नई कविता: प्रयोग के आयाम / अज्ञेय
‘तार सप्तक’ की भूमिका प्रस्तुत करते समय इन पंक्तियों के लेखक में जो उत्साह था, उसमें संवदेना की तीव्रता के साथ नि:सन्देह अनुभवहीनता का साहस भी रहा होगा। संवेदना की तीव्रता अब कम हो गयी है, ऐसा हम नहीं मानना चाहते; किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि अनुभव ने नए कवियों का संकलन प्रस्तुत करते समय दुविधा में पडऩा सिखा दिया है। यही नहीं कि तीसरा सप्तक के कवियों की संगृहीत रचनाओं के बारे में हम उससे कम आश्वस्त, या उनकी सम्भावनाओं के बारे में कम आशामय हैं जितना उस समय तार सप्तक के कवियों के बारे में थे। बल्कि एक सीमा तक इससे उलटा ही सच होगा। हम समझते हैं कि तीसरा सप्तक के कवि अपने-अपने विकास-क्रम में अधिक परिपक्व और मँजे हुए रूप में ही पाठकों के सम्मुख आ रहे हैं। भविष्य में इनमें से कौन कितना और आगे बढ़ेगा, यह या तो ज्योतिषियों का क्षेत्र है या स्वयं उनके अध्यवसाय का। तीसरा सप्तक के कवि भी एक मंजिल तक पहुँचे हों, या एक ही दिशा में चले हों, या अपनी अलग दिशा में भी एक-सी गति से चले हों, ऐसा नहीं कहा जा सकता। नि:सन्देह तार सप्तक में भी यह स्पष्ट कर दिया गया था कि संगृहीत कवि सब अपनी-अपनी अलग राह का अन्वेषण कर रहे हैं।
दुविधा और संकोच का कारण दूसरा है। तार सप्तक के कवि अपनी रचना के ही प्रारम्भिक युग में नहीं, एक नई प्रवृत्ति की प्रारम्भिक अवस्था में सामने आये थे। पाठक के सम्मुख उनके कृतित्व की माप-जोख करने के लिए कोई बने-बनाये मापदंड नहीं थे। उनकी तुलना भी पूर्ववर्ती या समवर्ती दिग्गजों से नहीं की जा सकती थी-क्योंकि तुलना के कोई आधार ही अभी नहीं बने थे। इसलिए जहाँ उनकी स्थिति झारखंड की झाड़ी पर अप्रत्याशित फूले हुए वन-कुसुम की-सी अकेली थी, वहाँ उन्हें यह भी सुविधा थी कि उनके यत्किंचित् अवदान की माप झारखंड के ही सन्दर्भ में हो सकती थी-दूर के उद्यानों से कोई प्रयोजन नहीं था।
अब वह परिस्थिति नहीं है। ‘द्विवेदी काल’ के श्री मैथिलीशरण गुप्त या छायावादी युग के श्री ‘निराला’ जैसा कोई शलाका-पुरुष नई कविता ने नहीं दिया है (न उसे अभी इतना समय ही मिला है); फिर भी तुलना के लिए और नहीं तो पहले दोनों सप्तकों के कवि तो हैं ही, और परम्पराओं की कुछ लीकें भी बन गयी हैं। पत्र-पत्रिकाओं में ‘नई कविता’ ग्राह्य हो गयी है, संपादक-गण (चाहे आतंकित होकर ही!) उसे अधिकाधिक छापने लगे हैं, और उसकी अपनी भी अनेक पत्रिकाएँ और संकलन-पुस्तिकाएँ निकलने लगी हैं। उधर उसकी आलोचना भी छपने लगी है, और धुरन्धर आलोचकों ने भी उसके अस्तित्व की चर्चा करना गवारा किया है-चाहे अधिकतर भर्त्सना का निमित्त बनाकर ही।
और कृतिकारों का अनुधावन करनेवाली, स्वल्प पूँजीवाली ‘प्रतिभाएँ’ भी अनेक हो गयी हैं। कहना न होगा कि इन सब कारणों से ‘नई कविता’ का अपने पाठक के और स्वयं अपने प्रति उत्तरदायित्व बढ़ गया है। यह मानकर भी कि शास्त्रीय आलोचकों से उसे सहानुभूतिपूर्ण तो क्या, पूर्वाग्रहरहित अध्ययन भी नहीं मिला है, यह आवश्यक हो गया है कि स्वयं उसके आलोचक तटस्थ और निर्मम भाव से उसका परीक्षण करें। दूसरो शब्दों में परिस्थिति की माँग यह है कि कविगण स्वयं एक-दूसरे के आलोचक बनकर सामने आवें।
पूर्वाग्रह से मुक्त होना हर समय कठिन है। फिर अपने ही समय की उस प्रवृत्ति के विषय में, जिससे आलोचक स्वयं सम्बद्ध है, तटस्थ होना और भी कठिन है। फिर जब समीक्षक एक ओर यह भी अनुभव करे कि वह प्रवृत्ति विरोधी वातावरण से घिरी हुई है और सहानुभूति ही नहीं, समर्थन और वकालत भी माँगती है, तब उसकी कठिनाई की कल्पना की जा सकती है।
लेकिन फिर भी नई कविता अगर इस काल की प्रतिनिधि और उत्तरदायी रचना-प्रवृत्ति है, और समकालीन वास्तविकता को ठीक-ठीक प्रतिबिम्बित करना चाहती है, तो स्वयं आगे बढक़र यह त्रिगुण दायित्व ओढ़ लेना होगा। कृतिकार के रूप में नए कवि को साथ-साथ वकील और जज दोनों होना होगा (और संपादक होने पर साथ-साथ अभियोक्ता भी!)
