नक़्क़ारखाने में पुरुष विमर्श / पंकज सुबीर
मनेजर साब की कहानी की शुरूआत उसी मोहल्ले से होती है। नदी किनारे का वह मोहल्ला जिसका नाम बर्रूखेड़ी है। बर्रूखेड़ी इसलिये क्योंकि ये मोहल्ला नदी के किनारे-किनारे बसा है और नदी के ही किनारे-किनारे यहाँ ढेर से बर्रू खड़े रहते हैं। उन दिनों जब बर्रू से ही लिखने की क़लम बनाई जाती थी, तब ही इस गाँव का नाम पड़ गया बर्रूखेड़ी। गाँव? दरअसल में ये पहले गाँव ही था। नदी के इस पार शहर था और उस पार गाँव। बाद में जब पुल बन गया तो गाँव और शहर गले मिल गये और जैसा होता आया है शहर ने गाँव को लील लिया। तो नदी पार का वह बर्रूखेड़ी गाँव, अब इस शहर का एक मोहल्ला है। जब पुल नहीं था तो लोग नदी पार करके उस पार बर्रू लेने जाया करते थे क़लम बनाने के लिये। बर्रू लेने जाते थे तो गाँव का नाम भी वही हो गया बर्रूखेड़ी। बर्रूखेड़ी की एक विशेषता ये थी कि यहाँ लगभग नब्बे प्रतिशत घर एक ही जाति के थे, मनेजर साब की जाति के। बाक़ी के दस प्रतिशत में अन्य सभी जातियाँ शामिल थीं। बर्रू की झाड़ियों के ठीक पीछे नदी से लगा हुआ मनेजर साब का पुश्तैनी घर था।
मनेजर साब की पैदाइश के समय मनेजर साब के पिता गुज़र चुके थे और समस्या ये थी कि खेती, मकान इन सबको सँभालने वाला कोई नहीं था। मनेजर साब के पिता तीन बहनों पर एक भाई थे। बहनों की शादी हो जाने के बाद घर में कुल तीन ही प्राणी बचे थे, मनेजर साब के पिता और उनके बूढ़े माँ बाप। बाद में जब मनेजर साब की माँ ब्याह कर इस घर में आईं तो बूढ़े ससुर जी विदा हो गये। रह गये फिर तीन प्राणी और एक दिन खेत पर काम करते समय आसमान पर चमकी बिजली मनेजर साब के पिता पर टूट पड़ी। मनेजर साब तब पेट में ही थे। बिजली ने मनेजर साब की माँ की क़िस्मत को भी जला कर राख कर दिया। वैधव्य के आँचल में जन्म हुआ मनेजर साब का। तो समस्या वही थी कि घर में दो महिलाएँ थीं। उनमें से भी एक बूढ़ी और अशक्त थी। घर से लेकर खेतों तक पूरा काम फैला हुआ था। क्या हो कैसे हो।
अब उस महत्त्वपूर्ण आदमी का भी परिचय हो जाये जो मनेजर साब की ज़िंदगी की इस कहानी को ठीक प्रारंभ में ही मोड़ दे देता है। राधाकिशन राय नाम के ये सज्जन मनेजर साब के पिता के समय से ही खेतों की देखभाल के लिये रखे गये थे। खेती सँभालना अकेले आदमी के बस का वैसे भी नहीं था। मनेजर साब के पिता ने तनख्वाह पर रखा हुआ था उनको। तनख्वाह में नक़द रुपये के अलावा अनाज, दूध, सब्ज़ियाँ भी शामिल थे। राधाकिशन जी विधुर थे। एक बेटा था घर में और कोई नहीं था। मनेजर साब के ही समाज के थे राधाकिशन। साल डेढ़ साल तक तो खेती बाड़ी का काम वैसे ही चलता रहा, लेकिन कब तक? आख़िर को बात तो पूरी ज़िंदगी की थी। मनेजर साब की माँ की उम्र बहुत ज़्यादा नहीं थी अभी पूरी ज़िदगी सामने पड़ी थी। भले ही राधाकिशन खेतों का काम सँभाल रहे थे मगर मनेजर साब के मामा पक्ष को हरदम ये खटका लगा रहता था कि कहीं अकेली महिला देख कर राधाकिशन पूरी खेती हड़प न लें और इसी चिंता में उनके मामा महीने दो महीने में आते रहते थे। आकर राधाकिशन से पूरा हिसाब किताब लेते, खाता खतौनी की दरियाफ़्त करते और चले जाते।
