नई संभावनाओं का आकाश / मनीषा कुलश्रेष्ठ
आज सुबह उठते से ही से ही मेरा मन अजीब अटपटी लय में धडक़ता रहा है। हाँ याद आया आज रविवार जो है। हर रविवार ऐसा ही तो होता है कि सुबह चार बजे से ही मेरी नींद खुल जाती है और मैं ना जाने क्या क्या सोचती रहती हूं। सोचती हूँ,अपने परिवार पर लगी खुशियों के ग्रहण पर, अपने पति को अपने में समेटता हुआ देखने की पीडा के बारे में, अपने बेटे के कालिख पुते वर्तमान और उसके अंधियारे भविष्य पर। सोचती हूँ, उन लोगों के बारे में जो सजायाफ्ता होकर भी राजनीति में उंची कुर्सियों पर बैठे हैं, क्योंकि उनके केस राजनीति में आने से पहले खारिज हो जाते हैंया माफ कर दिये जाते हैं लेकिन उन भूल से किये गये अपराधों के युवा अपराधियों का क्या जिन्हें अच्छे चरित्र और उच्च शिक्षा के बाद छोटी सी भी सजा मिलने के बाद कोई सरकारी नौकरी नहीं मिलती। सोचती हूँ, जेल के घुटन भरे माहौल में पल पल काटते अपने बाईस साल के युवा बेटे के बारे में उसके पिता की खामोश पीडा के बारे में। तब मुझे याद आता है नन्हा शौर्य, पहली बार मेरी और आशुतोष की उंगली पकड क़र चलता हुआ। पहली बार स्कूल यूनिफॉर्म में लडते झगडते, रूठते मनाते जान्हवी और शौर्य, पहली बार साईकिल से गिर कर लौटा शौर्यसैकेण्ड्री बोर्ड में फर्स्ट आने पर मुझे जोश में उठा लेने वाला मेरा बेटा। फिर ट्वेल्थ और फिर पी ई टी फिर जान्हवी की शादी में कमरा बंद करके घंटों रोने वाला शौर्य ”मम्मी कैसे रहूंगा दीदी के बिना, उससे झगडे बिना।”
हर रविवार की सुबह बेटे से मिलने की उम्मीद में अकसर ऐसे ही शुरु होती है। ऐसे ही महीने के हर दूसरे रविवार मुझे अपने पति रिटायर्ड लेफ्टीनेन्ट कर्नल आशुतोष सिंह को मनाना होता हैएक ऐसी बात के लिये जिसे सुनकर पहले उनका चेहरा दारुण पीडा से पीला हो जाता है फिर स्वयं को जस्टिफाई करने के लिये एक अजाने क्रोध से लाल हो जाता है फिर अपमान और थकान से काला हो जाता है और स्वरों से एक रोब सा जाता रहता है, “ अमृता उसे जलने दो अकेले अपने पश्चाताप में। जो किया है उसकी सजा भुगतने दो। तुम बार बार उससे मिलकर उसे यही जताती हो कि जो कुछ उसने किया वह अपराध नहीं भूल थी। मैंने नहीं माफ किया उसे अभीक्यों तुम हर रविवार उस डिप्रेसिंग जगह जाकर अपना और मेरा वक्त और मूड खराब करती हो?”
