नई बिरादरी और उसके बाहर रह जाने की छटपटाहट / राकेश बिहारी
सुंदर, सुशील, सुशिक्षित और स्वाजातीय बहू की खोज में निरंतर निकलने वाले अधुनातन वैवाहिक विज्ञापनों और खाप पंचायतों के नित्यप्रति बढ़ते उत्तर आधुनिक सामंती फैसलों के बीच फरवरी 1961 में प्रकाशित राजेंद्र जी की बहुचर्चित कहानी 'बिरादरी बाहर' की याद आना कई कारणों से स्वाभाविक भी है और सामयिक भी। उल्लेखनीय है कि 1961 से अब तक भारतीय समाज में राजनैतिक, सामजिक और आर्थिक मोर्चे पर बहुत कुछ बदल गया लेकिन यह भी सच है कि इतना कुछ बदलने के बाद भी कितना कुछ, खास कर जाति व्यवस्था से जुड़े हमारे संस्कार आज भी बहुत हद तक वही हैं। जो बदलाव दिखता है, वह ऊपर-ऊपर ज्यादा है। हमारी जड़ों में अब भी हमारे वही पुराने जातीय संस्कार कुंडली मार कर बैठे हैं। तभी तो आर्थिक बदलाव और मजबूरियों के दवाब के कारण विभिन्न जातियों के बीच रोटी के संबंध भले ही बदल गए हों, बेटी के संबंध एक बड़े सामाजिक हिस्से में अब भी जाति-बिरादरी की परिसीमाओं के भीतर ही बनाए और निभाए जाते हैं। शादी-संबंध के मामलों में जाति की इन परंपरापोषित परिसीमाओं का अतिक्रमण आज भी आसान नहीं, यह अपने पीछे अनेक तरह की वर्जनाएँ, लांछनाएँ ले कर आता है। यही कारण है कि जाति-बिरादरी के बाहर जा कर शादी करना आज भी समान रूप से प्रगतिशीलता की निशानी मानी जाती है। अपने लिखे जाने के साठ वर्षों के बाद यदि 'बिरादरी बाहर' बदली हुई परिस्थितियों में भी उतनी ही सामयिक, प्रगतिशील और प्रासंगिक कहानी लगती है तो इसके पीछे स्वजातीय शादी को मिलने वाली अनिवार्य सामाजिक स्वीकृति एवं सुरक्षा और उसके समानांतर विजातीय शादी की राह में आज भी कदम दर कदम दरपेश होने वाले असहयोग का बहुत बड़ा हाथ है। राजेंद्र जी की अन्य कहानियाँ यथा 'जहाँ लक्ष्मी कैद है' या 'एक कमजोर लड़की की कहानी' आदि - जो अपने रचना काल में उतनी ही महत्वपूर्ण थीं और राजेंद्र जी के कथाकार की निर्मिति में जिनका बड़ा योगदान है - की समकालीन प्रासंगिकता के संदर्भ में ऐसा ही नहीं कहा जा सकता।
राजेंद्र जी अपनी अन्य कहानियों की तरह इस कहानी में भी अपने अनुभवों को पुनर्सृजित करते हैं। एक ऐसा अनुभव सत्य जो किसी खास व्यक्ति से शुरू हो कर अंततः पूरे समाज का हो जाता है। व्यक्ति सत्य बनाम समाज सत्य के द्वंद्व और उनकी टकराहटों से उपजी चिनगारियाँ जिसमें आधुनिक प्रगतिशीलता की ऊर्जा भी शामिल है इस कहानी की बहुत बड़ी विशेषता है। दूसरों के बहाने अपने भीतर और अपने बहाने दूसरों के भीतर झाँकते हुए जातीय नैतिकता और मूल्यों की टकराहट की जो तस्वीर यह कहानी उकेरती है उसकी कुछ छवियाँ आप भी देखिए। "ऊपर रोशनी है। नीचे अँधेरे में खड़े हो कर ऊपर देखेंगे तो इन्हें कोई देख थोड़े ही पाएगा। पेशकार के पास बैठे-बैठे उन्हें अफसोस हो रहा था, एक बार इस 'नए आदमी' को देखें तो सही कि आखिर मालती ने इसमें क्या पाया? वे जरा खंभे की आड़ में खड़े हो कर ऊपर देखने लगे... वे अनजाने ही एकाध कदम उधर बढ़े भी। लेकिन ऊपर की रोशनी दो-एक सीढ़ियों पर आती थी। कोई देख लेगा तो क्या कहेगा! वे कंधे ढीले डालकर लौट आए।" प्रसंगवश यह बताना जरूरी है कि सीढियों से ताक-झाँक करने वाले ये सज्जन वही पारस बाबू हैं जिन्हें कभी बेटी मालती के अंतर्जातीय विवाह के फैसले का जान-सुन कर दिल का दौड़ा पर आया था और 'यह नया आदमी' और कोई नहीं बल्कि उनका वही विजातीय दामाद है जिसे मालती ने अपनी इच्छा से वरा था। पारस बाबू का नीचे अँधेरे में खड़े हो कर अपने दामाद को यूँ देखने की कोशिश अपने प्रतीकार्थों में भीतर के बहाने बाहर और बाहर के बहाने भीतर देखने का ही उपक्रम है।