तीसरा सप्तक के संपादन की कठिनाई के मूल में यही परिस्थिति है। तार सप्तक एक नई प्रवृत्ति का पैरवीकार माँगता था, इससे अधिक विशेष कुछ नहीं। तीसरा सप्तक तक पहुँचते-न-पहुँचते प्रवृत्ति की पैरवी अनावश्यक हो गयी है, और कवियों की पैरवी का तो सवाल ही क्या है? इस बात का अधिक महत्त्व हो गया है कि संकलित रचनाओं का मूल्यांकन संपादक स्वयं न भी करे तो कम-से-कम पाठक की इसमें सहायता अवश्य करे।
नई कविता की प्रयोगशीलता का पहला आयाम भाषा से सम्बन्ध रखता है। नि:सन्देह जिसे अब ‘नई कविता’ की संज्ञा दी जाती है वह भाषा-सम्बन्धी प्रयोगशीलता को वाद की सीमा तक नहीं ले गयी है-बल्कि ऐसा करने को अनुचित भी मानती रही है। यह मार्ग ‘प्रपद्यवादी’ ने अपनाया जिसने घोषणा की कि ‘चीज़ों का एकमात्र नाम होता है’ और वह (प्रपद्यवादी कवि) ‘प्रयुक्त प्रत्येक शब्द और छन्द का स्वयं निर्माता है।’
‘नई कविता’ के कवि को इतना मानने में कोई कठिनाई न होती कि कोई शब्द किसी दूसरे शब्द का सम्पूर्ण पर्याय नहीं हो सकता, क्योंकि प्रत्येक शब्द के अपने वाच्यार्थ के अलावा अलग-अलग लक्षणाएँ और व्यंजनाएँ होती हैं-अलग संस्कार और ध्वनियाँ। किन्तु ‘प्रत्येक वस्तु का अपना एक नाम होता है,’ इस कथन को उस सीमा तक ले जाया जा सकता है जहाँ कि भाषा का एक नया रहस्यवाद जन्म ले ले और अल्लाह के निन्यानबे नामों से परे उसके अनिर्वचनीय सौवें नाम की तरह हम प्रत्येक वस्तु के सौवें नाम की खोज में डूब जाएँ। भाषा-सम्बन्धी यह निन्यानबे का फेर प्रेषणीयता का और इसलिए भाषा का भी बहुत बड़ा शत्रु हो सकता है। शब्द अपने-आपमें सम्पूर्ण या आत्यन्तिक नहीं है; किसी शब्द का कोई स्वयम्भूत अर्थ नहीं है। अर्थ उसे दिया गया है, वह संकेत है जिसमें अर्थ की प्रतिपत्ति की गयी है। ‘एकमात्र उपयुक्त शब्द’ की खोज करते समय हमें शब्दों की यह तदर्थता नहीं भूलनी होगी : वह ‘एकमात्र’ इसी अर्थ में है कि हमने (प्रेषण को स्पष्ट, सम्यक और निर्भ्रम बनाने के लिए) नियत कर दिया है कि शब्द-रूपी अमुक एक संकेत का एकमात्र अभिप्रेत क्या होगा।
यहाँ यह मान लें कि शब्द के प्रति यह नई, और कह लीजिए मानववादी दृष्टि है; क्योंकि जो व्यक्ति शब्द का व्यवहार करके शब्द से यह प्रार्थना कर सकता था कि ‘अनजाने उसमें बसे देवता के प्रति कोई अपराध हो गया हो तो देवता क्षमा करे’ वह इस निरूपण को स्वीकार नहीं कर सकता-नहीं मान सकता कि शब्द में बसनेवाला देवता कोई दूसरा नहीं है, स्वयं मानव ही है जिसने उसका अर्थ निश्चित किया है। यह ठीक है कि शब्द को जो संस्कार इतिहास की गति में मिल गये हैं उन्हें ‘मानव के दिये हुए’ कहना इस अर्थ में सही नहीं है कि उनमें मानव का संकल्प नहीं था-फिर भी वे मानव द्वारा व्यवहार के प्रसंग में ही शब्द को मिले हैं और मानव से अलग अस्तित्व नहीं रख या पा सकते थे।