इस बार जब मनेजर साब के मामा बर्रूखेड़ी आये तो बुज़ुर्गों ने बिठाकर उनको एक समझाइश दी। समझाइश पहले पहल तो गले ही नहीं उतरी। बमक उठे मामाजी। ऐसा कैसे हो सकता है भला। मगर फिर एक दो दिन रहने के बाद जब बात को ठंडे दिमाग़ से सोचा तो लगा कि बात कहीं न कहीं है तो ठीक ही। चोर के हाथ में घर की चाबी दे दो तो चोरी का डर तो वैसे ही ख़त्म हो जाता है। ये उन दिनों की बात है जब घर के बड़ों द्वारा ले लिया गया निर्णय अंतिम होता था, उसमें कहीं किसी विरोध, प्रतिरोध की गुंजाइश नहीं होती थी। सो निर्णय ले लिया गया और उस पर अमल भी हो गया। कहने को तो ये ही कहा गया कि मनेजर साब की माँ को राधाकिशन के घर बिठा दिया गया है। किन्तु हक़ीक़त तो ये ही थी कि राधाकिशन ही मनेजर साब के घर बैठे थे। अब वे मनेजर साब के पिता हो गये थे और मनेजर साब के ही घर में रहने लगे थे अपने बेटे को साथ लेकर। इन सबके लिये कोई शादी ब्याह या वैसा ताम झाम नहीं हुआ। दरअसल उस इलाके की अन्य जातियों की तरह मनेजर साब की जाति में भी प्रथा थी बिठा देने की। बिठा देना, मतलब जाति की पंचायत द्वारा किसी स्त्री को किसी पुरुष के साथ ब्याह देना। पंचायत की बैठक को समाज की बैठक कहा जाता था। समाज का आदेश सर्वोपरि होता था और कई मामलों में आज भी होता है, एक बार बिठा देने का आदेश होने के बाद स्त्री उठकर पुरुष के घर चली जाती है, न कोई शादी, न कोई ब्याह। तो बस ये हुआ कि समाज की बैठक हुई और तय कर दिया गया कि मनेजर साब की माँ राधाकिशन के घर बैठेंगीं और राधाकिशन, मय साजो सामान के मनेजर साब के घर आ गये।
ये मनेजर साब के खंडित व्यक्तिव की शुरूआत थी। यद्यपि उस समय मनेजर साब की उम्र दो तीन साल ही थी लेकिन बाद में तो ये कहानी खुलनी ही थी। पितृसत्तात्मक समाज में मनेजर साब माँ की तरफ़ से आ रहे थे (याद आया ना दबंग का चुलबुल पाँडे) और दूसरा भाई पिता की तरफ़ से आ रहा था। बाद में राधाकिशन के आने के बाद मनेजर साब की दो बहनों और एक भाई का जन्म और हुआ। इस प्रकार से कुल पाँच बच्चे हो गये परिवार में। मनेजर साब इन सौतेले भाई बहनों में दूसरे नंबर पर थे। उनके बड़े भाई रम्मू थे जो उनके पिता की संतान थे और श्यामू जो राधाकिशन और उनकी माँ का बेटा था बीच में वे थे। इन सबके बीच में ही कहीं मनेजर साब की दादी भी सिधार गईं। तो पाँच बच्चे तीन प्रकार के थे। इस प्रकार के परिवार उस समाज में आम बात होते थे (अभी भी होते हैं, क्योंकि बिठा देने की परंपरा तो आज भी क़ायम है।) एक बच्चा जिसके पिता