धूप का एक टुकड़ा / डॉ. रंजना जायसवाल
सर्द गुलाबी सुबह... बगीचे में पड़ी लकड़ी की बेंच और उस पर नटखट-सा लुका-छिपी खेलता धूप का एक टुकड़ा। मखमली हरी दूब में मोती-सा चमकता, लरजता ओस का एक कतरा... ऐसा लगा मानो ओस को अपने माथे पर मुकुट-सा सजाएँ वह दंभ से इठला रहा हो...पर शायद वह यह नहीं जानता था कि उसका यह दम्भ क्षण भर का है। धूप का वह टुकड़ा...जी हाँ वह धूप का वही टुकड़ा जो अब तक लकड़ी के बेंच पर अपने पाँव पसार चुका था अपने आगोश में धीरे-धीरे उसे भर लेगा और वह धीरे-धीरे पिघल कर धुंवा बन कर अस्तित्व हीन हो जायेगा। जाड़े के दिन... इंसान हो या पँछी सब को कितना लालची बना देता है... एक धूप का टुकड़ा।
गौरैये का एक जोड़ा बेंच के एक सिरे पर अपने पंख पसारे चहचहा रहा था। मनोज अपनी ठंड से ऐंठती लंबी-लंबी उंगलियों को पूरी ताकत से हथेलियों के बीच रगड़ कर गर्म करने की कोशिश कर रहे थे। मनोज गुप्ता 58-60 साल की उम्र... सरकारी नौकरी करते थे। ...बालों में सफेद चाँदनी मुँह चिढ़ाने लगी थी। नौकरी के दो-चार साल ही रह गए थे। कैसा भी मौसम हो पर मनोज पार्क आना नहीं भूलते ...पार्क की नर्म-नरम घास, क्यारियों में लगे रंग-बिरंगे फूल उन्हें हमेशा से आकर्षित करते थी। लता अक्सर चुटकी लेती थी...टहलने ही जाते हैं न...?
और मनोज मुस्कुरा कर रह जाते, जैसी-जैसी ठंड बढ़ती जा रही थी...पार्क में आने वालों खासकर बुजुर्गों की संख्या घटती जा रही थी। मनोज ने पार्क में चार चक्कर लगाए और वही लकड़ी की बेंच पर आकर बैठ गए। क्यारियों में लगे रजनीगंधा, गुलदाउदी और गेंदे के खिले-अधखिले फूल और उस धूप के टुकड़े के धीरे-धीरे बढ़ते कदम को अपनी ओर आता महसूस कर खिलखिलाने लगें थे।
काश... आज लता जिंदा होती। कितनी तलब हो रही थी उसे जाड़े की गुलाबी ठंड, गर्म-गर्म आलू-मटर की घुघरी, अदरख-कालीमिर्च की चाय और बस धूप का एक छोटा टुकड़ा...पर अब लता कहाँ। वो तो उन्हें छोड़ कर कब का चली गई थी ...दूर बहुत दूर उन सफेद बादलों के पार। उसे सफेद रंग कितना पसन्द था...साड़ी की दुकान पर उसकी निगाहें सफेद साड़ी या सूट को ही ढूँढती रहती।
"लता सुहागिनों स्त्री को सफेद रंग नहीं पहनना चाहिए.। माँ हमेशा कहती थी...अपशकुन होता है।"
...और वह खिलखिला कर हँस पड़ती,
" आप भी न...किस जमाने की बात करते हैं। ये तो ऐसा रंग है जो सारे रंगों को खुशी-खुशी, हँसते-हँसते स्वीकार कर लेता है। जीवन भी कुछ ऐसा ही तो है।
चिंता न करिए... देख लीजिएगा आप से पहले मैं ही जाऊँगी इस दुनिया से...वो भी सुहागन। ये शगुन-अपशकुन कुछ नहीं होता। "
और मनोज मुस्कुरा कर रह जाते,
"ये तुम्हे कैसे पता कि कौन पहले जाएगा...?"
