नकबेसर कागा ले भागा / चन्द्र किशोर जायसवाल
घेघू एक भिखमंगे का नाम है। बड़ा-सा घेघा है उसके पास। यों तो शहर में उनके कितने ही छोटे-मोटे पड़ाव हैं, पर शहर के एक छोर पर भिखमंगों ने अपनी एक छोटी-सी बस्ती ही बना डाली है। कुछ घास-फूस, कागज और टीन के टुकड़ों से बनी झोपड़ियाँ हैं, जो गुफाओं की शक्लें अख्तियार किए हुए हैं। जिनके झोंपड़ियाँ नहीं, उन्होंने सामने खड़ी वृक्षों की छतनारों में अपने आश्रम बना लिए हैं और उनके धड़ों में अपने झोले और गूदड़ लटकाने के लिए कीलें गाड़ दी हैं। रेलवे स्टेशन के बहुत क़रीब है यह जगह, इतनी क़रीब कि लूले-लँगड़े भी मसखरे की चाल में चलकर स्टेशन पर रुकी गाड़ी पकड़ लें। जब भी कोई गाड़ी रुकेगी, दो-चार उतरकर बस्ती की ओर जाते दिखाई पड़ जायेंगे; और दो-चार गाड़ी में चढ़ने के लिए बस्ती की ओर से लपककर आते हुए।
घोर आश्चर्य! काने, अँधे, लूले-लँगड़े, अपंग-अपाहिज, वक्रांग-विकलांग और कोढ़ग्रसित रोगियों की इस बस्ती में जीवन की एक अंतःसलिला भी बहती है अजस्र, अबाध! रोग, दुख, दारिद्रय, तनहाई बहकर किनारे लग जाते हैं, कूड़े-कचरे की तरह। पास से कोई नहीं गुजरता। जिसे मजबूरी हो जाती है, वह जरा तेजी से गुजर जाता है। और जो तेज नहीं हो पाता, उसे उस बस्ती की साँसों और धड़कनों का हलका-सा अहसास हो ही जाता है। नंग-धड़ंग घिनौने बच्चे किलकारियाँ मारते हैं। हरदम- हुड़दंग। उनका घिनौनापन उनकी शरारतों-हुड़दंगों में बिला जाता है। दिनभर बरखा और धूप में मरने-खपने के बाद भी वे थकते नहीं, बस्ती में पहुँचते ही धमाचैकड़ी में मस्त हो जाते हैं। खेल-कूद, हो-हल्ला, वे जुलूस निकालते हैं, नारे लगाते हैं। कभी गधा छाप पर मुहर लगाने के लिए चिल्लाएँगे, तो कभी तराजू छाप की जीत मनाएँगे। बेवजह किसी का जिन्दाबाद, किसी का मुर्दाबाद। शहर के ढेर सारे बाबुओं, माताओं-बहनों की नकलें उतारते हैं वे दवाखाने का बंगाली बाबू उन पर नजर पड़ते ही किस तरह गरम हो उठता है, किस तरह उनके पहुँचते ही मुंशी हलवाई की नाक-भौंह चढ़ जाती है, लोहिया-बाल्टी बेचनेवाले बंजरंगी साह हर वक्त बोहनी तक न होने की बातें उन्हें किस तरह समझा-समझाकर कहते हैं।
जिसे कल की खबर नहीं होती, उसे हर कहीं बच्चा ही कहा जाता है।
भीख माँगती छोकरियाँ विरहिन के बारहमासा गाती हैं। क्या चंचल चितवन केवल मोहनी आँखों का विलास है? काली घटाएँ बस घुँघराली रेशमी अलकों में भ्रमण करती हैं? मन की भाषा का गुलाब केवल गुलाबी होंठों पर खिलता है? मेहंदी केवल सुघड़ हाथों में ही रची जाती है? टिकुली केवल चमकते ललाटों में ही लगाई जाती है? क्या भ्रू-विक्षेपों में प्रेम की सारी लिपियाँ बन्द पड़ी हैं?
अभिशाप-ग्रहण की वेला में अंग-अंग तो मोजूद था, हृदय अपनी सारी धड़कनों के साथ कहाँ भाग निकला था?
खबरदार! कोई मर्द इधर आने न पाये। सावन का इंजोरिया है, और छोकरियाँ जटा-जटिन खेल रही हैं।
भला भाग कर कहाँ जाएँगी ये भिक्षुणियाँ? कौन-से गाँव? किन सखियों के पास? पर जटिन तो भाग ही सकती है। रात ही जटा टीका गढ़ा देने पर राजी हो गया था और भोर होते-होते उसके तेवर बदल गए। और यह सब हो रहा है पिछले बारह बरसों से। अब तो अधीर हो गई है जटिन। अब नहीं रुकेगी वह, भागकर माँ-बाप के घर चली जाएगी...।
एक ही बुद्धू है यह जटा भी ! बोलता क्यों नहीं कि ‘हे जटिन, टीका साटकर और नथ को पहनकर बाजार घूमोगी, तो भला भीख कौन देगा?’ बुद्धू तो है ही, बस वही तोते की पुरानी टें-टें ‘मत भागो जटिन, आज भर रुक जाओ। कल ही ला दूँगा तुम्हारे लिए टीका और नथ। जब बारह बरस तक दिल बाँध कर रखा, तो बस आज भर रुक जाओ। अधीर मत हो, री जटिन! एक दिन की मोहलत।’
और मर्द, जब भी मन होता, कनस्तर बजा उठते — ‘गोरी की सुरतिया, गोरी की पिरितिया...दैवा ही दगा दे गया...’ बदरंग-बेमेल आवाजों के बीच एक सरस धारा बह उठती। टेढ़े मुँह हरकत में आ जाते, कानी आँखें सुलग जातीं, लूले हाथ चमक पड़ते, मुँह का तबला ठनठना उठता। एक अनोखी मिठास भर आती उनके स्वरों में‘बोलो हे बबुनी क्या खाओगी? हाजीपुर का केला या जौनपुर की मूली? या मथुरा का पेड़ा या सिंघेश्वर का दही-चूड़ा? पान सादा या जर्दा? केवल मन तो नहीं टटोल रही?...’ और सुन लो, ‘मेले में जरा देह सँभाल कर चलो, नहीं तो फुँदना रगड़ में टूट जाएगा।’ बबुनी को मनाते-फुसलाते न जाने कितने वर्जित प्रदेशों में कितने सारे अतिक्रमण कर डालते वे।
रात के उतरते ही एक साथ बीसों चूल्हे जल उठते। लगता, किसी मैदान में सेना ने एक पड़ाव डाला है, अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ। हाय-माय, रे-बे, दौड़-धूप, भूनी जा रही मछलियों की गंध, सड़ी सब्ज़ियों की गंध, कूड़े-कचरे की जलने की गंध, हर चूल्हे की अलग गंध, हर आदमी की अपनी गंध गंधों का कोलाहल।
पूरब से आखिरी झोंपड़ी घेघू की है, और झोंपड़ियों से कुछ हटकर। बड़े ठाट से रहता है घेघू। भिखमंगों के बीच, पर तब भी उनसे अलग। हर दुर्गंध से बचता हुआ, हर दुर्गंध पर थूकता हुआ। झोंपड़ी चमकाकर रखता है वह। घर पर साफ कपड़ा पहनता है। गन्दे कपड़े पहनकर भीख के लिए निकलने की मजबूरी को वह अपनी मेहनत-मशक्कत मानता है। ‘आगे नाथ न पीछे पगहा’ से जुड़ा एक जीवन-दर्शन भी है उसके पास। राम जितना खाने को देता है, खा लो, मौज-आराम कर लो। जात भी गँवाओ और भात भी न खाओ, लानत है ऐसी जिन्दगी पर! जोड़-जमा का चक्कर दे डाला है जिसे राम ने, उसे जोड़ने दो, जमा करने दो। बड़ों के रोग भिखमंगे क्यों पालें?
