धुआँ / गजेन्द्र रावत

Gadya Kosh से
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“Charity debases the donor and debauches the recipient ” — Dr. Norman Bethune

यहाँ चारों तरफ देखकर तो लगता था मानों ये पूरी की पूरी दुनिया यूँ ही ठूँस-ठूँस कर भरी हो। बेशुमार भीड़ से लक़दक़ सड़कें, दुकानें और यहाँ तक कि फुटपाथ भी चलते-फिरते इनसानी यंत्रों से पटे पड़े थे। भीड़-भड़क्के से उठती आपसी चिल्लपों, रिक्शों, तिपहियों और कारों की घर्र-घर्र यहाँ की धुन्धारी हवा में इस कदर घुली थी, मानों कभी शान्त ही न होती हो, बस ऐसे जैसे यहीं ज़िन्दगी बनकर रह गई हो। आस-पास के क़स्बों, शहरों से आए अराजक और असंवेदन कामगारों के रेले फुटपाथ के किनारों पर भूख, नशे की टूटन, ठण्ड से अकड़े दम तोड़ते भिखमंगों और नशेड़ियों को रोज़-ब-रोज़ देखने के आदि हो चुके थे। वे वक्त बर्बाद किए बगैर उसी चाल से बिना परवाह किए आगे बढ़ते जाते, अपने-अपने धंधों के बारे में सोचते और तंग कटरों की भूल-भुलैया में गायब हो जाते।

वैसे तो इस दुनियाँ में कोई भी अमर नहीं हुआ फिर भी जितनी भी जिंदगी है, मांग-तांग कर फुटपाथ के सहारे ही कट रही थी। यहीं सोना-बैठना, खाना-पीना मानों जिंदगी हर पल दांव पर लगी हो। भविष्य नाम की कोई चिड़िया यहाँ नहीं होती, जो भी है यही घिनौना वर्तमान। बस दिल की धड़कनें और साँसों का सिलसिला किसी तरह कायम रहे यही चुनौती है......जद्दो-जहद है। दिसम्बर की ठिठुरती ठंड में रातभर खुले आकाश के नीचे काट देना बड़े जीवट की बात थी।......वे सुबह-सुबह ही अपने कँपकँपाते बदन धूप में सेंकते और जरा-सी ऊर्जा पाते ही फिर नशे की खोज में जुट जाते। दिनभर मंदिरों-मस्जिदों और गुरुद्वारों के बाहर जगह पक्की कर लेते और आने-जाने वालों के आगे हाथ पसार कर कुछ न कुछ अंटी में जोड़ लेते। वे अंधेरे तक का इंतज़ार भी न कर पाते, इकट्ठे पैसों से चरस-गांजे या मिल जाए तो स्मैक के दम लगाकर आस-पास ही पड़े अपने गुदडों में घुस जाते और हो जाते एकदम बेसुध ! रात भर के पाले से सुबह गूदड़ गीले मिलते और उनके बदन ठंड से अकड़े !.........फिर शुरू हो जाती नशे की ढूंढ ! ऐसे ही चल रही थी कीड़े-मकोड़ों-सी जिंदगी। यही रिरियाती दिनचर्या, उनका रोज़ का अभ्यास थी।.........कालांतर में इनसान ने कुदरत से लम्बी लड़ाई के बूते पर क्या-क्या हासिल कर लिया था उसकी उन्हें भनक तक नहीं थी। वे या तो नशे में धुत्त रहते या नशा पाने की उल्टी-सीधी जुगत भिड़ाते रहते दुनिया के और किसी भी कारोबार से उन्हें कोई मतलब नहीं था। रोटी के दो टुकड़े मंदिर की दहलीज़ से जुट जाते। मान-अपमान जैसे लफ्जों का यहाँ कोई काम नहीं था। भद्दी-अश्लील गालियां यहाँ के लोगों की जुबान पर रेंगती रहती। ......बस ऐसे ही चल रहा था जीवन !

सड़क पर ट्रैफिक रेंग रहा था। फुटपाथ तक फैला गौरी-शंकर मंदिर और दुकानों की पंक्ति के बीच सीमेंट का थड़ा जमीन के स्तर से ऊंचा बना हुआ था। इस जगह को लम्बे अभ्यास ने भिखारियों और साधुओं की मुफ्त खाना बांटने की जगह में तब्दील कर दिया था। हर वक्त खाना बंटने की आस में कुछ लोग वहाँ मँडराते रहते। अभी भी दस-पंद्रह लोग सामने की ऊबड़-खाबड़ रात के पाले से गीली जमीन पर पंजों के बल उकड़ू बैठे थे। ये दिसंबर के आखिरी दिन थे। एक ठिठुरती-काँपती सुबह ! मंदिर के पूर्व में लालकिले की दीवारें, बुर्जीयां और तिरंगा कोहरे की घनी चादर में अदृश्य हो गया था मानों उन सभी ने वहाँ उकड़ू बैठे ठंड से अकड़ते-सिकुडते लोगों की तरफ से आंखे फेर ली हों और उन्हें अपने ही भाग्य के सहारे मर-खप जाने को छोड़ दिया हो। वे मैले-कुचैले चिथड़ों में लिपटे रात के नशे की खुमारी में ऊंघ रहे थे। उनके चेहरे गंदगी-मैल के काले धब्बों से चीकट थे। गालों और ठुड्डियों पर मधुमक्खी के छत्ते-सी दाढ़ी चिपकी हुई थी। सिर के बाल मैल से लिबड़े गुच्छे-से बन गए थे जो जुओं और खटमलों के स्थाई बसेरों में बदल चुके थे। उनके आस-पास से एक तीखी दुर्गंध उठ रही थी। होठों और आँखों पर मक्खियाँ भिनभिना रही थी जिसे वे कभी-कभी हाथ हिलाकर उड़ाते थे। वे बूढ़े, जवान तथा कम उम्र के भी थे। मंदिर के घंटे की ध्वनि से उनकी आँख खुलती और वे सीमेंट के ऊंचे उठे थड़े की ओर उम्मीद से देखने लग पड़ते।