किन्तु ‘एकमात्र सही नाम’ वाली स्थापना को इस तरह मर्यादित करने का यह अर्थ नहीं है कि किसी शब्द का सर्वत्र, सर्वदा सभी के द्वारा ठीक एक ही रूप में व्यवहार होता है-बल्कि यह तो तभी होता जब कि वास्तव में ‘एक चीज़ का एक ही नाम’ होता और एक नाम की एक ही चीज़ होती! प्रत्येक शब्द का प्रत्येक समर्थ उपयोक्ता उसे नया संस्कार देता है। इसी के द्वारा पुराना शब्द नया होता है-यही उसका कल्प है। इसी प्रकार शब्द ‘वैयक्तिक प्रयोग’ भी होता है और प्रेषण का माध्यम भी बना रहता है, दुरूह भी होता है और बोधगम्य भी, पुराना परिचित भी रहता है और स्फूर्तिप्रद अप्रत्याशित भी।
नए कवि की उपलब्धि और देन की कसौटी इसी आधार पर होनी चाहिए। जिन्होंने शब्द को नया कुछ नहीं दिया है, वे लीक पीटनेवाले से अधिक कुछ नहीं हैं-भले ही जो लीक वह पीट रहे हैं वह अधिक पुरानी न हो। और जिन्होंने उसे नया कुछ देने के आग्रह में पुराना बिलकुल मिटा दिया है, वे ऐसे देवता हैं जो भक्त को नया रूप दिखाने के लिए अन्तर्धान ही हो गये हैं! कृतित्व का क्षेत्र इन दोनों सीमा-रेखाओं के बीच में है। यह ठीक है कि बीच का क्षेत्र बहुत बड़ा है, और उसमें कोई इस छोर के निकट हो सकता है तो कोई उस छोर के। दुरूहता अपने-आपमें कोई दोष नहीं है, न अपने-आपमें इष्ट है। इस विषय को लेकर झगड़ा करना वैसा ही है जैसा इस चर्चा में कि सुराही का मुँह छोटा है या बड़ा, यह न देखना कि उसमें पानी भी है या नहीं।
प्रयोक्ता के सम्मुख दूसरी समस्या सम्प्रेष्य वस्तु की है। यह बात कहने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि काव्य का विषय और काव्य की वस्तु (कंटेंट) अलग-अलग चीज़ें हैं; पर जान पड़ता है कि इस पर बल देने की आवश्यकता प्रतिदिन बढ़ती जाती है! यह बिलकुल सम्भव है कि हम काव्य के लिए नए से नया विषय चुनें पर वस्तु उसकी पुरानी ही रहे; जैसे यह भी सम्भव है कि विषय पुराना रहे पर वस्तु नई हो... नि:सन्देह देश-काल की संक्रमणशील परिस्थितियों में संवेदनशील व्यक्ति बहुत कुछ नया देखे-सुने और अनुभव करेगा; और इसलिए विषय में नएपन के विचार का भी अपना स्थान है ही; पर विषय केवल ‘नए’ हो सकते हैं, ‘मौलिक’ नहीं-मौलिकता वस्तु से ही सम्बन्ध रखती है। विषय सम्प्रेष्य नहीं है, वस्तु सम्प्रेष्य है। नए (या पुराने भी) विषय की, कवि की संवेदना पर प्रतिक्रिया, और उससे उत्पन्न सारे प्रभाव जो पाठक-श्रोता-ग्राहक पर पड़ते हैं, और उन प्रभावों को सम्प्रेष्य बनाने में कवि का योग (जो सम्पूर्ण चेतन भी हो सकता है, अंशत: चेतन भी,और सम्पूर्णतया अवचेतन भी)-मौलिकता की कसौटी का यही क्षेत्र है। यही कवि की शक्ति और प्रतिभा का भी क्षेत्र है-क्योंकि यही कवि मानस की पहुँच और उसके सामथ्र्य का क्षेत्र है। कहाँ तक कवि नई परिस्थिति को स्वायत्त कर सकता है (आयत्त करने में रागात्मक प्रतिक्रिया भी और तज्जन्य बुद्धि-व्यापार भी है जिसके द्वारा कवि संवेदना का पुतला-भर न बना रहकर उसे वश करके, उसी के सहारे उससे ऊपर उठकर उसे सम्प्रेष्य बनाता है), इसी से हम निश्चय करते हैं कि वह कितना बड़ा कवि है। (और फिर सम्प्रेषण के साधनों और तन्त्र (टेकनीक) के उपयोग की पड़ताल करके यह भी देख सकते हैं कि वह कितना सफल कवि है-पर इस पक्ष को अभी छोड़ दिया जाए!)