"चलिए शर्त लगाते हैं अगर आप जीते तो... आप जो कहेंगे मैं वह करने को तैयार हूँ और अगर मैं जीती तो आप मुझे मॉल से वही साड़ी दिलाएंगे... जो पिछली बार शो रूम पर देखी थी।"
लता जब भी शर्त जीतती तो बच्चों की तरह खुश हो जाती... उस की खुशी की खातिर मनोज कई बार जानबूझकर भी हार जाते, पर न जाने क्यों... इस बार वह उसे जीतने नहीं देना चाहते थे ...पर वह हमेशा की तरह इस बार भी जीत गई।
मनोज यादों के अथाह सागर में डूबते चले गए। सूरज अपनी पूर्ण लालिमा के साथ अवसान के लिये तत्पर था और शायद कहीं उसके भीतर भी बहुत कुछ डूब रहा था। घाट की सीढ़ियों पर बैठे मनोज को घंटो हो गए थे। दिल में कुछ टूट-सा रहा था, आँखों से आँसू सारे बन्धन तोड़ कर बाहर निकलने को बेचैन हो रहे थे। हाथ में पकड़े उस अस्थि कलश को बार-बार विसर्जित करने की कोशिश नाकाम हो रहीं थीं। मनोज हर बार अपने आपको एकत्र करते, उसको अपने आप से पूर्ण रूप से मुक्त कर देने के लिए जिसने हर परिस्थिति में उसका साथ दिया...पर मनोज चाह कर भी ऐसा नहीं कर पा रहे थे।
कैंसर से जूझती लता की शिथिल देह, पलकों से विहीन उसकी कातर दृष्टि जैसे बार-बार मनोज से कह रही हो..."जाने दो मुझे, अब तो जाने दो"। कंकाल हो चुके उस शरीर में जब नर्स अपने बेरहम हाथो से सुई चुभोती थी, लता की आँखों के कोर आँसुओ से भीग जाते। मनोज दर्द और वितृषणा से मुँह फेर लेते पर मनोज की खातिर लता एक बेजान-सी मुस्कान बिखेर देती और मनोज भी उसका साथ देने के लिए मुस्कुरा देते।
उससे हमेशा के लिए अलग हो जाने के विचार मात्र से ही मनोज की आत्मा सिहर उठी, बेबसी से मनोज ने मुट्ठियाँ भींच ली और आँखें बंद कर ली। मनोज अपनी आँखों से उसे विदा होते नहीं देख सकते थे...लता का मोह मनोज को बार-बार अपनी ओर खींच रहा था पर वह फिर से शर्त जीत गई थी। अस्पताल ने उसे उसके पसंदीदा रंग में लपेट कर मनोज के हाथों में सौंपा था। देखा कहा था न ...तुमसे पहले जाऊँगी, मैं फिर से हमेशा की तरह जीत गई न। लता के चेहरे पर एक शुकुन था...शायद ये शुकुन उसकी एक बार फिर से जीत जाने का शुकुन था। शुकुन तो मनोज के चेहरे पर भी था...लता का दर्द उससे देखा नहीं जाता था।
लता ने कितनी बार कहा था कि छोड़ दो मुझे अब तो जाने दो, पर...मनोज उसकी स्मृतियों को अपने से दूर नहीं करना चाहते थे परन्तु...परन्तु इस परन्तु का उत्तर मनोज के पास नहीं था। मनोज ने दर्द से अपनी आँखे बंद कर ली और मिटटी के घड़े और अपनी स्मृतियों को गंगा के उस शीतल जल में प्रवाहित कर दिया। मनोज ने अपने आप से कहा ...अब मैं कैसे रहूंगा उसके बिना, वो दूर जा रही है मुझसे दूर बहुत दूर।
मनोज उस कलश को अपने से दूर नहीं करना चाहते थे... परन्तु अंतहीन बेबसी, अप्रत्याशित बेचारगी, अकल्पनीय असहायता और अनंत प्रतिबंधनो की असंख्य भुजाओं ने किसी आक्टोपस की भांति मनोज को जकड़ लिया था। अदृश्य-सा कोई था जो मनोज को न चाहने पर भी मनोज को लता से दूर कर देना चाहता था। संस्कार या भौतिक मजबूरियाँ! मनोज तय नहीं कर पा रहे थे। घबराकर मनोज ने अपनी आंखे बंद कर ली और उनके हाथों ने यंत्रवत मिटटी के उस घड़े और स्मृतियों के समंदर को गंगा के उस शीतल और पावन जल में बहा दिया था। लता के अवशेष और फूल बहते हुए पानी की धारा के साथ आगे बहते चले गए और मनोज की आँखों से ओझल हो गए। मनोज भरे मन से चलने को उठे पर ...
