धुँधलका छँटता हुआ / विजयानंद सिंह
आज बड़े मन-से उसने श्रृंगार किया था।उसके पसंद की साड़ी पहनी थी। चूड़ी, बिंदी, बाली, गजरे से खुद को सजाया था।उसका चेहरा आज खुशी से दमक रहा था। एकदम नयी-नवेली दुल्हन-सी लग रही थी वह। साहेब ने आज बुलाया था उसे। हाँ... " साहेब " ही तो कहा करती थी वह उसे। होगा सेठ या बाबू कहीं का ! उसके दिल में तो उसी दिन बस गया था, जब वह पहली बार उसके दरवाजे पर आया था..... अस्त-व्यस्त, परेशान, हताश, निराश, टूटा-बिखरा-सा.... और पूछ बैठा था...." टूटे दिल को जोड़ना जानती हो ? "
पहले दिन ही वो जान गई थी कि ज़िस्म के इस बाज़ार में वह शरीर की भूख मिटाने के लिए नहीं....बल्कि अपनी टूटी-बिखरी संवेदनाओं को जोड़ने-समेटने की कोशिश में उसकी चौखट पर आया था। उसने सुना था कि शायद... स्त्री के अंदर प्यार का इक दरिया बहता है, जो मँझधार में फँसी कश्ती को भी किनारे पहुँचा देता है....!
तब..उसने ही अपने स्नेह की छाँव दे उसके वज़ूद को समेटा था। और फिर.....धीरे-धीरे उसकी सादगी, सच्चाई, ईमानदारी और मासूमियत पर उसे भी तो प्यार हो आया था ! भले ही वो एक वैश्या सही, पर उसके अंदर भी एक कोमल नारी-हृदय धड़कता था, जो न जाने कब से किसी के लिए तड़पने को बेचैन था....!
सोचती हुई....ख्यालों में खोई-खोई, वह सड़क पर जा रही थी।शाम का धुँधलका बढ़ने लगा था। बीच का रास्ता सुनसान था। मगर वह बेफिक्र थी। अचानक सन्नाटे को चीरती हुई किसी के चीखने की आवाज सुनाई पड़ी।उसने अगल-बगल देखा। कहीं कोई नहीं दिखा।वो तेजी से आवाज की दिशा में दौड़ पड़ी।आवाज झाड़ियों के उस पार से आ रही थी। " कौन है बे....? स्साले......!" - चिल्लाती हुई वह झाड़ियों के उस पार पहुँची, तो देखा, तीन-चार लड़के एक बच्ची के कपड़े तार-तार कर रहे थे।
वह जोर से चिल्लाई - " अरे कमीनों, हराम के पिल्लों....! क्या कर रहे हो बे, इस मासूम के साथ ? इतनी ही गरमी चढ़ी है, तो आओ मेरे साथ।पूरी कर लो अपनी हसरत।मैं वैश्या हूँ।तुमसे पैसे भी नहीं लूँगी.....! " - बचपन में अपने साथ घटी घटना साक्षात् उसकी आँखों के सामने उभर आई थी। चीखते हुए....क्रोध और आक्रोश से वह काँपने लगी थी, और...अपने सीने से पल्लू हटाकर...वह बेखौफ उन शैतानों के सामने खड़ी हो गयी......। उसकी आँखें आग उगल रही थीं और वह रणचंडी बन गयी थी।उसका रौद्ररूप देख, हवस के दरिंदे भाग खड़े हुए थे, और...उसने आगे बढ़कर उस बदहवास मासूम को अपने आँचल में छुपा लिया था.....। शाम का धुँधलका छँट चुका था और चतुर्दिक स्निग्ध चाँदनी बिखर गयी थी। सशक्त और प्रबल प्रतिरोध के समक्ष इंसान का वहशीपन परास्त हो गया था....।