नंगे / संजीव ठाकुर

Gadya Kosh से
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हवा से खून की गंध आ रही थी और आ रही थी सड़ांध–कहीं आस-पास ही फेंकी लाश की और पास के मुहल्ले के कुएँ में भथे गए मानव शरीर की। आतंक इतना था कि दूर गंगा में जल रही लाश की चटक और कब्र खोदे जाने की आवाज़ हमारे कानों में गूँजती मालूम पड़ती थी।

हमारा कॉलेज बंद हो गया था। हॉस्टल की सुरक्षा का प्रबंध था। मेन गेट हमेशा बंद रहता था और बाहर हथियार बंद पुलिस मंडराती रहती थी। हॉस्टल की खिड़कियों के बड़ी और हवादार होने पर पहली बार दुख हो रहा था–ढेर सारी दुर्गंधित हवा बेखटके कमरे में घुस आती थी। बड़ी-बड़ी खिड़कियों से बम या गोली के निधड़क घुस आने का ख़तरा अलग से था। ... उस कमरे में हम दो ही बचे थे–मुजस्सम और मैं। तिवारी और अनुपम घर जा चुके थे। वैसे तो मुजस्सम दूसरे कमरे में रहता था लेकिन बाक़ी लड़कों के चले जाने से वह अकेला हो गया था आर मेरे कमरे में ही आ गया था। होस्टल के असामाजिक तत्वों को जबरन घर भेजा जा चुका था। मुजस्सम और मैं बाक़ी दिनों की अपेक्षा बहुत शांत रहते थे। बाहर किसी भी तरह की आवाज़ हमें कंपा देती थी। हम उठ बैठते थे। आशंका हमारे मन में परत-दर-परत व्याप जाती थी।

मैंने मुजस्सम से पूछा–"डर गए थे?" वह बोला–"हाँ।" मैंने पूछा–"क्या हुआ था?" वह टाल रहा था। बहुत ज़ोर देने पर उसने बताया कि 'कोई चाकू लेकर मेरी गर्दन की तरफ़ बढ़ा आ रहा था।' उसने कहा कि 'वह–तुम... तुम थे!' ...मैंने उसे नहीं बताया कि थोड़ी देर पहले मेरे मन में भी यही बात आई थी–मुजस्सम भुजाली लेकर मेरे पीछे बड़े ही सधे कदमों से चल रहा है! ... मुजस्सम ने कहा–"यार! मैं घर चला जाता हूँ। घर पर अब्बा-अम्मी फ़िक्र करते होंगे।" मैंने कहा–"ठीक है, चले जाओ।" पुलिस की मदद से उसे स्टेशन तक भिजवा दिया। अब बच गया मैं और हॉस्टल के गिने-चुने लड़के। मेरा हॉस्टल छोडकर जाने का कतई मन नहीं था। घर जाकर क्या करना? करूँगा क्या वहाँ जाकर? ... लेकिन वार्डन का ऑर्डर आ गया–'सभी अपने-अपने घर चले जाएँ।' मेस वाले पंडी जी ने भी खाना बनाना बंद कर दिया था। हमें हॉस्टल छोड़ना पड़ा।

पुलिस ने अपने संरक्षण में परबत्ती और तातारपुर मुहल्ला पार करवा दिया। स्टेशन से उधर कोई ख़तरा हम 'राम-भक्तों' को नहीं था। बड़ी मुश्किल से मिले एक तांगे पर चढ़कर मैं बरारी घाट की तरफ़ चलने लगा। तांगे का घोड़ा बार-बार अड़ जाता था, जैसे गंगा घाट जाने में उसे भी पीड़ा होती हो। जलती लाशों की 'रोशनी' उसकी आँखों में भी अँधेरा भर देती हो! ...दिन में भी घरों की छतों पर मुरेठा बाँधे और लंबा टीका लगाए मुस्टंडे लाठी और बरछी लिए नज़र आ रहे थे। ये अपनी और आस-पास की सुरक्षा के लिए सजग मालूम होते थे।

स्टीमर धुंधआती सीटी बजा रहा था। हजारेक लोग लद चुके थे। मैं भी भागा-भागा चढ़ गया। चढ़ने पर मैं हाँफ रहा था। स्थिर होने के लिए मैंने पानी पिया। चाय का एक गिलास लेकर मैं स्टीमर के एक कोने में खड़ा हो गया और स्टीमर का मुआयना करने लगा। मेरे सामने ही एक औरत थी। अच्छी लगी। लेकिन मैंने अपनी नज़र जल्दी ही वहाँ से हटा ली। पास ही लुंगी बिछाकर कुछ लोग बैठे थे। एक हथेली पर तम्बाकू मल रहा था, एक ताश पीस रहा था। दो खेल शुरू होने की प्रतीक्षा में थे।

