नई दहलीज़ / तेजेन्द्र शर्मा

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


डॉ. सोढी परेशान हो उठे। पत्र उनके हाथ में था। होंठ भिंचे हुए। एकबार फिर पत्र खोलकर पढ़ा। उन्हें विश्वास नहीं हो पा रहा था कि उन्हें भी ऐसा पत्र आ सकता है। वास्तव में उन्हें तो यही विश्वास था कि ऐसा पत्र कभी किसी के भी घर नहीं पहुँचा। इस बात पर उनकी बहुत लोगों से बहस हो जाया करती थी। जब-जब किसी ने ऐसे धमकी भरे पत्र की बात की, डॉ. सोढी अपने कान व दिमाग़ दोनों बन्द कर लेते थे। इस विषय पर जैसे उनके विचार बदल ही नहीं सकते थे। पर एकाएक यह क्या हो गया? `क्या किसी की शरारत है? पर मेरे साथ ऐसा मज़ाक कौन कर सकता है? फिर अपनी ही बिरादरी के लोगों से ऐसा बदलाव!' मन खट्टा हो गया। आज उन्हें हरदीप की याद बहुत दिनों बाद आई। वह तो हरदीप का नाम अपने जीवन की स्लेट से सदा के लिए पोंछ चुके थे। हरदीप-उनका इकलौता पुत्र। आज पहली बार अपने पुत्र के बिना अकेला महसूस कर रहे थे। परन्तु अगर हरदीप होता भी तो क्या कर लेता? इन सिरफिरे लोगों का मुकाबला क्या कोई भी शरीप़€ इन्सान कभी कर पाया। पर नहीं-जवान बेटे का सहारा तो बहुत बड़ा सहारा होता है न! पत्नी सुखमणी साहिब का पाठ कर रही थी। पति के नाम आए पत्र कभी भी खोल कर नहीं देखती थी। निश्चिन्त-सी पाठ में मगन। `सतनाम श्री वाहे गुरु' कहकर उसने पाठ बन्द किया। `आज, डिस्पेन्सरी नहीं जाओगे?' `नहीं आज कुछ तबीयत ठीक नहीं।' `क्यों जी, सवेरे तक तो सब ठीक था। कुछ हरारत तो नहीं लग रही?' `आज काके की बड़ी याद आ रही है।' `शाहजी, आज यह उल्टी हवाएँ कैसी? तीन साल हो गये उसे याद किए। आज अचानक काका कियों आ गया दिमाग विच?' `जीतो, आज मैं हार गया। यह चिट्ठी हमको भी आ गई।' `कैसी चिट्ठी जी?' डॉ, सोढी ने पत्र पढ़कर सुना दिया। `वाहे गुरु मेहर करेगा!' पत्नी का यह वाक्य भी डॉ. सोढी को कुछ तसल्ली नहीं दे पाया। उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या निर्णय लें। किंकर्तव्यविमूढ़! उस दिन रामलुभाया भी ऐसे ही परेशान था। उसे भी ऐसा ही पत्र आया था। रामलुभाया-उनके बचपन का साथी। वकालत करके यहीं प्रेक्टिस कर रहा था। शहर के सफल वकीलों में नाम था उसका। पत्र लेकर वह सीधा डॉ. सोढी के पास दौड़ा आया था, `सतवन्त, अब क्या होगा?" `होना क्या है लुभाए? यह तो किसी की शरारत है। गुरु के बन्दे ऐसे ऊलजलूल काम नहीं करते। ओए, तू तो रोज़ दरबार साहिब जाकर मत्था टेकता है। मेरे से ज्öयादा खालसा तो तू ही है। फिर तुझे क्या डर?' `डॉक्टर, बात अब मज़ाक से आगे जा चुकी है। बूटाराम को भी ऐसा ही खत आया था। उसने भी परवाह नहीं की थी। चालीस गोलियाँ निकाली थी उसके जवान बेटे की लाश से।...