धुआँ / निरंजन श्रोत्रिय
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धुआँ
रचनाकार | निरंजन श्रोत्रिय |
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प्रकाशक | शिल्पायन |
वर्ष | 2009 |
भाषा | हिन्दी |
विषय | कहानी |
विधा | |
पृष्ठ | 96 |
ISBN | |
विविध | कवि के रूप में निरंजन श्रोत्रिय की अपनी एक पहचान है। वह चर्चित हैं और उन्हें विवादास्पद बनाने की कोशिशें भी हुई हैं लेकिन उनके कथाकार रूप से हमारा सघन परिचय उनके इस कहानी संग्रह ‘धुआँ’ के माध्यम से होता है। उनका यह संग्रह फिर इस बात को सिद्ध करता है कि हिन्दी का एक अच्छा कवि, एक अच्छा कथाकार भी हो सकता है। निराला और जयशंकर प्रसाद से लेकर आज तक इसकी एक सुदीर्घ और पुष्ट परम्परा है। निरंजन श्रोत्रिय उसकी एक ताज़ा कड़ी है। निरंजन की कहानियों का भूगोल बिना बताए--मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र तक सीमित है लेकिन भूगोल की सीमाएँ अक्सर संवेदना की सीमाएँ नहीं होतीं। उनकी पहली ही लम्बी कहानी ‘धुआँ’ इस बात को सिद्ध करती है कि कैसे एक दृष्टिवान रचनाकार उस सीमित भूगोल में भी एक बनावटी प्रगतिशील व्यक्तित्व की लम्पटता, अवसरवादिता, सुविधाभोगिता, आत्मकेन्द्रितता, नारेबाजी की व्यर्थता की पोल खोल सकता है बल्कि ऐसे व्यक्तित्वों से अपनी तीव्र घृणा का इजहार भी कर सकता है। उनकी कहानियों में बहुत तरह के अनुभव हैं। उसमें एक ऐसी ‘दादी’ की दुनिया है जिसे अपने कस्बे, अपने घर से इतना ज्यादा लगाव है कि वह मरते दम तक इस तर्क को समझ नहीं पाती कि क्यों अपने इस कस्बे को छोड़ना जरूरी है और यह बात बिना अतिरिक्त भावुक हुए कथाकार ने उस ‘दादी’ की नज़र से, उसके प्रति पूरी सहानुभूति के साथ कही है, हालांकि उसकी दुनिया को अपनी दुनिया बनाने का कोई आग्रह किए बिना। एक पढ़े-लिखे, प्रगतिशील युवा को बेरोजगारी कि स्थिति भी भाग्यवाद की तरफ कैसे धकेलती रहती है, इसकी बहुत विश्वसनीय कहानी है--‘बेरोज़गार।’ उनकी दो कहानियाँ ‘शरणागत’ तथा ‘अर्द्धसत्य’ फैंटेसी को यथार्थ के रूप में पेश करके अंततः उसे एक फैंटेसी सिद्ध करनेवाली अलग ढंग की विडम्बनात्मक मगर मार्मिक कहानियां हैं। प्लेग पीड़ित शहर ( सूरत ) से निकटतम रिश्तेदार का परिवार कहीं शरण लेकर हमें खतरे में डालने न आ जाए इस आशंका को मानवीय ढंग से व्यक्त करने वाली बेहद मार्मिक कहानी है--‘प्लेग’।
सहजता, मार्मिकता, तार्किकता, व्याकुलता, स्पष्टता, आत्मीयता के साथ शिल्प का वैविध्य इन कहानियों को रोचक, नया और पठनीय बनाता है और निरंजन की कविता की दुनिया को हमारे और करीब लाकर, अधिक विश्वसनीय बनाता है। हम इन कहानियों के माध्यम से जानते हैं कि कैसे निरंजन अपने यथार्थ से अनेक संस्तरों पर जूझते हैं और उसकी विश्वसनीयता को किसी भी तरह खंडित-विगलित नहीं होने देते, नकली-वायवीय नहीं बनने देते। --विष्णु नागर |
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