बुड्ढा हरलाल। नाक में इतनी बड़ी सुराख बन गयी है कि मुँह कंकाल की खोपड़ी जैसा दिखता है। पहली बार देखनेवाला एकाएक चमक उठे। एकदम अपाहिज। गठरी की तरह जहाँ रख दो, वहीं पड़ा रहेगा। हिल-डुल भी नहीं सकता। गालियाँ दे देकर तो भोजन माँगता है। और उसके उधार बेटे-पोते उस पूंजी की सुरक्षा में लगे रहते हैं। बड़ी बेबाकी से एक दिन घेघू ने उस बुड्ढे से कह डाला था, ‘चाचा, इस मेले का मोह त्यागो। अपनी जिन्दगी से हमें भी क्यों डराते हो? अब मरकर आराम करो। कहो तो मैं एक चुटकी मसाला ला दूँ, खा कर सो जाओ। कप्तान पुल तक पहुँचा देने का जिम्मा मैं लेता हूँ। मुँह में आग भी दे दूँगा।’ बुड्ढा बेबस नहीं होता, तो आग लगा देता घेघू की झोपड़ी में। देर तक थूक-थूककर गालियाँ देता रहा था हरलाल। चीख-चीखकर उसने श्राप दिया था ‘‘साले, बदमाश, यह मत जानो की केवल पके आम ही गिरते हैं। अंधड़-झक्कड़ में टिकोले भी झड़ते हैं।’’ घेघू भी थूककर चला गया था, ‘‘मरो, मरने का समय नहीं पहचानते, तो कुत्ते की मौत ही मरो।’’ऐसी जिन्दगी पर लानत भेजता है घेघू। वह दो चुटकी जहर खाकर प्राण त्याग देगा, पर इस तरह घिसटता हुआ मौत के घेरे में नहीं जायेगा। न लाश फुँकवाने की चिन्ता, न कौवों-चीलों से इस मिट्टी को बचाने की कोशिश। घेघू को उन भिखमंगे औरत-मर्दों से भी घोर नफरत है, जो थरथरी में जाड़ा काट देंगे, दाँत कटकटायेंगे, पर ओढ़ना-बिछौना बनवायेंगे नहीं, पैसों को जमीन के अन्दर गाड़कर जमा करते चले जायेंगे, खंभे की खोखली में गिराते रहेंगे; जबकि कभी-कभी कोई उनका हकदार तक नहीं रहता, न कोई बेटा-पोता, न सगा-सम्बन्धी।
नानी का यही हाल। उस बुढ़िया को बस्ती में सब नानी ही कहते हैं। बुढ़िया उस बेजान गूदड़ को ही अपनी सारी कमाई देकर चली जायेगी, किसी जाड़े में ही। एक दिन घेघू ने अपनी इस नानी से कहा, ‘‘मुझे मालूम है नानी, तुम्हारे गुदड़ में थोक-के-थोक रुपये सिले पड़े हैं। किसी दिन कोई चोर आयेगा और गुदड़ ले भागेगा। कम-से-कम एक कम्बल तो खरीद ले, नानी!’’ बुढ़िया अपना मुँह खोलकर ‘ही-ही’ कर बैठी थी, पर उसकी आँखों में भय उतर आया था, यह घेघू चोर-उचक्का तो नहीं! नहीं री बुढ़िया, घेघू काहे का चोर, काहे का उचक्का!
घेघू कम्बल पर सोता है और कम्बल ओढ़ता है। वह जाड़े को पछाड़ता रहेगा। मरने को मरेगा पर जाड़े से नहीं। यों तो और भी कई पीते हैं बस्ती में, पर घेघू की तरह नहीं, बून्दों में, बहुत लुक-छिपकर। घेघू तो भट्ठी तक जा पहुँचता है और सैकड़ों दुश्मन आँखों के सामने पहुँचता है, तब तक, जब तक राजसिंहासन पर बैठा नहीं दिया जाता। दिन भर की कमाई पूरी नहीं पड़ती तो पिछले दिनों की बचत तक पी जाता है घेघू। भट्ठी में किसी सुदामा दानवीर की नजरों की परवाह नहीं की है उसने। देनेवाला राम, दिलानेवाला राम। राम ने आज दिया है, राम कल भी देगा। भीख घेघू को कौन देता है? देनेवाला तो राम को देता है और घेघू राम से लेता है। बाज़ार में लोगों की बोलियाँ सुन चुका है वह, कनसुइयाँ ले चुका है। उन बेचारों को तकलीफ़ है कि घेघू भीख माँगकर भी रईस है, भीख खाकर भी मुस्टण्डा है।
गालियाँ देने के लिए घेघू मन-ही-मन सैंकड़ों जीभें उगा लेता है। एक घेघू ही पीता है? सिर्फ भिखमंगे ही पीते हैं? दुनिया के सारे कुकर्म दूसरों की मिल्कियत हैं, घेघू का किसी एक पर भी हक नहीं? बको। पूर्णिया पैसे नहीं देगा, तो सहरसा देगा, नहीं तो खगड़िया देगा, या फिर कटिहार, देवघर, भागलपुर। जहाँ देने-दिलानेवालों में बजरंगबली, दुर्गा माई, काली माई, भोला बाबा हैं, वहाँ नत्थू-खैरू के चिखने-चिल्लाने से क्या होता है! घेघू के प्रवचन को कोई बस्ती में जाकर सुने। देने को तो वह चैराहे पर भाषण दे डाले, अक्ल जरा आड़े आती है। लोग कहते हैं, हर गरीब शैतान होता है, उसकी नजरों में जहर होता है, उसकी बद्दुआओं में असर होता है। घेघू आह भरता है, काश, ऐसा होता! असर हो, न हो, घेघू बद्दुआएँ देगा ही। किसी दानवीर की इन शर्तों पर तो जरा गौर फरमाइए, जिन्हें एक दस पैसी पाने के लिए हर भिखमंगा सारी की सारी अवश्य पूरी कर दें। इन दाताओं की कल्याण की कामना करते हुए उनके आगे हाथ फैलाकर, गिड़गिड़ाकर दो-चार-पाँच पैसे माँगने वाला प्राणी परम इंसान हो। चोर-बेईमान हो; पूरा का पूरा हरिश्चन्द्र हो; गंगाजल की तरह पवित्र; बदचलन औरत पर भी बुरी नजर नहीं डालता हो; शुद्ध शाकाहारी हो; घास खाता हो; दारू तो हरगिज नहीं पीता हो। भट्ठी की भीड़ हिमालय से लौटे साधु-महात्माओं से ही तो बनती हो जैसे। धंधे की बात है, नहीं तो मुँह पर जवाब दे मारे घेघू। जिस-तिस के आगे क्यों वह कसमें खाता फिरे कि शराब छूना भी पाप है उसके लिए, गौ-मांस की तरह। बात तो बनती अगर घेघू मुँहफट कुछ अधिक होता, अक्लमन्द कुछ कम।
घेघू की अपनी सवारी है, हाथगाड़ी। बस्ती से कुछ दूर निकलते ही वह उसमें बैठ जाता है और तब उसका छोटे गाड़ी खींचते हुए आगे बढ़ता है। हर दरवाजे, हर दाता के पास वे अपना पद गा उठते‘‘दुर्बल को जो देगा दान, उस पर दया करेंगे राम’’।
जब से छोटे को पाया है, अपने सीने से लगा रखा है घेघू ने। वह रोज उसे एक रुपया उसकी कमाई के रूप में दे दिया करता है। छोटे रेजगारियों को करारे और खुशबूदार नोटों में बदलकर उन्हें अलग एक डिब्बे में जमा किया करता है।