मैं विश्वास नहीं कर पाती कि यह सब मेरे खूबसूरत और बहुत ब्रिलियेन्ट बेटे शौर्य के लिये ही कहा जा रहा है। हमारे साझे संस्कारों और सिध्दान्तवादी फौजी पिता के बहुत अच्छे गाईडेन्स में बडे हुए समझदार बेटे के बारे में। कितना गर्व था मुझे उस पर। न जाने कहाँपल पल उसे सहेज कर पालते हुए हमसे कोई चूक हो गई थी? सब कुछ तो अच्छा चल रहा था, पी ई टी उसने अच्छे रैंक से पास किया और पूना में इन्जीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन ले लिया था।
शौर्य इन्जीनियरिंग के अंतिम वर्ष में था, कि उसकी दोस्ती एक स्थानीय राजनैतिज्ञ के बेटे से हो गई थी। मैं एक बार उससे मिली थी लडक़ा भला ही लगा था। वह उसे कभी कभी अपने साथ लेट नाईट पार्टीज में ले जाता। एक दो बार हमने आपत्ति की पर इक्कीस साल के हो चुके बेटे को यूं टोकना हमें स्वयं अच्छा नहीं लगता था। एक रात ऐसी ही किसी पार्टी में शौर्य के दोस्त का किसी से झगडा हुआ और उसने नशे में फायर कर दिया और वह गोली गलती से एक वेटर को जा लगी। जिस दिन शौर्य के उस दोस्त के साथ शौर्य भी गिरफ्तार हुआ पुलिस घर पर आई शौर्य को लेकर तब भी मुझे विश्वास नहीं होता था कि यह जो हो रहा है वह सच है। शौर्य को अपराधी के साथ होने की दो साल की सजा हुई और जो मुख्य अपराधी है, उसके पिता ने अपने राजनैतिक सम्पर्कों का लाभ उठा अठारह वर्ष से छोटा बता कर सुधारगृह में भेज कर बेल पर छोड दिया गया। शौर्य का भविष्य बनते बनते बिगड ग़या।
कहाँ मैं और आशुतोष जान्हवी की शादी करके और शौर्य को इन्जीनियरिंग में भेज कर रिटायरमेन्ट के बाद आराम की जिन्दगी बिताने की सोच ही रहे थे कि यह अकल्पनीय घट गया। इनमें इतनी बडी शर्मिन्दगी झेलने का साहस नहीं थाइनके सिध्दान्तों पर चलते हुए बीते सारे जीवन पर लोग मुस्कुराते उससे पहले ही इन्होंने आर्मी से रिटायरमेन्ट ले लिया और हम पूना आकर बस गये।
आशुतोष इस मामले में ज्यादातर खामोश रहते हैं। वो तो शौर्य से मिलने से भी कतराते रहे हैं। अकसर मुझे ही अकेले जाना होता है उससे जेल में मिलने, कभी कभी आशुतोष होते भी तो वे कभी अन्दर नहीं आते बाहर ही लॉन में टहलते अपना सुर्ख और कडा चेहरा लिये, चेहरे की हल्की झुर्रियों में कहीं पीडा और विकलता होती जिसे ढूंढ लेना आसान न होता। इस बार भी मैं ने उनसे चलने की जिद नहीं की, कार निकाल कर खुद ही चली आई। वैसे अब उम्र बढने के साथ मुझे कार चलाने में बहुत कठिनाई आने लगी है। पर ड्राईवर को ले जाना और कई बातों को चर्चा में लाने जैसा है। पहले ही बहुत रुसवाईयां झेलीं हैं हमने।
भीड भरे बाजारों से निकल कर पुल पार कर कार खुले आसमान के नीचे आ गई है। हरियाली की महक कहती है मैं काफी करीब हूँ अपने गन्तव्य के। वैसे अच्छे जेल अधिकारियों ने इस जगह को भी सुन्दर बना दिया है, कैदी खेती करते हैं, सब्जियां उगाते हैं और डेयरी भी चलाते हैं। यहां तक कि अपने हस्तशिल्प और अन्य प्रतिभाओं का इस्तेमाल कर कुछ पैसे कमा लेते हैं। पिछली बार जब मैं आई थी तो शौर्य कैदियों को कम्प्यूटर सिखा रहा था, मुझे अच्छा लगा था।
अपनी और अपनी कार की जाँच करा कर हरे भरे जमीन के टुकडे क़े बीच बनी मटमैली पीली बिल्डिंग में दाखिल हो गई। अजीब सा उदासीनता भरा माहौल। मैं रिसेप्शननुमा एक काउन्टर पर आ गई, जहाँ गाँधीजी की पुरानी तस्वीर लटकी थी। वहाँ कुछ लोग और थे, ज्यादातर लोग उस तबके से ताल्लुक रखते थे जो अभावों में जीता था, या जिनमें शिक्षा का अभाव था। ज्यादातर पुरुष थे, एक दो सर ढके महिलाएं थीं जो अपने बच्चों को लिये बैन्च पर बैठी थीं। सबका यही आग्रह कि क्या हमें कुछ समय और नहीं मिल सकता अपने कैदी से मिलने का?