असल नहीं थे, एक की माँ असल नहीं थीं तो तीन के दोनों असल थे। इसके चलते एक प्रकार के कॉम्पलैक्स का शिकार उनको उम्र भर रहना था और वह रहे भी। उनका व्यक्तित्व जीवन भर अधूरा ही रहा। उनका ख़ुद का भी ऐसा मानना था कि माँ द्वारा की गई शादी के कारण ही उनका व्यक्तित्व इस प्रकार का हो गया था। घर में एक पिता था जो उनको पिता नहीं लगता था। भाई थे जो भाई जैसे नहीं लगते थे। मगर मानना और कहना उनको भाई और पिता ही पड़ता था। कुण्ठित और दब्बू से मनेजर साब बचपन भर शरारतों से विहीन रहे। उनके बचपन के एक दोस्त ने खेलते में उनको जब कहा कि तुझे पता है मोन्या (मनेजर साब का घर का नाम) तेरे बाबूजी तेरे सगे बाबूजी नहीं हैं, वह तो रम्मू और श्यामू के बाबूजी हैं। तो मनेजर साब हतप्रभ रह गये थे। बात की तस्कीद कर दी माँ ने, मगर साथ में ये भी कहा कि उससे क्या होता है अब तो वह तेरे भी बाबूजी हैं। मगर फाँस को गड़ना था सो गड़ गई। बाद की कहानी में कहीं भी कुछ फ़िल्मी नहीं हुआ, अर्थात मनेजर साब के नये बाबूजी फ़िल्मों के सौतेले पिता की तरह क्रूर नहीं थे, सौतेले भाई भी कभी सौतेले भाईयों की तरह नहीं रहे। मगर मनेजर साब के मन में तो वही रहा कि असली बच्चे तो वही हैं जो माँ और बाबूजी के बच्चे हैं, दूसरा नंबर आता है बाबूजी के बच्चों को और तीसरा नंबर कहीं आता है उनका। यही वह बात थी जिसने मनेजर साब को वैसा कर दिया था जैसे वे थे।
बचपन से ही वे एकांत प्रिय से हो गये थे। कभी नदी किनारे बैठे रहते तो कभी खेत पर जाकर बरगद के नीचे लेट जाते। घंटों ऐसे ही रहते। नदी उनके मकान से सट कर ही बहती थी और इसीलिये बर्रूखेड़ी का वह हिस्सा जहाँ मनेजर साब का मकान था उसको नदीपुरा कहा जाता था। नदी की भी उनके आने वाले जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका होनी थी। नदी ने ही उनको बाद में कवि बना दिया था। प्रकृति की कविताओं का कवि। कविताएँ जिनमें ज़्यादातर नदी के आस पास ही बहती थीं।
कवि तो ख़ैर वे बाद में बने लेकिन उससे पहले जीवन अपने तरीके से चलता रहा। मनेजर साब और उनके कुछ आधे कुछ पूरे सौतेले भाई बहन भी साथ-साथ बढ़ते रहे, पढ़ते रहे। धीरे-धीरे हुआ ये कि आश्चर्यजनक रूप से मनेजर साब और उनके बड़े भाई के बीच बहुत ज़्यादा प्रेमभाव हो गया। मनेजर साब अपने बड़े भाई का बहुत आदर करते थे और जीवन भर करते रहे, उसी प्रकार उनके बड़े भाई उनसे बहुत प्रेम करते थे जो जीवन भर करते रहे। दोनों के बीच बड़ा अजीब-सा रिश्ता था। रम्मू भाई साहब की सारी बातें सिर झुका कर मान लेते थे मनेजर साब और मनेजर साब को ऐसा ही कुछ लगाव हो गया अपने उस छोटे भाई श्यामू से भी जो कि उनसे छोटा था। मनेजर साब इस भाई पर कुछ ज़्यादा लाड़ रखते थे। श्यामू मनेजर साब की तरह पढ़ लिख नहीं पाया और उसके चलते कमज़ोर बना रहा, आर्थिक रूप से भी और सामाजिक