कम काम नहीं किया करता है छोकरा। कितनी मेहनत पड़ती है उसे। पूरे घेघू को हाथगाड़ी में लादकर खींचना, बस्ती से दुर्गाथान, वहाँ से मोहल्ला-मोहल्ला, फिर कचहरी और अन्त में वापस बस्ती। एक सच्चे सेवक के मानिन्द खटता है छोटे। कचहरी में ‘अपंग’ घेघू को पानी ला- लाकर पिलाना, बीड़ी सुलगाना, खैनी मलना और वे सारे काम, जो अपाहिज भिखमंगों की सेवा टहल में शामिल है, वह छोकरा मन लगाकर किया करता है। कभी कभार वह चाचा के पाँव भी दबा देता है, सिर पर चम्पी भी कर देता है। कभी अगर घेघू को घर पर कुछ खाने बनाने का शौक चर्राया, तो छोटे चूल्हा-चैका में भी मदद पहुँचाता है। जरा लोभी खाने-पीने का भी और कुछ पैसे का भी। है तो क्या हुआ? आदमी को लोभ नहीं घेरे, तो संसार का चक्का ही रुक जाये और बड़े-बड़े महात्मा रो-रोकर बेहाल हो जाएँ।
बस्ती से घेघू की गाड़ी निकलती है, तो सीधे दुर्गाथान पर जाकर रुकती है। भिखमंगों की मुरादें जितनी पूरी करती है दुर्गा माई, उतनी तो किसी सच्चे भक्त की नहीं कर पाती होंगी। दर्शनार्थियों की भीड़ लग जाती है वहाँ और हर एकखुदरा पैसा लेकर वहाँ पहुँचता है। भिखमंगों की बद्दुआओं से औरतें जितना घबराती हैं, देवताओं के ‘तथास्तु’ से उतना खुश कहाँ हो पाती होंगी वे। और घेघू की डायन आँखों में तो जैसे श्राप नाच उठता है, ‘पैसे दो, नहीं तो अपने लिए और अपने बाल-बच्चों के लिए यह घेघा लो।’
दुर्गाथान में भक्तों के दिए पेड़े-बताशे खाकर वे दोनों, लोटा-दो लोटा पानी चढ़ा लेते और फिर घेघू की सवारी टोले-मोहल्ले की ओर बढ़ जाती। कचहरी तक के रास्ते में जितने भी टोले पड़ते, घेघू उन सब को छान लेता। वहाँ की आबादी के कितने ही लोगों से उसका एक अनाम रिश्ता कायम हो चुका है। नंग-धड़ंग बच्चे जब-तब मोहल्लों में उसके पद उसी के जैसे गाढ़े स्वर में दोहराते हुए मिल जाते। औरतें उसके हिस्से का भात-रोटी अलग कर देतीं, घर के मर्द जेब में दसपैसी और पँचपैसी डालकर दरवाजे पर आसन जमाते। घेघू सूरज की तरह हर रोज उगता। मोहल्ले के व्याकरण में घेघू का गैरहाजिर होना एक अक्षम्य दोष था। और सचमुच घेघू को कभी जाड़ा-बुखार भी नहीं लगता। मुलाक़ात का समय तक निर्धारित, हर एक के साथ। और भिखमंगे तो पूरे इलाके की खाक छानते फिरते। कहाँ का महंत भण्डारा दे रहा है, किस बाबूसाहब के यहाँ श्राद्धभोज है, किसके यहाँ शादी-ब्याह, कब वरुणेश्वर जाना है, कब सिंहेश्वर, कोई बनमनखी चला तो कोई मुरलीगंज। घेघू को यह दौड़-धूप बिल्कुल रास नहीं आती। वह बस अपनी जमीन्दारी में तहसील के लिए बाहर निकलता। अपनी झोंपड़ी से मोहल्ले होते हुए कचहरी तक की उसकी टेढ़ी-मेढ़ी यात्रा उसके लिए एक उल्लास-नृत्य की तरह, एक रसीले संगीत की तरह मोहक थी।
काबुल में भी गधे होते हैं, कहावत है। जरूर होते होंगे। घेघू के इलाके में भी कई अंधी खिड़कियाँ और बहरे दरवाजे हैं। हर एक से परिचित है घेघू। पर राम का संदेश, दया धरम की बात वह हर खिड़की दरवाजे को सुना जाता है। कोई भेद-भाव नहीं। कभी-कभी इन घरों से भी कोई-कोई नाक-भौं चढ़ाए हुए आ निकलता है, बासी भात या रूखी रोटियाँ लिए, या मुट्ठी में चावल-आटा लेकर, नाक-भौं चढ़ाये! तो क्या हुआ? गाल बजाकर, मुँह चिढ़ाकर तो बाबा भोले भी पूजे जाते हैं। मोहल्ले की फेरी समाप्त करते ही घेघू को कचहरी पहुँचने की जल्दी हो जाती।
हर रोज ठट के ठट लोग पूर्णिया पहुँचते हैं बसों-रेलगाड़ियों में लदकर, और वहाँ की जमीन छूते ही दो मुख्य भागों में विभक्त हो जाते हैं। एक भाग अस्पताल का रुख पकड़ता है और दूसरा कचहरी की ओर बढ़ जाती है। इस इलाके में किसी को गँवार सिद्ध करने के लिए यही अफवाह उड़ायी जाती है कि उसने न तो पूर्णियाअस्पताल देखा है और न पूर्णिया कचहरी। कोई भी आदमी अपने बारे में इससे बड़ा और कोई झूठ नहीं मानता। बीमार माँ-बाप का पूर्णिया में इलाज करवा देने भर से यहाँ के बेटे पुत्र-धर्म पूरा कर जाते हैं और माँ-बाप के ऋण से छुटकारा पा लेते हैं। अस्पताल से हो आने पर भी न छूटे, तो समझ लिया जाता है कि ऊपर से बुलावा आ गया। हर बेटा अपना दोष मिटाने के लिए एक बार पूर्णिया छू जाता है।
कचहरी की भीड़ अस्पताल की भीड़ से कई गुनी अधिक होती है। इस इलाके में अन्याय से पीड़ित और शोषित प्राणियों की जितनी संख्या है, इससे उसके दो-चार सौ बरस पिछड़े होने का अहसास जगता है, पर उससे भी अधिक संख्या में अन्याय के विरुद्ध लड़नेवालों की भीड़ से बहुत निकट भविष्य में किसी बड़ी क्रान्ति के घट जाने की संभावना दीख जाती है। अन्याय के विरुद्ध लड़ने का एक अजीब शौक पाल लिया है यहाँ के लोगों ने। इस इलाके में बस इसी कारण अगहनी की अच्छी फ़सल हो जाया करती है। लोगों को मुकदमें का शौक न हो, तो अच्छी फ़सल उगाने की सारी प्रेरणाएँ ही वे खो बैठें।
भगवान के विरुद्ध लड़नेवाले जो अस्पताल पहुँचते हैं, उनके चेहरे मुरझाये-मुरझाये रहते हैं। बूढ़े माँ-बाप के लिए, जिनका बहुत सोच- विचारकर देखने से अब उठ जाना ही अच्छा जँचता है, बेटे दान-दक्षिणा कम ही करते हैं। लेकिन आदमी के विरुद्ध लड़नेवाला काफी आशावान रहते हैं और उनके चेहरे खिले हुए रहते हैं। ऐसे लोग कचहरी में घुसने से पहले ही कुछ भिखमंगों के आशीर्वाद से शक्ति, साहस और विश्वास हासिल कर लेते हैं। अस्पताल में भिखमंगों की बद्दुआओं से किसी-किसी का मन हरा हो जाता है। कचहरी में यह सब नहीं चलता।
घेघू जैसा भिखमंगा कचहरी छोड़कर अस्पताल की ओर नहीं जाता। कचहरी के हाते में घुसने का मुख्य दरवाजा पूरब की ओर है। घेघू यहीं बैठता है। सामने से मुख्य सड़क गुजरती है, जो बस-अड्डे से होते हुए कुरसैला-काढ़ागोला की ओर चली जाती है। ठीक सामने बजरंगबली का नामी मन्दिर है, जहाँ हर वक्त भजन-कीर्तन होता रहता है और थोड़ी बहुत भीड़ मौजूद रहती है। उसके आगे बाजार शुरू हो जाता है। मन्दिर के सामने ही यहाँ का सबसे बड़ा चैक है, जहाँ इस कस्बे की खबरें बनती-बँटती हैं। पास ही एक छवि-गृह। कमाई के लिहाज से भिखमंगों के लिए इससे बेहतर और जगह नहीं।
