धुंध में एक किरण / कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
नर्सिग होम के सामने पहुँचकर पर्ची पर लिखे नाम को सामने तीन मंजिला इमारत पर टंगे विशालकाय बोर्ड से मिलाकर रामनरेश आश्वस्त हुआ। अपनी पत्नी पार्वती की ओर उसने एक निगाह डाली और फिर दोनों पति-पन्नी नर्सिंग होम के भीतर पहुँच गये। बड़े से हॉल के चारों ओर पड़ी कुर्सियों पर लोगों की भीड़, आसपास बने काउंटर और परेशानी के भाव लिए लोगों की उपस्थिति, कुछ कराहते, कुछ शान्त, कुछ गुमसुम, कुछ बतियाते लोगों के बीच रामनरेश और पार्वती असहज सा महसूस कर रहे थे। नर्सिंग होम के कर्मचारियों और आंगन्तुकों के मध्य के अन्तर को समझने में नाकाम रहने के बाद रामनरेश ने सीधे एक काउंटर पर पहुँच कर डॉक्टर के बारे में जानना चाहा।
“किसे दिखाना है?” एक रूखी सी आवाज काउंटर से आई।
“जी, अपनी पत्नी को दिखाने है, वो पेट से है।”
“सामने सीढ़ियों से ऊपर जाकर बांये हाथ पर दूसरा कमरा।”
“जी, अच्छा।” इतना कह कर रामनरेश मुड़ा ही था कि काउंटर से फिर आवाज आई, “पहले बगल से पर्चा बनवा लेना, जब नाम पुकारा जाये तब मिलना, समझे।” रामनरेश सिर्फ सिर हिलाकर बगल वाले काउंटर से पर्चा बनवाने पहुँचा। दो-चार-सवाल-जवाब के बाद उसके हाथ में पर्चा आ गया। पार्वती के नाम के साथ-साथ एक नम्बर भी पड़ा था। काउन्टर से पता चला कि इसी नम्बर को पुकारे जाने पर डॉक्टर से मिलना होगा। दोनों आराम से ऊपर चढ़कर कमरे के सामने पड़ी कुर्सियों पर बैठ गये।
ऊपर वाला हॉल भी नीचे वाले हॉल की तरह था मगर कुछ छोटा। इधर ज्यादा भीड़-भाड़ भी नहीं दिख रही थी। दस-दस, पाँच-पाँच कुर्सियों के सेट चारों ओर लगे थे, जिन पर बैठे लोग अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। आसपास एक उचटती सी निगाह डालते समय बगल की दीवार पर टंगी घड़ी में समय देखा, बाहर बजने में दस मिनट कम। गाँव से यहाँ तक के समय का हिसाब लगाते ही रामनरेश के हाथ-पैरों में थकान सी उभर आई। एक अंगड़ाई लेकर वह आँखें बंद कर कुर्सी पर पसर गया। पार्वती अपने बगल में बैठी एक औरत से धीरे-धीरे बतियाने लगी। कमरे के बाहर बैठी औरत नम्बर पुकारती और डॉक्टर को दिखाने वाले आते-जाते रहते। बीच-बीच में रामनरेश भी आँखें खोलकर देख लेता। लगभग एक घंटा बीतने के बाद भी जब नम्बर नहीं आया तो उसे बोरियत सी होने लगी। पार्वती के बगल की महिला भी जा चुकी थी सो वो भी इस समय खामोश बैठी थी।
“चाय तो नहीं पीने?”
“नईं।” पार्वती ने छोटा सा उत्तर दिया। रामनरेश बिना कुछ कहे उठा और इधर-उधर टहलने लगा। डॉक्टर साहिबा के कमरे के सामने बैठी महिला से अपनी बारी के बारे में पूछने पर पता लगा कि अभी लगभग आधा घंटा और लगेगा। रामनरेश धीरे-धीरे नीचे उतर गया। न तो पार्वती ने कुछ पूछा और न ही उसने कुछ कहा। थोड़ी देर में दोनों हाथों में चाय से भरे गिलास थामे वह पार्वती के बगल में आकर बैठ गया। एक गिलास उसने पार्वती के सामने कर दिया। पार्वती ने बिना कुछ कहे गिलास ले लिया और दोनों धीरे-धीरे चाय पीने लगे।
महिला द्वारा उनका नम्बर पुकारने पर दोनों आराम से चलकर डॉक्टर के सामने खड़े हो गये। “नमस्ते साहिब,” कहकर रामनरेश ने हाथ जोड़ लिए। डॉक्टर ने पर्चे से निगाह हटाकर पार्वती और रामनरेश की ओर देख कहा – “बैठो, क्या समस्या है?”