घाट की सीढ़ियों पर खर-पतवार में एक फूल अटक गया था और शायद कही मनोज का मन भी..."रोक लो मुझे, मत जाने दो..."।
अब तो सिर्फ उसकी यादें ही रह गई थी। लता की याद करते-करते आँखें कब भर आईं पता ही नहीं चला।
तभी एक मीठी-सी आवाज कानों में रस से घोल गई...
"भाभी जी की याद आ रही है क्या..."
अनुपमा शुक्ला, सरकारी स्कूल से प्रधानाचार्य के पद से कुछ साल पहले ही रिटायर हुई थी। पति की कुछ साल पहले सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गयी थी। वर्षों का आना-जाना था, एक-दूसरे के सुख-दुख के साथी। नियति ने दोनों के जीवन साथी को छीन लिया था। मनोज की दो बेटियाँ ही थी। दोनों शादी करके-करके अपने घर चली गयी थी। अनुपमा जी का एक ही बेटा था जो बंगलोर में अपने परिवार के साथ रहता था।
"मिसेज शुक्ला! ...कैसी है आप।"
"बिल्कुल ठीक...आप बताइए।"
"मैं भी...! लगता है चश्मे का पावर बढ़ गया है। चश्मा चेक कराना पढ़ेगा..."
अनुपमा जी मंद-मंद मुस्कुराने लगी,
"गुप्ता जी! ...पॉवर नहीं...आँखें पोछिये। सब साफ-साफ दिखने लगेगा।"
मनोज झेंप से गये...क्या सोचेगी मिसेज शुक्ला... उन्होंने झट से रुमाल निकाला... आँसू गाल तक ढुलक आये थे।
"भाभी जी की याद आ रही थी क्या...!"
"हम्म! ..."
"आप को नहीं आती शुक्ला भाईसाहब की...?"
एक अजीब-सी मुस्कुराहट अनुपमा के चेहरे पर तैर गई,
" मनोज जी! ...जवानी में घर-परिवार की जिम्मेदारी पूरा-पूरा करते खुद के लिए कभी समय ही नहीं मिला। उम्र के जिस पड़ाव पर हूँ वहाँ दिलों में भावों के उफ़ानों को एक ठहराव-सा मिल जाता है। अब तितलियों के पीछे भागने, शहर के नुक्कड़ पर चटपटे गोलगप्पे और किसी फिल्मी तारिका के द्वारा पहने गए कपड़ों को सबसे पहले खरीदने की होड़ नहीं रहती। अब तो अपने बच्चों को आगे बढ़ते हुए देखने का एक अजीब-सा सुकून है, उनके साथ टेढ़े-मेढे मुँह बनाकर तस्वीरें खिंचवाने की खुशी है...