घेघू के पद की स्वर-लहरियाँ सड़क तक के राहगीरों के कर्ण-विवरों में प्रवेश पा लेतीं। जीत-हार का फैसला सुनने आये मुकदमेबाज कचहरी में घुसने के पहले हीघेघू से टकरा जाते और उसके राम से दया की भीख ग्रहण कर लेते। घेघू पर पहली-पहली बार दृष्टि डालनेवाला शख्स अवश्य ही चीखने-चीखने को हो जाता होगा और दुपैसी-पँचपैसी डालने के बजाय डर से दसपैसी-बीसपैसी डालकर बिना अगल-बगल देखे वहाँ से सीधे बजरंगबली के मन्दिर में जाकर आँखें मूँदे पूरे मन से बुदबुदाता होगा, ‘हे पवनसूत, इस घेघू से बचाना, हनुमान चालीसा का पाठ करूँगा।’ पूर्णिया के कितने ही घरों में जब से बच्चों ने गीदर से डरना छोड़ दिया है, माँ रोते बच्चों को अब घेघू के नाम से डराने लगी हैं, ‘रो मत नुनु, नहीं तो घेघू आयेगा और उठाकर ले जाएगा।’
दोपहर में घेघू समय निकालकर वहीं अपना भोजन छोटे के साथ कर लेता। मोहल्ले में प्राप्त खाद्य पदार्थ काफी मात्रा में होते। भोजन के तुरन्त बाद छोटे दो बीड़ियाँ सुलगा लाता, एक घेघू को देता, दूसरे में खुद दम लगाता। फिर खैनी मलकर वह घेघू की गाड़ी में रख देता और खुद आराम करने किसी वृक्ष की छाँह में चला जाता, या दो-चार पैसों के लोभ में बस अड्डे की ओर। तब घेघू पूरा पद अकेले ही चिल्लाना शुरू करता, ‘दुर्बल को जो देगा दान...’अँधेरा होने से पहले घण्टे-दो घण्टे के लिए बेजरंगबली के मन्दिर के पास भी टिक जाता। कुछ पैसे झड़ ही जाते। और फिी अँधेरा होते-होते गाड़ी खींचते हुए बस्ती की ओर चल पड़ता। इस बीच घेघू चैक से छोकरे के जरिये चुपके से एक फूलों की माला अवश्य मँगवा लिया करता है। जब से रनिया को जुड़े में फूल खोंसकर बस्ती में आते-जाते देखा है, तब से ही घेघू भी अपने व्यक्तित्व को आकर्षक बनाने के लिए गले में फूलों की माला डालकर बस्ती में प्रवेश करता है।
दस पैसे में खरीद लिया करता है एक सपना। बस्ती में पहुँचते ही घेघू बिलकुल अपाहिज नहीं रहता, जैसे कोई बुत अचानक सजीव हो उठा हो। वह अपना भिखारी जामा उतारता, दिशा-मैदान से फारिग होता और मुँह-हाथ धोकर भट्ठी का रुख पकड़ लेता। रात का खाना वह नहीं खाता, दारू के साथ चखना, घुघनी-मुड़ही के साथ मांस-मछली के कुछ टुकड़े।
रात के इस जश्न में छोटे शरीक रहा करता। शराब की घूँट-दो घूँट, मांस-मछली का एक-आध टुकड़ा उसके हिस्से में भी आ ही जाता। हालाँकि उम्र उसकी पन्द्रह-सोलह से अधिक की न होगी। पर शराब पीने की बान पड़ गयी है। यहाँ तो घेघू उसका चाचा बनने से भी एतराज कर जाता है और उसे एक जिगरी दोस्त का दर्जा दे डालता है। सारे शराबियों-जुआरियों और व्यभिचारियों की तरह तब घेघू भी उम्र का जामा उतारकर रख देता। रिश्ते कभी-कभी सुनसान में पड़े सिक्कों की तरह होते हैं, जिन्हें लोग अचानक देखकर खुश हो जाते हैं और उठाकर कमर में खोंस लेते है। रिश्ते का एक ऐसा ही सिक्का घेघू और छोटे को एक दिन बस-अड्डे में मिल गया था। छोकरा दिनभर वहाँ पैसा माँगता और रात किसी छाँह में या खुले आकाश के नीचे बस-अड्डे के कुत्तों के साथ काट लेता। घेघू की नजर इस बेसहारा बच्चे पर पड़ गयी थी। खुले आकाश में जाड़े की एक ऐसी रात काटी थी उस बच्चे ने कि सुबह उसकी नाक से खून बह निकला था। उस दिन ही घेघू उसे कह-सुनकर अपनी बस्ती में ले गया था। यह दो बरस पहले की बात है। घेघू ने उसे बिलकुल अपना बना लिया था। वह उसे खूब खिलाता-पिलाता। दारू पीने की इच्छा छोकरे ने ही प्रकट की थी। वह तो केवल उसकी बात मान गया था। पर घेघू को यह अच्छा नहीं लगा था। जब उम्र की पाबंदी भीख मांगने पर नहीं, तो फिर शराब पीने पर क्योंकर? यहाँ भी वह कुछ अधिक उपयोगी हो जाता घेघू के लिए। शराब अकेले पीने की चीज ही नहीं। एक गानेवाला हो तो दूसरा ताल देनेवाला, एक रोने लगे तो दूसरा आँसू पोंछता चले। छोटे की खसकंत का अब डर कोई नहीं था घेघू को। अब उसके दो-दो चाचे थे एक घेघू, दूसरा दारू। भट्ठी का आँगन काफी लम्बा-चैड़ा है। भीड़ इसी आँगन मेंु जमती है। पियक्कड़ों का रोना-गाना यहीं चलता है। दारोगा-जमादार के आने पर यहीं भरभराहट होती हैं झगड़ा-झंझट करने, गाली-गलौज देने और लाठी-मुकके चलाने के लिए इस आँगन का भूगोल पियक्कड़ों को अधिक जँचता है। घेघू यहाँ नहीं बैठता।
घेघू भट्ठी के पिछवाड़े में अपना आसन जमाता है। यही उसकी मुकर्रर जगह है। यहाँ हलचल नहीं, कोई कचकच नहीं, शान्ति है, आदमी आराम से पी सकता है। बुरी नजरें पीछा नहीं करतीं। आज भी घेघू अपनी मुकर्रर जगह पर जा बैठा है। छोकरा एक बड़े से दोने में चखना लिये आता है, भूँजा और भूने हुए मांस के कुछ टुकड़े। घेघू पालथी मारकर बैठ जाता है। छोटे को आज एक की बजाए दो बोतल दारू लाने के पैसे देता है। छोकरा कुछ अतिरिक्त खुशी के साथ माल ले आता है। घेघू एक पूरी बोतल ही मुँह से लगा लेता है। तो उसे कुछ हैरत होती है और वह खुला-खुला मुँह घेघू को निहारने लगता है। बोतल खाली कर घेघू दम भरता है और फिर छोकरे से कहता है, ‘‘तुम मेरा मुँह क्या ताक रहे हो टुकुर-टुकुर? अपना ले लो।’’
यह रिवाज-सा बना हुआ था कि बोतल मँगवाकर घेघू छोकरे के गिलास मेंउसका हिस्सा डाल दिया करता था और तब खुद चखना के के कौर के साथ दारू की घूँट लिया करता। आज तो जैसे हवा गाड़ी पर सवार होकर आया हुआ था। चाचा का रवैया देख छोटे को गाँव के बेई मान चाचा की याद आ गयी थी, पर शीघ्र ही उसकी जान में जान आ गयी। सहमते हुए उसने दूसरी बोतल से अपने गिलास में शराब ढाली और शेष माल घेघू की ओर सरका दिया। घेघू ने बोतल उठाकर कुछ और दारू उसके गिलास में डाल दी और बड़े प्यार से बोला, ‘‘आज तुम भी कुछ अधिक पियो। आज हर पीनेवाला कुछ फाजिल पीता है।’’
‘‘क्यों चाचा?’’ गिलास मुँह से लगाने से पहले छोकरे ने भी मुसकराते हुए पूछा।
‘‘आज होली है रे, फगुआ!’’
