नंग बड़े परमेश्वर से / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Gadya Kosh से
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आदमी संसार में नंगा आया है, संसार से नंगा ही चला जाएगा। जितने समय तक उसे संसार में रहना पड़ता है, सभ्य बनने के लिए उतने समय तक कपड़े पहनने पड़ते हैं। कपड़े पहनकर भी नंगई करना इंसान की मजबूरी है। दरअसल कपड़े तन की नग्नता ढक सकते हैं, मन की नहीं। मनुष्य ईश्वर का अंश है। ईश्वर का यह अंश कुछ मायने में ईश्वर से भी बड़ा है। परमाणु का महत्त्व छोटा होने से घट नहीं जाता। तुलसी ने कहा था-'बड़े भाग मानुष तन पावा।' कुछ लोग इस दुर्लभ तन को परोपकार आदि में नष्ट कर देते हैं। भला ऐसे जीव मनुष्य बनकर कौन-सा तीन मार लेंगे? अगर इस तरह जीवन बिगाड़ते रहे, तो भगवान् का नाराज होना स्वाभाविक ही है। स्वर्ग या नरक में लौटने पर सचमुच बहुत मार पड़ेगी। एक-एक करतूत का हिसाब माँगा जाएगा।

नंगा आदमी किसी की प्रशंसा नहीं सुन सकता। यह बहुत ही उत्तम बात है। हम लोग अपनी अयोग्यता कि तरफ़ से आँख मूँदकर प्रशंसा सुनने के लिए लालायित रहते हैं। अपना काम निकालने के लिए दूसरों की थोथी प्रशंसा में ढेर सारा मूल्यवान् समय होम कर देते हैं। नंगी आदर्शवादिता पर चलने वाला व्यक्ति जब किसी की प्रशंसा सुनता है, तो उसकी स्थिति सन्निपात के रोगी जैसी हो जाती है। दूसरों की प्रशंसा उसके दुबले शरीर को और दुबला कर देती है। नंगेश्वर जी अपनी बीमारी के दिनों में प्रशंसा कि मर्मान्तक पीड़ा झेल रहे थे। डॉक्टर उपचार करके हार गए। कई दिनों बाद रोग की जड़ पकड़ में आई। पाँच घोर निन्दक किराए पर लाए गए। इन निन्दकों ने पूरे पाँच दिन नंगेश्वर जी के सिरहाने बैठकर निन्दा-स्तोत्र का पाठ किया। ये भले चंगे हो गए। गालों पर चमक आ गई। सूखी चमड़ी हरिया उठी। अपने मित्रो की निन्दा का स्वाद लेने पर इनका वज़न दस किलो बढ़ गया। शरीर में चीते जैसी फुर्ती आ गई।

नंगा क्या नहाएगा, क्या निचोड़ेगा? यह कहावत नंगेश्वर जी पर लागू नहीं होती। इन्हें जहाँ से जो भी निचोड़ने का अवसर मिल जाए, निचोड़ लेंगे। इनके पास जो भी श्रद्धाभाव से आता है, ये उसके लिए जी तोड़-सिर फोड़ कोशिश करते हैं। अगर ये पचास लोगों को भरोसा दे देंगे, तो बीस लोगों का काम नियमानुसार हो ही जाएगा। जिनका काम नहीं होगा, उनको समझाने के लिए ऊपर वालों पर आरोप लगाकर गला छुड़ा लेंगे। चाय-पानी के नाम पर फिर भी कुछ-न-कुछ पैसा काट ही लेंगे।

डॉ-जीवन हरण को ही लीजिए। मैंने पूछा-"दुकान से लोग सौदा लेकर तब दाम चुकाते हैं; आप अपनी फीस पहले ही क्यों ले लेते हैं?"