जब तक ये थे... तो कभी आँखों के आस-पास उभर आये आड़ी-तिरछी रेखाओं को सौंदर्य प्रसाधनों से छुपाने की पुरजोर कोशिश रहती थी तो कभी बगल वाली मिसेज राय की अपेक्षा अपने आप को फिट और स्लिम दिखाने की कवायद जारी रहती थी। पतिदेव के ताने...जो कभी दिल को चीर देते थे कि दिनभर करती क्या हो, बिस्तर पर फैली भीगी तौलिया, यहाँ-वहाँ बेकदरी से पड़े जूते-चप्पलें, बच्चों की चिल्ल-पो और उनकी फरमाइश पूरा करने वाले हाथ अब उन आवाजों को सुनने के लिए बेकरार रहते हैं...
पर अब कहीं कुछ खोया-सा महसूस होता है। इनके जाने के बाद जीवन खाली-सा हो गया है...ऐसा नहीं कि मैं अपने वर्तमान से संतुष्ट या खुश नहीं है पर उम्र के इस पड़ाव पर अतीत के अरमान वह सपनें जिन्हें हम कहीं बहुत पीछे छोड़ आये थे...मुझे दुबारा पुकारने लगे हैं। कभी आईने के सामने खड़ी होती हूँ तो अपना ही चेहरा अनजाना-सा लगता है। आज एक बार फिर... उम्र के इस पड़ाव पर अपने आप से दुबारा मिलने की ख्वाहिश है। "
मनोज अनुपमा को चुपचाप देखते रह गए... अकेलापन जाति, धर्म या लिंग का कभी भेदभाव नहीं करता। अनुपमा की भी हालत भी तो कुछ उस की तरह ही तो थी...बेख्याली में भी जिसका ख्याल कभी नहीं भूलता, शायद उसे ही जीवनसाथी कहते हैं। मनोज की नजर कलाई में बंधी घड़ी पर अचानक ही चली गई,
"ओह! ...आज तो बहुत देर हो गई, अनुपमा जी चलता हूँ।"
"अरे! ...मनोज जी क्या हुआ आप यूँ अचानक क्यों उठ गए। आज तो रविवार है फिर...!"
"ओह! ...हाँ मैं तो भूल ही गया था।"
"अब उठ ही गये तो चलिए आपको बढ़िया-सी अदरक वाली चाय पिलाती हूँ।"
चाय की कितनी तलब हो रही थी मनोज को...मनोज को तो मानो मुँह माँगी मुराद मिल गयी पर ...
"अरे! ...आप क्यों परेशान हो रही है राम सिंह एक घण्टे में आ ही जायेगा...फिर कभी"
"फिर कभी क्यों... उसके लिए भी मुहूर्त निकालना पड़ेगा। आप के बहाने मैं भी पी लूँगी।"
मनोज चाह कर भी मना नहीं कर पाए...
"आप मानेगी नहीं... आप चाय चढ़ाइए मैं तब तक गीजर ऑन कर आऊँ।"
एक दीवार का फासला ही भर तो था दोनों घरों में, मुकद्दर ने दोनों घरों की किस्मत न जाने क्यों एक जैसी ही लिख दी थी। एक-सा दर्द ...एक-सा खालीपन।एक-सा ही सूनापन।
"मनोज जी! ...चाय ठंडी हो रही कहाँ रह गए आप"
अनुपमा ने गेट से आवाज लगाई,
"आ रहा हूँ अनुपमा जी बस एक मिनिट..."
मनोज ने दरवाजे पर कुंडी चढ़ाई और अनुपमा के घर की ओर चल दिया।
"कहाँ रह गए आप, ठंड की वजह से चाय भी ठंडी हो गई है... रुकिए... बस एक मिनिट में गर्म करके लाती हूँ।"
"जाने दीजिए मैं पी लूँगा..."