छोकरे को बस-अड्डे की अपनी होली का ध्यान आ गया। सुबह होते ही हर चेहरा मैला-मैला नजर आने लगता था। बाहर से आनेवाली बसें कीचड़ से पुती आती थीं। अन्य भिखमंगों छोकरे की तरह वह भी दिनभर धूल उड़ाता रहता। होरिहारों का दल फाग गाने में मशगूल होते, गानेवाला मचल-मचलकर गाते, ढोलकों तक ने न फूटने की कसमें खा ली थीं। वह दूर से ‘सारा रा-रा’ के बोल उड़ा लेता और फिर पूरे अड्डे में उछल-उछलकर, नाच-नाचकर उन गीतों को बासी करता। भिखमंगे बच्चों के इस उत्सव में बस-अड्डे के कुत्ते शरीक हुआ करते और बाहर से आये मुसाफिरों की तरह ही बच्चों के हाथों में धूल और कीचड़ देखकर चैकड़ी भरते हुए भागने का उपक्रम करते। घेघू भी न जानें कब से फाजिल पीने लगा है। पिछली होलियों में उत्सव की शुरुआत वह जरा सबेरे ही भट्ठी जाकर एक बोतल पीकर किया करता और फिर सारा दिन झोंपड़ी के अन्दर पड़ा-पड़ा ऊँघता रहता। न जाने कहाँ-कहाँ से आ-आकर फगुहारों के स्वर तब भी उसके कानों से टकराते, तब वे बेअसर लौट जाया करते, क्योंकि तब उन आवाजों में न कोई व्यतीत बोलता है और न कोई भविष्य झाँकता। व्यतीत भी इतना विरान हो सकता है? भविष्य इतना ऊसर? पर जब से रनिया इस बस्ती में आयी है, चाँद भी कुछ फाजिल चमकने लगा है। आते ही रनिया ने उसके खयालों में घर बना लिया, हालाँकि तब घेघू को जितना चाँद पहचानता था, उससे कम अधिक रनिया भी नहीं। पर सपने सोनेवालों से ही कितना ताल्लुक रखा करते हैं!और झोंपड़ी खड़ी कर लेने के बाद घेघू बन्धनों का भी सुख खोजने लगा। बूढ़े दम्पति उसके नजरों में अटकने लगे, जवान जोड़ों पर उसकी निगाहें जमने लगीं। हर खेलते-मुसकराते बच्चे में वह कुछ ढूँढ़ने लगा।
आज कुछ फाजिल पी लेने से घेघू के पाँवों में कुछ फाजिल हरकतें होने लगीं, दिल कुछ फाजिल धड़कने लगा और होंठ कुछ फाजिल बुदबुदाने लगे।
लड़खड़ाते पाँवों और लड़खड़ाती आवाजों की जिन्दगी हजार रंगों में जल्वागर थी वहाँ। गीतों और गालियों का कोलाहल। अब घेघू शरीक था उन सब में। और धीरे-धीरे किसी अथाह में डूबता चला जा रहा था। महाजनों की नगरी में एक भिखारी घूमने लगा, भिखमंगों के शहर में एक शहंशाह की तरह।
मन के घोंसले से उड़ा पंछी मुक्त गगन में उड़ाने भरता हुआ पूरी धरती को नकारने लगता है। धरती के ढेर-सारे प्रश्नों को बहुत पीछे छोड़ते हुए एक ऐसा ही पंछी उस दिन असीम आकाश में मंडराने लगा था। खुशियाँ भी गरीब होती हैं? मन भी भिखारी होता है?
एक आवाज न जाने कितनी गहराइयों से उभरी थी, बेसुरी नैसर्गिक मिठास से भरी-पूरी। घेघू गा उठा था
तोरे झाँझर घुँघटवा के पार गोरिया,
चमके चंदा-सा मुखड़ा तोहार गोरिया।
न जाने किसने सर्वप्रथम झीने घूँघट के पार गोरी का चाँद-सा मुखड़ा देखकर बेवजह चीख-चीखकर हल्ला मचा दिया था। आज जब घेघू ने घूँघअ के पार देखा, तो उससे भी चुप रहा न गया। ऐसा पहले नहीं हुआ था। जब-जब घेघू ने इस तरह देखने की कोशिश की थी, उसकी आँखों के आगे एक महाशून्य उपस्थित होता रहा था।
पर आज उस शून्य को गेन्द की तरह ठोकर मारकर रनिया खिलखिला रही थी।
छोटे गौर से घेघू के चेहरे को निहारता है, मुसकराता है और फिर भट्ठी के पिछवाड़े में जोरों से खिलखिला पड़ता है। घेघू अपनी भारी पलकें उठाता है, आँखें फाड़कर छोकरे को देखता है, पर उसके इस तरह हँस पड़ने का जरा भी बुरा नहीं मानता और पलकें बन्द कर पुनः चालू हो जाता है, ‘तोरे झाँझर...’छोकरा सोचता है, डेढ़ बोतल का चाचा पौने गिलास के भतीजे से कितनी दूर निकल गया है। और फिर कुछ ढीठ बनकर वह अपनी जाँघों पर ताल देने लगता है और मुँह से ‘ताक धिनाधिन ताक धिनाधिन’ के बोल निकालता है। जल्दी ही वह भी जवान होकर डेढ़ बोतल का असामी बन जायेगा। छोटे ने मन की बात मन में ही रखी।
गाते-गाते घेघू अचानक रुक गया और कुछ क्षणों तक बिलकुल खामोशी से छोकरे को घूरते रहने के बाद कहा, ‘मन की एक बात बताऊँ, छोटे?’
जब छोकरा बस-अड्डे में अपने दिन गुजारता था, तो दुःख-सुख की बातें कुत्तों से किया करता था, ‘आज खाना मिलेगा या नहीं, मोती ? आज बारिश में कहाँ सोऊँगा, रे?’ कुत्ता दुम हिलाता।
न जाने मन की कौन-सी बात कहना चाहता है चाचा! उत्सुकताओं के बीच मुँह से निकला, ‘क्या ?’
‘मेरा ब्याह करने को जी चाहता है।’ चाचा ने कहा।
छोकरा अपने खाने-पीने की बातें कुत्तों से किया करता था, सूनेपन के बीच। घेघू ने अपने ब्याह की इच्छा छोटे के सामने प्रकट की, बरसों पुरानी खामोशी तोड़ते हुए। जब आस-पास कोई दोस्त नहीं दिखता, तो किसी दुश्मन को भी पास बैठा लेने को जी चाहता है। सामने कोई तो परिचित है! तब कटकर अलग हुआ संसार कुछ पास सरक आता है। घेघू ने बच्चे के आगे मन की बात खोल दी।
छोकरे की आँखें हैरत से बाहर निकलने-निकलने को हो गयीं। उसके मुँह से एकबारगी निकला, ‘इस उमर में, चाचा?’
