नंदा का मन हमेशा हरा वृंदावन / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
नंदा का मन हमेशा हरा वृंदावन
प्रकाशन तिथि : 26 मार्च 2014


पच्चीस मार्च को सुबह पांचवें, छठे दशक की पचहतर वर्षीय नंदा अपने बाथरूम में गश खाकर गिरीं और हृदयघात के कारण उनकी मृत्यु उसी क्षण हो गई। उनके पिता मास्टर विनायक अभिनेता फिल्मकार थे और शांताराम जी का आना-जाना था। शांताराम ने अपनी फिल्म 'दिया और तूफान' में नंदा को 'दिये' की भूमिका दी। फिल्म अत्यंत सफल रही और उसका थीम गीत 'यह लड़ाई है दिए और तूफान की' भारत के सभी गरीब लोगों के जीवन संग्राम को प्रस्तुत करता है। बेबी नंदा ने जवानी की दहलीज पर कदम रखा तो दक्षिण भारत की एक सुपरस्टार राजेन्द्र कुमार अभिनीत फिल्म में नंदा ने छोटी बहन की भूमिका इतनी विश्वसनीयता से प्रस्तुत की कि कई वर्ष तक टाइप्ड नंदा इस छवि से मुक्ति के लिए जूझती रहीं परंतु उन्हें सितारा हैसियत मिल गई और रुतबा इतना अधिक था कि 'जब जब फूल खिले' के निर्माता ने उस समय संघर्षरत शशि कपूर से कहा कि अगर नंदा को एतराज नहीं होगा तो नायक की भूमिका उन्हें मिल जाएगी। इसी वर्ष अठारह मार्च को अपने जन्मदिन के अवसर पर दिए (एफएम) साक्षात्कार में शशि कपूर ने नंदा का शुक्रिया फिर एक बार अदा किया और अपने सितारा बन जाने का श्रेय उन्हें दिया।

नंदा ने बिमलराय की साहित्य की अमर कथा 'उसने कहा था' में भी श्रेष्ठ अभिनय किया था। स्क्रीन पर 'छोटी बहन' छवि के लिए विख्यात नंदा ने अपने परिवार में पिता की भूमिका का निर्वाह किया और सबका आर्थिक भार उठाया। कुछ समय पूर्व ही उनकी कैंसर ग्रस्त बहन की मृत्यु हुई जिनकी सेवा नंदा ने लंबे समय तक की थी और अपने भाई जयप्रकाश कर्नाटकी को निर्देशक बनाने का श्रेय भी उन्हें ही है। अपने शिखर दिनों में नंदा ने पाली हिल बांद्रा, मुंबई में भव्य बंगला बनाया था परंतु जब उनके कॅरिअर की संध्या प्रारंभ हुई तो परिवार की खातिर उसे बेचकर वे वरसोवा के फ्लैट में रहने आईं। नंदा अत्यंत सुशील स्वभाव की संस्कारवान महिला थीं, उनकी अन्यतम मित्र वहीदा रहमान और सलीम खान की पत्नी सलमा थीं और ये ही सुबह सबसे पहले पहुंची। इन लोगों की नियमित मुलाकात होती रही।

नंदा ने अपनी लोकप्रिय छवियां कई बार तोड़ीं। यश चोपड़ा की राजेश खन्ना अभिनीत 'इत्तेफाक' में उन्होंने अपने पति का कत्ल करने वाली बेवफा स्त्री की भूमिका अत्यंत विश्वसनीय रूप से निभाई। यशजी ने उन्हें लिया ही इसलिए था कि दर्शक को अनुमान ही न हो कि सीधी सरल संस्कारवान पत्नी ने कत्ल किया और सच तो यही है कि यही आकर्षण उस फिल्म की सफलता की कुंजी भी था परंतु इसी फिल्म के प्रथम शॉट में जब नंदा सीढिय़ों से उतरकर नीचे आ रही है तब उनकी मादक चाल में कुछ सिनिस्टर सा प्रभाव उन्होंने पैदा किया और फिल्म के अंत में दर्शक को वह शॉट याद आता है। कोई संवाद नहीं, मात्र चलना इतना कुछ अभिव्यक्त कर सकता है, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।

राजकपूर की 'प्रेमरोग' में नंदा नायिका पद्मिनी की मां की भूमिका में हैं और अपनी पुत्री के विवाह के गीत संगीत पर वे अपनी बेटी के बचपन के मित्र नायक ऋषिकपूर के साथ कुछ इस ढंग से देखती है कि स्पष्ट हो जाता है कि अपनी अबोध बेटी से अधिक उसको वे जानती है जो बाल सखा के प्यार को नहीं देख पाई। इतनी किफायत से मात्र एक नजर से इतना कुछ कहना आसान नहीं था।

ज्ञातव्य है कि ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित 'आशिक' के प्रेम तिकोन में राजकपूर के साथ नंदा और पद्मिनी दो नायिकाएं थीं। नंदा ने अपने जीवन में अधिकांश भूमिकाएं निराश प्रेमिकाओं या दुखियारी छोटी बहनों की अदा की है। और उनके यथार्थ जीवन में भी एक प्रेम प्रसंग अधूरा ही रहा परंतु इन सबके बावजूद वे हमेशा प्रसन्नचित रहती थीं। कुछ लोग न जाने किस तरह अपने मन के वृंदावन को हमेशा हरा ही रखते हैं ईश्वर से प्रार्थना ही कि नंदा की आत्मा को अपने वृंदावन में प्रश्रय दें।

अपनी उम्र के बेहतर वर्ष परिवार को देने वाली अधेड़ अवस्था की नंदा से उस दौर के सफलतम फिल्मकार विधुर मनमोहन देसाई को बेसाख्ता प्यार हो गया। इन दो अधेड़ लोगों की प्रेम-कथा में भावना की तीव्रता थी और एक सत्रह वर्षीय युवा की तरह अत्यंत संकोच एवं झिझक से उन्होंने शादी का प्रस्ताव रखा। उनकी सगाई भी नंदा की इच्छानुरूप सादगी से हुई परंतुविवाह इस 'छोटी बहन' के नसीब में नहीं था और अपने कमर दर्द के लाइलाज रोग से संतप्त मनमोहन देसाई ने आत्महत्या कर ली। नंदा एक प्रवीण अभिनेत्री और संस्कारवान महिला थी जिसने परिवार के लिए सब कुछ किया। दिल आखिर दिल है, बेचारा कितने आघात सहता। कल तक प्रसन्नचित और स्वस्थ सितारे का अकस्मात निधन हो गया।