“ अभी तक कोई नहीं आया ? बड़ी देर हो गई है न ! ” दोनों हाथों को मुट्ठी-सा बांधे ऊपर देखता हुआ आगे-आगे बैठा बूढ़ा फुसफुसाया।

“ देखो ! पता नहीं क्या हो गया है ? ” बूढ़े के साथ ही सटा पतला-सा आदमी जो एक बैसाखी घुटनों के बीच दबाये बैठा था, कान में लगे बीड़ी के टुकड़े को निकालकर नीचा सिर करके सुलगाते हुए बोला, “ वैसे तो आ ही जाता है कोई न कोई, पर ठंड देख रहे हो न, स्साले दुबके होंगे रजाइयों में........”

“ आज किसी के यहाँ कोई नहीं मरा क्या ?.......जब साले जरुरत होती है तो कोई भी अपनी माँ......” बूढ़े की भंवें तनी थी पर थोड़ी देर में वो हाथों से भीतर ही भीतर मैले कपड़ों में बीड़ी ढूँढ़ने लगा। बीड़ी न मिलने पर दोनों हाथों को बाहर निकालते हुए बोला, “ बीड़ी है क्या ? शायद कहीं गिर गई। ”

बैसाखी वाला कमजोर आदमी अपनी जेबें तलाशने लगा फिर मुंह बनाकर सिर हिलाकर धीमे से बोला, “ ये टुकड़ा है.......”

“ ला दे,.......बड़ी तलब उठ रही है......” बूढ़े ने उसके हाथ से बीड़ी का टुकड़ा लेकर सुलगा लिया और लम्बे-लम्बे कश खींचने लगा। कुछ देर कश खींचने और छोड़ने की आवाजें आती रही,......बीड़ी के अंतिम हिस्से को उँगलियों के बीच ही मसलकर वो बोला, “ आज तो स्सालों ने हद कर दी.......कितना हेर-फेर करते है पर दो टुकड़े डालने में इनकी.....” वो भद्दी गाली देते-देते ठहर गया लेकिन फिर बोला, “ मैं तो कहता हूँ पैसे ही दे दिया करें सीधे-सीधे ! क्या जरुरत है इतना ड्रामा करने की !”

लंगड़ा भी बीड़ी को अंतिम सिरे तक चूसने पर आमादा था। थोड़ी ही दूरी पर आवारा कुत्ते भी डेरा डाले हुए थे। उसी तरह की बेचैनी उनके बीच भी बढ़ रही थी।.......वे भी रोज़ के अभ्यस्त थे, उनका भी समय निश्चित था।

घंटा बीत गया। लम्बे इंतज़ार से नशे के साथ-साथ धैर्य भी टूटने लगा। दबी-दबी कानाफूसी बढ्ने लगी। नशा टूटने, भूख, झल्लाहट और अनिश्चितता का तनाव उनके मैले चेहरों पर तैरने लगा। बूढ़े के पास बैसाखी वाला आदमी उद्दिग्नता में बड़बड़ाते हुए उठ खड़ा हुआ, “ मैं तो रात का भी भूखा हूँ.....एक साले के बहकावे में आकर जमुना-बाज़ार चला गया था........”

बूढ़े ने उसकी बात काटते हुए कहा, “ जमुना-बाज़ार ? ” और ऊपर उसके चेहरे की तरफ देखा।

लंगड़ा गुस्से में बोलता रहा, “......हाँ, हाँ हनुमान मंदिर......कुछ भी नहीं है वहाँ.......जो आता है स्साला दो बूंदी रख देता है हाथ में !.......लेकिन कुछ न सही, एक पूरी भरी सिगरेट हाथ लग गई थी.......मजा आ गया।.......तू बैठ मैं बीड़ियों का इंतजाम करता हूँ........हुड़क लग रही है। ” वो बैसाखी टेकता, लम्बे डग भरता हुआ ओझल हो गया।

उसे लम्बे-लम्बे डग भरते देख बूढ़े ने सोचा......साला लंगड़ा भी है या.......यूं ही बैसाखी लिए रहता है........

सड़क का ट्रैफिक अराजक होता जा रहा था। सूरज की किरणें सीधी नहीं बल्कि एकसार से आलोक-सी फैल रही थी। कुछ दूर की चलती-फिरती गाड़ियों को नज़रें देख पा रही थी।......शोर-शराबा भी दिन चढ़ने के अनुपात में बढ़ता चला जा रहा था। लेकिन ठंड में किसी तरह की कमी नहीं आई थी। अभी भी फुटपाथ पर ठिठुरते लोग जेबों में हाथ ठूँसे धीमी गति से चल रहे थे।

मंदिर के बाहर सड़क पर रिक्शे वालों की लम्बी कतार लग गई थी। वे बैठे-बैठे कभी आने-जाने वालों को देखकर ‘ फतेहपुरी ’ की आवाज़ दे देते। इतनी भीड़ के बावजूद रिक्शों पर बैठने वाली सवारियाँ नहीं थी।

इधर दूसरा घंटा बीत गया था। अब भीड़ बढ़ चली थी और हल्की फुसफुसाहट भददी पंक्तियों में तबदील हो रही थी। गंदी-अश्लील गालियां उनकी साधारण बोल-चाल में शुमार थी।.......आक्रोश बढ़ता जा रहा था और हर मुंह से उगली गई गंदी शब्दावली वहाँ की हवा में घुल-मिल गई थी।......स्साले सेठों की.......? भूख और अनिश्चितता की मजबूत होती जकड़न का सीधा असर उनके व्यवहार में सरेआम आ चुका था।