घेघू झेंपा नहीं। उसने तड़ातड़ कस्बे के पाँच-सात बुड्ढों की शादियों की चर्चा कर डाली, उतरती उम्र में हुए उनके बच्चों का जिक्र किया और फिर कहा, ‘‘अभी तो मेरी डोर बहुत मजबूत है रे, छोटे, अभी क्या हुआ है? एक बाल भी सफेद दिखता है तुम्हें ?’’
और फिर घेघू ने छोटे को बताया कि एक दिन उसने मधुबनी चैक के पण्डित को पचीस पैसे देकर अपना हाथ दिखाया था। पण्डित ने उसे हथेली फैलाने को कहा था और फिर बड़े ध्यान से उसकी सारी रेखाओं को पढ़ गया था और कहा था कि उसके भाग्य में घर-द्वार भी हैं, बाल- बच्चे भी।
छोटे बड़े ध्यान से घेघू की बातों को सुनता रहा और घेघू को चुप होते ही पूछा, ‘‘तुम्हें पण्डित की बातों पर विश्वास होता है क्या, चाचा?’’
‘‘हाँ रे,’’ घेघू पूरी गम्भीरता के साथ कह रहा था, ‘‘वे झूठ नहीं बोलते। हाथ की रेखाओं में सारी बातें लिखी रहती हैं। पण्डित उन्हें पढ़ लेते हैं ओर यह पण्डित तो नामी ज्योतिषी है। सौ-दो सौ आदमियों के हाथ तो वह रोज जरूर देखता है।’’
‘‘हाँ, चाचा, पण्डित भला झूठ क्यों बोलेंगे! फिर तो तुम शादी कर ही लो।’’
‘‘और छोटे, मैं देखता हूँ, हो सकता है कि तुम्हारा भी ध्यान इस ओर गया हो, कि उस दिन से ही रोज झोंपड़ी के सामने ऐ कौआ आकर काँव-काँव कर जाता है। गाँव में तुमने भी सुना होगा, कागा शुभ संदेशा लाता है।’’
‘‘ठीक है चाचा, शादी कर लो। पर उससे पहले मेरी अलग झोंपड़ी के लिए बाँस-फूस ला देना।’
इस बार घेघू के खिलखिलाने की बारी थी। वह हँसते हुए उठ खड़ा हुआ, ‘‘चलो छोटे, अब घर चलें।’’
जाते हुए घेघू को ऐसा लगने लगा कि उन दोनों के साथ कोई तीसरा भी चल रहा है।
बस्ती में अभी भी कई चूल्हें जल रहे थे और हर एक को घेरकर औरत- मर्द बैठे हुए थे। बच्चे उछल-कूदकर फाग गा रहे थे और ‘भैया रे बोल कबीरा’ के गलत-सलत टुकड़े कभी हवा में और कभी एक-दूसरे पर उछाल रहे थे। छोटा-सा हंगामा अभी भी जारी था।
घेघू अपनी झोंपड़ी में घुसने को हुआ, तो छोटे ने कहा, ‘‘चाचा, तुम सोओ, मैं जरा घूम-घामकर आता हूँ।’’ घेघू ने उसके कन्धे पर हाथ रखकर अन्दर जाने का इशारा किया और कहा, ‘‘पहले मेरा एक काम कर दो।’’
‘‘कौन-सा काम, चाचा?’’ बात हैरत की ही थी। इस वक्त पहले कोई काम नहीं हुआ करता था।
अन्दर छोटे चटाई पर बैठ गया। घेघू ने छत के फूस में खुँसी कागज की एक पुड़िया ढूँढ़कर निकाली। बैठकर उसे खोला, उसमें एक हँसता हुआ नकबेसर था।
‘‘क्या काम है, चाचा?’’ छोटे की उत्सुकता और भी बढ़ गयी, ‘‘इसे तो औरत नाक में पहनती है। यह तुम्हारे पास?’’
घेघू ने एक बार नकबेसर हाथ में झूलाकर देखा और फिर छोटे से कहा, ‘‘इसे तुम रनिया को दे आओ।’’
‘‘रनिया को? क्यों, चाचा?’’
‘‘चीखो मत धीरे बोलो।’’
‘‘रनिया को क्यों दोगे, चाचा?’’ इस बार छोटे ने फुसफुसाकर कहा।
‘‘तुरन्त भूल गये? मैंने तुझसे अपने ब्याह की बात नहीं बतायी थी?’’
‘‘रनिया से ब्याह करोगे?’’
‘‘क्यों, यह बुरी बात तो नहीं ? वह मेरे हिस्से में आयी है। भगवान ने उसे भेजा है।’’
‘‘आज ही ब्याह करोगे?’’
‘‘अब बात तो पक्की कर लूँ, तुम्हें तो मेरी इस उम्र पर भी एतराज है। दिन-दिन उमर तो बढ़ती ही जायेगी। बिना औरत का घर भी तो सुना- सुना लगता है। मर-खपकर आता हूँ, तो कोई पाँव दबानेवाला भी तो होना चाहिए।’’
‘‘पाँव तो मैं भी दबा दूँगा, चाचा। तुम इसकी फिक्र क्यों करते हो? और रनियातो तुम्हारे पाँव नहीं दबाएगी, यह जान लो।’’
‘‘पांव नहीं दबाएगी, पर खाना तो बनाएगी हम दोनों के लिए। तुरन्त जो भट्ठी की तरफ दौड़ता हूँ, वैसा तो नहीं करना पड़ेगा। तुम भी थक-मर जाते हो, और फिर भोजन के लिए बिलबिलाना पड़ता है।’’
‘‘चाचा, रनिया तो चटोरी है, खुद इधर-उधर चाटती-फिरती है। वह तुम्हारा खाना बनाएगी, इस उम्मीद पर तो न रहो।’’
‘‘किसी उम्मीद पर ही तो शादी कर रहा हूँ, रे। तू बात क्यों नहीं समझता? खाना नहीं बनाएगी, तब भी कोई हर्ज नहीं। घर की देख-भाल तो करेगी।’’
‘‘वह कानी भी है, चाचा।’’
‘‘लंगड़ी से तो अच्छी हुई। इस बस्ती में तो हर एक का शरीर गला-पचा है। किसकी औरत कभी रनिया जैसी रही होगी यहाँ?’’
‘‘लेकिन चाचा, वह तुम्हारे वश में रहेगी, मुझे इसमें सन्देह लगता है।’’
‘‘रहेगी, रहेगी, छोटे। जब खूँटे से बँध जाएगी, तो सब ठीक-ठाक हो जाएगा। एक बच्चा हो जाए, तो फिर देखना, रनिया किस तरह झुककर रहती है।’’
‘‘सो तुम जानो, चाचा। मुझे तो जैसा कहोगे, करूँगा।’’
‘‘तो ठीक है, अब तुम नकबेसर उठाओ और जाओ।’’
जाने से पहले छोटे ने पूछ लिया, ‘‘रनिया के बाप से तुमने बात तो कर ली है, चाचा?’’
‘‘नहीं रे, उसके बाप से क्या बात करूँगा? उसके मन से क्या होगी?’’
‘‘उसके बाप से नहीं पूछा है?’’ फिर छोकरे ने होंठों पर मुसकराहट लाते हुए कहा, ‘‘तब जरूर तुमने रनियर को फुसलाया है, चाचा। हूँ...’’
‘‘क्यों रे, रनिया मुझ पर डोरे नहीं डाल सकती क्या?’’ घेघू ने जवाबी मुसकराहट के साथ कहा, ‘‘वही मुझसे लटर-पटर रखती है।’’
‘‘बस-बस, यही बात है। अब सब समझ गया मैं। जैसे भवानीपुर वाले लँगड़े ने रामपुरवाली को पटा लिया।’’
‘‘अब जाओ भी। कहना मैंने बुलाया है।’’
‘‘अभी?’’
