ध्वनि को प्रकाश बनते देखने का अनुभव / जयप्रकाश चौकसे

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ध्वनि को प्रकाश बनते देखने का अनुभव
प्रकाशन तिथि :14 नवम्बर 2017


इंदौर की संस्था 'सूत्रधार' और उसके सदस्यों को धन्यवाद देना चाहिए, क्योंकि उनके प्रयास से जयपुर की संस्था 'नाट्यकुलम' के दृष्टिबाधित कलाकारों ने आनंद मोहन माथुर सभागार में 'नंदन कथा' नामक नाटक प्रस्तुत किया। इसे दर्शकों ने इतना सराहा कि लगभग हर दृश्य के अंत में तालियां बजाई जाती थीं। नंदन-कथा में जितने दृश्य हैं, उतने ही गीत भी हैं और दृष्टिबाधित युवा ऐसे नृत्य कर रहे थे मानो हवा में आकृतियां गढ़ रहे हों। आभास हो रहा था मानो हवा में वे अंजता-सी कृतियां रच रहे हैं। सत्ताइस कलाकारों द्वारा प्रस्तुत नाटक में जिन कलाकारों के पास देखने का वरदान प्राप्त हैं, उन्होंने भी आंखों पर पट्‌टी बांध ली थी।

स्मरण आया कि गांधारी ने भी विवाह के पश्चात अपने दृष्टिबाधित पति की पीड़़ा को शिद्‌दत से महसूस करने के लिए पट्‌टी बांधी ली थी। श्रवण गर्ग का यह विचार है कि गांधारी के पट्‌टी बांधते ही कुरुक्षेत्र युद्ध का बीज पड़ गया,क्योंकि माता-पिता दोनों के दृष्टिबाधित होने के कारण ही बचपन में ही दुर्योधन के मन में जागी ईर्ष्या को देखा नहीं गया। इस प्रस्तुति का महत्व इस संदर्भ में बढ़ जाता है कि जो देख सकते हैं, वे भी सर्वत्र व्याप्त अन्याय व असमानता को अनदेखा कर रहे हैं। आंखों के रहते हुए भी अंधों-सा आचरण करने वालों का दोष अधिक है, क्योंकि उनका उत्तरदायित्व भी अधिक रहा है। अपने अनुशासन के लिए प्रसिद्ध राजनीतिक विचारधारा के शीर्ष लोग भी गलत राह पर जा रहे अपने हुक्मरान पर अंकुश नहीं लगा पा रहे हैं। आम सड़क पर एक मदमस्त हाथी जा रहा है और महावत के हाथ अंकुश नहीं है। रंगमंच पर हुई यह प्रस्तुति नाटक नहीं ऑपेरा था, जिसमें संवाद भी पद्य में होने का आभास करा रहे थे। पश्चिम में 'साउंड ऑफ म्युजिक' और 'माय फेयर लेडी' पर ऑपेरानुमा बनी फिल्मों ने इतिहास रच दिया था। इस बेसुरे कालखंड में ऑपेरा की रचना असंभव लगती है। 'नंदन कथा' में एक भाई दृष्टिबाधित है और माता-पिता भी उसे अनदेखा करने की भूल करते हैं। दृष्टिबाधित बालक को ईश्वर ने गायन कला दी है और इसी नाव पर वह भवसागर पार करता है। रचना को देखते समय जॉन मिल्टन की महान रचना 'ऑन हिज ब्लाइंडनेस' की याद ताजा हो गई। यह कितने आश्चर्य की बात है कि महाकवि जॉन मिल्टन ने एक राजनीतिक दल के पक्ष में हजारों लेख लिखते हुए अपनी दृष्टि खो दी थी। उनकी 'पैराडाइज लॉस्ट' और 'सैमसन एगोनॉनिस्ट्स' कालजयी रचनाएं हैं।

'नंदन कथा' यह संदेश देता है कि दृष्टिबाधित होकर भी आप सार्थकता अर्जित कर सकते हैं। इस नाटक को देखने वाले सारे दर्शकों ने जी खोलकर इसकी प्रशंसा की और कलाकारों का हौसला बढ़ाया। मनुष्य एक रास्ता बंद होते ही अनेक विकल्प खोज लेता है। मनुष्य की यह क्षमता ही उसे सृष्टि की श्रेष्ठ रचना सिद्ध करती है। समारोह में यह कहा गया कि ऊपर वाले ने सृष्टि की रचना की और कार्य इतना अधिक था कि उन्हें सूर्यास्त के पश्चात भी कार्य करना पड़ा और उनके अनजाने रात का अंधकार कुछ आंखों में समा गया और उनका जीवन बकौल शैलेन्द्र कुछ इस तरह का हो गया- 'पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई, एक पल जैसे एक युग जैसा बीता, युग बीते मोहे नींद न आई... इक जले दीपक, एक जले मन मोरा, फिर भी न जाये मन का अंधेरा, भोर भी आस की किरण न लाए..' यह सचिन देव बर्मन और शैलेन्द्र की रचना है। ईश्वर ने इन त्रुटियों का दंश कम करने के लिए भारत रत्न भार्गव जैसे लोग भेजे हैं। इंदौर के कुछ लोगों ने संस्था को दान देने की घोषणा की। उन सबका अभिनंदन।

वर्तमान में बहुत कुछ ध्वस्त किया जा रहा है और यहां तात्पर्य इमारतों से नहीं वरन् संस्थाओं से है परंतु निराश होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि सृजन प्रक्रिया साथ में जारी है। उदाहरण के लिए मां आनंदमयी ट्रस्ट द्वारा नई दिल्ली में दो सौ एकड़ क्षेत्रफल की जमीन पर एक अस्पताल की रचना की जा रही है जिसकी निगरानी ट्रस्ट की ओर से सत्यानंद मिश्रा कर रहे हैं। ज्ञातव्य है कि ओडिशा में जन्मे मिश्राजी आईएएस अफसर रहे हैं। उनकी पत्नी यशोधरा मिश्रा भी कविता लिखती रही हैं। मिश्राजी पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सलाहकार भी रहे हैं। क्या कुरुक्षेत्र में घायल लोग अपना इलाज करा पाए? क्या आज जिस जगह मां आनंदमयी का अस्पतालबन रहा है, यह वही जगह है जहां कुरुक्षेत्र के घायल पहुंचे थे और उनका इलाज संभव नहीं हो पाया। आज तो हर आम आदमी एक अदृश्य से कुरुक्षेत्र का घायल सैनिक है। अत: हजारों वर्ष बाद ही सही एक आरोग्य निकेतन की रचना हो रही है, जिसके बन जाने के बाद कुरुक्षेत्र के आहतों की कराहें अब बंद हो जाएंगी। ध्वनि संसार में सब कुछ अमर-अजर है। हुक्मरान ध्यान रखे, सारे बोले हुए शब्द लौटकर आने वाले हैं।