नकली नहीं असली गधा चाहिए / सुरेश कुमार मिश्रा
भारत चुनावों का देश है। यहाँ पूरे साल अलग-अलग चुनाव बड़े ही धूमधाम से मनाए जाते हैं। इसे सभी धर्मों के लोग एक साथ मिल-जुलकर मनाते हैं। फिर चाहे वह देश का लोकसभा चुनाव हो या फिर राज्यों का विधानसभा चुनाव, फिर चाहे नगरपालिका का चुनाव हो या स्थानीय चुनाव। यहाँ सभी चुनाव ख़ुशी और जुनून के साथ मनाए जाते हैं। वास्तव में चुनाव देश की धार्मिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक व सामाजिक एकता कि महानता को उजागर करते हैं। ये चुनाव हमारा गौरव हैं। विभिन्न जातियों, भाषाओं, प्रांतों व भिन्न-भिन्न संप्रदायों के विभिन्न रंगों को एकाकार करने में हमारे चुनाव सदैव ही प्रमुख भूमिका निभाते हैं। विभिन्नताओं के इस देश में होने वाले चुनावों का स्वरूप भी भिन्न है। कुछ त्योहारों का स्वरूप इतना व्यापक है कि इसमें देश के अधिकांश लोग भाग लेते हैं जैसे लोकसभा चुनाव, वहीं कुछ त्यौहार स्थानीय होते हैं जो किसी स्थान विशेष तक ही सीमित होते हैं जैसे सरपंच चुनाव। इन चुनावों के चलते सभी वर्गों में एक नई उत्सुकता दिखायी पड़ती है। नेतागण इसलिए प्रसन्न रहते हैं कि हमने जनता को चुनाव के नाम पर चूना लगाकर ठग लिया। वहीं जनता मन ही मन इसलिए प्रसन्न रहती है कि वह सभी के पास ले पाकर वोट उसी को देती है जिसे वे देना चाहते हैं।
जैसे-जैसे समय बदल रहा है वैसे-वैसे नेताओं और जनता कि सोच भी बदल रही है। हाल ही में एक घटना घटी। एक फलाँ नेता एक आम नागरिक के पास गया। हाथ जोड़कर चिरौरी करते हुए वोट माँगने का प्रयास किया। साथ ही दो हज़ार रुपये का लालच भी दिखाया। लेकिन नेता को आश्चर्य तब हुआ जब आम से लगने वाले ख़ास आदमी ने रुपया लेने से मना कर दिया। उसने नेता से कहा-आप मुझे दो हज़ार रुपये के बदले एक गधा लाकर दे दें। तब मैं अपना वोट आपको ही दूँगा। नेता को आम आदमी का ऑफर अच्छा लगा। वह बाज़ार पहुँचा। गधा खरीदने के लिए मोल-तोल करने लगा। कोई भी गधा रुपये दस हज़ार से कम का न था। थक हारकर निराश नेता उस आम आदमी के पास पहुँचा। नेता ने उससे कहा–गधे की क़ीमत दस हज़ार से कम नहीं है। मैं इतना रुपया नहीं लगा सकता। यह दो हज़ार लेकर मामला यहीं रफा-दफा करो।
आम आदमी बड़ा समझदार था। उसने नेता से कहा–मेरा माल ढुलाई का छोटा-सा व्यापार है। इसके लिए मुझे एक गधे की ज़रूरत थी। यदि आप मुझे एक गधा लाकर दे देते तो माल ढुलाई का मेरा हल्का-फुल्का व्यापार इससे चल जाता। आप दो हज़ार रुपये में एक गधा तक नहीं खरीद सके और चले हैं हमें खरीदने? दो हज़ार रुपये के लिए मेरा और मेरे परिवार के सदस्यों का वोट बिक जाए, इतना सस्ता नहीं है हमारा जमीर। हम बिकाऊ नहीं हैं। क्या आप मेरा और मेरे बच्चों का भविष्य गधे से भी कम क़ीमत में खरीदना चाहते हैं? एक बार रुपया लेकर वोट डाल दिया तो समझो आने वाले कई सालों तक हमें चूस-चूसकर अधमरा कर दोगे। इस महंगाई के ज़माने में आपके ये चंद रुपये कब रफू चक्कर हो जाएँ पता ही नहीं चलेगा। इसलिए इन रुपयों को अपने जेब में रखिए। हो सके तो एक असली गधा लाकर दीजिए, आप जैसे नकली गधे तो हर दिन घर के चक्कर काट रहे हैं।