रूप से भी। बाक़ी की दो बहनों के साथ मनेजर साब के रिश्ते सामान्य ही रहे। सामान्य का मतलब ये कि उनमें कहीं कुछ ज़्यादा उल्लेखनीय नहीं रहा। वे तीनों मनेजर साब की कहानी में कहीं कोई विशेष दखल नहीं रखते हैं। बस ये कि वे हैं तो हैं। मनेजर साब की कहानी में उनके ये दो भाई ही विशेष रूप से आते जाते रहते हैं। मनेजर साब के बारे में इतना परिचय देना काफ़ी होगा। वह भी इसलिये कि ये परिचय उस कहानी का आधार है जो आगे खड़ी होने वाली है।
अब शुरू करते हैं मनेजर साब की कहानी। कहानी वैसे तो शुरू हो ही चुकी है लेकिन फिर भी उसे एक औपचारिक शुरुआत दी जाए। मनेजर साब जब स्कूल में थे तब ही राधाकिशन जी भी चल बसे और घर की पूरी जिम्मेदारी आ गयी रम्मू भाई साहब पर, इस समय तक रम्मू भाई साहब की शादी हो चुकी थी। उस समय के बर्रूखेड़ी में लड़कों की शादी की उम्र सोलह पूरे करते ही हो जाती थी। रम्मू भाई साहब ने मनेजर साब के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को पूरी तरह से निभाया। आर्थिक स्थिति भी इस समय तक कुछ ख़राब होने लगी थी। खेती तो थी लेकिन परिवार और परिवार के खर्चे बढ़ने के कारण अब वह भी कम पड़ने लगी थी। मगर फिर भी मनेजर साब को कॉलेज भेजा गया। बर्रूखेड़ी से कॉलेज जाने वाले वे पहले व्यक्ति बने। बाक़ी बर्रूखेड़ी में पढ़ाई लिखाई को लेकर लोग उतने संवेदनशील नहीं थे। नदी से लगी हुई ज़मीनें थीं जिन पर खेती होती थी और जिनके पास खेती नहीं थी वे दूध का धंधा करते थे। पुल पार करके शहर जाते थे वहाँ दूध बेचते थे और उस पैसों से लौटते समय देसी शराब लेकर लौटते थे।
मनेजर साब भी स्कूल की पढ़ाई करने के तुरंत बाद ही रम्मू भाई साहब की ही तरह खेती में लगना चाहते थे ताकि उनका हाथ बँटा सकें। मगर रम्मू भाई साहब को ये मंज़ूर नहीं था। मोन्या को वह अपनी प्रथम ज़िम्मेदारी समझते थे। ज़रा-सी चूक में लोगों को कहने का मौक़ा मिल सकता था कि बाप नहीं रहा और भाई सौतेला निकला। बहुत बहस के बाद मनेजर साब कॉलेज में आर्ट्स लेकर पढ़ने को राज़ी हुए तो रम्मू भाई साहब ने पहली बार उनको एक झन्नाटेदार थप्पड़ मारा। थप्पड़ इसलिये कि भाईसाहब चाहते थे कि वे कॉमर्स लें। थप्पड़ के बाद आर्ट्स को कॉमर्स में बदलने में कोई देरी नहीं लगी। मनेजर साब को कॉलेज भेजा गया और वे बाक़ायदा अपने मोहल्ले या गाँव जो भी कहो उसके पहले स्नातक हुए। इसी बीच हस्बे मामूल मनेजर साब की माँ भी सिधार गईं।
कॉलेज के दौरान ही मनेजर साब पूरे कवि हो गये। कोमलकांत पदावलियाँ लिखने वाले कवि। जिनकी कविताओं में नदी होती थी, खेत होते थे और साथ में होतीं थीं किशोरियाँ, युवतियाँ, नारियाँ। गला सुरीला था सो गाते भी झूम कर थे। ऊँची से ऊँची पिच पर अपनी आवाज़ के साथ कविता का हिंडोला आसानी से खींच ले जाते थे। इस प्रकार वे बर्रूखेड़ी के पहले स्नातक होने के साथ-साथ पहले कवि भी बने। स्नातक क्या होता है ये तो गाँव वाले थोड़ा समझाने पर समझ जाते थे कि ये कक्षा पन्द्रहवीं तक की पढ़ाई है, लेकिन कवि? ये क्या होता है, क्यों होता है ये गाँव वालों को समझ में नहीं आता था।