भई, मैं तो अपना घर बार बेचकर दिल्ली चला जाऊंगा। छोटा भाई वहीं है। कुछ जुगाड़ करेंगे।...अपनी तो दो जवान बेटियाँ हैं। कहीं कुछ ऊँच-नीच हो गई तो अपनी तो इज्öज़त मिट्टी में मिल जाएगी।' डॉ. सोढी का मुँह कसैला हो गया। गुरु के भक्तों के बारे में ऐसी धारणा-और वह भी उनका सबसे प्रिय मित्र। लगा यह रामलुभाया हो ही नहीं सकता। यह कोई शैतान है जो रामलुभाए का रूप धर उनके सामने खड़ा है। उन्होंने लुभाए को समझाने की चेष्टा की, `भरा मेरया, यह माँगें किस के लिए हैं? हम सब पंजाबियों के लिए न! अगर चण्डीगढ़ पंजाब में आ जाए तो तुम्हारा क्या नुक्सान है? पानी का बँटवारा सही ढंग से होना चाहिए या नहीं? बिजली पैदा करे पंजाब और मौज मनाए दिल्ली! यह कहाँ का इन्साप़€ है? हमें अपना हम मिलना ही चाहिए।' `ओए सतवन्त, तू समझता क्यों नहीं। अभी तो मेरे से सिर्प़€ पच्चीस हज़ार माँगा है। अगर अगली चिट्ठी में पचास मांग लिया तो मैं क्या कर लूँगा? इन लोगों का कोई दीन धर्म तो हैं नहीं।' डॉ. सोढी का खून खौल गया। गुरु के बन्दों का दीन धर्म नहीं! कोई और कहता तो हाथापाई हो जाती। उसके बाद रामलुभाया और उसका परिवार पराया हो गया। सब दिल्ली चले गये। वर्षों की दोस्ती में गाँठ पड़ गई।


डॉ. सोढी अपने ही विचारों में मग्न, बेचैन से कमरे में चक्कर काट रहे थे। एकबार विचार आया कि जाकर तरसेम से सलाह ली जाए। तरसेम भी उनके बहुत करीबी दोस्तों में से है। बड़े सरकारी ओहदे पर है। कुछ न कुछ हल ज़रूर निकालेगा।...पर वह तो आजकल शहर में ही नहीं है। अभी परसों ही तो उसकी बेटी उनसे कान के दर्द की दवा लेने आई थी। उसने ही बताया था कि `बाऊ जी चंडीगढ़ गये हुए हैं। एक हफ़्ते के लिए।' अकेलेपन का बोझ बढ़ता ही जा रहा था और अब उनके लिए असह्य होता जा रहा था। ड्राइंग रूम के किनारे पर बनी छोटी-सी बार खोली। काप़€ाú शौक से बनवायी थी यह उन्होंने। रामलुभाया और तरसेम के साथ कई शामें इकट्ठी बीतती थीं। तीनों दोस्तों को ही खाने-पीने का काप़€ाú शौक था। बार की लाल रौशनी आज उन्हें अच्छी नहीं लगी। जल्दी से व्हिस्की की बोतल निकाली। गिलास में एक बड़ा-सा पेग डाला। बर्प़€ की दो डलियाँ डालकर उसमें सोडा डालने लगे। सोडे की झाग उठी और आहिस्ता से गिलास के अन्दर ही समा गई। डॉ. सोढी एकटक बुलबुलों को बनते और टूटते देखते रहे। एक घूँट भरा। हरदीप की याद गिलास में से बाहर छलकने लगी। उसे अपने दारजी का शराब पीना कभी नहीं पसन्द आया था। इस मामले में उस पर माँ के संस्कारों का अधिक असर था। मांस मदिरा से स़त परहेज़। इसी विषय को लेकर बाप-बेटे में अक्स झड़प हो जाया करती थी। `ओय काका, तूँ पता नहीं कैसे खालसों के घर पैदा हो गया है। ओए खालसे तो मीट भी खाते हैं और शराब भी पीते हैं।' `दारजी, हमारे