"अरे! ...ऐसे कैसे मैं हूँ न।"
"वो असल में... निक्की का फोन आ गया था बस उससे बात करने में वक्त लग गया। वह तो अभी और बात करने के मूड में थी ...वैसे तो जल्दी फोन करती नहीं जब करती है तो जल्दी रखती नहीं... वह तो उससे कहना पड़ा तेरी आँटी चाय बनाकर इंतजार कर रही है, फोन रख... बाद में बात करते हैं।"
मनोज मुस्कुराने लगे,
"अनुपमा जी! ... ये रहा आपका डिब्बा। मजा आ गया गाजर का हलवा खाकर..."
"पसन्द आया आपको..."
"हाँ बिल्कुल... लता भी बहुत अच्छा हलवा बनाती थी।"
"आपको शायद पता नहीं...मैंने हलवा बनाना उन्ही से सीखा था।"
"अरे वाह...तभी आपके हाथ का हलवा खाकर मुझे लता की याद आ गयी।"
मनोज लता को याद कर भावुक हो गए, अनुपमा चाय गर्म करने के लिए अंदर चली गयी। एक जानी-पहचानी-सी खुश्बू से मनोज की तन्द्रा टूट गई।
"अरे वाह! ...घुघरी...अनुपमा जी आप को विश्वास नहीं होगा, आज मुझे घुघरी खाने का बहुत मन कर रहा था।"
"वाह! ...लीजिए आपकी इच्छा पूरी हो गई। बातें तो होती रहेगी अब आप गरमा-गरम घुघरी का आनन्द लीजिए।"
मनोज गरमा-गरम घुघरी और अदरख वाली चाय के स्वाद में डूब गए, अनुपमा ने डिब्बे को उठाया तो उन्हें कुछ भारी-सा लगा...
"मनोज जी! ...इस डिब्बे में कुछ है क्या ..."
"वह चौक की तरफ गया था तो दुकान पर चिक्की मिल रही थी तो सोचा आपके लिए भी ले लूँ। आपके ब्लड प्रेशर की दवा का पत्ता भी उसी में रखा है..."
"मनोज जी आप क्यों परेशान होते हैं... मैं, मैं मैनेज कर लेती।"
"इसमें परेशान होने जैसा क्या है... इस लॉक डाउन में आप ने मदद न की होती तो मैं तो भूखे मर जाता।"
"ऐसा कुछ भी नहीं ...पड़ोसी, पड़ोसी के काम नहीं आएगा तो फिर कौन आयेगा।"
"सच कह रहे है मनोज जी... इस लॉक डाउन ने जीवन की सच्चाई से सामना करा दिया... कि कौन कितने काम आयेगा। जो अपने थे वह झाँकने तक न आये कि जिंदा भी हूँ या फिर...बस एक फोन घुमा दिया... ठीक हो न। किसी चीज़ की जरूरत तो नहीं... टण्डन जी का बेटा अमेरिका से आकर अपने माँ-बाप को लेकर चल गया और यहाँ बंगलोर से कोई झाँकने तक$$...खैर छोड़िए... निक्की और अनु कैसे है। आप को नौकरी से वायलेन्ट्री रिटायरमेंट ले लेना चाहिए... अब तो लता जी भी नहीं रही।"
"सोचा था कि रिटायरमेंट के बाद लता के साथ सारी दुनिया घूमूँगा पर लता मुझे छोड़कर किसी और दुनिया में चली गई... घर के एक-एक कोने में उसकी खुशबू है... उसके साथ होने का अहसास दिलाती है। उसे छोड़कर जाना ..."
