नक़ल से ग़ज़ल / ओम नीरव
यदि ग़ज़ल का व्याकरण नहीं आता है तो निराश न हों; आप केवल नक़ल से प्रारंभ करके सटीक ग़ज़ल कह या रच सकते हैं, लेकिन यह ध्यान रहे कि नक़ल के लिए कुछ अक़ल की भी आवश्यकता होती है। हाँ थोड़ी-सी अक़ल लगाते हुए सही ढंग से नक़ल के रास्ते पर चलकर ग़ज़ल ही नहीं और बहुत कुछ सीखा जा सकता है। तो आइए हम देखते हैं कि ग़ज़ल रचने के लिए हमको कैसे नक़ल के रास्ते पर चलना होगा।
सबसे पहले किसी जाने-माने शायर की पसंदीदा ग़ज़ल को चुनिए जिसे आप लय के साथ गा लेते हों। गाना भले ही न आता हो अर्थात गाते समय लय थोड़ी बहुत भले ही बिगड़ जाती हो लेकिन भीतर से लय की अनुभूति तो होनी ही चाहिए। यदि अच्छे ढंग से गा लेते हैं तो क्या कहना, सोने में सुहागा! जैसी भी स्थिति हो, चुनी गयी ग़ज़ल को गाइए और दिल खोल कर गाइए। किसी के हँसने की चिंता न कीजिए, खुले गले से गाइए, मस्त होकर गाइए। गाते-गाते ऐसा कीजिये कि ग़ज़ल के शब्द पीछे छूट जाएँ और आप केवल लय को गुनगुनाते रह जाएँ। गुनगुनाने का अर्थ यह है शब्द छूट जाएँ और केवल स्वर रह जाएँ अथवा लल्ला-लल्ला या नन्ना-नन्ना या ऊँ-ऊँ करते हुए लय को साधते रहें। इस अभ्यास के द्वारा लय सरलता आपके मन में बस जाती है। इस क्रिया को ठीक से समझने के लिए एक फ़िल्मी ग़ज़ल का उदाहरण लेते हैं-
सुहानी चाँदनी रातें हमें सोने नहीं देतीं,
तुम्हारे प्यार की बातें हमें सोने नहीं देतीं।
इसे पहले गाइए और फिर गुनगुनाये, तब इसकी लय कुछ इसप्रकार प्रकट होगी-
ललालाला ललालाला-ललालाला ललालाला ...
ननानाना ननानाना-ननानाना ननानाना ...
अथवा ऐसे ही कुछ और।
अब जो लय आपके मन में बस गयी है उसपर शब्दों को ढालते हुए अपने मन के भावों को प्रकट करने का प्रयास कीजिए। शब्दों का प्रयोग करते समय इस बात का ध्यान भी रखिए कि यथासंभव वे अपने स्वाभाविक उच्चारण के साथ ही प्रयोग में आयें अर्थात स्वाभाविक उच्चारण के समय को बलपूर्वक न बढ़ाएँ और न घटाएँ। इस प्रकार दो पंक्तियाँ ऐसी रचिए कि दोनों पंक्तियों में कोई मन की बात सुंदरता के साथ पूरी हो जाए और दोनों पंक्तियाँ तुकांत हों अर्थात उनके अंत का कुछ भाग एक समान हो जैसे उहाहरण की पंक्तियों में 'आतें हमें सोने नहीं देतीं' यह भाग एक समान है। इस अंतिम भाग को गांठ में बाँध लीजिए क्योंकि अगली पंक्तियों में तुक मिलाने के लिए इसी भाग की आवश्यकता पड़ेगी। इसे आप तुकांत भी कह सकते हैं। दोनों तुकांत पंक्तियों से ग़ज़ल का पहला शेर बन जाएगा, जिसे मतला कहते हैं। मतला में जो तुकांत निर्धारित हो जाता है, उसका निर्वाह पूरी ग़ज़ल में ज्यों का त्यों किया जाता है, इसे बदला नहीं जाता।
अब उपर्युक्त लय पर ही किसी दूसरे भाव को व्यक्त करते हुए अन्य दो पंक्तियाँ इस प्रकार रचिए कि पहली पंक्ति अतुकांत और दूसरी पंक्ति तुकांत हो। यह ध्यान रहे कि दोनों पंक्तियों के बीच कोई आपसी तुकांतता भूल से भी न आने पाये और आपकी बात इन दो ही पंक्तियों में पूरी हो जाये। इन दो पंक्तियों से आपकी ग़ज़ल का दूसरा शेर बन जाएगा। इसीप्रकार एक के बाद एक शेर कहते जाइए। ध्यान रहे कि प्रत्येक शेर का अर्थ अपने में पूर्ण हो अर्थात वह अपने अर्थ के लिए किसी दूसरे शेर का मुँह न ताके, प्रत्येक शेर