“साहिब, जे हमाई घरवाली है, पेट से है और देखके बता देओ कि लड़का है कि लड़की?” इतना कह कर रामनरेश ने एक कागज डॉक्टर के सामने सरका दिया। आसपास के गांव में तैनात किये एजेंट में से एक का पर्चा देख डॉक्टर भी आश्वस्त हुई कि सामने बैठे व्यक्ति किसी संस्था के अथवा सरकारी जाँच करते व्यक्ति नहीं हैं। कागज फाड़कर डस्टबीन में फेंकते हुए डाक्टर बोली “ऐसा क्यों चाहते हो?” रामनरेश ने डॉक्टर की पर्चा फाड़ने पर आश्चर्य से आँखें फैलाईं और फिर पार्वती की ओर देख आराम से कहा, “डाक्टर साहिब हमाये दो बिटिया हैं, हम चाहत हैं कि अबकी बार लड़का हो जाये, बस। आप एक बार देख लेओ, तो बड़ी किरपा हो जैहै।”
घड़ी की ओर देख कर डॉक्टर साहिबा ने दोनों को तीन बजे का समय दिया और हिदायत दी, “देखो, कुछ नियमों के कारण यह नहीं बताया जा सकता कि पेट में लड़का है या लड़की”…बात समाप्त होने से पहले ही पति-पत्नी दोनों के मुंह से एकसाथ निकला, “फिर।”
“कुछ नहीं, जो रिपोर्ट तुम लोगों को मिलेगी उसी से तुम लोग समझ लेना। यदि लिफाफे का रंग हरा हो तो लड़का और लाल हो तो लड़की, ठीक। और हाँ, यहाँ किसी से चर्चा न करना कि इस काम के लिये आये हो।” डॉक्टर ने अपना पक्ष साफ रखने की दृष्टि से दोनों को समझाया। दोनों बिना कुछ कहे डॉक्टर की अन्य हिदायतों का पालन करते हुए बाहर बैठ कर तीन बजे का इंतजार करने लगे।
कुछ देर तक रामनरेश और पार्वती खामोशी का दामन थामे बैठे रहे फिर बड़े धीमे स्वर में पार्वती ने पूछा - “यदि लड़की भई तो?” रामनरेश ने कोई जवाब नहीं दिया, बस खामोशी से पार्वती को देखता रहा। वह खुद नहीं सोच पा रहा था कि यदि लड़की हुई तो क्या करेगा? ऐसा नहीं है कि वह अपनी दोनों बेटियों को चाहता नहीं है पर मन में दबी लड़का पाने की लालसा, माँ की मरने से पहले नाती का मुंह देखने की इच्छा, वंश वृद्धि की भारतीय सामाजिक सोच के आगे शायद वह भी नतमस्तक हो गया है।
“बाद में देखहैं कि का करने है?” कह कर रामनरेश ने पार्वती को किसी ओर सवाल का मौका नहीं दिया। विचारों की श्रंखला मन-मस्तिष्क को खंगाले डाल रही थी। टी०वी० पर लड़कियों की सफलता की कहानी कहते कार्यक्रम, गाँव में संस्थानों द्वारा बेटियों के समर्थन में किये जाते नाटकों, कार्यक्रमों के चित्र उसके दिमाग में बन-बिगड़ रहे थे। सामाजिक अपराध, कानूनी अपराध, सजा, जुर्माना आदि शब्दावली परेशान करने के साथ-साथ उसे डरा भी रहे थे। पार्वती को होने वाले नुकसान, किसी अमंगल से भीतर ही भीतर काँप जाता। पार्वती का मन भी शान्त नहीं था। अपने पेट में पल रहे बच्चे का भविष्य मशीन द्वारा तय होता देख रही थी। कभी उसे लगता कि पेट में चल रहा बच्चा रो रहा है, कभी लगता कि उसकी दोनों बेटियां फिर उसकी कोख में आ गई हैं और वह अपने हाथों उनका गला घोंट रही है। घबराकर वह अपना हाथ पेट पर फेरने लगती। दोनों चुपचाप खामोशी से, मन ही मन गाँव के, घर के तमाम सारे देवी-देवताओं का स्मरण करते सोच रहे थे कि पेट में लड़का ही हो ताकि किसी तरह के अपराध से दोनों को न गुजरना पड़े। ऊहापोह में, विचारों के सागर में डूबते-उतारते उन दोनों ने घड़ी में तीन से भी अधिक का समय देखा तो रामनरेश ने उठकर टहलना शुरू कर दिया। थोड़ी देर में एक औरत ने आकर पार्वती को पुकारा। ‘हूँ’ कह कर पार्वती खड़ी हो गई, रामनरेश भी पास में आ गया। उस औरत ने रामनरेश को रुकने को कहा और पार्वती को लेकर दूसरे किनारे बने कमरे में ले गई।