‘‘हाँ,’’ पलक झपकते हुए घेघू ने कहा और फिर पूछा, ‘‘कितनी देर में आ जाओगे? मालूम है न, वह कहाँ मिलेगी?’’
‘‘हाँ, जेल चोक पर।’’
‘‘ठीक, ढूँढ़ तो लोगे? साथ लेकर ही आना। खाली नहीं लौटना।’’
जेब में नकबेसर डालकर जब छोटे उठ खड़ा हुआ, तो घेघू ने पूछा, ‘‘क्या कहोगे रनिया से?’’
‘‘उसे नकबेसर दे दूँगा और यहाँ आने को कहूँगा।’’
‘‘और कुछ नहीं कहोगे?’’
‘‘और क्या?’’
‘‘पूछेगी तो, नकबेसर क्यों दिया है, क्यों बुलाया है?’’‘‘शादी की बात पक्की करने। यही तो?’’
‘‘बस, इतना ही कहोगे?’’
‘‘जो सब कहूँगा, वह मुझे बता दो ठीक-ठाक। भीख जिससे कहो, लेकर दिखा दूँ, पर यह सब मुझे नहीं आता है।’’
‘‘तुम्हें यह तो बताना ही पड़ेगा कि वह मेरे घर में सुख से रहेगी या दुख से।’’
‘‘हाँ, यह तो बताऊँगा ही कि वह तुम्हारे घर में बहुत सुख-आराम से रहेगी।’’
‘‘एक बात और जान लो छोटे कि मैं उसे भीख माँगने नहीं जाने दूँगा।’’
‘‘हाँ, चाचा, तुम इतना कमा लेते हो, फिर उसे भीख क्यों माँगनी पड़ेगी?’’
‘‘यह सब उससे कह देना।’’
‘‘हाँ-हाँ, यह सब तो कहना ही है।’’
‘‘यह भी कह देना कि मैं उसे कपड़े-लत्ते, तेल-फुलेल, नथ-बाला किसी चीज की कमी नहीं होने दूँगा। मैं भिखमंगा हूँ तो क्या, उसे परी बनाकर रखूँगा। और फिर पण्डित की बात आज न कल सच होकर रहेगी।’’
"मैं उसे पण्डित की बात भी बता दूँगा, चाचा। वह दौड़ी-दौड़ी चली आयेगी। उसकी कानी आँख पत्थर की बनवा देना, चाचा।’’
जवाब में घेघू होंठ बिचकाते हुए हँस पड़ा, तो छोटे ने गम्भीरता से कहा, ‘‘हँसो मत, चाचा। धुरन्धर बाबू की भी एक आँख पत्थर की है। दूर से किसी को पता भी नहीं चलता।।’’
‘‘उतने पैसे होंगे तो वह भी कर डालूँगा। अब तू जा।’’
उधर छोकरा बस्ती से बाहर हुआ और इधर घेघू के दिल की धड़कने बढ़ गईं। उन धड़कनों को पढ़ कर कोई भी कह सकता था कि रनिया के सौभाग्य का सूरज आकाश में चढ़ने लगा है, और घेघू को लग रहा था कि वह ब्याह की पालकी में बैठ चुका है, कहारों ने पालकी उठा ली है, अब, बस, उस बँसवाड़ी के पार, अगले ही गाँव में वे कन्धे से पालकी उतार रखेंगे, गुदगुदियों में सारा शरीर नही उठा।
एक नई दुनिया बिलकुल उसके पास चली आई थी। आओ घेघू, इसमें वास करो। किसी दिन एक तीसरा भी दाखिल हो जाएगा, ‘केहूँ, केहूँ...’
जब वह चाँद के लिए हठ करेगा, तो घेघू आकाश से तोड़कर चाँद ला देगा।
कितना अच्छा होता, सपने बाजारों में बिका करते! तो हर कोई उन्हें खरीद तो नहीं पाता। आज यों भी जहर का नशा चढ़ा हुआ था घेघू पर। वह बहक रहा था बेतरह...
...छोटे अब पहुँच गया होगा रनिया के पास। पाव भर जमीन भी तो नहीं है जेल चैक... रनिया अवश्य मिल गयी होगी...रनिया को इशारे से बुला ले गया होगा छोटे, कठपुलवा के नीचे अँधेरे में... अब उससे बातें कर रहा होगा...
नकबेसर देखते ही रनिया को उस दिन की बात याद आ गयी होगी।
मैंने कहा था, ‘‘नाक में एक नकबेसर डाल लो, तो परी की तरह लगोगी, रनिया!’’ तब उसने पूछा था, ‘‘परी कैसी होती है, देखी है तुमने?’’ तब मैंने कह दिया था, ‘‘बिलकुल तुम्हारी तरह। पर उसकी नाक में एक नकबेसर भी होता है।’’ हँसकर आगे बढ़ गयी थी रनिया।
उन दिनों रनिया को देखकर उसका मन बरबस जोर-जोर से फगुआ गाने को मचल पड़ता, ‘‘ले भागा, रे, ले भागा, नकबेसर कागा ले भागा।’
...वह उलट-पलटकर देख रही होगी नकबेसर। और अब पहन रही होगी।
अगले दिन जब मैंने फिर टोक दिया था, तो उसने अपनी रजामंदी लगभग जाहिर कर दी थी, ‘एक नकबेसर ला दो, तो पहन लूँगी, घेघू भैया।’ ‘‘खबरदार!’’ मैंने कहा था, ‘‘एक की जगह सौ नकबेसर ला दूँगा, पर मुझे भैया-भैया मत कहा कर।’’ हँसती हुई भाग गई थी रनिया, और घेघू की दो आँखें ध्रुवतारा की तरह चमक उठी थीं।
...नकबेसर पहनकर उसने छोटे से जरूर पूछा होगा, ‘‘कैसा लगता है?’’
‘‘बहुत सुन्दर।’’ घेघू के मुँह से अनायास निकल पड़ा। छोटे ने भी जरूर यही कहा होगा, ‘‘बहुत सुन्दर।’’
...और अब रनिया आ रही होगी...
घेघू जल्दी से उठकर बिस्तर ठीक-ठाक करता है। सबसे साफ चादर डालता है उस पर। तकिया लगा देता है। और फिर लेटकर प्रतीक्षा करने लगता है। नशे में उसकी आँखें मुँद-मुँद जाती हैं। पर तब भी हर आहट, हर पदचाप पर वह चैकन्ना हो उठता है और दरवाजे से बाहर झाँकता है।
संसार के सारे हृदय सहोदर हैं।
बहुत देर कर दी छोटे ने। नहीं, देर रनिया ने लगायी होगी। वह फूल ढंँूढ़ रही होगी जूड़े में खोंसने के लिए। वह जानती है, फूलों से सजा जूड़ा पसन्द करता है घेघू। उस दिन जब जूड़े में फूल खोंसे वह गुजर रही थी, तो मैंने टोक ही दिया था, ‘‘यह फूल बड़ा फबता है तुम पर, रनिया।’’ रनिया से उसकी यह पहली मुलाकात थी। पहली मुलाकात की पहली मुसकराहट पर घेघू जान से फिदा हो गया था।
सब कुछ याद होगा रनिया को।
इस बार सचमुच कोई था। अँधेरे में एक छायाकृति को घेघू ने अपनी झोंपड़ी की ओर आते देखा। यह कौन हो सकता है? तब तक छोटे सामने हाजिर हुआ। अकेला छोटे? क्या रनिया बाद में आएगी? उस दिन तो उसने स्पष्ट कहा था, ‘एक नकबेसर ला देना, तो पहन लूँगी।’ औरत और क्या कहती?
छोटे दरवाजे पर रुके बगैर अन्दर आ गया और धम्म से बिस्तर पर बैठ गया। पीछे-पीछे घेघू भी आया और पूछा, ‘‘क्या हुआ, छोटे?’’
