धुँए की दीवार / सुकेश साहनी
अमीचन्द शीशे के सामने खड़ा होकर पगड़ी बाँधने लगा। बँटवारे के बाद वह पहली बार बेलेवालां जा रहा था। उसके मन में आज कोई उत्साह नहीं था। पहले हर महीने वह बेलेवालां के हाट से सबके लिए ज़रूरी सामान लाता था, दुलीचन्द और उसके बच्चों केे लिए भी। उसने खिड़की के बाहर उदास निगाह डाली। अपने मकान को दो हिस्सों में बाँटती दीवार उसके दिल को चीरती चली गई. बँटवारे वाले दिन से उसके और छोटे भाई दुलीचन्द के बीच बातचीत बिल्कुल बन्द थी।
बाहर दुलीचन्द श्यामा गाय को दुहने की तैयारी कर रहा था। बँटवारे मंे गाय उसके हिस्से मंे आई थी।
तभी अमीचन्द की नजर अपनी बेटी पर पड़ी। वह हाथ में बड़ा गिलास लिए चुपके से अपने चाचा की ओर बढ़ रही थी। वह चिल्लाकर बेटी को रोकना चाहता था, पर आवाज गले में फँसकर रह गई. उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा।
दुलीचन्द ने मुस्कराकर अपनी भतीजी की तरफ देखा। जवाब में वह भी धीरे से हँसी. दुलीचन्द ने उसके हाथ से गिलास ले लिया और झटपट उसे दूध से भर दिया।
अमीचन्द एकटक इस दृश्य को देख रहा था। ठीक उसी समय दुलीचन्द की पत्नी घर से निकली। उसे पूरा विश्वास था कि बहू उसकी बेटी के हाथ से दूध भरा गिलास छीनकर पटक देगी। न जाने क्या-क्या बकेगी। बँटवारे के समय उसने बहुत झगड़ा किया था।
अमीचन्द यह देखकर हैरान रह गया था कि बहू के चेहरे पर हल्की मुस्कान उभरी और कहीं पति दुलीचन्द उसे देख न ले, इस डर से तुरन्त भीतर चली गई.
उसकी बेटी ने एक साँस में ही दूध का गिलास खाली कर दिया और वापस घर की ओर दोड़ पड़ी।
अमीचन्द की आँखें भर आईं। ।उसे बेहद खुशी हुई, उसको लगा-घर के बीच की दीवार गायब हो गई है।
अमीचन्द उत्साह से भरा हुआ घर से बाहर आया और अड़ोस-पड़ोस को सुनाता हुआ ऊँची आवाज में बोला, "ओए दुली, मैं बेलेवालॉ जा रहा हूँ। तुम्हें जाने की ज़रूरत नहीं। मैं तुम सबके लिए सामान लेता आऊँगा।"