कौन से गुरु ने इन चीजों के इस्तेमाल की इजाज़त दी है? आपने तो गुरुग्रन्थ साहिब कई बार पढ़ा है, आप कैसे वह सब खा, पी लेते हैं?' गिलास को एक ओर सरका दिया। लगा कि मन की आग को शराब तो नहीं ही ठण्डा कर पाएगी। हाँ करके की याद और जारों से आने लगेगी। अब तो काके का बेटा भी दो वर्ष का होने वाला है। जीतो तो जाकर देख भी आई है अपने पोते को। `शाहली, पोते की शक्ल तो बिल्कुल आप पर गई है। आँखों का रंग भी आपकी ही आँखों की तरह नीला है। गोरा रज के। बड़ा होकर आपकी तरह ही कदावर जवान बनेगा।...कौटीं तो आपको बुलाणे की खातर खुद आणा चाहती थी; अमृतसर। आपके गुस्से को उसने कहाँ देखा है। काके ने ही रोक लिया।' डॉ. सोढी ने तो कसम खा रखी है कि बेटे की दहलीज पर कदम नहीं दखेंगे। पर अपने काके की दहलीज पराई कैसे हो गई? उसकी दहलीज दारजी की दहलीज से अलग ही कैसे हुई? कुसूर किसका था-काके का, उनका अपना या शायद हालात ही कुछ ऐसे हो गए थे! डॉ. सोढी कुछ निश्चय नहीं कर पाए। उनके दिमाग में मंथन जारी था। अतीत के दृश्य उनके अन्तर का आन्दोलित किए जा रहे थे। बेटे को भेजा था दिल्ली-डाक्टरी की पढ़ाई के लिए। पढ़ाई के चार साल पूरे हो चुके थे। बेटा `हाऊस जॉब' कर रहा था तभी उसका पत्र आया। पत्र तो पहले भी आते थे; पर यह पत्र बहुत विस्फोटक था। बेटा जवान हो गया था। अर्चना के बारे में लिखा था। उसके साथ ही डॉक्टरी की छात्रा है। दोनों की पढ़ाई इकट्ठी ही ख़त्म होगी।...दोनों शादी करना चाहते हैं...और बाद में अपनी क्लीनिक खोलने का विचार है। डॉ. सोढी की रजामन्दी माँगी थी। शायद सामना करने की हिम्मत नहीं थी। दारजी के गुस्से से परिचित था। क्षोभ और क्रोध से डॉ. सोढी के हाथ काँपने लगे। उनका इकलौता पुत्र अपनी मर्जी से विवाह करने की सोच रहा है-और वह भी एक हिन्दु लड़की से। नहीं, नहीं...वे स्वयं जाकर बेटे को समझाएँगे। इस उम्र में किसी भी जवान लड़की के प्रति आकर्षण स्वाभाविक ही है। पर वे जाकर उसे समझाएँगे। बेटा इतना नासमझ तो नहीं कि उनकी बात न समझे। बिरादरी में ही एक से एक खूबसूरत लड़की मिल सकती हैं अपने काके को। गोरा चिट्टा गबरू जवान है अपना पुत्तर। किसी से कम है क्या? पत्नी ने तो पहले ही हथियार डाल दिए थे, `मेरे ख्याल से तो शाहजी, जहाँ बच्चे का मन हो, वहीं ब्याह कर देना चाहिए। आजकल दे बच्चे मॉ-प्यो दी पसन्द कहाँ मानणे वाले हैं। सोणी ताँ जरूर होयेगी जे मेरे पुत्तर ने पसन्द कीती है।' पर डॉ. साढी को विश्वास था कि बेटे को मना ही लेंगे। आनन-प़€ानन में दिल्ली पहुँचे थे। समझ नहीं आ रहा था कि बात कहाँ से शुरू करें। हरदीप भी शायद पिता का सामना करने से कतरा रहा था। डॉ. साढी ने ही चुप्पी तोड़ी थी- `काका, क्या तूने पक्का इरादा कर लिया है?' `दारजी, अर्चना एक अच्छी लड़ी है। आप एक बार उसके पापा-मम्मी से मिल लें...