“ ये कोई पुण्य हुआ ?.........भीख-सी देते हैं स्साले कुत्ते ! ” भिखारियों की भीड़ से एक नौजवान आक्रोश में उठ खड़ा हुआ, “ प्रसाद.......घंटा प्रसाद ! ” उसने हाथ से बुरा इशारा किया और भीड़ को काट बाहर निकलते हुए ठंडी राख के ढेर पर गुस्से में लात मारता हुआ थोड़ी दूरी पर खड़ा हो गया। “ तुम सब साले भिखमंगे हो !........वो गुस्से में बड़बड़ाता हुआ तेज कदमों से सड़क की भीड़ में मिल गया। जमीन पर पड़ी राख बूट लगने से थोड़ी देर तक उड़ती रही मानों उस नौजवान की खोज ‘ तुम साले सब भिखमंगे हो ! ’ वहाँ पंजों के बल बैठे लोगों को लताड़ रही हो, उन्हें भिखारी होने के लिजलिजे अहसास से से अवगत करा रहा हो जो उनके भीतर न जाने कब का मर चुका था।

“ नया था कोई ? पहले देखा नहीं ? ” चले गए नौजवान के साथ बैठे, मैला-सा कंबल ओढ़े व्यक्ति ने हैरानी से कहा।

“ अरे ! बिजली मार्किट में झल्ली ढोता है.......मैंने देखा है ! ” वहीं बैठे एक और आदमी ने लापरवाही से सिर हिलाकर कहा।

“बड़ी अकड़ है.......साले ढोता रह झल्ली जिंदगी भर ! ” बीड़ी की तलब से खीजते हुए बूढ़ा बोला, “ अबे हम कोई उनके घर जाते हैं, फटती को देते हैं लाला भी ! ”

बूढ़े के साथ का लंगड़ा आदमी बीड़ी का इंतजाम कर चुका था। वो बूढ़े के पास आकर फिर उसी तरह बैठ गया, “लो खींचो बीड़ी।” वो सुलगी बीड़ी बूढ़े को देता हुआ बोला, “ किसे कोसे जा रहे हो ?”

“ अभी-अभी एक लौंडा ऐसे अकड़कर चला गया जैसे उसके बाप ने कहीं दूसरी जगह लंगर लगा रखा हो ! ..... हरामी-साला ! मूड खराब कर गया ! ” बीड़ी के दो-तीन लंबे कश खींचकर बूढ़ा लँगड़े आदमी के कान से मुंह सटाकर बोला, “दम लगाने......है कहीं.....”

“ विष्णु के पास है, मैंने तो वहीं मार लिये........पैसे हैं क्या तेरे पास ?” लंगड़ा बूढ़े की तरफ देखते हुए बोला।

“ एक नोट है – पचास का !”

“ कहाँ से मारा ? ”

“ कल एक आदमी फंस गया, मस्जिद के बाहर......नमाज पढ़कर निकल रहा था मैंने......” बूढ़ा आदमी उलझी दाढ़ी में उँगलियाँ डालकर बालों को सीधा कर रहा था अचानक उठ खड़ा हुआ और बोला, “ कहाँ है विष्णु ? ”

लँगड़े ने सिर उठाकर इशारा किया, “ दीवार के पीछे.....मैं भी चलूँ क्या ? ”

“ नहीं, नहीं तू क्या करेगा......मेरे को ही पूरा नहीं पड़ेगा। ” बूढ़ा मानों ऊर्जा से भरा हो, जल्दी ही दीवार की तरफ लपका।.......विष्णु ! है तो साला कंजर का बीज !......देखते हैं, ज्यादा चीं-चपड़ करेगा तो पैसा मारूँगा साले के मुंह पर.......बूढ़ा सोचता-सोचता दीवार के पीछे गायब हो गया।

रघु अभी-अभी फतेह पुरी की सवारी छोडकर लौटा था और जाड़े के कारण रिक्शे की पिछली सीट पर दोहरा हुआ बैठा था। चलती-फिरती सड़क पर ठंड से बचाव का यही एक कारगर तरीका था। वो कभी-कभी कनखियों से भिखारियों की भीड़ में उठती बेचैनी को भाँप लेता।

“ मामा कहीं नहीं दिखाई दे रहा ? कहाँ मर गया है !........कहीं दुबक कर खींच रहा होगा दम ! रघु सोचता रहा।

" क्या से क्या हो गया है... ये मामा !" वो धीरे से फुसफुसाया और माथा हथेली से दबाते हुए समय की दबी परतों में गुम हो गया......माँ फूली नहीं समा रही थी, उसके पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। अड़ोस ले- पड़ोस ले, बस यही बात......” फोन आया था रघु के मामा का। पूछ रहे थे कितना बड़ा हो गया है रघु ? मैंने बताया अच्छा लंबा खिंच गया है। अपने पिता पर गया है। वैसे तो सतरह साल पूरे हुए है......अठारहवाँ चल रहा है।.......बुला रहे हैं भैया रघु को........दिल्ली ! “ वो कहती जाती थी बगैर किसी की प्रतिक्रिया देखे। सुनने वालों के लिये सामान्य बात थी लेकिन माँ के लिये कितनी विशेष। वो क्या कर दे उसकी समझ में नहीं आ रहा था। वो उसी दिन से रघु को दिल्ली रवाना करने की तैयारियां करने लगी। रात-दिन, सोते बैठते बस यही उसकी जुबान पर रहता..... “ बेटा मामा का ध्यान रखना। खुद भी संभल कर रहना, शहर में सभी तरह के लोग होते हैं........”