उस ग्रुप के बाहर का एक आदमी अपना ध्यान तम्बाकू मले जा रही हथेली पर टिकाए था। जैसे ही तम्बाकू वाले व्यक्ति का ध्यान देखने वाले पर गया, देखने वाले ने इशारा किया–'ज़रा-सा मुझे भी!' उसने अपने जंग लगे दाँत निपोड़ दिए। तम्बाकू मल रहे व्यक्ति ने डिबिया से और तम्बाकू निकाला और उसमें चूना मिलाया। नए और पुराने तम्बाकू एक साथ मले जाने लगे। ... स्टीमर के किनारे लगे लोहे से बकरियाँ बँधी थीं। मैंने गिनती की–एक, दो, तीन, चार और पाँच! बकरियों के चार संरक्षक थे–बड़े-बड़े खानों वाली लुंगी पहने और आधी बाँह का कुर्ता पहने। कुर्ते बहुत मैले थे–उनकी दाढ़ी की तरह। चारों बीड़ी पिए जा रहे थे। धुएँ की लकीरें एक-दूसरे को काटती हुई हवा में फैल जाती थीं। जब तक दूसरी लकीरें नहीं बनती थीं तब तक लगता था कि वहाँ कुछ है ही नहीं। एक दूसरे को काट रहा धुआँ उनकी चिंताओं को साफ़ जाहिर कर रहा था। किसी को भी समझने में देर नहीं लगती कि वे गाँव-गाँव घूमकर बकरियाँ खरीदने वाले और उन्हें शहर के बूचड़खानों तक ले जाने वाले लोग थे।

स्टीमर ने तीन बार हिचकियों जैसी सीटी बजाई और फिर एक लंबी। किनारे से बंधा मोटा रस्सा खोल दिया गया। घाट और स्टीमर को जोड़ने वाला पट्टा हटा लिया गया। घाट की दुकानें धीरे-धीरे मेरी पीठ के पीछे होने लगीं। अब मेरी आँखें पूरी तरह गंगा पर टिकी थीं। दूर तक फैला हुआ पानी–मटमैला पानी। बादल के टुकड़ों के कारण कहीं-कहीं पानी पर छाँह हो जाती थी। मैं ध्यान से धूप और छाँह में बह रहे पानी को देखता था। छोटी-छोटी लहरों को उसी जगह उठते-गिरते देखता था। ...मेरी आँखों के सामने अब था एक कौआ–टापू जैसी चीज़ पर बैठा और बहता हुआ भी चोंच मारता। ध्यान से देखा तो वह किसी फूले हुए पेट पर बैठा था और चोंच से पेट के नीचे शिश्न पर प्रहार कर रहा था। मैं सोचने लगा–अगर इस धड़ के साथ सिर भी लगा होता तो भी क्या कौआ शिश्न पर ही चोंच मारता? ... स्टीमर की स्पीड के कारण कौआ पीछे छूटता जा रहा था। कुछ दूर और जाने पर वह एक काले धब्बे की तरह दिखाई देने लगा।