छोटे अपनी साँसों को ठीक करने में लगा था। उसने छोटा-सा जवाब दिया, ‘‘उसकी बात मत करो, चाचा।’’
जैसे किसी बच्चे ने उसे डाँट दी हो। वह बिलकुल सन्न रह गया। न जाने कितनी तब्दीलियाँ आ गयीं घेघू के अन्दर। भूचाल, हाहाकार, और फिर मलबों का ढेर। पर तब भी वह स्थिर रहा, पाँव तले की जमीन खिसक नहीं गई, किसी आँधी ने उसे उड़ा नहीं लिया।
कुछ पाया नहीं घेघू, तो खोया ही क्या?
‘‘जाकर क्या कहा तुमने?’’ घेघू ने अपनी आवाज को काँपने नहीं दिया।
‘‘उसे नकबेसर दे दिया और जो कुछ तुमने सिखाया था, सब कह दिया।’’
‘‘क्या बोली वह?’’
‘‘नकार गई चाचा, साफ नकार गई।’’
‘‘तुमने उसे बता दिया था कि मेरे साथ उसका सारा दलिद्दर दूर हो जाएगा।’’
‘‘खूब ठीक से बता दिया था।’’
‘‘यह भी कि मेरे घर में वह रानी की तरह रहेगी?’’
‘‘यह तो मैंने बार-बार कहा।’’
‘‘और क्या कहा तुमने?’’
‘‘मैंने उससे कहा कि घेघू चाचा का जोड़ा पूरी बस्ती में नहीं मिलेगा। तुम तो भागवंत हो जो घेघू चाचा तैयार हो गये हैं।’’
‘‘तब क्या कहा उसने?’’
‘‘उसमें ऐंठ तो कम नहीं हैं, चाचा। कहने लगी, मैं उस घेघू से ब्याह नहीं करूँगी, उसके घेघा से मुझे डर लगता है। बिलकुल झूठ। घेघे से क्या डर लगेगा! लूले-लँगड़ों के साथ दिन-रात कूल्हे मटकाती फिरती है और तुम्हारे घेघा से उसे डर लगने लगा।’’
ऐसे दुर्वचन आज तक किसी ने नहीं कहे थे।
नकबेसर आगे बढ़ाते हुए छोटे ने कहा, ‘‘भगवान जो करता है, वह अच्छा ही करता है। रनिया तो बदमाश है चाचा, हर-हमेशा तो कंघी चोटी में लगी रहती है। वह दस घरों की झूठन खानेवाली है। तुम्हारे एक घर से, भला, उसका गुजारा हो। बस, यही समझो चाचा कि भगवान ने तुम्हें बचा लिया। वह सुख-दुःख में कभी काम नहीं आती।’’
घेघू गुमसुम सुनता रहा। उसका ध्यान उन असंख्य आँखों की ओर चला गया था, जो हाट-बाजार में उसे देखकर भय और जुगुप्सा से भर उठती थीं।
‘‘और कानी भी तो है। सुबह-सुबह उठकर उसकी कानी आँख देखोगे? तुम इतना भी नहीं जानते हो कि इससे अशुभ होता है?’’
घेघू और भी बहुत कुछ गुमसुम सुनता चला जाता। उसके कान रनिया की पिछली खिलखिलाहटों की ओर लगे हुए थे। जब-जब रनिया हँसती हुई उसके आगे से गुजर गई थी, वह जरूर उसके घेघे पर हँसी होगी। जितनी थकावट छोटे को दौड़-धूप से नहीं हुई थी, उससे कहीं अधिक घेघू चाचा की उदासी ने पैदा कर दी थी। उसे नींद आने लगी। उसने अपना बिस्तर लगा लिया, पर ज्यों ही सोने को हुआ कि घेघू ने अपनी खामोशी तोड़ दी, ‘‘देखो छोटे, बाबा भोले ने मुझे दौलत नहीं दी है, विद्या नहीं दी, माँ-बाप के मर जाने पर किसी ने आसरा नहीं दिया, पर तब भी एक सहारा दे दिया कि कमा खा लेता हूँ। भिखमंगे यहाँ भी तो बहुत हैं, पर किस पर है बाबा की ऐसी कृपा? मैं तो आँख-नाक से दुरुस्त हूँ। हाथ पैर सलामत हैं, लूला-लँगड़ा नहीं हूँ। कोढ़ियों की तरह दिन-रात मक्खियाँ नहीं उड़ाता रहता। किसी घाव-घोस के दर्द से रात भर छटपटाता नहीं, चीखता-रोता नहीं। और भिखमंगों की भी दशा देख लो। पर तब भी कमाता किसी से कम हूँ क्या? बाबा ने गले में ऐसा गलेगण्ड डाल दिया है कि पाँच-दस रोज कमा ही लेता हूँ।’’
‘‘हाँ, चाचा।’’
‘‘उस कानी के लिए अपना घेघा कटवा दूँ क्या? बाबा की दी हुई एक यही दौलत तो है मेरे पास। साली बद्दुआ देती है डायनों की तरह। ऐसी औरत से क्या शादी की जा सकती है? बोलो, छोटे?’’
‘‘नहीं चाचा, और फिर तो वह बड़ी छिनाल है।’’
‘‘हाँ, रे हाँ, कानी भी तो है।’’
एक क्षण के लिए खामोश हो गया था घेघू, और तब वह एकबारगी छोटे से पूछ बैठा, ‘‘सच बता छोटे, क्या यह घेघा तुम्हें भी बुरा लगता है?’’
छोकरा हड़बड़ाकर उठ बैठा। और उसने तेजी से जवाब दिया, ‘‘नहीं चाचा, तुम कैसी बातें करते हो?’’ और फिर घेघे को हथेली से सहलाते हुए कहा, ‘‘मुझे कैसे बुरा लगेगा? भगवान की दी हुई दौलत है। इसी की कमाई तो मैं भी खाता हूँ। मैं तो खुद भगवान से मनाता हूँ कि हे भगवान ! सड़े-गले भिखमंगे की तरह मेरे हाथ-पैर मत सड़ाना। बस, घेघू चाचा की तरह एक घेघा मुझे भी दे देना।’’
घेघू ने अब छोटे को सो जाने को कहा। थकावट के मारे उसे जल्दी ही नींद आ गयी। घेघू खंभे के बाँस से पीठ टिकाये देर तक न जाने भूत- भविष्य के किन-किन कोनों में झाँकता रहा। फिर वह उठा और हाथ में नकबेसर लिए झोंपड़ी के बाहर मैदान की ओर निकल गया। करीब सौ- सवा सौ कदम चलकर वह रुका और फिर अपनी पूरी ताकत से हाथ घुमाते हुए नकबेसर पास की तालाब की दिशा में फेंका और बगैर मालूम किए कि नकबेसर तालाब में गिरा, या झाड़ियों के बीच, वह तेजी से वापस मुड़ गया।
मुट्ठी में उस वक्त केवल नन्हा-सा नकबेसर ही बन्द था? न जाने और ढेर-सी कितनी सारी चीजें थीं, जो अचानक बन्द मुट्ठी में प्रवेश पा गई थीं, और घेघू ने जिस ताकत और तेजी से अपना हाथ उछाला था, उससे तो यही लगता था कि वे सब-की-सब तालाब और झाड़ियों से दूर, बहुत दूर, जाकर गिरी होंगी।
झोंपड़ी के दरवाजे पर वह एक क्षण के लिए ठिठक गया। चाँद की रोशनी में उसकी दृष्टि अचानक अपनी खुली हथेली की ओर चली गई। किधर थी भाग्य की रेखा, घर-दुआर की? एक लम्बी उम्र के सिवा और कहीं कुछ नहीं था उन रेखाओं में।
मधुबनी चैक का पण्डित बिलकुल झूठ बोल गया था।
और कागा?