नंदिता दास: 'फिराक' से 'मंटो' तक / जयप्रकाश चौकसे

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नंदिता दास: 'फिराक' से 'मंटो' तक
प्रकाशन तिथि :20 अप्रैल 2017


नवाजुद्‌दीन सिद्‌दिकी को सआदत हसन मंटो के बायोपिक के लिए केंद्रीय भूमिका में लेकर नंदिता दास फिल्म की शूटिंग कर रही हैं। नवाजुद्‌दीन ने एक साक्षात्कार में कहा कि बायोपिक में अभिनय के लिए पात्र के विचारों को अपने मस्तिष्क की मिक्सी में घुमाते रहना एक शैली है अौर दूसरी शैली यह है कि पात्र के लिए बनाई गई पोशाकें पहनकर कलाकार कुछ दिन रहे। इस शैली से भी कलाकार परदे पर विश्वसनीयता रच सकता है। राज कपूर की श्री 420 में संवाद है, 'आदमी कपड़ों को पहनता है, कपड़े आदमी को नहीं पहनते।' बेन किंग्सले ने सर रिचर्ड एटनबरो की 'गांधी' की शूटिंग के पहले महीनों चरखा चलाया, कई बार सप्ताह दो सप्ताह का उपवास किया और गांधीजी की आत्मकथा को बार-बार पढ़ा। इस तरह महीनों के परिश्रम व साधना से उन्होंने स्वयं को गांधीजी की भूमिका के लिए तैयार किया।

भारतीय फिल्म उद्योग में इस मैथड स्कूल के कलाकार दिलीप कुमार ने फिल्म 'कोहिनूर' में सितार बजाने के दृश्य की शूटिंग के लिए सितार बजाने का प्रशिक्षण लिया। कुछ समय बाद एक फिल्म में राज कपूर को भी ऐसा ही दृश्य अभिनीत करना था परंतु उन्होंने केवल दिमागी तैयारी की। दोनों फिल्मों के दृश्यों में समान विश्वसनीयता महसूस की जा सकती है। अभिनय के लिए केवल विचार प्रक्रिया की सतह पर कार्य करना चाहिए और इस स्वाभाविकता अभिनय स्कूल के पुरोधा थे मोतीलाल, जिनकी परम्परा में ढले थे संजीव कुमार। आजकल यह परचम पीयूष मिश्रा के हाथ में है। नसीरुद्‌दीन शाह मैथड स्कूल में भरोसा रखते रहे हैं परंतु उनके अभिन्न मित्र और सखा ओम पुरी 'स्वाभाविकता स्कूल' के नुमाइंदे रहे हैं।

फिल्म मूलत: निर्देशक का माध्यम है। निर्देशक ही तय करना है कि कलाकार को किस तरह की तैयारी करनी चाहिए। नवाजुद्‌दीन को हर शॉट के पहले नंदिता दास चरित्र-चित्रण की बारीकियां समझाती हैं। दरअसल, कलाकार कठपुतली की तरह है और निर्देशक की उंगलियां ही उसे नचाती हैं। कुछ फिल्मकार एक्टर को पूरी आजादी देते हैं और रिहर्सल से संतुष्ट होनेे पर शॉट लेते हैं। 'गंगा जमना' के एक दृश्य में दिलीप कुमार को बेहद थका हुआ और नैराश्य से घिरा नज़र आना था। दिलीप कुमार मेहबूब स्टूडियो के चारों ओर से एक घंटे तक दौड़ते रहे और सेट पर पहुंचे। उनके चेहरे पर थकान और नैराश्य छाया हुआ था। दरअसल, परदे पर प्रस्तुत बिंब फिल्मकार और कलाकार की जुगलबंदी से बनता है। उनके बीच तादात्म्य होने पर ही बात बनती है। मंटो को अपने जीवन काल में बहुत विरोध सहना पड़ा, उन पर मुुकदमे भी कायम हुए। नवाजुद्‌दीन की शक्ल-सूरत पारम्परिक नायक की नहीं है, जिस कारण उन्हें भी विरोध सहना पड़ा, अत: मंटो की भूमिका निर्वाह करने के लिए उन्हें अपने अनुभवों को ही 'इंटर्नलाइज' करना होगा। मंटो द्वारा प्रस्तुत नारी पात्रों के सीने ज़ख्मी हैं परंतु उनकी नज़रों से उनकी हस्ती बयां होती है। वे जितनी अधिक रौंदी जाती हैं, उतनी अधिक ऊपर उठती हैं। मंटो हमारे पाखंड को उजागर करते हैं और कुछ इस ढंग से करते हैं मानो बिना क्लोरोफॉर्म दिए कोई सर्जरी करे। यह भी गौरतलब है कि महेश भट्‌ट ने 'बेगमजान' मंटो और इस्मत चुगताई को समर्पित की है।

ज्ञातव्य है कि लेखक फिल्मकार श्रीजीत मुुखर्जी ने 'बेगमजान' पहले बांग्ला भाषा में बनाई थी और उसमें पूर्व बंगाल और पश्चिम बंगाल की सरहद कोठे के बीच से गुजरती है। शेष सारा घटनाक्रम समान है। बंगाली भाषा में फिल्म अत्यंत सफल रही थी परंतु हिंदुस्तानी भाषा में कमजोर रही। बंगाल बंटकर भी कभी बंट नहीं सकता, क्योंकि उनकी अपनी भाषा का साहित्य और ललित कलाएं बांटे नहीं बंट सकतीं। दोनों क्षेत्रों में रवींद्रनाथ टैगोर और नजरूल इस्लाम को समान सम्मान दिया जाता है। फिल्मों की सफलता में संस्कृति भी एक घटक है। क्षेत्रीय भाषाओं में बनीं फिल्मों की यही ताकत होती है। मराठी भाषा की 'सैराट' बेंगलुरू और महाराष्ट्र के सरहदी इलाके की कुरीतियों को प्रस्तुत करने वाली फिल्म थी। खबर है कि स्वयंभू फिल्मकार करण जौहर 'सैराट' को हिंदी में बनाने जा रहे हैं और श्रीदेवी-बोनी कपूर की सुपुत्री जाह्नवी इस फिल्म से अभिनय क्षेत्र में प्रवेश कर रही हैं। करण जौहर ने फिल्मकार के रूप में स्वयं का ऐसा मार्केटिंग किया है कि उन्हें जाह्नवी की रामंदी मिल गई। जाह्नवी के लिए बेहतर यह होता कि वे दक्षिण भारत की भाषा में फिल्म करतीं तो श्रीदेवी के प्रशंसक उन्हें पलकों पर बैठाते।