यहाँ स्वीकार किया जाए कि नए कवियों में ऐसों की संख्या कम नहीं है जिन्होंने विषय को वस्तु समझने की भूल की है, और इस प्रकार स्वयं भी पथभ्रष्ट हुए हैं और पाठकों में नई कविता के बारे में अनेक भ्रान्तियों के कारण बने हैं।
लेकिन ‘नकलचियों से सावधान!’ की चेतावनी असली मालवाले प्राय: नहीं देते; या तो वे देते हैं जिन्हें स्वयं अपने माल की असलियत के बारे में कुछ खटका हो, या फिर वे दे सकते हैं जो स्वयं माल लेकर उपस्थित नहीं हैं और केवल पहरा दे रहे हैं। अर्थात् कवि स्वयं चेतावनी नहीं देते; यह काम आलोचकों, अध्यापकों और संपादकों का है। यह भी उन्हीं का काम है कि नकली के प्रति सावधान करते हुए असली की साख भी न बिगडऩे दें- ऐसा न हो कि नकली से धोखा खाने के डर से सारा कारोबार ही ठप हो जाए!
इस वर्ग ने यह काम नहीं किया है, यह सखेद स्वीकार करना होगा। बल्कि कभी तो ऐसा जान पड़ता है कि नकलची कवियों से कहीं अधिक संख्या और अनुपात नकली आलोचकों का है-धातु उतना खोटा नहीं है जितनी की कसौटियाँ ही झूठी हैं! इतनी अधिक छोटी-मोटी ‘एमेच्योर’ (और इम्मेच्योर) साहित्य-पत्रिकाओं का निकलना, जबकि जो दो-चार सम्मान्य पत्रिकाएँ हैं वे सामग्री की कमी से क्षयग्रस्त हो रही हैं, इसी बात का लक्षण है कि यह वर्ग अपने कर्तव्य से कितना च्युत हुआ है। यह ठीक है कि ऐसे छोटे-छोटे प्रयास एक आस्था की घोषणा करते हैं और इस प्रकार एक शक्ति (चाहे कितनी स्वल्प) के लक्षण हैं, पर यह भी उतना ही सच है कि इस प्रकार व्यापक, पुष्ट और दृढ़ आधारवाले मूल्यों की उपलब्धि और प्रतिष्ठा का काम क्रमश: कठिनतर होता जाता है।
पर नकलची हर प्रवृत्ति के रहे हैं, और जिनका भंडाफोड़ अपने समय में नहीं हुआ उन्हें पहचानने में फिर समय की दूरी अपेक्षित हुई है। अधिक दूर न जाएँ तो न तो ‘द्विवेदी युग’ में नकलचियों की कमी रही, न छायावाद युग में। और न ही (यदि इसी सन्दर्भ में उनका उल्लेख भी उचित हो जितनी उपलब्धि भी ‘प्रयोगवादी सम्प्रदाय’ से विशेष अधिक नहीं रही जान पड़ती) प्रगतिवाद ने कम नकलची पैदा किये। हमें किसी भी वर्ग में उनका समर्थन या पक्ष-पोषण नहीं करना है-पर यह माँग भी करनी है कि उनके अस्तित्व के कारण मूल्यवान की उपेक्षा न हो, असली को नकली से न मापा जाए।
शिल्प, तन्त्र या टेकनीक के बारे में भी दो शब्द कहना आवश्यक है। इन नामों की इतनी चर्चा पहले नहीं होती थी। पर वह इसीलिए कि इन्हें एक स्थान दे दिया गया था जिसके बारे में बहस नहीं हो सकती थी। यों ‘साधना’ की चर्चा होती थी, और साधना अभ्यास और मार्जन का ही दूसरा नाम था। बड़ा कवि ‘वाक्सिद्ध’ होता था, और भी बड़ा कवि ‘रससिद्ध’ होता था। आज ‘वाक्शिल्पी’ कहलाना अधिक गौरव की बात समझा जा सकता है-क्योंकि शिल्प आज विवाद का विषय है। यह चर्चा