आप चाहें तो मैं उन्हें यहीं बुलवा लूँगा।' हरदीप आँखें नीची किए हुए ही बोला था। `पुत्तर, सवाल अच्छे-बुरे का नहीं। सवाल है उसूलों का।' `दारजी, आप!' `तुम एक गुरसिख की औलाद हो। हमारे गुरुओं ने मज़हब की ख़ातिर जानें दीं। इस मज़हब का एक वीरतापूर्ण इतिहास है। तुम भी इसी मज़हब की देन हो।...इस मज़हब का हक है तुम पर। हमारी बिरादरी की लड़कियों का तुम पर पहला हम बनता है।...अगर तुम्हें डॉक्टर लड़की ही पसन्द है तो हमारे यहाँ भी तो बहुत सारी लड़कियाँ डॉक्टरनियाँ हैं। खन्ना साहिब, बेदी साहिब, कपूर...' `दारजी आपके खन्ना साहिब की बेटी ठीक है पर मेरी पसन्द की खन्ना लड़की ठीक नहीं है! रामलाल खन्ना की बेटी मेरी पत्नी नहीं बन समती पर रामसिंह खन्ना की बेटी ठीक है? दारजी, आप अपने संकुचित दायरे में रहकर ही क्यों सोचते हैं? हमारे तो गुरु भी... `तुम क्या जानो गुरुओं के बारे में। कभी श्री गुरुग्रन्थ साहिब खोलकर पढ़ा है? तुम्हारी पीढ़ी समझती है कि तुम्हारे माँ-बाप तो फालतू की चीज़ हैं।' `दारजी मैं तो यही कह रहा था कि हमारे नॉ गुरु तो सिंह साहेबान थे ही नहीं। गुरु नानक देव, गुरु अर्जुन देव...' `हम दसवीं पादशाही के अंश हैं। श्रीगुरु गोविन्द सिंह महाराज जी ने खालसा पंथ की नींव रखी थी। हमारा सोढी खानदान उनकी ही विरासत है।... यह कन्घा केश, कड़ा जो लिए फिरते हो न, सब उनका ही दिया हुआ है। उन्होंने हमें शेर बनाया, सवा लाख से एक लड़ाया। हमें उनकी परम्परा को आगे बढ़ाना है। तू गुरुओं की आड़ लेकर अपने कर्त्तव्य से बच नहीं सकता।' `पर दारजी, उन्होने हमारे पंथ की नींव रखी क्यों? क्या हमारा काम अपनी कौम की रक्षा करना नहीं था? आज वह कौम ही हमसे अलग हो गई। यानि कि उसी कौम से हमारा सम्बन्ध टूट गया जिसकी हमें रक्षा करनी थी। गुरु साहिब ने यह तो कभी भी नहीं पढ़ाया।' `काका!' डॉ. सोढी थोड़े आवेश में आ गए। पर तत्काल ही उन्होंने स्वयं को संयत किया। `आज के हालात को समझने की कोशिश करो। पंथ एक बहुत नाजुक दौर से गुज़र रहा है। पंथ को तुम्हारे जैसे नौजवानों की ज़रूरत है। अगर तुम्हीं लोग इस समय पंथ का साथ नहीं दोगे तो क्या बचेगा पंथ का।' डॉ. सोढी ने अपना अन्तिम अॉा चलाया। `दारजी, क्या आप सच्चे मन से समझते हैं कि हिन्दु सिख दो अलग-अलग धर्म और कौमें हैं। हमारा बीज तो एक ही है। बड़ा भाई सिख है तो छोटा हिन्दु। हर घर में हिन्दु सिख मिल जाएँगे। हमारी जड़ें तो एक ही जगह से शुरू होती हैं।' `काकाजी, एक बातध्यान से सुन लो। बलज चाहे एक ही हो, पर माल अलग-अलग है। गेहूँ का दाना देखते हो न-पैदा तो पंजाब में ही हुए हो। उसी दाने से बनता है आटा और