गंगा के बीचों-बीच पहुँचकर मैं अपने-आप को ज़मीन से कटा हुआ महसूस कर रहा था। ... स्टीमर पर मुझे वह औरत भी अकेली लगती थी। यह सोचकर मुझे अच्छा लग रहा था कि स्टीमर पर केवल हम दोनों ही हैं–अकेले, चुप। गंगा कि मौज पर मैं इसी तरह बहता रहना चाहता था। ...'मुढ़ेss झाल' ... एक तीखी आवाज़ ने मेरे कानों के पर्दों को ठोकर मारी। मैं चेतना में आ गया। झाल-मूढ़ी बेचने वाला लड़का चिल्ला-चिल्लाकर बेच रहा था। बाक़ी दिन मैं उसपर गुस्साता था, उसे इस तरह चिल्लाने पर डाँटता था और फिर झाल-मूढ़ी खरीद लेता था। आज मैंने उसे नहीं डाँटा। न ही झाल-मूढ़ी खरीदी। मेरी चुप्पी देखकर वह जैसे कुछ समझ गया। मेरे सामने से चुपचाप गुजर गया। मैं अब लोगों की बातें सुन रहा था। शायद बहुत देर से बातें हो रही थीं। बात दंगे की ही थी। सभी अपने-अपने मुहल्ले में मारे गए लोगों का बखान कर रहे थे–नृशंस हत्याओं का ब्योरा दे रहे थे–चटकारा लेकर! बात दियारा क्षेत्र में चल रही हत्या-पद्धति पर चलने लगी। एक ने उत्साह भरे स्वर में कहा–"जानते हैं यहाँ क्या किया जाता है? ... 'उनको' पकड़कर नाव पर चढ़ा लिया जाता है। बीच गांग में ले जाकर नीचे से काटना शुरू करते हैं–उँगलियाँ, फिर पैर, फिर घुटने, जाँघ, हाथ, पेट, छती और फिर गला! ...एक-एक टुकड़े को फेंकते जाते हैं जिससे पता ही न चल पाए, किसी को कुछ किया गया है। बाद में कितना भी जाल डाले पुलिस, शरीर के कुछ टुकड़े ही बरामद हो पाते हैं!" ...एक आदमी भावुक होकर 'राम-राम' करने लगा। एक थोड़े गुस्से में लगा। बोला–"आज भले ही किसी और को काट रहे हों, लेकिन बाक़ी समय थोड़े ही देखते हैं कि अपने ही धर्म वाले, जाति वाले को काट रहे हैं? इनका खेल तो साल भर चलता है। जिससे दुश्मनी हुई उसे पकड़ लाए। पैसे की माँग की। नहीं दिया तो बस गंगा को प्रसाद चढ़ा दिया। आप क्या बात करते हैं साहब? ये औरतों को भी घर से उठाकर ले जाते हैं। उनकी दुर्गति कर इसी तरह गंगा में ...!"

वातावरण तनावग्रस्त हो गया था। लोग इस मार-काट को सांप्रदायिक दंगे तक ही सीमित रखना चाहते थे इसलिए एक ने घटना को मोड़ देते हुए कहा–"जानते हैं, अलीगंज में क्या किया गया? ... लोगों को पकड़कर मसजिद के भीतर ले जाया जाता था। दिन भर कमरे में बंद रखा जाता था। अगले दिन सुबह मसजिद की नाली से स्याह खून बहता नज़र आता था! कल से सेना ने उस मसजिद के चारों ओर घेरा डाल दिया है। ... मिसर टोली से एक सोलह वर्ष की लड़की को उठा ले गए। हज़रतों को जो करना था किया, बाद में उसका एक स्तन काट कर छोड़ दिया!" ...