उत्तर छायावाद काल से ही अधिक बढ़ी, जबकि प्रगति के सम्प्रदाय ने शिल्प, रूप, तंत्र, आदि सबको गौण कहकर एक ओर ठेल दिया, और ‘शिल्पी’ एक प्रकार की गाली समझा जाने लगा। इसी वर्ग ने नई काव्य प्रवृत्ति को यह कहकर उड़ा देना चाहा है कि वह केवल शिल्प का, रूप-विधान का आन्दोलन है, निरा फार्मेलिज्म है। पर साथ-साथ उसने यह भी पाया है कि शिल्प इतना नगण्य नहीं है; कि वस्तु से रूपाकार को बिलकुल अलग किया ही नहीं जा सकता, कि दोनों का सामंजस्य अधिक समर्थ और प्रभावशाली होता है; और इसी अनुभव के कारण धीरे-धीरे वह भी मानो पिछवाड़े से आकर शिल्पाग्रही वर्ग में आ मिला है। बल्कि अब यह भी कहा जाने लगा है कि ‘प्रयोगवाद के जो विशिष्ट गुण बताये जाते थे (जैसा बतानेवाले वे ही थे!) उनका प्रयोगवाद ने ठेका नहीं लिया है-प्रगतिवादी कवियों में भी वे पाये जाते हैं।’ इससे उलझी परिस्थिति और भ्रामक हो गयी है। वास्तव में नई कविता ने कभी अपने को शिल्प तक सीमित रखना नहीं चाहा, न वैसी सीमा स्वीकार की। उस पर यह आरोप उतना ही निराधार था जितना दूसरी ओर यह दावा कि केवल प्रगतिवादी काव्य में सामाजिक चेतना है, और कहीं नहीं। यह मानने में कोई कठिनाई न होनी चाहिए कि प्रगतिवाद सबसे अधिक समाजाग्रही रहा है; पर केवल इसी से यह नहीं प्रमाणित हो जाते उस वाद के कवियों में गहरी सामाजिक चेतना है या कि जैसी है वही उसका स्वस्थ रूप है-उसकी पड़ताल प्रत्येक कवि में अलग करनी ही होगी।
खैर, यहाँ पुराने झगड़ों को उठाना अभीष्ट नहीं है। कहना यह है कि नया कवि नई वस्तु को ग्रहण और प्रेषित करता हुआ शिल्प के प्रति कभी उदासीन नहीं रहा है, क्योंकि वह उसे प्रेषण से काटकर अलग नहीं करता है। नई शिल्प दृष्टि उसे मिली है; यह दूसरी बात है कि वह सबमें एक-सी गहरी न हो, या सब देखे पथ पर एक-सी सम गति से न चल सके हों। यहाँ फिर मूल्यांकन से पहले यह समझना आवश्यक है कि यह नई दृष्टि क्या है, और किधर चलने की प्रेरणा देती है।
संकलित कवियों के विषय में अलग-अलग कुछ कहना कदाचित् उनके और पाठक के बीच व्यर्थ एक पूर्वाग्रह की दीवार खड़ा करना होगा। एक बार फिर इतना ही कहना अलम् होगा कि ये कवि किसी एक सम्प्रदाय के नहीं हैं; न सबकी साहित्यिक मान्यताएँ एक हैं, न सामाजिक, न राजनीतिक; न ही उनकी जीवन-दृष्टि में ऐसी एकरूपता है। भाषा, छन्द, विषय, सामाजिक प्रवृत्ति, राजनीतिक आग्रह या क्रम की दृष्टि से प्रत्येक की स्थिति या दिशा अलग हो सकती है; कोई इस छोर के निकट पाया जा सकता है, कोई उस छोर के, कोई ‘बाएँ’ तो कोई ‘दाहिने’, कोई ‘आगे’ तो कोई ‘पीछे’, कोई सशंक तो कोई साहसिक। यह नहीं कि इन बातों का कोई मूल्य न हो। पर तीसरा सप्तक में न तो ऐसा साम्य कलन का आधार बना है, न ऐसा वैषम्य बहिष्कार का। संकलनकर्ता ने पहले भी