उसी दाने से बनता है मैदा। आटा जब एक बार मैदा बन जाए तो दोबारा आटा नहीं बन सकता। दोनों की अलग-अलग पहचान होती है और अलग-अलग स्वाद। ठीक उसी तरह हम भी हैं-अलग-अलग पहचान, अलग-अलग कौम!' हरदीप ने उनके तर्कों का काई उत्तर नहीं दिया था। पर उसके मौन में अपने निर्णय पर अटल रहने की दृढ़ता स्पष्ट थी। डॉ. सोढी अमृतसर वापस आ गये थे-हारी हुई टीम के खिलाड़ी से पस्त। निराश! बेटा अतना बड़ा हो गया कि बाप की बात नहीं सुनता। सारी उमर पाला हमने और वह कल की छोकरी अर्चना आज उसके लिए सब कुछ हो गई। लगने लगा जैसे इस सब की दोषी अर्चना ही है। उसे देखे मिले बिना ही उन्हें वह `वैम्प' लगने लगी थी। इस सारे प़€साद की जड़। पर इसमें उस लड़की का क्या दोष? जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो दूसरे को क्या दोष देना! मन के किसी कोने में इच्छा जागी-अगर एक बार देख ही आता अपनी होने वाली बहू को तो...। पर तभी इस ख्याल को झटक दिया उन्होंने।


डॉ. सोढी सुबह उठे। `ट्रिब्यून' उठाया। समाचार चौंका देने वाला था। बस रोक कर यात्रियों को एक लाइन में खड़ा करके गोलियों से उड़ा दिया। पैंतीस व्यक्ति मृत। इसी वीभत्स हत्याकाण्ड ने जैसे उन्हें हिला ही दिया था। नहीं...यह गुरु के बन्दे नहीं कर सकते। बेबस औरतें, बच्चे, जवान, बूढ़े सबको मार डाला! ऐसा कुकृत्य तो कोई भी गुरसिख नहीं कर सकता। यह अवश्य ही पड़ोसी देश की शरारत है। वही हमारे देश में फूट डालने की कोशिश कर रहे हैं। सन्देह ने प़€न उठाया। `पर यदि यह अपने ही बन्दे कर रहे हों तो?' समाचार पत्रों में आए दिन केशधारियों को स्टेनगन उठाए घूमते तो देखा था। बेचैनी बढ़ती जा रही थी। कुछ समझ नहीं पा रहे थे। और फिर काके की चिट्ठी आई थी। `शादी कर रहा हूँ-कोर्ट में। यदि आपने मुझे माप़€ कर दिया हो, तो अवश्य ही पहुँचें। आपका आशीर्वाद भी पा जाऊँ।' `आशीर्वाद भी!' यानि कि आशीर्वाद तो बस `बोनस' होकर रह गया है-आवश्यक नहीं। माँ-बाप तो बस गौण होकर रह गए हैं। उसी क्षण अपना निर्णय सुना दिया, `मैं तो अब सारी उमर काके की दहलीज पर पाँव नहीं रखूँगा।' पत्नी तो सब गिले शिकवे भुलाकर शादी में जाने को तैयार हो गई थी। पर डॉ. सोढी की इच्छा के विरुद्ध जाना उसके साहस की सीमा से बाहर था। उसकी ममता कर्त्तव्य की वेदी पर बलि हो गई थी। और दो दिन तक अपनी ममता के आँसुओं में वह भीगती रही। दिल्ली में हरदीप परेशान था। जानता था कि दारजी नहीं आएँगे। फिर भी जैसे उम्मीद लगाए बैठा था-शायद वाहेगुरु कोई चमत्कार कर दें। चमत्कार हो गया। दारजी दिल्ली पहुँच गए। इकलौते बेटे का पराया होना सह नहीं पा रहे थे। दिल्ली अकेले पहुँचे थे। बेटे को हस्पताल में ही मिलने गए थे। काका प्रतीक्षा कर रहा था कि दारजी