यह बताना जरूरी है कि पारस बाबू यदि मालती के निर्णय के विरुद्ध हैं तो उसके पीछे कोई तर्क या विवेक न हो कर 'लोग क्या कहेंगे' की मनोग्रंथि ही है। लोक और समाज में व्याप्त रूढ़ियों और तथाकथित इज्जत की चिंता में वे ऐसे घुले जा रहे हैं कि वे उन स्थितियों की मन ही मन कल्पना करते हैं जब वे बाजार जा रहे है और लोग एक-दूसरे को कुहनी मारते हुए उन पर फब्ती कस रहे हैं कि इन्हीं पारस बाबू की बेटी ने गैर जाति के लड़के से शादी कर ली है। सामाजिक प्रतिष्ठा के चले जाने का यह भय उन पर इस कदर हावी है कि वे खुद तो शादी में नहीं ही सम्मिलित होते हैं अपनी पत्नी को भी नहीं जाने देते। इतना ही नहीं शादी वाले दिन घंटे-घंटे पर माँ की हालत बिगड़ने का तार भी भेजते रहते हैं ताकि येन केन प्रकारेण शादी स्थगित हो जाए। लेकिन बाद में यह सुन कर कि शादी में उम्मीद से ज्यादा लोग शामिल हुए और सबकुछ हँसी-खुशी संपन्न हो गया उन्हें गहरा सदमा लगता है। पारस बाबू शायद इस शादी के लिए तैयार भी हो जाते यदि लड़का उनसे ऊँची जाति का होता। लेकिन मालती ने तो यह भी खयाल नहीं रखा और अपने से नीची जाति के लड़के को चुन बैठी। अपने से ऊँची जाति का लड़का स्वीकार होने की यह स्थिति दर असल मनु स्मृति के उस सिद्धांत से ही संचालित होती है जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को अपने और अपने से नीचे के सभी वर्णों की लड़कियों से शादी करने की छूट दी गई है। 'बिरादरी बाहर' में मालती का यह अंतर्जातीय विवाह संपन्न करा कर राजेंद्र जी मनु संहिता की उस रूढ़ मान्यता को चुनौती ही नहीं देते उसका अतिक्रमण भी करते हैं। राजेंद्र जी इस कहानी में न तो तथाकथित निम्न जाति की लड़की और ऊँची जाति के लड़के के बीच के प्रेम और शादी के बहाने प्रगतिशीलता के नाम पर कोई चालाकी करते हैं और न ही तथाकथित उच्च विजातीय लड़की के साथ बलात संबंध बनवा कर प्रतिशोधमूलक प्रवृत्ति को ही बढ़ावा देते हैं।
अब यह एक सर्वमान्य तथ्य हो चला है कि हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श को प्राप्त प्रतिष्ठा के सूत्रधार राजेंद्र जी ही रहे हैं। उनके संपादक रूप में जो स्त्री विमर्श मुखर रूप में देखने को मिलता है उसके बीज उनकी कई कहानियों में देखे जा सकते हैं, 'बिरादरी बाहर' उन्हीं कहानियों में से एक है। राजेंद्र जी यह बखूबी समझते हैं कि स्त्री अस्मिता के लिए चल रहे संघर्ष की सार्थक परिणति स्त्रियों के पुरुष जैसा बन जाने में नहीं बल्कि उनके अधिकार और संवेदनाओं को समझने और उनका सम्मान करने वाले पुरुष मित्रों की तलाश में है। प्रस्तुत कहानी में पारस बाबू भले ही मालती की इच्छा के विरुद्ध खड़े हों, उनका बेटा और मालती का भाई संजय अपनी शुरुआती झिझक के बाद मालती के निर्णय में उसके साथ है। यह राजेंद्र जी की खासियत है कि उनके भीतर का पुरुष अपने आप से लगातार लड़ता है। संजय और पारस बाबू के मूल्यों की यह टकराहट दो पीढ़ियों और दो तरह की अवधारणाओं की टकराहट है जिसमें नई पीढ़ी का प्रतिनिधि संजय प्रगतीशीलता के पक्ष में खड़ा है और राजेंद्र जी की समस्त लेखकीय प्रतिबद्धताएँ उसके और मालती के पक्ष में।