काउंटर के पीछे बैठे सम्बंधित पुलिस इंचार्ज ने पूछा, “ आपका कैदी से सम्बंध?”
“ माँ! ” मैं ने धीरे से कहा तो उसने घूर कर देखा।
उसने फाईल निकाली। वहां मेरा फोटो और जानकारी दर्ज थी। फिर उसने एक स्लिप निकाली उस पर एक बार फिर शर्मीन्दगी और अपराधबोध के घनेरे भाव के साथ मुझे लिखना था कि मैं कैदी की माँ हूं, उससे मिलना चाहती हूँ, मेरा आने का समय यह है, जाने का बाद में लिखना होगा।एक साल के लम्बे अनुभव के बाद भी मैं इस भाव से उबर कर तटस्थ होना नहीं सीख सकी थी।
अन्दर जाने से पहले गार्ड ने फिर याद दिलाया, “ आप अपना सामान पर्स यहीं छोड दें।”
“ और ये खाना”
“ ओह माताजी, आपको कितनी बार कहा है मैं ने यह सब नहीं चलेगा। यहाँ परमिशन नहीं है। आप तो पढे लिखे हो। पिछली बार मैं ने आपको ले जाने दिया था अब आप तो हर बार।”
मैं आंसू नहीं रोक सकी थी। मैं कोई नाटकीय स्थिति पैदा नहीं करना चाहती थी।
गार्ड अपने पास खडे एक कान्स्टेबल से बोला, “ मां है, ममता करवाती है यह सब। पर आजकल के लडक़ों को कहाँ परवाह।”
“ ले जाओ माताजी।”
एक अंधेरा सा गलियारा पार करके मैं लोहे के सींखचों के पार बने विजिटिंग रूम में आ गई। सींखचों के इस गेट की ये आवाजें मेरी नींदों से खाली रातों में अकसर गूंजती हैं। यहाँ कुछ बैन्चेज रखी हैं, उन पर कुछ लोग अपने अपने कैदियों के साथ पहले ही बैठे हैं। एक घूंघट में स्त्री अपने पति के पास बैठ बस सिसक रही है। बच्चा पिता की गोद में है। एक किशोर अपने पिता से धीरे धीरे बतिया रहा है, पिता उसे आवश्यक निर्देश दे रहे हैं और मानो खेलने की उम्र में ही वह घर का बुजुर्ग हो गया हो। कमबख्त आंसू फिर भर आए हैं आंख की कोर तकना मुझे यह शोभा नहीं देताऔर लो शौर्य भी आ गया। मैं ने मुस्कुरा कर हाथ हिलाया, उसने भीमेरा बच्चा! इस बार और दुबला हो गया है। पर कुछ बडा और समझदार लग रहा है। जब पहली बार आई थी तो कितना फूट फूट कर रोया था, “ मम्मी मुझे छुडवा लो मैं ने ऐसा कुछ नहीं किया। जिसने किया वह तो एम पी का बेटा है वह छूट भी चुका। मम्मी पापा से कहो ना कोई जानपहचान निकाल कर मुझे छुडा लें। मैं यहाँइस गन्दे माहौल में कैसे रहूंगा।”
अब तक शायद उसने परिस्थिति से समझौता कर लिया है।
“शौर्य।”
“ मम्मी कैसी हैं आप।” कह कर उसने अपने बाजुओं में मेरी दुबली काया को भर लिया।
“लगता है रोज एक्सरसाईज क़रता है। मसल्स बना लिये हैं। पर कुछ खाता वाता है कि नहीं?”