की पंक्तियाँ एक ही लय में हों और पहली पंक्ति अतुकांत जबकि दूसरी पंक्ति समतुकांत हो आर्थर उसमें वही तुकांत हो जिसे आपने मतला में निर्धारित किया है। किसी ग़ज़ल में कम से कम पाँच शेर (अश' आर) अनिवार्य होते हैं, अधिकतम की कोई सीमा नहीं होती है। इसलिए मतला के अतिरिक्त कम से कम चार शेर और रच लीजिए तो पाँच शेरों की एक सटीक ग़ज़ल बन जाएगी। अंतिम शेर में आप चाहें तो अपने नाम का प्रयोग भी कर सकते हैं और यदि आप ऐसा करते हैं तो उस शेर को मक्ता कहा जाएगा लेकिन यह अनिवार्य नहीं है।
शेर को रचने में आपके कहने का ढंग विशेष महत्त्व रखता है। शेर की कहन कुछ ऐसी होनी चाहिए कि उसके पूरा होते-होते सुनने या पढ़ने वाले के मुँह से सहज ही 'वाह' निकल जाये। ऐसा कैसे हो पाता है, इसे समझने की आवश्यकता है। इसके लिए आप अपने कथ्य की भूमिका पहली पंक्ति में बनाइये और उसका पूरा प्रकटीकरण दूसरी पंक्ति में इसप्रकार कीजिए कि लगे, आपने कोई विस्फोट कर दिया है। दूसरे शब्दों में, पहली पंक्ति में कथ्य का संधान कीजिए और दूसरी पंक्ति में उसका प्रहार कर दीजिए तो श्रोता या पाठक के ऊपर उसका एक चमत्कारी प्रभाव पड़ेगा और वह बरबस 'वाह' कर उठेगा। ग़ज़ल की इस विशेष कहन को समझने के लिए आप प्रतिष्ठित ग़ज़लकारों की ग़ज़लें पढ़ें और इस बात पर ध्यान दें कि उन्होंने शेर में अपनी बात को किस कौशल के साथ कहा है तो धीरे-धीरे वह कौशल समझ में आता जाएगा और एक दिन वैसी ही या उससे भी अच्छी कहन आपकी ग़ज़ल में आ जायेगी।
इस राह पर चलकर आप ग़ज़ल रचने का श्रीगणेश बहुत सहजता और सुंदरता के साथ कर सकते हैं लेकिन नकल से रची ग़ज़ल में कुछ कमी भी हो सकती है और वह है यदा-कदा लय से भटकाव। यह भटकाव प्रायः गाने से समझ में नहीं आता है क्योंकि गाते समय प्रायः शब्दों के उच्चारण के समय को आप अपनी सुविधा से बदल लेते हैं और उस बदलाव पर आपका ध्यान नहीं जाता है। इसलिए यदि आप सटीक ग़ज़ल रचना चाहते हैं तो ग़ज़ल की लय के आधार को समझना होगा जिसे मापनी या बहर कहते है। मापनी या बहर का पता आप लगा सकते हैं, कुछ इस प्रकार-आपने जिस ग़ज़ल की नकल की है उसकी एक पंक्ति को एक बार फिर से लय में गाइए और हृस्व को लघु अर्थात 1 मात्रा या 'ल' जबकि दीर्घ को गुरु अर्थात 2 मात्रा या 'गा' के रूप में लिखते जाइए; जो 'मात्रा-क्रम' बनेगा उसी को फिलहाल मापनी समझ लीजिये और अपने शेरों के मात्राभार को इसी से मिलाकर जाँच लीजिए; कोई कमी होगी तो सामने आ जायेगी; उसे सुधार लीजिए, जैसे उक्त उदाहरण की मापनी का निर्धारण इस प्रकार कर सकते हैं-
सुहानी / चाँदनी / रातें / हमें / सोने / नहीं / देतीं
122 / 212 / 22 / 12 / 22 / 12 / 22 अथवा
लगागा / गालगा / गागा / लगा / गागा / लगा / गागा
अब यदि मात्राओं का विभाजन विशिष्ट पारंपरिक रूप में कर दिया जाये तो
सुहानी चाँ / दनी रातें / हमें सोने / नहीं देतीं
1222 / 1222 / 1222 / 1222 अथवा
लगागागा लगागागा-लगागागा लगागागा
लीजिए, यह उपर्युक्त उदाहरण की मापनी तैयार हो गयी। इसमें मात्राओं का यह दूसरा विभाजन स्वैच्छिक न होकर पारंपरिक है जिसे जानकारों से ग्रहण करना पड़ेगा अन्यथा ग़ज़ल रचने के लिए पहला विभाजन ही पर्याप्त है। ध्यान रहे कि मात्राक्रम से मापनी बनाने में ऐसे दो लघु को उच्चारण के अनुरूप एक गुरु मान लिया जाता है जिनको मिलाने से लय भंग न हो, फिर जो लघु बचते हैं उन्हें कभी बदला नहीं जाता है।