उल्लेखनीय है कि पारस बाबू अपने इस निर्णय के बाद पूरे परिवार में लगभग अलग-थलग पड़ जाते हैं। इतने अलग थलग कि अपनी माँ की आँखों के ऑपरेशन में भी उनके बच्चे तब तक घर नहीं आना चाहते जब तक मालती और उसके पति को घर आने की इजाजत नहीं मिलती। पारस बाबू अपने बच्चों की इस जिद के आगे झुकते हैं। लेकिन अतीत में की गई उनकी जिद उन्हें बेचैन किए है। वे अंदर से पिघलना चाहते हैं लेकिन उस जिद की झूठी छाया उन पर अब भी सवार है। उनका मन उस नए आदमी यानी अपने दामाद को देखना चाहता है, उसकी उस खासियत को करीब से समझना चाहता है जिसने मालती को प्रभावित किया था, उसकी एक दामाद के अनुरूप खातिर करना चाहता है लेकिन उसके उस जिद की प्रेत छाया उसके अंदर एक अजीब तरह की छटपटाहट भर देती है। मालती बिरादरी के बाहर शादी नहीं करती, एक नई बिरादरी का निर्माण करती है, जिसमें पूरा परिवार उसके साथ है और उससे कभी रिश्ता तोड़ चुके पारस बाबू इतने अकेले और बेचैन हो जाते हैं जैसे खुद बिरादरी बाहर हो गए हों। पारस बाबू की यह बेचैनी और छटपटाहट इतनी स्वाभाविक और स्पर्शी है कि पाठकों को उनसे सहानुभूति सी होने लगती है। इस तरह परंपरागत रूढ़ियों के शिकार एक व्यक्ति की यह छटपटाहट अंततः खुद को सारी रूढ़ियों से मुक्त कर देने की छटपटाहट के रूप में हमारे सामने आ उपस्थित होती है। इन अर्थों में 'बिरादरी बाहर' की प्रगतिशीलता सिर्फ युवाओं का सपना ही नहीं बल्कि परंपरा और रूढ़ियों से मुक्त होने की पुरानी पीढ़ी की कोशिश भी है।
'बिरादरी बाहर' के इन पात्रों के बहाने यह कहानी समाज व्यवस्था के नवनिर्माण का जो ब्लूप्रिंट हमारे सामने पेश करती है वह अनायास नहीं हुआ है। राजेंद्र जी की कहानियों में इसकी लगातार कोशिश देखने को मिलती है। प्रसंगवश इससे लगभग दस वर्ष पूर्व लिखी गई उनकी एक और महत्वपूर्ण कहानी 'खेल-खिलौने' का जिक्र जरूरी है। रेखांकित किया जाना चाहिए कि 'खेल-खिलौने' की शुरुआत जहाँ नीरजा को देखने आए लड़केवालों के प्रस्थान की सूचना से होती है वहीं 'बिरादरी बाहर' की शुरुआत एक विजातीय दामाद के पहली बार घर आगमन से होती है। यहाँ यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि 'खेल-खिलौने' जहाँ पराजय की कहानी होते हुए भी परंपरा को तोड़ने के संघर्ष की कहानी है वहीं 'बिरादरी बाहर' उन परंपराओं को तोड़ कर आगे निकल जाने और एक नए समाज के निर्माण की कहानी है। इन दो कहानियों के बीच का फासला जिसमें राजेंद्र जी की कई अन्य महत्वपूर्ण कहानियाँ शामिल हैं, इसी नई शुरुआत की लगातार कोशिशें है।
एक नई बिरादरी के निर्माण के समानांतर बिरादरी के हिमायतियों के खुद बिरादरी बाहर हो जाने की जिस विकलता का सपना राजेंद्र जी ने इस कहानी में देखा था दुर्भाग्य से वह सपना आज भी सपना ही है। काश 'बिरादरी बाहर' का वह सपना पूरा हो जाता और हम खुशी से कह पाते कि अब 'बिरादरी बाहर' प्रासंगिक नहीं रही।
(संदर्भ : राजेंद्र यादव की कहानी ' बिरादरी बाहर ')