डॉ-साहब ने आँखें तरेरीं-"तुम्हारी समझ तो लघुकथाकारों से भी गई बीती है। अरे भाई, अगर मरीज दवा लेने से पहले ही दम तोड़ देगा, तो जाँच की फ़ीस लेने के लिए क्या मैं यमलोक जाऊँगा? अगर फीस न लूँगा, तो मरीज को पाप लगेगा अतः में किसी को पाप का भागी नहीं बनाना चाहता। दुकानदार की मिलावट का लोगों के स्वास्थ्य पर तुरन्त प्रभाव नहीं पड़ता। इसीलिए उनका बाद में पैसे लेने का आत्म-विश्वास बना रहता है। दवाई का प्रभाव तुरन्त हो सकता है। ग्लूकोज की बोतल में जोहड़ का पानी है या फफूंदी है, इस पर हमारा नियंत्रण नहीं है। वैसे मरना तो सभी को है। राम के हाथों मरने पर रावण को स्वर्ग मिला था। डॉक्टर के हाथों मरने पर सभी लोग नरक में नहीं जाते, कुछ स्थान डॉक्टरों के लिए भी आरक्षित होते हैं; अतः स्वर्ग में जाना कुछ लोगों की मजबूरी है। आप ही सोचिए-इससे बड़ा पुण्य क्या हो सकता है?"

डॉ. जीवन हरण की बातों में दम था। मुझे उनका लोहा मानना पड़ा।

हर दफ़्तर में ऐसे लोग मिलेंगे जो कुर्सी के निकट पहुँचने के लिए मछली की तरह छटपटाते रहेंगे। निकट पहुँचकर ये पूँछ हिलाना शुरू कर देते हैं। कुर्सी जैसा बोलती है, ये भी उसी के सुर में सुर मिलाने लगते हैं। इनके शब्दकोश में केवल 'हाँ जी' शब्द होता है। यहाँ तक पहुँचने के लिए इन्हें तरह-तरह की मनौतियाँ मनानी पड़ी थीं। कई बार अपनी वफ़ादारी की चादर कुर्सी के मज़ार पर चढ़ाई थी। नई से नई तकनीक का इस्तेमाल करना पड़ा था।

श्री बटरूप जी का जब दूसरे शहर के लिए तबादला हुआ, तो अपने भावी बॉस को शहद-सना लम्बा पत्र लिखा। लगता था जैसे इनका जन्म-जन्मान्तर का साथ है। बॉस इनकी अन्तरात्मा कि तड़प भाँप गए। इन्होंने साहब के दफ़्तर में अपना बैग रखना शुरू किया। कभी पेन निकालने के लिए, कभी टिफ़िन या रेजगारी लेने के लिए दफ़्तर में जाने लगे जैसे मधुमेह का रोगी बार-बार बाथरूम जाता है। हर बार आशा बँधती थी कि साहब बैठने के लिए कहेंगे, स्टाफ़ की कानाफूसी के बारे में कबाब हुए जा रहे थे। धैर्य चुकता जा रहा था। आज तक इतना बड़ा अपमान किसी बॉस ने नहीं किया था।

बटरूप जी ने अपनी शक्ति का अहसास कराने के लिए बॉस के खिलाफ लोगों को भड़काने की प्रविधि अपनानी शुरू कर दी। इन्हें विश्वास था कि अब बुलावा आएगा ही। मामला सुलझाने के लिए मेरी सलाह ली जाएगी। बुलावा नहीं आना था, न आया। लोग भी इनकी चालाकी ताड़ गए। बटरूप की सारी भाग-दौड़ मिट्टी में मिल गई। अब दफ़्तर के कोने में बैठे बटरूप जी गुनगुनाते मिल जाएँगे-"ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाले-बॉस होता। अगर और जीते रहते तो वह मेरे पास होता।" दूसरों को नंगा करने में बटरूप जी सबके सामने नंगे हो गए हैं।

हमारे देश में पुरस्कार बाँटने वाली संस्थाएँ नंगेपन पर उतर आई हैं। पुरस्कार का मापदण्ड बड़ा अजीब है। यहाँ या तो उसे पुरस्कृत किया जाता है, जो बरसों पहले स्वर्गारोहण कर चुका हो या उसे, जो कब्र में पैर लटकाए बैठा हो। कानों से सुनता नहीं, आँखों से सूझता नहीं। बोलने में ज़बान लड़खड़ाती हो। फ़ालिज मार जाने के कारण शय्या पर लेटा रहता हो। पुरस्कार लेने के लिए उठने में भी असमर्थ हो, सभा में लादकर लाया जाता हो। जब किसी स्वर्गीय साहित्यकार को पुरस्कार देने की घोषणा होती है, तो जनता का मुफ़्त का मनोरंजन होता है। साहित्य-प्रेमियों का ऐसी संस्थाओं से अनुरोध है कि पुरस्कार देने के लिए अपने कुछ प्रतिनिधियों को परलोक अवश्य भेजें। ऐसा करने से जनता में विश्वसनीयता स्थापित होगी।

