धार्मिक स्थानों की सम्पदा और राष्ट्रीय विकास / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :20 जून 2016
मध्यप्रदेश के तीर्थ स्थान जैसे महाकालेश्वर मंदिर उज्जैन, रामराजा मंदिर ओरछा, ओंकारेश्वर मंदिर जिला खंडवा, मल्हार देवी मंदिर सतना इत्यादि के ट्रस्ट बोर्ड शीघ्र ही निर्णय लेने वाले हैं कि भक्तजन मंदिर में अपने शेयर, बॉन्ड्स का दान कर सकते हैं अौर इस प्रयोजन से इनके डिमेट अकाउंट खोले जा सकते हैं। भारत में प्रमुख मंदिरों में भक्तजन भारी रकम दान करते हैं और दक्षिण के तिरुपति मंदिर में दान की गई राशि बहुत अधिक है। दक्षिण का सत्य सांईबाबा ट्रस्ट अस्पताल का संचालन करता है और मस्तिष्क की शल्य चिकित्सा जैसा दुरुह कार्य भी वहां होता है। चेन्नई स्थित शंकर नेत्र चिकित्सालय अपने ढंग की अनूठी संस्था है, जहां सबसे कठिन शल्य चिकित्सा भी होती है। कुछ मंदिरों में प्रतिदिन जितनी राशि का दान अाता है, उतनी आय किसी भी व्यवसाय में नहीं होती। हमारे मंदिरों में रखे सोने और हीरे-जवाहरात के कारण ही विदेश से लुटेरों ने भारत पर आक्रमण किया और संपत्ति लूटकर ले गए। कहा जाता है कि सोमनाथ की रक्षा का प्रस्ताव आस-पास के राजाओं ने मंदिर के प्रमुख पुजारी को दिया था अौर इस उद्देश्य से अपनी सेना भेजने का प्रस्ताव भी भेजा था परंतु मंदिर के पुजारी वर्ग ने उनका प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। उनका विश्वास था कि ईश्वर स्वयं अपने निवास अर्थात मंदिर की रक्षा करेंगे। परिणाम स्वरूप लुटेरों का कोई प्रतिवाद ही नहीं हुआ और बिना किसी खास विरोध के अकल्पनीय धन लूटकर ले गए।
पूजारी वर्ग यह भूल गया कि धरती पर ईश्वर के सारे कार्य वह मनुष्य के माध्यम से ही करता है और स्वयं सशरीर प्रस्तुत नहीं होता। इतना ही नहीं कुरुक्षेत्र में भी श्रीकृष्ण ने शस्त्र नहीं चलाए, उन्होेंने अपने प्रिय अर्जुन का रथ चलाया था। उस महान युद्ध का निर्णायक तत्व श्रीकृष्ण का रथ चलाना ही सिद्ध हुआ। धर्म का सार ही यह है कि सारे कार्य मनुष्य ही करे। ईश्वर केवल आशीर्वाद देते हैं। धरती पर कर्ता मनुष्य ही है या होना चाहिए। एक वर्ग श्रीकृष्ण को 'सांवरिया सेठ' कहकर पूजता है। एक वर्ग में कन्याएं स्वयं को राधा मानकर उनसे प्रेम करती हैं। भक्ति के साथ रास लीला अवधारणा भी है। सोलह हजार गोपियों में से हर एक उन्हें अपने साथ रास करते महसूस करती हैं।
नीरद चौधरी अपनी किताब 'हिंंदुइज्म' में लिखते हैं कि हमारे यहां पुनर्जन्म अवधारणा इसलिए बनी है कि हमें धरती से, भोजन से, संपत्ति इत्यादि से इतना अधिक मोह है कि हम यहां बार-बार आना चाहते हैं। हमारा सबसे बड़ा उत्सव लक्ष्मी की पूजा है। ये सब संकेत और दिन-प्रतिदिन के व्यवहार में संग्रह और संपत्ति के मोह से लगता है कि हम मूलत: भौतिकवादी हैं परंतु आख्यानों और किंवदंतियों में हमें अध्यात्मवादी माना गया है। अत: अवाम की जीवन ऊर्जा दो विपरीत धाराओं में बहती है और उससे उसका वेग और शक्ति क्षीण होती है। अगर हम साफगोई से स्वयं को भौतिकवादी स्वीकार कर लें तो कोई अनर्थ नहीं हो जाएगा। पश्चिम के देशों को भौतिकवादी होने का फतवा भी हम जारी करते हैं और उनकी प्रगति, संपत्ति का आयात करते हैं। खाद्य पदार्थ की कमी होने पर हम उनसे ही आयात करते हैं। हमारे प्रतिभाशाली छात्र उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाते हैं और आज भी समाज में विदेश से प्रशिक्षित भारतीय को बेहतर मौके और वेतन मिलता है। 'पूरा विश्व एक कुटुम्ब है,' यह सूत्र वाक्य भी भारत का ही उपहार है। पश्चिम से टक्नोलॉजी का आयात ही हमारी तथाकथित प्रगति के लिए उत्तरदायी है। यहां तक कि दहेज के बाजार में विलायत से लौटे दूल्हे को अधिक दहेज प्राप्त होता है। इन सब तथ्यों के बावजूद आध्यात्मिकता के लिए प्रबल आग्रह समझ के बाहर है। अत: खुले मन से स्वयं को भौतिकवादी मान लेने से विपरीत दिशाओं में बहकर बंटती ऊर्जा की हानि से भी बचा जा सकता है। हमारे शीर्ष नेता भीख का कटोरा हाथ में लिए अनेक देशों का दौरा कर रहे हैं, जबकि सार्थक प्रगति देश की संपदा से देश की प्रतिभा व मेहनत ही कर सकती है। अगर मंदिरों, गिरजाघरों और मस्जिदों से वहां प्राप्त आय को देश के विकास में लगाएं तो विश्व बैंक से कर्जा लेना समाप्त हो सकता है। देशों का स्थायी विकास देश की संपदा और प्रतिभा से ही होता है। अमेरिका की गोद मं बैठने से चीन का दृष्टिकोण और अधिक भारत विरोधी हो सकता है। अमेरिका की सहायता से पनपने वाले देश अन्तत्वोगत्वा उसके गुलाम हो जाते हैं। आजकल सेनाएं नहीं भेजी जातीं वरन् बाजार पर कब्जा जमाया जाता है और अपना रहन-सहन तथा विचार प्रक्रिया लादी जाती है। यह नए किस्म का संप्रदायवाद है। स्मरण आता है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भाखड़ा नंगल को भारत का नया तीर्थस्थान कहा था। नेहरू सोच-विचार की वापसी आवश्यक है। विज्ञान की सहायता से आई संपदा का श्रेय धर्मांधता को देना निरर्थक है।