रघु माँ से पूछ बैठा था, “ माँ तू तो ऐसे कह रही है जैसे तू दिल्ली रह कर आई हो ! ”

“ फिर भी बेटे दुनियाँ तो हमने तुमसे ज्यादा देखी है........यहाँ शहर तो गई हूँ मैं !........ये सब छोड़ !......खूब मेहनत करना, हमारे दिन बदल जायेंगे बेटे ! ” माँ ने काम छोडकर रघु के सामने आकर कहा था।

“............फतेह पुरी चलना है ? ” एक कोमल मधुर स्वर ने रघु की निरंतरता को तोड़ा। सिर हिलाकर उसने इधर-उधर देखा – आगे-पीछे कोई भी रिक्शे वाला नहीं था।

“ जी, जी। वो उचककर रिक्शे की अगली गद्दी पर बैठ गया। मधुर आवाज़ वाली लड़की भी रिक्शे पर बैठ गई। थोड़ी ही देर में रिक्शा भीड़ भरी सड़क पर रेंगने लगा।

बूढ़ा कमर झुकाये मार्किट के दुबके हिस्से में पहुँच गया। ये पब्लिक पेशाबघर का पिछला हिस्सा था। दीवारों के साथ सटे नसेड़ी नीचा सिर किये, आँखें मूँदे पन्नी से ऊपर उठते धूएँ के गुच्छों को भीतर फेंफड़ों में समेट रहे थे। यहाँ की हवा में मादक धुएँ और पेशाब की गंध दीवारों के बीच घुटी हुई थी। यहाँ से गुजरने वाले घिन्न के मारे नाक-भौं सिकोड़ लेते थे। दीवार के दूसरे कोने में कुछ लोग सिगरेट भरे बैठे थे। बूढ़ा उन लोगों से सटकर बैठ गया फिर हाथ के इशारे से कश मांगने लगा।

वे चारों बूढ़े को देखते रहे। उन्हीं में बैठा लंबे कद का जुल्फी अपनी लम्बी-लम्बी मैल से गुथी लटों में उँगलियाँ फँसाते हुए बोला, “ जब तेरे पास सामान होता है, तो साले अकेले-अकेले घटक जाता है......तब तुझे अपने बाप का खयाल नहीं ......आता। ”

बूढ़े की आँखें रात नींद न आने की वजह से बंद हुई जा रही थी, वो नीचे सिर करके धीमे से बोला, “ बदन टूट रहा है.....एक कश ! ”

“ चल बीस रुपये दे ! ” जुल्फी सिगरेट दूसरे को देते हुए बोला, “ निकाल-निकाल.....”

“ दे दूँगा, अभी हैं नहीं। ” बूढ़े ने सोचा, अगर पचास का नोट दिया तो ये वापस थोड़े ही देगा।

“ अबे भीख से कब तक जुड़ेंगे, ऐसा कर झपटमारी शुरू कर दे....। पर रहने दे तेरे से भागा भी तो नहीं जाएगा। ” जुल्फी ने अपने नम्बर पर फिर सिगरेट थाम ली।

जुल्फी की इस बात पर वे सभी हँसे। जुल्फी ने एक लंबा कश खींचा और आकाश की ओर देर तक दूधिया धुआँ छोड़ता रहा फिर सिगरेट के अंतिम टुकड़े को बूढ़े की ओर बढ़ाता हुआ बोला, “ ढंग से रहा कर !....... नहीं तो किसी दिन नाले में धक्का दे दूँगा.......स्साले बुड्ढे ! ”

बूढ़ा सिगरेट के अंतिम हिस्से को उँगलियाँ और होंठ जल जाने तक चूसता रहा। देर तक वे सभी दीवार से सटे ऊँघते-से रहे, बस, जुल्फी वहाँ नहीं टिका, वो उस दुबकी जगह से बाहर हवा में आ गया।

रघु ने रिक्शा पहले की तरह ठीक उसी जगह पर खड़ा कर दिया और वैसे ही पीछे की ओर उछलकर सवारी सीट पर चुपचाप बैठ गया। स्वभावत: उसकी आँखें मंदिर के बाहर मुफ्त के खाने का इंतज़ार कर रही भीड़ में मामा को ढूँढने लगी। वैसे तो वो स्थिर बैठा था मगर उसकी पुतलियाँ तेजी से भिखारियों की भीड़ पर घूम रही थी। वो एक-एक चेहरे को गौर से देखता रहा,,,,,,,,प्रत्येक चेहरा मजलूमियत और मौका-परस्ती की अजीबो-गरीब तस्वीर था। मामा को कहीं न पाकर उसने सिर नीचा कर लिया और गुम-सुम-सा बन गया।........अचानक ही उसे याद आया कि कल रात मामा उससे पचास रुपये मांगकर ले गया था। कितनी कसमें खाई थी, नशा न करने की !......ओ हो ! हैं तो सही अंटी में रुपये !.......पड़ा होगा कहीं धुत्त !.......कैसा था मामा, और कैसा हो गया।

पहले रात-दिन बस कमाना, कमाना !कैसे-कैसे जुगत भिड़ाता.....ब्याज पे पैसे, दो-दो रिक्शे डाल लिए किराये पे ! सब्र नहीं था मामा को ! हर वक्त निन्यानवे के सौ ! इसी चक्कर में पड़ा था जुए में......फिर जीत, हार....... बरबादी ! घर-बार, रिक्शे सब यूं ही चले गये ! बची-कुची कसर नशे ने पूरी कर दी। वो सोचता रहा फिर धीरे से फुसफुसाया, “ उधार कौन लौटाता है ! सबको पता है नशेड़ी है ! ” उसने अपने चारों तरफ देखा, इस डर से कि किसी ने उसकी आवाज़ तो नहीं सुन ली, लेकिन सड़क की रेलमपेल और दौड़ती-भागती भीड़-भाड़ उसी तरह दुनियादारी में फंसी थी, उन्हें किसी की फुसफुसाहट से कोई सरोकार ही नहीं था।