जो साहित्यकार उपर्युक्त दोनों ही स्थितियों से वंचित हैं, वह क्या करे? पुरस्कार बाँटू संस्थाएँ इस ओर से उदासीन हैं। इसे बेहयाई न कहें, तो क्या कहें? गली-मुहल्ले वाले लेखक बिना पुरस्कार पाए ही मर जाएँगे, तो उनकी आत्माएँ भटकती रहेंगी। इस उदासीनता से खफ़ा होकर डंकासिह ने जबरदस्त अभियान चलाया। शीरा व्यापारी झम्मकलाल तथा कोयले के डीलर श्री लट्टूमल से चन्दा वसूला गया। सभास्थल पर दोनों दानियों के आदमकद चित्र लगाए गए। ठीक इनके नीचे डंकासिह खड़े हुए। लोग खिसकने लगे; क्योंकि काव्य-पाठ ख़त्म हो चुका था। कुछ लोगों को आँखें तरेरकर डंकासिह ने रोका। अभिनंदन पत्र पढ़ने वाले सज्जन पहले ही खिसक चुके थे। नगर संवाददाता पान खाने के बहाने एक दुकान पर जा बैठे। उपस्थित लोगों में से कोई भी सम्मान-पत्र पढ़ने को राजी नहीं था। कारण, डंकासिह जीवित है; परन्तु इनका लेखन बरसों पहले मर चुका है। इनकी पुरानी रचनाएँ चार पन्ने की मासिक पत्रिका 'दरबारी दुःख' में ही दिखलाई देती हैं।

दयावश एक साथी उठे और अजातशत्रु जी को स्कूटर पर लाद लाए। डंकासिह को ये कभी फूटी आँख नहीं भाते; क्योंकि ये बहुत अच्छा लिख लेते हैं। किसी का अच्छा लेखन डंकासिह को बहुत पीड़ा पहुँचाता है। खैर, अजातशत्रु जी ने भारी मन से सम्मान-पत्र पढ़ दिया। ग्यारह लोगों ने तालियाँ बजाईं। पंडाल में थे ही इतने लोग। सम्मान-पत्र डंकासिह ने स्वयं ही लिखा था; अतः उनके साहित्य का मूल्यांकन अज्ञेय जी से इक्कीस ही रहा।

ज्ञान प्रकाश जी परम ज्ञानी जीव हैं। सभी विषयों का ज्ञान इनके कण्ठ में वास करता है। आप इतिहास की बात करेंगे, तो ये भूगोल पर बोलेंगे, पाकिस्तान की चर्चा करेंगे, तो ये अमरीका पहुँच जाएँगे। कोई किसी भी विषय पर बोले, ये सुविधानुसार उसके तार अपने ब्रह्मज्ञान से जोड़ लेंगे। देर से आने का कारण पूछिए, तो कल की फ़िल्म की कहानी सुनाना शुरू कर देंगे। "कहाँ से आ रहे हो, ज्ञान प्रकाश जी?" का उत्तर होगा-"क्या बताएँ, चौराहे पर बहुत भीड़ थी। निकलना मुश्किल हो गया। देश में कोई नियम-कानून नहीं रह गया है। सब बेईमानी करने पर उतर आए हैं।"

विषयान्तर ज्ञान की महिमा नंगई के सारे रिकार्ड तोड़ चुकी है। ये आत्मविश्वासपूर्वक उन विषयों पर भी घण्टों बोल सकते हैं, जिनकी चार पंक्तियाँ भी कभी न पढ़ी हों। ऐसे सिद्ध पुरुष संसार में कम ही मिलेंगे। इनकी हर बात में गुड़-गोबर का स्वाद मिल जाता है। परमेश्वर महान् है; इसलिए संसार के सब बेहया लोग भी महान् हैं।