में सुधार लाना हो तो विरोधियों की सुनें! कमी किसी धर्म में नहीं, वरन् इसके मानने वालों में होती है। ग़लत तरीके से धर्म को मानने वालों ने मानवीय सभ्यता का बड़ा नुकसान किया है। ऐसे नुकसान से बचने और यह समझने के लिए कि ऐसे धार्मिक होने से अच्छा किसी भी धर्म को नहीं मानना है; व्यक्ति में चिंतन शक्ति होनी चाहिए। इसके लिए विरोधियों को सुनने का साहस एक मददगार विकल्प हो सकता है!

अगर आप हिंदू हैं, तो आपको कुछ कट्टर और दिमागदार मुसलमानों या ईसाईयों की सुननी चाहिए! इसी तरह अगर आप मुस्लिम, ईसाई, या किसी भी अन्य धर्म को मानते हैं, तो आपको अपने धर्म के विरोधियों की बात अवश्य सुननी चाहिए!

उनके द्वारा कहे 10 ग़लत बातों से आपका धर्म खतरे में नहीं पड़ जाएगा। पर, यह हो सकता है कि वे आपके धर्म या आपकी मान्यताओं के बारे में कुछ ऐसी बातें कह रहे हों, कुछ ऐसा मज़ाक बना रहे हों, जिसे सुनकर आपको लगे कि हाँ, इस बात में दम है।

आपको यह लग सकता है कि तरीके में समय के साथ कुछ सुधार करना चाहिए, जैसे कहीं-कहीं मूर्ति विसर्जन का ग़लत तरीका या कहीं किसी इलाके में बक़रीद में साफ-सफाई का ध्यान नहीं रखना। व्यक्ति अपने से जुडी चीजों को बढ़ा-चढ़ा कर देखता है। आप उस दृष्टि से देख ही नहीं पाएँगे जिस दृष्टि से आपके विरोधी देख सकते हैं।

अगर हम किसी धर्म को मानते हैं तो यह ज़रूरी नहीं कि हमारे धर्म में सब कुछ अच्छा ही हो। हमें यह स्वीकार करना चाहिए सब कुछ अच्छा नहीं हो सकता। ऐसे में विरोधियों की दृष्टि का लाभ लेना चाहिए। आप जिसे अपनी मान्यता कहते हैं, देखें कि वे उसका कैसे मजाक उड़ाते हैं और विचार करें कि इसे कैसे और अच्छा बना सकते हैं!


लेकिन अमूमन हम करते हैं इसके ठीक उल्टा। हम जिस धर्म को मानने वाले होते हैं, उस धर्म के विरोधियों को नापसंद करने लगते हैं; जबकि 'धृ' धातु से बनने वाला धर्म स्वीकार करने या धारण करने का नाम है (धारयति इति धर्म: !)

आप की मान्यताएँ आपकी अपनी हैं। दूसरे उसका सम्मान कर भी सकते हैं और नहीं भी। सभ्यता का तकाज़ा है कि अलग-अलग मान्यताओं का सम्मान हो। लेकिन सभ्यता और संस्कृति का तकाज़ा तो यह भी है कि हम अपना सुधार और परिष्कार करें और दूसरों को असहमत होने का हक दें।

धर्म के नाम पर कई कुरीतियाँ समाज में घर कर जाती हैं। धर्म के कुछ ठेकेदार उन्हें आपकी आस्था से जोड़ देते हैं और सच तो यह है कि एक सामान्य व्यक्ति धर्म और संप्रदाय के फर्क को नहीं समझ सकता।

सामान्यतः, आमजन इस छोटी-सी चीज को नहीं समझ सकते कि अलग-अलग उपासना पद्धतियाँ पहुँचाती तो एक ही जगह हैं, लेकिन कालांतर में अच्छी चीजें भी दूषित हो जाती है; क्योंकि आत्माएँ जिन शरीर में हैं उनकी सीमा होती है।

गहराई में उतरकर विचार करें तो परेशानी वहाँ है, जहाँ हम विरोध के लिए गुंजाईश नहीं छोड़ते, जहाँ हम कहने लगते हैं कि हमारा धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है और दूसरे धर्म में कोई बात ही नहीं। तार्किक आधार पर देखें तो यह आक्रामकता, अज्ञानता और सनकीपन है। अगर यह सनक ना होता धर्म के नाम पर इतने युद्ध ना होते।

अतः, विरोधियों को सुनकर सुधार का मार्ग प्रशस्त करें! इस सच को स्वीकार कर लें कि धर्म अच्छा या बुरा नहीं होता, व्यक्ति अच्छा या बुरा होता है। हाँ, धर्म के नाम पर होने वाली व्याख्याएँ भी अच्छी या बुरी हो सकती हैं!