बात शुरू करें। और डॉ. सोढी किसी गहरी सोच में डूबे हुए थे। आखिर बर्प़€ बूटटी, `पुत्तर, आपसे एक अरदास करनी है। अपने दारजी की इज्öज़त बचा ले। अभी भी अपना प़ै€सला बदल ले।' `दारजी आप कैसी बातें कर रहे हैं? मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता। क्या मैं इस समय अर्चना को धोखा दे सकता हूँ? क्या मैं इतना गिर सकता हूँ?' `बेटा जी, मैं बिरादरी में क्या मुँह दिखाऊँगा? अपनी कौम पे हुए जुल्मों के बाद कैसे सह पाऊँगा कि मेरा ही पुत्तर बिरादरी के बाहर शादी कर ले। नाक कट जाएगी पुत्तर।...पहले दरबार साहिब अपवित्र किया, फिर दिल्ली में निहत्थों को ज़िंदा जला डाला, अब मेरे ही घर पा डाका।' `दारजी आप इतना एकतरप़€ा कैसे सोच लेते हैं? क्या आपने कभी सोचा कि बसों में से लोगों को उतार कर एक लाइन में खड़ा करके गोली मारी कई, और...' `ओए वाह हमारे लोगों का काम नहीं। वोह तो पड़ोसी देश के गुण्डों का काम है।' दारजी ने बात काटी। `और प्रधानमंत्री की हत्या?' `ओए उसका तो केस चल रहा है। जब तक प़ै€सला नहीं हो जाता, क्या पता किसका काम है।...पर तूने इन बातों से क्या लेना है? तू अपने परिवार की सोच। इस बहस से तुझे क्या मिलने वाला है?' `दारजी, जहाँ तक मेरी बात है, शादी तो मैं अर्चना से ही करूँगा। अर्चना से अपने सम्बन्धों को मैं धर्म की तराजू पर नहीं तौल सकता।'

डॉ. साढी वापिस अमृतसर आ गए। सम्बन्धों के तार टूट गए। मन को समझाने लगे के बेटा कभी पैदा ही नहीं हुआ था। कुछ दिन बहुत परेशान रहे। डिस्पेंसरी भी नहीं खोली फिर एक गम्भीर-सी चुप्पी ओढ़े अपने काम में जुट गये। कभी-कभी झल्ला उठते, `जीतो, मैं कोई दहेज का लालची नहीं था। गरीब से गरीब लड़की ब्याह लाता। ओए चाहे किसी मज़हबी लड़की से शादी कर लेता। इसने तो खालसों के नाम पर बट्टा लगा दिया।' पत्नी सदा की भाँति कह देती, `वाहे गुरु मेहर करेगा।' वाहे गुरु ने मेहर की। हरदीप के यहाँ बेटा हुआ था। तार आया तो डॉ. सोढी भी अपनी खुशी छिपा नहीं पाए। जल्दी-जल्दी पत्नी को समाचार सुनाया। फिर स्वयं को संयत किया। उन्हें क्या प़€र्क पड़ता है। जब बेटा ही पराया हो गया तो पोते से क्या सम्बन्ध?... पर पोते को गोद में खिलाने का आनन्द ही कुछ और होता है। हरदीप को तो वह बचपन में कभी प्यार नहीं कर पाये थे। संयुक्त परिवार में रहते थे। अपने माता-पिता के सामने कैसे प्यार करते अपने बच्चे को? ओच्छे नहीं लगते? शायद इसीलिए असल से सूद अधिक प्यारा होता है।...एक बार तो मन हुआ कि सारे सिद्धान्तों को ताक पर रख, जाकर अपने पोते को मिल आएँ। अकेला बेटा पराया हो गया। तुतलाता पोता पहुँच के बाहर।...अपनी ही खड़ी की हुई दीवार को कैसे लांघें। इस बार पत्नी स्वयं को नहीं रोक पाई। चली गई अपने बेटे और बहू को मिलने। पोते के जन्म के समाचार ने ही उसे भाव-विभोर कर दिया था।