मेरा मन घुटा जा रहा था। स्टीमर की सीटी मुझे अच्छी लगी। थोड़ी देर के लिए उसने ऐसी बातों को दबा दिया–कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। दूसरे किनारे के घाट से उठता धुआँ भी मुझे दीखने लगा था–दुकानदारों ने स्टीमर को नज़दीक आता देख चूल्हा सुलगना शुरू कर दिया था। ... आखिरकार स्टीमर किनारे से लगा। मोटे-मोटे रस्से नीचे फेंक दिए गए। तीन-चार लोग उसे लेकर दौड़ गए और किनारे में गड़े खूँटे में बाँध आए। सभी उतारने लगे। चारों लुंगी वाले भी तैयार हो रहे थे। बीड़ी उनके मुँह से फिर लग गई थी। तीन लोगों ने एक-एक बकरी पकड़ी और एक ने दो। महादेवपुर घाट था यह! लोग थोड़ी दूर पर खड़ी ट्रेन की ओर बढ़ रहे थे। बकरियाँ और उसके मालिक भी। लेकिन... वे देख लिए गए, पहचान लिए गए। घाट पर खड़े तीन लोग मूँछ पर ताव दे रहे थे। बदन नंगा था–काला और ख़ूब काला! नीचे धारीदार अंडरवियर। दो के हाथों में तेल पी हुई लठियाँ थीं और बाक़ी एक के हाथ में चमकती हुई भुजाली–जैसे अभी ही उन पर धार चढ़ाई गई हो! तीनों की खूनी आँखों ने बकरी के स्वामियों को देखा। ...'वो है माधर का बच्चा!' ... बकरी पकड़े वे उल्टी दिशा में भागने लगे। उनके पीछे काले पहाड़ भाग रहे थे। ठीक से भाग नहीं पाने के कारण दो ने बकरियों को छोड़ दिया। जिसके पास दो बकरियाँ थीं वह हताश अधिक था। आख़िर उसने भी बकरियाँ छोड़ दीं। लेकिन उसका एक पैर बकरी की रस्सी में फँस गया। वह गिर गया। किसी तरह उठा, फिर भागा। बकरियाँ मिमियाने लगीं। भागने वाले और पीछा करने वाले की दूरी कम होती जा रही थी। भुजाली वाले पहाड़ ने तेजी से दौड़कर भागने वाले सबसे पीछे के आदमी के पैर में वार किया। अब वह एक लाल नदी पैर में लिए भाग रहा था। थोड़ी दूर पर ही वह गिर गया। भागने वाले और तीन भी थककर गिर चुके थे। उन पर लठियाँ बरसने लगी थीं, जैसे मकई के सूखे भुट्टे से मकई के दानों को अलग करने के लिए बरसाई जाती हैं। मारने वाले तीन थे, मरने वाले चार! वे हाथ जोड़ रहे थे, पाँव पड़ रहे थे। वे नीचे से नंगे हो गए थे–लुंगी खुलकर गिर चुकी थी! ... गाड़ी पकड़ने जाने वाले लोग अब धीरे-धीरे इधर ही जमा होने लगे थे। ये लोग कछार के ऊपर थे और नीचे मृत्यु का खेल खेला जा रहा था–ताश के खेल की तरह, निश्चिंतता से! जब मरने वाले अध-बेहोशी में आ गए, तब भुजाली ने उनकी उँगलियों को चूमा। सब बिछे हुए थे–गंगा कि पवित्र-शीतल रेत पर–रेत की तरह! उनमें से एक मुजस्सम तो नहीं? ... भुजाली का काम जारी था। वह ऊपर की ओर धीरे-धीरे बढ्ने लगी थी। हड्डियों के कटने की आवाज़ आ रही थी–खट-खट! लहू को गंगा तुरंत बहा ले जाती थी। ऊपर से पुलिस का आश्वासन मिल रहा था–"तनी आराम से हो, हड़बड़ी काहे का? गाड़ी अभी थोड़े खुली?" ... मेरा मन कर रहा था, बोलने वाले हवलदार का अंडकोष पकड़कर लटक जाऊँ और तब तक लटका रहूँ जब तक उसकी जीभ बाहर नहीं आ जाती! ...

भीड़ के लोग ख़ामोश थे। सब नीचे देख रहे थे। वह सुंदर औरत भी। इतनी सुंदर औरत और इतनी कठोर! ...'भौंसड़ी वाली! कम से कम बेहोश तो हो सकती थी?' ...

खड़े लोगों में कोई धड़कन नहीं हो रही थी–सब के सब मुर्दे थे–मुर्दे! ...

थोड़ी दूर पर कुछ कुत्ते बैठे लार टपका रहे थे।

एक कुत्ता मरियल आवाज़ में भौंक रहा था।

बकरियाँ भी लोगों की भीड़ में शामिल हो गई थीं और मिमिया रही थीं।

एक पहलवान कद का आदमी पीछे हटकर पेशाब करने जा बैठा। मैं चाह रहा था जाकर देखूँ–पेशाब कहाँ से निकल रहा है? उसके पास कुछ है भी या रोओं से निकल रहा है पानी? ...

मैं भीड़ में खड़े लोगों के चेहरे देख रहा था। सब भौंचक्के थे। सबके चेहरे पर आश्चर्य था। लेकिन एक चीज़ नहीं थी उनके पास–वह चीज़ जिसके बल पर वे अपनी-अपनी बीवी के साथ सोते हैं। कैसे सोएँगे ये लोग अपनी बीवी के साथ? ... और मैं? ... अच्छा है मैं कुँवारा हूँ नहीं तो बीवी जान जाती–मेरे पास भी वह नहीं है–वह तो कौए की चोंच में ...

मैं अकेला भीड़ से हटकर ट्रेन की तरफ़ बढ्ने लगा था। मैं हवा को गालियाँ दे रहा था–माँ की, बहन की। उस मरियल कुत्ते की भौंक मुझे सुनाई दे रही थी और सुनाई दे रही थी बकरियों की मिमियाहट!

थोड़ी दूर आकर मैं खड़ा हो गया और भीड़ की तरफ़ मुड़कर पेशाब करने लगा। मैंने नोट किया–पेशाब बहुत गर्म था!