ग़ज़ल रचने के लिए यह अनुकरण का मार्ग बहुत सरल है और थोड़ी समझ के साथ प्रयोग किया जाये तो पर्याप्त भी है किन्तु परिपक्वता के साथ ग़ज़ल के संसार में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए ग़ज़ल की तकनीकी जानकारी प्राप्त कर लेना भी आवश्यक है। इसकी एक झलक निम्न विंदुओं में देखी जा सकती है-
(1) ग़ज़ल की लय को साधने के लिए एक निश्चित बहर / मापनी होती है जो वास्तव में मात्राओं का एक निश्चित लयात्मक क्रम है जैसे-
1222 1222 1222 1222 (अंकावली) अथवा
लगागागा लगागागा-लगागागा लगागागा (लगावली)
अथवा ग़ज़ल की भाषा में इसे इस प्रकार व्यक्त करते हैं-
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन-मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन।
ग़ज़ल की पंक्ति को मिसरा कहते हैं, सभी मिसरे एक ही बहर / मापनी में होते हैं। निश्चित स्वर खंड जैसे 1222 को रुक्न कहते हैं, रुक्न का उर्दू में बहुवचन अरकान होता है।
(2) ग़ज़ल में दो-दो मिसरों के कम से कम पाँच शेर होने चाहिए। प्रत्येक शेर का अर्थ पूर्वापर निरपेक्ष होना चाहिए अर्थात उसे अपने अर्थ के लिये किसी दूसरे शेर का मुखापेक्षी नहीं होना चाहिए। ग़ज़ल के शेर की एक विशेष कहन होती है, जिसे अंदाज़-ए-बयाँ, वक्रोक्ति, अन्योक्ति, बाँकपन या व्यंजना के रूप में भी देखा जा सकता है, ऐसा कुछ भी न हो तो सपाट बयानी या अभिधा से ग़ज़ल का शेर नहीं बनता है।
(3) पहले शेर के मिसरे तुकान्त होते है, इसे मतला कहते हैं। बाद के प्रत्येक शेर की पहली पंक्ति अनिवार्यतः अतुकांत होती है जिसे मिसरा ऊला कहते हैं तथा दूसरी पंक्ति तुकांत होती है, जिसे मिसरा सानी कहते हैं।
(4) पूरी ग़ज़ल में तुकान्त एक समान रहता है जिसमे दो खंड होते है-अंत के जो शब्द सभी पंक्तियों में सामान होते हैं उन्हें रदीफ़ या पदान्त कहते हैं तथा उसके पहले के शब्दों में जो अंतिम अंश समान रहता है उसे काफिया या समान्त कहते हैं, जैसे ऊपर के उदाहरण में काफिया 'आतें' , रदीफ़ 'हमें सोने नहीं देतीं' और पूरा तुकांत 'आतें हमें सोने नहीं देतीं' स्पष्ट हैं। कुछ ग़ज़लों में रदीफ़ या पदांत नहीं होता है, ऐसी ग़ज़लों को ग़ैरमुरद्दफ़ या अपदांत ग़ज़ल कहते हैं!
(5) आखिरी शेर में यदि रचनाकार का उपनाम आता है तो उसे मक़ता कहते हैं।
(6) संक्षेप में कोई रचना तभी ग़ज़ल हो सकती है जब उसमे पाँच बातें हों-बहर या मापनी, तुकान्त या रदीफ़-काफ़िया, मतला, कम से कम पांच शेर और विशिष्ट कहन।
ग़ज़ल अपने प्रारम्भिक काल में प्रेमिका साथ प्रणय-संवाद के रूप में पहचानी जाती थी लेकिन आजकल ग़ज़ल समाज का दर्पण बन गयी है जिसमें भूख, ग़रीबी, सामाजिक विषमता, शोषण, उत्पीड़न, अवमूल्यन के साथ स्वर्णिम भविष्य की कल्पना को प्रतिबिम्बित होते देखा जा सकता है। युग्म की पूर्वापर निरपेक्ष प्रकृति के कारण ग़ज़ल में विषय की विविधिता रहती है जिससे सर्जन अपेक्षाकृत अधिक सरल, रोचक और प्रभावशाली हो जाता है और श्रोताओं को सुनने में विशेष कौतूहलमय आनंद प्राप्त होता है।