नंदिता दास आैर रक्तरंजित भूमि / जयप्रकाश चौकसे

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नंदिता दास आैर रक्तरंजित भूमि
प्रकाशन तिथि : 11 अगस्त 2014


नंदिता दाससे, दीपा मेहता की शबाना अभिनीत 'फायर' आैर स्वयं उनकी निर्देशित राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म 'फिराक' के कारण, सार्थक सिनेमा के दर्शक परिचित हैं। अजीज मिर्जा की दशकों पूर्व बनी फिल्म 'अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है' के कुछ परिवर्तन के साथ बनाए गए नए संस्करण में नंदिता ने बहुआयामी केंद्रीय पात्र स्टीला को निभाया है। नए परिवर्तन में उन्होंने अल्बर्ट के क्रोध को क्या नया रूप दिया है, यह जानना दिलचस्प होगा। हर दशक में युवा के आक्रोश के अलग-अलग कारण होते हैं परंतु आक्रोश का स्थायी पक्ष यह है कि युवा वय ही आक्रोश है। विगत दो दशकों में आए बाजारी परिवर्तन के कारण मस्ती मंत्र जपते युवा के सपने बकौल रणबीर कपूर द्वारा अभिनीत 'ये जवानी है दीवानी' के पात्र के पच्चीस में नौकरी, छब्बीस में बंगला आैर छोकरी हो गए हैं, अतएव बाजार ने उसके आक्रोश का शमन कर दिया है। व्यवस्था भी युवा में आक्रोश नहीं मस्ती देखना चाहता है। वही उसे सुविधाजनक लगता है। अत: आक्रोश की जगह मस्ती विस्थापित करने में बाजार आैर सरकार को दो दशक लग गए। अब अल्बर्ट को गुस्सा किस बात पर आता है, यह जानना रोचक होगा। आज का युवा तो मोबाइल कनेक्टिविटी कम हो जाने पर अपना आपा खो देता है। कुछ युवा अपने माता-पिता से नाराज हैं कि उन्होंने भ्रष्ट होकर करोड़ों क्यों नहीं कमाए ताकि वह स्कूटी की जगह इम्पाला में कॉलेज जाता।

बहरहाल नंदिता को ऑस्ट्रेलिया के निर्माता रोबिन केरशॉ ने एक पटकथा लिखने के लिए अनुबंधित किया है। कहानी एक भारतीय महिला के ऑस्ट्रेलिया प्रवास के अनुभव की है। नंदिता की कहानी में मानवीय रिश्तों को केंद्र में रखा गया है। हाल ही में कंगना रनोट की 'क्वीन' युवती के पैरिस प्रवास में स्वयं को खोजने की कथा थी। अत: नंदिता का केंद्रीय विचार अलग होने की संभावना है। विगत कुछ समय में टेक्नोलॉजी के ज्ञान के कारण अनेक भारतीय विदेशों में अच्छे अवसर पा रहे हैं। उन्हीं के कारण सिनेमा की विदेश आय बढ़ रही है, अत: उसी तरह की कहानियां भी लिखी जा रही हैं। इसका आर्थिक पक्ष यह है कि दुनिया के अनेक देश वहां शूट होने वाली फिल्मों को अनुदान देती हैं। हमारे अनेक निर्माता इस अतिरिक्त आय के आधार पर विदेश में शूटिंग करते हैं। भारत में तो मुंबई जैसे शहर में सड़क पर शूटिंग के लिए सरकार को खूब धन देना पड़ता है आैर भीड़ के कारण विलंब भी होता है तथा सितारे भी विदेश में प्रसन्न रहते हैं।

नंदिता को दु:ख है कि आज सितारा विहीन फिल्म बनाना तो आसान है परंतु प्रदर्शन बहुत कठिन है। अनेक मल्टीप्लेक्स मालिक छोटी फिल्म के निर्माता से अग्रिम धन मांगते हैं कि दर्शक नहीं मिले तो प्रचार खर्च कहां से आएगा। अब अल्बर्ट पिंटो को इस पर अवश्य क्रोध आना चाहिए - यह तो तय बात है। नंदिता बहुमुखी प्रतिभा की धनी सृजनकर्ता है। 'फायर' में उनका अभिनय सराहनीय रहा। इस सांवली-सलोनी कन्या में गजब आकर्षण है। वह अपने ढंग से अरमान जगाती है, उसके सौंदर्य में मिट्टी की सुगंध है। सजा-संवारकर प्रस्तुत गोरी-चिट्टी नायिकाओं में नकलीपन के कारण वह बात नहीं है जो प्रसाधन के हथियार को तिरस्कृत करने वाली सांवली नंदिता में है। याद कीजिए 'फायर' में परिवार के पिकनिक का दृश्य जिसमें सहनायिका के पैर मात्र के अंगूठे को दबाने से कैसे प्रभाव पैदा होता है। नंदिता के सृजन में रिश्तों के साथ ही समाज में व्याप्त लहर, राजनीति की भूमिका अर्थशास्त्र के दबाव के भी संकेत होते हैं तथा वह इन संकेतों को इतिहास के परिपेक्ष में भी देखने की कोशिश करती है गोयाकि उसके अपने व्यक्तित्व में मिट्टी की महक की तरह उसकी कहानी में सदियों से रक्त रंजित भूमि का दर्द भी शामिल होता है। 'फिराक' फिल्म नहीं सामाजिक राजनैतिक दस्तावेज है।