मंदिर के बाहर का दृश्य बदला हुआ था। भिखारियों की भीड़ में खलबली मच गई थी। वहाँ रुकी एक गाड़ी से बाल्टियों और टोकरियों में खाना उतरने लगा। गाड़ी से पहले सफ़ेद कपड़ों में एक भारी आदमी उतरा फिर दो लड़के उतरकर डिग्गी की तरफ आ खड़े हुए। गहनों से लदी तीन औरतें गाड़ी से निकलकर सफ़ेद कपड़ों वाले आदमी के पास आ खड़ी हुई।

बाल्टियों और टोकरियों को सीमेंट के थड़े तक पहुंचाने में जुल्फी आगे बढ़कर मदद करने लगा। खाना थड़े पर रखा गया तो जुल्फी अपनी लटों को झटके से पीछे फेंकते हुए बोला, “ सेठ जी मैं बाँट देता हूँ, ये आपके काबू नहीं आएंगे।"

“ ये क्या कह रहा है ? अपने हाथों से बांटेंगे हम। फायदा तो तभी होता है।........वाह यार ये क्या बात कर दी ? ” सेठ चकित होकर बोल रहा था।

“ बड़ा मुश्किल है.......ये बड़े हरामजादे हैं !........सेठजी ! ”

“ चल चल रहने दे.......हम देख लेंगे। ”

जुल्फी कुछ निराश हो गया फिर भी धीमी आवाज़ में बोला, “ साहब आपके सफ़ेद-चिट्टे कपड़े गंदे हो जाएंगे.......बास आती है उनमें......”

“ वो मैं देख लूँगा......तू चिंता मत कर। ” सेठ बड़ी ही लापरवाही से बोला।

सेठ के साथ की औरतें जो मंदिर के भीतर चली गई थी, अब बाहर लौट आई। उन्हें देखकर सेठ बोला, “ छोटी बहू, तू एक बार हाथ लगा दे फिर हम बाँट लेंगे।”

भीड़ में धक्का-मुक्की शुरू हो गई थी। अभी खाना बंटना भी शुरू नहीं हुआ था कि पीछे से आए धक्के से दस-बारह लोग एक-दूसरे के ऊपर गिर गए। वे पीछे वालों को गालियां देते हुए फिर उठ खड़े हुए। पीछे से आ रहा धक्का अभी-भी आड़ी-तिरछी पंक्ति को हिला रहा था।

छोटी बहू ने एक दोने में सब्जी भरी और पहले भिखारी को थमाकर नाक पर रुमाल रखते हुए तेजी से अपने साथ की औरतों के पास चली गई।

वे दोनों लड़के पत्ते के दोनों में सब्जी डालने लगे। लाला अपने हाथों से सब्जी के भरे दोनों के साथ चार पूरियाँ बारी-बारी एक-एक को पकड़ाने लगे। पीछे के लोग अधीर हो रहे थे। अभी चार-पाँच को ही बांटा होगा कि भीड़ का सब्र टूट गया। अब पंक्ति नाम की कोई चीज़ नहीं रही। अब एक साथ कई हाथ सेठ के मुंह के आगे फैले थे। इसी ऊहा-पोह में न जाने किसका हाथ लगा और सब्जी भरा दोना सेठ के ऊपर गिर गया।

सफ़ेद कपड़े सामने से पीले हल्दी रंगे हो गए। गुस्से से सेठ का पारा सातवें आसमान पे चढ़ गया। सेठ खाली दोनों को एक तरफ पटककर सामने पड़ने वाले भिखारियों पर लात- घूंसे बरसाने लगे। उसके साथ के दोनों लड़के भी हाथ का काम छोडकर उन पर टूट पड़े।

थोड़ी देर में अंधाधुंध हाथ-पाँव चलने से लाला थक गया, पीछे होकर कुरता झाड़ने लगा। साथ आई औरतों को वहीं खड़ा देख वो झल्लाकर बोला, “तुम यहाँ कहाँ खड़ी हो.....जाओ गाड़ी में बैठ जाओ.......ये गंदे हैं स्साले ! ” फिर हाँफते हुए जुल्फी को हाथ के इशारे से बुलाते हुए बोला, “यहाँ आ बे, सँभाल इन्हें ! ”

“ मैं तो पहले ही कह रहा था.......”

“ ठीक है.......चल अब.........” खीजकर सेठ बोला।

“ सेठजी दस लोगों का खाना लूँगा ! जुल्फी ने परिस्थिति अपने पक्ष में पाकर शर्त रख दी।

“ अब तू भी.........हाँ तू भी तो इनमें से ही है, चल कोई नहीं ! बाँट स्साले कुत्तों में.........” सेठ अभी भी आगे के कपड़ों को हाथ से झाडे जा रहा था और कुछ भद्दी गालियां उसके होठों पर बुलबुलों-सी उठ रही थी। अचानक ही उसका ध्यान अपने साथ के दोनों लड़कों पर गया वे अभी-भी भिखारियों को लात-घूंसों से पीट रहे थे। “ इधर आ जाओ रे तुम........बदबू नहीं आ रही तुम्हें ? चलो हटो। ”

वे लड़के हट गये। जुल्फी ने कमान संभाल ली। अभी हफ्ते भर पहले ही झपट-मारी के केस में वो पब्लिक द्वारा घिर गया था। बहुत पिटाई हुई थी। बस, किसी तरह जान बच गई। हर हड्डी में दर्द था लेकिन यहाँ इस बात का पता न चले वो पहले-सा ऊर्जावान बना रहा। वो न जाने कहाँ से एक लचीली संटी ले आया और तेजी से आगे से पीछे तक भीड़ की टांगों में अंधाधुंध मारता चला जाता और तेज़ आवाज़ में बोलता जा रहा था, “ सीधी कर ले लाइन......चलो कुत्तो.....थड़े से चार फुट दूर......हट हट...फिर तू आगे आया......स्साले......बिना पिटे नहीं मानेगा......”