"सच कह रहे है मनोज जी... दीपू भी कितनी बार कह चुका है कि बंगलौर आ जाओ। अब तो पापा भी नहीं रहे, नौकरी तो सिर्फ एक बहाना थी ...अपनी जड़ों को छोड़कर जाना इतना आसान नहीं।"
एक अजीब-सा गहरा सन्नाटा दोनों के मध्य पसर गया, इंसान को जिस उम्र में जीवन साथी की सबसे ज्यादा जरूरत होती है उस उम्र में वह दोनों ही अकेले और अधूरे थे।
"कहाँ थे पापा दो बार फोन कर चुकी हूँ... आपका फोन ही नहीं उठ रहा। मैं तो घबरा ही गई थी।"
"अरे वह कुछ नहीं ...फोन चार्जिग में लगा था। तुम्हारी अनुपमा आँटी ने चाय पर बुला लिया। बस अभी-अभी तेरी मिस्ड कॉल देखी।"
"कैसी है वो...अंकल जी के जाने के बाद तो बिल्कुल ही अकेली पड़ गई है वो...दीपू के पास क्यों नहीं चली जाती।"
"मैंने भी कई बार उनसे कहा...पर शुक्ला जी की यादों को छोड़कर जाना इतना आसान नहीं।"
"क्या पापा आप भी...आप की पीढ़ी का समझ ही नहीं आता, आपसे भी कितनी बार कहा कि नौकरी छोड़िए मेरे या निक्की के पास आ जाइये पर पता नहीं उन दीवारों से कैसा मोह है आपका ...आप आना ही नहीं चाहते।"
मनोज मुस्कुरा कर रह गए ...क्या कहते उन दीवारों में तेरी माँ की यादें, तुम दोनों बच्चों के बचपन की न जाने कितनी बातें छुपी है...
"तू नहीं समझेंगी...जब तू मेरी उम्र में पहुँचेंगी तब शायद तुझे समझ में आयेगी मेरी बातें।"
"पापा कई दिनों से मैं और निक्की आपसे एक बात कहना चाहते थे..."
"बोलो...मैं सुन रहा हूँ"
मनोज भी कई दिनों से ये महसूस कर रहे थे कि निक्की और अनु शायद उनसे कुछ कहना चाह रही हैं। दोनों के फोन आजकल लगभग रोज ही आने लगे थे, लता के जाने के बाद तो वह दोनों नियमित ही फोन करती थी फिर धीरे-धीरे वह अपनी घर-गृहस्थी की जिम्मेदारियों में ऐसी उलझ गई महीने में दो-तीन बार ही फोन कर पाती।
"पापा! ...मम्मी के जाने के बाद आप बिल्कुल अकेले हो गए हैं। कोरोना के चक्कर में घर से निकलना भी मुश्किल है वरना हम दोनों में से कोई न कोई आपको जरूर लेने आ जाता।"
"हम्म..."
मनोज सोच रहे थे... आये दिन पार्टियों की फोटो सोशल नेटवर्क पर दिखती ही रहती पर पिता के लिए तीन सौ किलोमीटर से आने के लिए करोना का बहाना...
"वैसे भी आपको कोई दिक्कत नहीं है... अनुपमा आँटी तो है ही..."
मनोज ने एक अजीब-सी कड़वाहट अनु की आवाज में महसूस की...
"सच कह रही हो...तुम्हारी अनुपमा आँटी ने इस लॉक डाउन में बहुत मदद की है। राम सिंह भी तीन महीने के लिए अपने गाँव चला गया था...तू तो जानती है तेरी माँ जब तक थी तब तक कभी चौके में झांका भी नहीं... पर इन तीन महीने में दाल-रोटी का भाव पता चल गया।"
"वो तो देख ही रही हूँ... अनुपमा आँटी किसी न किसी बहाने घर में घुसी ही रहती है... कभी वह तो कभी आप$$$..."
"तुम कहना क्या चाहती हो...?"
"पापा इस उम्र में ये सब! ...आपने सोचा मेरे पति को अगर पता चला तो वो...वो क्या सोचेंगे।"
मनोज सन्नाटे में आ गए ...उनकी छोटी-सी अनु आज इतनी बड़ी हो गयी। नर्स ने छोटी-सी अनु को जब उसके हाथों में दिया था ...एक बार लगा कि उसकी सारी दुनिया हाथों में सिमट आयी हो,
"हेलो! ...हेलो, पापा... आप सुन रहे है न।"
"हम्म... बोलो।"
"पापा क्या अच्छा लगता है इस उम्र में ये सब...जानती हूँ मम्मी के जाने के बाद आप बिल्कुल अकेले पड़ गए हैं आपको एक साथी की जरूरत है। जिससे आप अपने दिल की बात कह सके... बांट सके, पर इस तरह से..."