“ हाँ माँ हम वालीबाल खेलते हैं शाम को दो घण्टे अकेली आई हो?”
“ हाँ, पापा को हल्का सा बुखार था।” झूठ जानता है वह मेरा। पर क्या कहती?
“ अकेले ड्राईव मत किया करो, भीड भरे बाजार और हाईवे पर।”
“ अच्छा ! तो मेरे बेटे को माँ की चिन्ता है।”
उसकी आंखे तेजी से भर आईं।
“ हाँ, दूर रह कर बस यही तो कर पाता हूँ आप दोनों के लिये। जब आपको मेरी जरूरत है तब”
“ छोड न एक साल ही की तो बात है।”
इस बार में कोई ऐसी बात नहीं करना चाहती हूँ जो उसे बाद तक उदास करे।
“ दीदी कैसी है?”
“ ठीक है, तू दूसरी बार मामा बनने वाला है।”
“ सच!”
“ हाँ।”
“ मम्मी मैं घर लौट आना चाहता हूँ।”
“ बस एक साल और शौर्य।”
“ मम्मी मैं अब करुंगा क्या, इंजीनियरिंग बीच ही में छूट गई वैसे भी सरकारी नौकरी मिलेगी नहीं।”
“ बहुत कुछ है बेटा दुनिया मेंनयी शुरुआतके लिये संभावनाओं की कमी नहीं।”
“ मुझे आपकी और पापा की बहुत याद आती है। पापा तो सोचते होंगे कि चलो घर में शांति हुई”
“ नहीं शौर्य, पापा का हर पल एक पीडा में बीतता है तेरे लिये।”
“ मम्मी मुझे फंसाया गया।”
“ जानती हूँ।”
“ अच्छा ये बता रितु आती है?” मैं ने हंस कर उदासी का रुख बदलना चाहा।
“ आप जब दो सन्डे पहले आईं थीं उसके पहले वह एक बार आई थी। मम्मी अब हमारे बीच कुछ नहीं रहाउसने कहा कि अब कोई फायदा नहीं इस दोस्ती को चलाने का।”
““
“ रिलेक्स मम्मामेरे पास भी अब वो सब सोचने का वक्त नहीं। जब सब कुछ ही नये सिरे से शुरु करना है तो यह सब क्या मायने रखता है।”
“ तू तो बडा हो गया रे।”
वक्त बीत रहा है, अगले दस मिनट और बस। फिर एक या दो तीन सप्ताह के बाद आना होगा।
“ कुछ किताबें लाई थी। और तेरी मन पसन्द मठरियां और केक।”
“ फिर वही उठा लाईं क्या फिलॉसाफी से भरी किताबें?”
“ नहीं इस बार कुछ नॉवल्स हैं और मैग्जीन्स कंप्यूटर से रिलेटेड।”
“ यह अच्छा किया मॉम।”
गार्ड ने वक्त बीतने का फरमान दे दिया। हमने फिर एक दूसरे को बा/धा और अलविदा कहा।
“ और सुनो मेरी स्कूल वाली बेसिक कम्प्यूटर की किताबें भिजवा देना,मैं ने यहाँ कैदियों में कंप्यूटर सिखाने की परमिशन ही नहीं ली बल्कि मुझे कमिश्नर से बहुत सारी प्रेज भी मिली है मम्मी। कईयों ने तो सीख भी लिया। मम्मी आप आती हो तो अच्छा लगता है। आती रहा करो। ”
“हूं।”
ये पल बहुत भारी होते हैं। मन में दोहराती हूँ, आऊंगी, आना ही होगा,आते रहना होगा क्योंकि मैं नहीं चाहती तुम जीवन से उम्मीदें तोड बैठो।बस एक साल औरफिर फिर से हम खोज लेंगे नई संभावनाओं का आकाश।