इस बात को महत्त्व नहीं दिया है कि संकलित कवियों के विचार कहाँ तक उसके विचारों से मिलते हैं या विरोधी हैं; न अब वह इसे महत्त्व दे रहा है। क्योंकि उसका आग्रह रहा है कि काव्य के आस्वादन के लिए इससे ऊपर उठ सकना चाहिए और उठना चाहिए। सप्तकों की योजना का यही आधारभूत विश्वास है। प्रयोजनीय यह है कि संकलित कवियों में अपने कवि-कर्म के प्रति गम्भीर उत्तरदायित्व का भाव हो, अपने उद्देश्यों में निष्ठा और उन तक पहुँचने के साधनों के सदुपयोग की लगन हो। जहाँ प्रयोग हो वहाँ कवि मानता हो कि वह सत्य का ही प्रयोग होना चाहिए। यों काव्य में सत्य क्योंकि वस्तुसत्य का रागाश्रित रूप है इसलिए उसमें व्यक्ति-वैचित्र्य की गुंजाइश तो है ही, बल्कि व्यक्ति की छाप से युक्त होकर ही वह काव्य का सत्य हो सकता है। क्रीड़ा और लीला-भाव भी सत्य हो सकते हैं-जीवन की ऋजुता भी उन्हें जन्म देती है और संस्कारिता भी। देखना यह होता है कि वह सत्य के साथ खिलवाड़ या ‘फ्लर्टेशन’ मात्र न हो।
इन कवियों के एकत्र पाये जाने का आधार यही है। ऐसा दावा नहीं है कि जिस काल या पीढ़ी के ये कवि हैं, उसके यही सर्वोत्कृष्ट या सबसे अधिक उल्लेख्य कवि हैं। दो-एक और आमन्त्रित होकर भी इसलिए रह गये कि वे स्वयं इसमें आना नहीं चाहते थे-चाहे इसलिए कि दूसरे कवियों का साथ उन्हें पसन्द नहीं था, चाहे इसलिए कि संपादक का सम्पर्क उन्हें अप्रीतिकर या हेय लगा, चाहे इसलिए कि वे अपने को पहले ही इतना प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित मानते थे कि ‘नए’ कवियों के साथ आने में उन्होंने अपनी हेठी या अपना अहित समझा। एक इसलिए रह गये कि उनकी स्वीकृति के बावजूद दो वर्ष के परिश्रम के बाद भी उनकी रचनाएँ न प्राप्त हो सकीं। एक-दो इसलिए भी छोड़ दिये गये कि एकाधिक स्वतन्त्र संग्रह प्रकाशित हो चुकने के कारण उनका ऐसे संकलन में आना अनावश्यक हो गया था-स्मरण रहे कि मूल योजना यही थी कि सप्तक ऐसे कवियों को सामने लाएँगे जिनके स्वतन्त्र संग्रह प्रकाशित नहीं हुए हैं और जो इस प्रकार भी ‘नए’ हैं। यदि प्रस्तुत संकलन के भी दो-एक कवियों के स्वतन्त्र संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं तो वह इसी बात का घोतक है कि तीसरा सप्तक की पांडुलिपि बनने और उसके प्रकाशन के बीच एक लम्बा अन्तराल रहा है। यों हम तो चाहते हैं कि सभी कवियों के स्वतन्त्र संग्रह छपें-बल्कि सप्तक में उन्हें लाने का कारण ही यह विश्वास है कि उनके अपने-अपने संग्रह छपने चाहिए।
इन शब्दों के साथ हम ओट होते हैं। भूमिका का काम भूमि तैयार करना है; भूमि ‘तैयार’ वही है जिस पर चलने में उसकी ओर से बेखटके होकर उसे भुला दिया जा सके। पाठक से अनुरोध है कि अब वह आगे बढक़र कवियों से साक्षात्कार करे। उपलब्धि वहीं है।