नकल हर काम को आसां बनाती है? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 06 अगस्त 2020
सुभाष कपूर की फिल्म ‘जॉली.एल.एल.बी’ के प्रारंभिक दृश्य में एक व्यक्ति छात्रों को नकल करा रहा है। वह शिक्षा परिसर के बाहर लाउड स्पीकर का उपयोग कर रहा है। राजकुमार हीरानी की ‘मुन्नाभाई एम.बी.बी.एस’ में भी ईयर फोन से नकल कराई जाना प्रस्तुत किया गया है। यह आश्चर्य की बात है कि व्यवस्था द्वारा घोषित शिक्षा प्रणाली बनाने वालों ने नकल की समस्या पर गौर नहीं किया। हत्या, दहेज इत्यादि भी प्रतिबंधित हैं, परंतु हत्याएं हो रही हैं और दहेज लिया-दिया जा रहा है। समाज अपनी भीतरी ऊर्जा से सुधरते हैं। निद्रा में लीन आम आदमी को ही खुद जागकर अन्य को जगाने की पहल करनी होगी, क्योंकि महात्मा गांधी बार-बार अवतार नहीं लेते। यह कहा जा रहा है कि नकली करेंसी नोट बाजार में है। नकल उद्योग इतना विकसित है कि डीमॉनीटाइजेशन के बाद कुछ ही दिनों में नई करेंसी की नकल भी बाजार में आ गई। अर्थशास्त्र का नियम है कि खोटी मुद्रा असली मुद्रा को बाहर खदेड़ देती है। यह सभी क्षेत्रों में हो रहा है।
हमारे फिल्मकारों ने हॉलीवुड की फिल्मों की प्रेरणा से फिल्में बनाईं और नकल को नया नाम प्रेरणा दिया गया। फिल्मी गीतों में तो दशों-दिशाओं से आवाजे आती रही हैं। हॉलीवुड फिल्मों के पात्र ओव्हर कोट पहने प्रस्तुत किए गए, तो हमारे पात्र मुंबई की ग्रीष्म ऋतु में भी ओव्हर कोट पहने प्रस्तुत किए गए। नकल के लिए भी थोड़ी सी अक्ल लगानी पड़ती है। कुछ वर्ष पूर्व चीन के छात्रों ने प्रदर्शन किया कि नकल उनका जन्म सिद्ध अधिकार है। यूं महान लोकमान्य तिलक के नारे की भी नकल हुई। अरसे पहले पंजाब के कुछ छात्र परीक्षा स्थगित करने की मांग कर रहे थे। पढ़ने वाले छात्रों ने नारा दिया ‘साडा हक इत्थे रख।’ इरशाद कामिल ने इसका विवरण दिया है। उस दौर में नकल इतनी सर्वव्यापी नहीं थी। नकली चेहरे लगाने के कीमिया का विवरण बाबू देवीकीनंदन खत्री ने किया है। खत्रीजी के रचे अय्यार पात्र चेहरे बदलना जानते थे। यह प्लास्टिक शल्य क्रिया के पहले की बात है। निदा फाजली ने लिखा है- ‘औरों जैसे होकर भी बाइज्जत हैं, इस बस्ती में, कुछ लोगों का सीधापन है, कुछ है अपनी अय्यारी भी।’
शैलेंद्र लिखते हैं- ‘असली नकली चेहरे देखे ,दिल पर सौ-सौ पहरे देखे, मरे दुखते दिल से पूछो, क्या-क्या ख्वाब सुनहरे देखे।’
टेक्नोलॉजी का उपयोग अपराधियों ने भी किया। सरकार की खरीदी टेन्डर प्रक्रिया द्वारा की जाती है। इसमें समय लगता है। इसीलिए अपराध जगत टेक्नोलॉजी का लाभ सभ्य समाज से पहले ही उठा लेता है। निर्देशक शिवम नायर की तापसी पन्नू अभिनीत फिल्म ‘नाम शबाना का’ में खलनायक प्लास्टिक सर्जरी द्वारा अपना चेहरा बदल लेता है। हांगकांग में जन्में फिल्मकार जान वू ने हॉलीवुड में चेहरे बदलने की बात की प्रेरणा से ‘फेस ऑफ’ फिल्म का निर्माण किया था। समय के साथ मनुष्य का चेहरा व शरीर बदलता रहता है। मनुष्य की विचार शैली भी इस परिवर्तन के लिए कुछ हद तक उत्तरदायी है। चेतन आनंद की फिल्म ‘कुदरत’ के लिए कतील शिफाई का गीत है-
‘सुख-दुख की हरेक माला कुदरत ही पिरोती है, हाथों की लकीरों में जागती सोती है।’
सरोश मोदी पहले फिल्म मेकअप करने वाले थे, जिन्होंने अमेरिका से विद्या का ज्ञान प्राप्त किया। वर्तमान में प्रोस्थेटिक्स मेकअप करने और उसे उतारने में 5 घंटे लगते हैं। 2 घंटे तक कलाकार काम करता है, क्योंकि ये सारा समय वह कुछ खा नहीं सकता। स्ट्रॉ से जूस पी सकता है। वर्तमान में अधिकांश लोग अपने चेहरे पर खुशी का प्लास्टर चढ़ाए हैं, क्योंकि दुखी दिखने की इजाजत नहीं है। दुखी होने का अर्थ व्यवस्था की आलोचना मानी जाती है। कभी-कभी चेहरे का यह प्लास्टर उखड़ जाता है।