वे जिल्लत बर्दाश्त किए जा रहे थे, हाँ खुन्नस में मन ही मन जुल्फी को कितनी गालियां दे रहे थे इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल था। जुल्फी के अपनाए तरीके से भीड़ काबू आ गई। उसकी लाल आँखें और हाथ में संटी देखकर वे बाध्य हो गये पंक्तिबद्ध होने के लिए।

सेठ और साथ के दोनों लड़के अब चुपचाप मंदिर की सीढ़ियों पर खड़े थे। औरतें मंदिर से थोड़ी आगे खड़ी गाड़ी में बैठी हुई थी।

जुल्फी और उसका साथी हाथों से खाना और मुंह भर कर अश्लील-गंदी गालियां बाँट रहे थे। भिखारियों की चिल्लाहट से उठते शोर से यूं लगता था मानों सूअरों के बाड़े में आ गये हों।

वहाँ, रिक्शे पर बैठे-बैठे रघु की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। वो सामने घटने वाली हर छोटी बड़ी हरकत पर नज़र रखे हुए था। मामा के न दिखाई देने से उसकी उद्दिग्नता चरम सीमा पर पहुँच गई। उससे बैठा न रहा गया, “ ध्यान रखना जरा, अभी आता हूँ.........”

वो कुछ कदम चलकर रुक गया और खड़े होकर कुछ देर खाना बँटता देखता रहा फिर आगे बढ़ गया। मंदिर के पीछे की दो सीढ़ियाँ उतरकर पब्लिक टायलेट की पिछली दीवार तक पहुँच गया। उसके कदम अचानक रुक गये ! वहाँ सिगरेट की पन्नी पर तीन सिर झुके हुए थे। वे जल्दी-जल्दी एक दूसरे से प्रतियोगिता-सी करते हुए धुएँ को भीतर खींच रहे थे। उनमें से एक मामा था जिसकी रज़ाई उसके पीछे गूदड़-सी पड़ी हुई थी। पास ही एक अन्य व्यक्ति दीवार से सिर टिकाए ऊंघ रहा था।

छोटा-सा वो कोना बदबू और नशीले धुएँ से घुटा हुआ था रघु को मितली-सी होने लगी, उसे लगा वो चक्कर खाकर गिर पड़ेगा। मगर रघु दीवार के सहारे से खड़ा बिना हिले-डुले उन तीनों को देखता रहा। पचास रुपये लेते समय मामा ने उसके सिर पर हाथ रखकर कसम खाई थी।.......यही याद कर उसकी आँखें नम हो गई....... वो बिना कुछ कहे भारी कदमों से लौट आया।

उस समय भी रघु कमरे में ही था। उसके दोनों रूम पार्टनर काम पर निकल गए थे। रघु कमरे की एक-एक चीज़ को सलीके से लगा रहा था। पता नहीं उससे अव्यवस्थित कमरा नहीं देखा जाता था। उसे सब कुछ करीने से लगा होना चाहिये, चाहे कितनी मेहनत करनी पड़े। उसने दोनों चारपाइयाँ उठाकर कमरे के बाहर खड़ी कर दी और नीचे फैले बर्तनों को दीवार में बनी अलमारी में रख दिये। वो नीचे बिस्तर बिछाकर चादर ठीक कर रहा था कि अचानक मोबाइल बज उठा। वो जल्दी से मोबाइल की तरफ झुक गया और फुसफुसाया, “ अरे माँ !.....मैं करता हूँ । ” वो वहीं बिस्तर पर बैठ गया।

थोड़ी देर मोबाइल के बटन दबाता रहा फिर कान से लगाकर बोला, “ हाँ माँ ? ”

“ तू कहाँ है ? ” उद्दिग्न-सी माँ बोली।

“ अभी तो कमरे में ही हूँ........बस निकलने वाला था.....”

“बेटे, मिला मामा ? ”

“ माँ, तीन दिन से लगातार ढूंढ रहा हूँ.......हनुमान मंदिर, कोडिया पुल..... कहाँ-कहाँ नहीं गया.....पता नहीं कहाँ चला गया.....”

माँ के रोने का स्वर सुनाई देने लगा।

“ माँ रो नहीं.....मैं ढूंढ के ही दम लूँगा.....बस ढूंढ ही रहा हूँ। ” रघु बनावटी उत्साह से बोला।

“ देख बेटा !......पहले कैसा हुआ करता था तेरा मामा !......तेरी भी कितनी मदद की थी.......हाय राम ! कैसे पड़ गया नशे में समझ में नहीं आता ?” कुछ सिसकियाँ सुनाई देती रही। उन पर नियंत्रण कर माँ फिर बोली, “.........तेरे सिवाय उसका सगा है कौन ?........तू ही करेगा.....”अवरुद्ध गले से धीमा रुदन सुनाई दे रहा था।

“ माँ, माँ.....क्या कर रही है ? मिल जाएगा मामा। मैं तुझे फोन करूंगा ........ठीक है माँ....रखता हूँ........”