जितनी देर पार्वती की जाँच चलती रही उतनी देर रामनरेश इधर-उधर टहलता रहा। आने वाली स्थिति से कैसे निपटेगा? क्या करेगा? क्या होगा? आदि-आदि विचारों से दो-चार होता रहा। इधर जाँच करने के बाद रामनरेश को पुनः डॉक्टर के केबिन में बुलाया गया। डॉक्टर की मेज पर चार-पाँच लाल हरे रंग के लिफाफे बिखरे थे। रामनरेश ने जिस समय डॉक्टर के सामने स्वयं को खड़ा पाया उस समय डॉक्टर के हाथ में हरे रंग का लिफाफा देख उसने भीतर ही भीतर इत्मीनान का एहसास किया।
पार्वती की देखभाल, उसके खाने-पीने का पर्याप्त ध्यान दिया जाता। समय अपनी तेजी से गुजरता हुआ वह निश्चित दिन ले आया जिस घड़ी का उन दोनों को बेसब्री से इंतजार था। नर्सिंग होम की इमारत से बेटे के रूप में खुशियाँ डॉक्टर की देख-रेख में उनके घर आने वाली थीं।
नर्स की बधाई में रामनरेश, उसकी माँ और दोनों बेटियों को बच्चे की किलकारी सुनाई दी। पार्वती ने सुकून की साँस लेकर आँख बंद कर ली। नर्स और बाकी सहायिकायें जच्चा-बच्चा की सफाई में लग गये। बच्चे को, पार्वती को वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया। डॉक्टर की अनुमति के बाद रामनरेश परिवार सहित खुशी-खुशी बच्चे को देखने पहुँचा। पार्वती और बच्चे को घेरे खड़ी नर्सों को उसने उपहार स्वरूप सौ-सौ रुपये दिये। खुशी उसके चेहरे से टपक रही थी पर पार्वती का चेहरा एकदम सपाट, गुमसुम सा था। पार्वती के माथे पर हाथ रखकर उसने पूछा, “का हुआ, ठीक नईं लग रओ का?”
“लड़की भई है” कहते हुए पार्वती का गला भर्रा उठा।
रामनरेश को जैसे झटका सा लगा। वह हतप्रभ सा एकदम सीधा खड़ा होकर टकटकी लगा कर कभी पार्वती के बगल में लेटी बच्ची को देखता तो कभी पास खड़ी डॉक्टर को देखता। वह अभी कुछ कहता उससे पहले उसकी मनोदशा समझकर डॉक्टर ने मशीनी जाँच की मजबूरी बताते हुये उसे दिलासा दी।
“कभी-कभी किसी मामले में मशीन की जाँच से ऐसी गलती हो जाती है। पर लड़का हो या लड़की, है तो तुम्हारा ही और जच्चा-बच्चा दोनों एकदम स्वस्थ हैं।” अन्तिम वाक्य को डॉक्टर साहिबा ने स्फूर्ति का रंग भरते हुये कहा।
उनको रामनरेश की मानसिक स्थिति समझ आ रही थी। अवाक खड़ा रामनरेश बच्ची को ही देखे जा रहा था। डॉक्टर ने इधर-उधर की बातें करके उसको सामान्य स्थिति में लाने का प्रयास किया। धीरे-धीरे रामनरेश कुछ सहज होने लगा पर अभी भी वह कभी बच्ची को देखता कभी इधर-उधर झाँकने लगता।
डॉक्टर ने धीमे से पूछा “यदि जाँच की गलती न होती और उसी समय लड़की का पता चल जाता तो तुम क्या करते?”
“शायद गिरबा देते?” रामनरेश इतना ही बोल सका।
“यदि तुम इसे खतम कर देते तो” कुछ रुक कर डॉक्टर ने रामनरेश के कंधों पर अपना हाथ रखा और हिचकते हुये कहा “मेरे एक परिचित को कोई संतान नहीं है, यदि यदि तुम चाहो तो इसको उन्हें दे दो।” डॉक्टर के स्वर में भीगापन सा था।
ऐसा सुनकर रामनरेश ने एक पल को डॉक्टर को देखा, एक निगाह बच्ची की ओर डाली और फिर लपक कर बच्ची को उठाकर सीने से लगा लिया – “नईं, जा हमाई बिटिया है, जाये न तो मारहैं और न काऊ को दैहें, जाये हमईं पालहैं, हमईं पालहैं।”
आँखों से बहते आँसू और बच्ची को दुलारते रामनरेश की इस प्रतिक्रिया पर सब चौंक गये। पार्वती की खोई रंगत लौट आई थी। खुशी की लहर उसके चेहरे पर दौड़ गई, लगा कि प्रसव पीड़ा की तकलीफ उसे इस समय बिल्कुल भी नहीं है।