मनोज चुपचाप अनु की बात सुनते रहे,
"अनु...एक बात कहूँ दुनिया हमें वैसी ही दिखती है जैसे हम देखना चाहते हैं।"
"आप कहना क्या चाहते हैं पापा..."
"तुझे याद है जब तूने कॉलेज जॉइन किया था...कभी वर्कशॉप कभी असाइनमेंट तो कभी एक्स्ट्रा क्लास के नाम पर तू देर रात तक विशाल के साथ लौटती थी।"
"तो...!"
"तेरी माँ ने एक बार तुझे टोका भी था यूँ लड़के साथ देर रात तक काम करना कहाँ तक सही है। तब तुमने अपनी माँ से कहाँ था...माँ किस जमाने की बात कर रही हो। आजकल लड़के-लड़कियाँ साथ काम करते, पढ़ते और इंजॉय करते हैं। आप भी न... वी आर जस्ट फ्रेंड...कुछ सालों बाद तुमने उसी विशाल से शादी भी कर ली।"
"पापा! ..."
"अनु तुम्हारी शादी से मुझे कोई गुरेज नहीं था पर तुम्हारी ये पीढ़ी कब एडवांस हो जाती है कब बैकवर्ड समझ नहीं आता।"
"पापा आप समझ नहीं रहे...राम सिंह क्या सोचता होगा आपने सोचा है एक बार भी। कितने मजे लेकर बताता है मुझे..."
"हम्म... एक वक्त था जब तेरे पापा तेरा गुरुर थे आज एक आदमी ने तुम्हारे उस वर्षों के विश्वास को पल भर में डिगा दिया। इतनी कमजोर है तुम्हारे विश्वास की नींव..."
"नहीं पापा ऐसा नहीं है..."
"अनु ...क्या एक औरत और आदमी के बीच सिर्फ एक ही सम्बन्ध हो सकता है! ... स्त्री और पुरूष का सम्बंध सिर्फ जीवनसाथी के रूप में ही नहीं साथी के रूप में भी हो सकता है। एक पुरूष का मित्र पुरूष तो हो सकता है पर स्त्री नहीं...सुख-दुख बांटने वाला कोई भी हो सकता है पर हम और हमारा समाज स्त्री-पुरूष में ही उलझ कर रह जाता है। इस जीवन में जीने के लिए तेरी माँ की यादें ही काफी है। जहाँ तक तेरी अनुपमा आँटी की बात है...हाँ! ...उनके साथ मेरा रिश्ता है... दर्द का रिश्ता, शुभ चिंतक का रिश्ता...अकेलेपन का रिश्ता...और एक कप चाय का भी। मुझे पूरा यकीन है तुम्हारी अनुपमा आँटी का भी मुझ से बस इतना-सा ही रिश्ता है।"
"हम्म..."
"तुझे कुछ और पूछना है तो पूछ लें...दिल पर बोझ न रख।"
"रखती हूँ पापा विशाल उठ गए हैं उनकी चाय का वक्त हो गया है..."
मनोज न जाने क्यों अपने आप को आज बहुत हल्का महसूस कर रहे थे। पार्क में भी न जाने कितनी बार मनोज ने लोगों की आँखों में कुछ ऐसे ही सवाल उठते देखे थे पर कुछ सवालों के जवाब नहीं होते... पर उठते जरूर है। मनोज की नजर दीवार की तरफ चली गई, दीवार पर अपने पसंदीदा रंग में लता की तस्वीर मुस्कुरा रही थी और वही खिड़की से झाँकता धूप का टुकड़ा मनोज के साथ हमेशा की तरह अठखेलियाँ कर रहा था।