फोन कट गया लेकिन माँ की सिसकियाँ अभी भी रघु के कानों में गूंज रही थी। वो कुछ देर दरवाजे पर निश्चल खड़ा रहा फिर ताला लगाकर रिक्शे को घसीटते हुए वहाँ से निकल लिया।

सवारियाँ लेने की पंक्ति में न लगाकर उसने रिक्शा किनारे पर खड़ा कर दिया और उतरकर मंदिर के सामने आ खड़ा हुआ। वहाँ रोज़ की तरह भिखारियों की भीड़ थी। वो उनके चेहरे पहचानने लगा। उनमे मामा नहीं था।

भीड़ से अलग कुछ दूरी पर जुल्फी दो लोगों के साथ राख के ढेर को घेरे बैठा था। राख़ में शायद कुछ गर्मी शेष थी। वे तीनों हाथ सेंकते प्रतीत हो रहे थे। रघु उन्हीं के पास खड़ा हो गया। कुछ देर तक चुपचाप खड़ा रहा फिर धीरे से बोला, “ भाई तूने मामा को देखा है ? ”

“ कौन मामा ?.......वो बूढ़ा ! ” जुल्फी रघु की तरफ देखकर बोला।

रघु ने सिर हिलाकर हांमी भरी।

“ चल मैं दिखाता हूँ तुझे !.......दम लगा रहा है......” जुल्फी ने रघु के कंधे पर हाथ रखा और मंदिर के पीछे दो सीढ़ियाँ उतर गया। जुल्फी के साथी भी पीछे-पीछे चल रहे थे।

वहाँ सचमुच ही मामा कुछ लोगों के साथ बैठा काश खींच रहा था। भरी सिगरेट बड़े ही नियम से उन सभी के बीच बारी-बारी घूम रही थी। धुएँ की कसैली गंध वहाँ ठहरी हुई थी।

“ मामा ! ” रघु के मुंह से अचानक निकला। मामा ने नज़रें उठाकर उन तीनों की ओर देखा, रघु को सामने देख थोड़ा सकपकाया फिर संभलकर बोला, “ बस.....आखिरी ! ”

“ मामा ? ”

“ कह तो दिया.....”

“ तुमसे बात करनी है......”

“ ठीक है तू जा, कमरे में आऊँगा.....तू जा, यहाँ से निकाल ले। ” मामा बोला। सिगरेट चक्कर लगाकर फिर मामा तक पहुँच गई, उसने दो लंबे कश मारे और सिगरेट आगे बढ़ा दी।

ये सब देखकर रघु की आँखों के सामने अंधेरा छा गया। वो थोड़ी देर के लिए मामा के भविष्य की कल्पना कर थर्रा गया। देखते ही देखते उसकी आँखें आंसुओं से भर गई, वो रुँधे गले बोला, “ आना जरूर !......मैं इंतजार करूंगा। “ इतना कहते- कहते वो पीछे की ओर मुड़ गया और सीढ़ियाँ चढ़ते हुए रिक्शे पर चला गया।

जुल्फी वहीं टेढ़ा होकर बूढ़े को देखता रहा। रघु के निकलते ही बोला, “क्यों बे बुड्ढे, और भी कुछ है तेरे पास ? चल खड़ा हो। ”

“ न, न बस वही था.......”

“ खड़ा हो......देखता हूँ। ” जुल्फी ने नीचे झुककर उसे खड़ा कर दिया और तलाशी लेने लगा। बहुत ढूँढने पर भी कुछ न मिला, बस कुछ छुट्टे पैसे थे। उन सिक्कों को वहीं उसके आगे फेंककर जुल्फी ऊपर चला गया।

उसके निकलते ही बूढ़ा ज़ोर से ताली मारकर हंसा। उसके साथी भी मुस्कुराये।

“ देखा, कैसे बचा लिया.....समान !.......चल निकाल पन्नी, इसे भी खत्म किए देते हैं नहीं तो स्साला जुल्फी......” उँगलियों से कुरेदकर बूढ़े ने अपने मैले कपड़ों की सिलाई के बीच से पुड़िया निकाली। बड़े ही शऊर से सिगरेट खाली की और बहुत देर तक वे खामोश पन्नी के ऊपर उठते धुएँ में लंबी सांसें खींचते रहे। धुएँ के दूधिया बादल उस छोटी-सी जगह पर मंडराने लगे। कुछ देर बाद वे दीन दुनियाँ से अलग दीवार की ओट में ऊँघने लगे।

सप्ताह बीत गया। मामा कमरे तक नहीं पहुंचा। रघु की मामा से मुलाक़ात की खबर से माँ कुछ संतुष्ट थी क्योंकि रघु ने पूरी बात नहीं बताई थी। माँ की आवाज़ में पहले जैसी चिंता-बेचैनी नहीं थी लेकिन इसके विपरीत रघु का चैन हराम हो चुका था। उसे सपने में भी मंदिर के बाहर भूखे भिखमंगों की भीड़ दिखाई देती और जागते हुए भी नशीले धुएँ के बादल और पेशाब की बदबू से दम घुटता महसूस होता।

26 जनवरी नजदीक आ गई थी। लाल किले पर परेड समापन की छुटपुट तैयारियां दिखाई दे रही थी। इसी सिलसिले में सफाई अभियान और सुरक्षा दृष्टि से सरकारी विभागों की सरगर्मीयां बढ़ गई थी। बस इक्के-दुक्के ही वहीं आस-पास दुबके फिर रहे थे।

दुकानों की पंक्ति के ठीक सामने, फुटपाथ और सड़क की सीमा रेखा पर गूदड़-सा पिछले तीन दिनों से पड़ा हुआ था। अभी गश्त पर निकले सिपाही ने डंडे से गूदड़ को हिलाते हुए सामने के दुकानदार से पूछा, “ ये किसका है ? ”

“ पता नहीं जी, ये तो बहुत दिनों से पड़ा है। ” दुकानदार दुकान से बाहर निकल आया, नाक पर हाथ रखते हुए बोला, “ अब तो कुछ बदबू भी आ रही है इसमें से ! ”

“ तुम्हारी दुकान के आगे पड़ा है और तुम्हें नहीं पता। ” सिपाही डंडे से उसे खोलने में लगा था।

“ ये भिखारियों का हो सकता है, वे ही छोडकर चले गए होंगे। ”

“ अरे ! ये क्या ? ” सिपाही चौंककर बोला, “ ये तो पैर है किसी का ! ”