और अब वह पत्र आए एक हफ़्ता हो गया है। सात दिन के अन्दर-अन्दर ही पैसा जमा करवाना है। वही पच्चीस हज़ार की माँग। उतना ही पैसा जितना रामलुभाए से माँगा था। आज लुभाए की एक-एक बात सच लग रही थी। बूटाराम की बहुत याद आ रही थी। उसके बेटे की लाश रह-रहकर डरा रही थी। इस एक पत्र ने उनके समूचे व्यक्तित्व को झंझोड़ डाला था। उनके सोचने विचारने के ढ़ंग को हिला दिया था। उनका विश्वास डगमगा गया था। सोचा चलो सब कुछ छोड़-छाड़कर हरदीप के पास चलें। पर बेटे को तो कह आए थे कि इस जन्म में उसकी दहलीज़ पर पाँव नहीं रखेंगे। तो क्या अब बेटे के आगे नीचा देखना पड़ेगा। अरे इतने वर्ष अपने बेटे को प्यार से पाला। क्या यह रिश्ता टूट सकता है। मन में एक कचोट-सी हुई। अर्चना क्या कहेगी?' आज बुड्ढी को जान का खतरा लगा तो बेटे की याद आ गई!'...अगर वे पच्चीस हज़ार रुपये नहीं भेजते हैं तो कहीं कोई उनका ही काम तमाम...! पोते की याद आ गई। क्या पोते को देखे बिना ही...नहीं, नहीं! और वे उससे आगे सोच नहीं पाए! क्यों न पच्चीस हज़ार दे ही डालूँ? क्या पंथ के लिए इतना नहीं कर सकता? श्री गुरुग्रन्थ साहिब भी कहता है `राज करेगा खालसा'। पर क्या यह खालसों का राज है? किसी भी शरीफ़ इन्सान को चिट्ठी भेज दो। डरा-धमका कर पैसा माँगने लगो।' `पुलिस को दिखाना चाहिए यह पत्र!...नहीं...अपने ही बच्चे तो हैं। थोड़ा भटक गए हैं। उन्हें समझाना चाहिए। किन्तु समझाएँ किसे? वे हैं कहाँ? उन्हें कहाँ ढूँढा जाए!' `पैसे को कभी भी मज़हब से ज्öयादा प्यार नहीं किया। पर यह भी कोई तरीका हुआ कि ऐसा पत्र लिखकर पैसा मँगवाया जाए। अभी दो साल पहले जब गुड्डो के बेटा हुआ था, तो दरबार साहिब में दस तोले का छत्तर चढ़ाया था। बात श्रद्धा की है।' `सोचते-सोचते थक गऐ डॉ. सोढी। बैठे-बैठे ही झपकी-सी आ गई। सपने में अपने पोते को बाँहों में लकर झुलाते रहे।

पत्नी ने उठाया। रात हो गई थी। खाने का समय। खाने की मेज़ पर पहुँचे।...देखते ही रह गए। सामने...काका बैठा था। चेहरे पर वही चिर परिचित मुस्कान लिए। हरदीप उठा, दारजी को पैरी पौना किया। `दारजी, मुझे सब पता लग गया है। बीजी ने मुझे तार देकर बुलवाया है। अर्चना ने ख़ास तौर पर कहा है कि बिल्कुल प़ि€क्र ना करें। कल ही हम सब दिल्ली जा रहे हैं। आपने मेरी दहलीज़ पर कदम नहीं रखना, तो कोई बात नहीं। हम एक नया घर ले लेंगे। वह तो आपकी दहलीज़ होगी न। एक नई दहलीज़। एक ऐसा संसार जहाँ नप़€रत, हिंसा और आतंकवाद के लिए कोई स्थान नहीं होगा। वहाँ होगा सिर्प़€ प्यार, प्यार और प्यार! डॉ. सोढी ने डबडबाती आँखों से अपने `पुत्तर' को देखा और उसे गले से लगा लिया।