दुकानदार आरोप लगने के डर से घबरा गया। पास आकार बोला, “ अरे हाँ.... ये तो पैर ही है !.......कौन होगा ये ? ”

सिपाही ने डंडे से ही पूरा गूदड़ ऊपर से हटा दिया। औंधे मुंह पड़ी बूढ़े की लाश दिखाई देने लगी।

पंचनामा कर दिया गया। लावारिस लाश उठा ली गई। पहचान के तौर पर भीड़ में खड़ा लंगड़ा भिखारी बैसाखी के निचले सिरे से मृत शरीर को छूकर बोला, “ ये बूढ़ा है ! स्मैकची है ! कोई नहीं है इसका.....बस मंदिर पर भीख मांगता था। ”

जिस रेहड़े में लाश थी, वो धीरे-धीरे सड़क पर रेंगने लगी। वहीं खड़ी भीड़ धीरे-धीरे छंट गई।

दूसरे दिन सड़कों, दुकानों तथा मंदिरों का कारोबार पहले की तरह चलता रहा। वही बड़ी देर से खड़ा जुल्फी एक-एक चेहरे में रघु के चेहरे को ढूंढ रहा था। दस बजे के करीब जुल्फी को रिक्शे पर बैठा रघु दिखा। वो बड़ी ही अप्रत्याशित विनम्रता से रघु तक आया और धीरे-से कंधे पर हाथ रखता हुआ बोला, “ यार, बड़ा दुख हुआ ! ”

“ क्या ? ” आश्चर्य से रघु के होंठ और आँखें खुली रह गई। वो रिक्शे से नीचे उतर आया।

“ क्या तुझे नहीं पता ? ”

“ क्या ? ” रघु संदेह और डर भरे चेहरे से जुल्फी की तरफ देखता रहा।

“ वो मर गया.....बूढ़ा.....मामा ! कल रज़ाई में बुड्ढे की लाश निकली। काफी टाइम हो चुका था मरे को भी ! ” जुल्फी अपने स्वभाव के विपरीत धीरे-धीरे बोल रहा था।

“......तूने......देखा था क्या ? ” लगभग हकलाकर रघु बोला। मुझे बताया था उसने, तभी से तुझे देख रहा था। ”

रघु भीतर से सूखे पत्ते-सा कांप गया। फिर हिम्मत जुटाकर बोला, “ सच ?..... मामा ही था ? ”

“ हाँ, वो लंगड़ा ही तो रहता था उसके साथ !......यार, जो एक बैसाखी से चलता है.........”

किस लँगड़े का जिक्र हो रहा था रघु समझ चुका था। उसकी आँखें पानी से भर गई वो रूआँसा होकर बोला, “ क्या किया उसका ? ”

“ पुलिस......वो काणे को बुला लिया था जो लावारिस लाशों को.......” जुल्फी रघु की ओर देखता हुआ धीरे-धीरे चुप हो गया।

रघु छोटे बच्चे की तरह फफक-फफक कर रोने लगा। एक अदभुत, कर्कश और भयाक्रांत ध्वनि वाहनों के शोर में घुलने लगी। रोने के स्वर में दिल दहलाने वाला तीव्र कंपन महसूस हो रहा था। रघु की इस अवस्था को जुल्फी न देख सका। उसने रघु के चेहरे से नज़र हटा कर सिर झुका लिया और ज़मीन के किसी शून्य में ताकने लगा।......लेकिन ये तरकीब अधिक काम न आई।

आतंक पैदा कर रही रोने की आवाज़ ने भीतर ही भीतर उसकी धड़कनों को बढ़ा दिया। इस भयावह स्थिति से बाहर निकालने के लिए वो कभी नीचे की ज़मीन...

.......मगर किसी करवट राहत नहीं थी। वो बोलना चाहता था पर शब्द किसी भी ढब से होंठों तक नहीं आ पा रहे थे। वे चुपचाप रघु के रुदन से भीतर-ही-भीतर काँप रहा था।

भावनाएं, आँसू और दुख इस जगह बेमानी थे। सड़क और फुटपाथ की गतिविधियां पहले-सी बेरोकटोक जारी थी। सामने मंदिर के थड़े पर फकीरों को खाना बांटने फिर एक कारोबारी परिवार खड़ा था। हालांकि आज भिखारियों की भीड़ अधिक न थी, बस दो-चार ही आस-पास मंडरा रहे थे। एक बार का खाना खत्म कर वही भिखारी दोबारा हाथ फैला देता, सब्जी का दोना और चार पूरियाँ उसके हाथों में फिर रख दी जाती और वे वहीं किनारे उकड़ूँ बैठ भूखों की तरह दोने को चाट जाते।

इस बार जुल्फी ने हिम्मत कर रघु को समीप से देखा। वो सिसकियाँ ले रहा था। जुल्फी ने हाथ बढ़ाकर उसे अपनी तरफ खींच लिया और उसके सिर पर हाथ फेर कर कुछ कहने को हुआ पर बोल न सका। बस उसके चेहरे पर देखता रहा, फिर धीरे-धीरे स्वयं को रघु से दूर करते हुए फुटपाथ की अविराम भीड़ में मिल गया।

रिक्शे पर बैठे रघु ने सिर पीछे टिका दिया। उसकी आँखों से अभी भी आँसू बहे जा रहे थे। उसे ऐसा महसूस हो रहा था मानों वो ढलान से नीचे की तरफ सरकता जा रहा हो। उसका दिल बैठा जा रहा था। वो अकेला, तन्हा चारों ओर मशीनों से चलते लोगों को देखता रहा।

मंदिर के सामने भिखमंगों का पेट ही भरने में नहीं आ रहा था, वे उसी तरह दोने हाथों में थामें खाने में जुटे थे।