इस समय तक मनेजर साब का जो व्यक्तित्व सामने आया था वह एक निहायत दब्बू टाइप के विनम्र व्यक्ति का था। एक ऐसा व्यक्ति जो किसी से ऊँची आवाज़ में बात नहीं करता था। महिलाओं की उपस्थिति में जिसकी बातों का और कविताओं का रस बढ़ जाता था। ग़ुस्सा या क्रोध क्या होता है ये पता भी नहीं था। तो ऐसे विनम्र कवि को रम्मू भाई साहब ने भाग दौड़ करके शहर के कोऑपरेटिव बैंक में कैशियर बना दिया। बर्रूखेड़ी का कोई व्यक्ति पहली बार नौकरी से लगा था। चूँकि बर्रूखेड़ी के लोगों का ऐसा मानना था कि बैंक में जो भी काम करता है वह वहाँ का मनेजर ही होता है और इस प्रकार वे मनेजर साब हो गये, बावजूद इसके कि वह कैशियर थे। हालाँकि बाद की कहानी तक आते-आते वे उसी बैंक में मैनेजर बन भी गये, मगर बर्रूखेड़ी में तो वे नौकरी लगने के बाद से ही मनेजर साब हो चुके थे।
नदीपुरे में रहने वाले मनेजर साब, गाँव के सबसे ज़्यादा पढ़े लिखे व्यक्ति और साथ में कवि भी। ये सारी बातें रम्मू भाईसाहब की गर्दन ऊँची कर देती थीं। गली के बच्चों के मनेजर चाचा अपनी साइकिल पर घंटी टुनटुनाते हुए निकलते और शाम को उसी प्रकार टुनटुनाते हुए वापस आते। बर्रूखेड़ी में प्रवेश करते ही वे साइकिल से उतर कर चलने लगते, कारण? वही विनम्रता। राम-राम, श्याम-श्याम करते हुए चलने की आदत। इस समय तक उनकी शादी को लेकर बाक़ायदा चर्चाएँ चल रहीं थीं और किसी शादी में मनेजर चाचा की नज़र भौजी पर पड़ गई। भौजी का मतलब होने वाली भौजी और उन्होंने भौजी को अपने लिये चुन लिया। बस यही एक कारण था जिसके चलते लोग कहते थे कि मनेजर साब ने बहुत सारी बातें गाँव में पहली बार कीं, उनमें एक प्रेम विवाह भी था। दरअसल में प्रेम विवाह जैसी बात केवल इतनी थी कि जब मनेजर साब ने भौजी को देखा तो उन्होंने अपनी भाभी के सामने इच्छा व्यक्त कर दी कि अगर शादी करनी ही है तो इससे ही कर दो। भौजी जाति बिरादरी की ही थीं तो शादी में कोई दिक़्क़त आनी नहीं थी। भौजी के घरवालों को आपत्ति इसलिये नहीं आनी थी कि लड़का अच्छे परिवार का है। खेती बाड़ी है और उस पर बैंक में मैनेजर है और क्या चाहिए किसी माँ बाप को अपनी बेटी के लिये। बात चली और चलती गई भौजी ब्याह कर मनेजर साब के घर आ गईं। शादी के बाद यहाँ उनको यही नाम मिला भौजी। भौजी इसलिये क्योंकि भौजी जब शादी होकर आईं तो श्यामू और उसके दोस्त दिन भर भौजी-भौजी की रट लगाए घर में मोहल्ले में डोलते थे। सो वे सबकी भौजी हो गईं। भौजी शब्द ऐसा ज़बान पर चढ़ा कि मनेजर साब के अलावा सब उनको भौजी ही कहने लगे। यहाँ तक कि रम्मू भाई साहब, श्यामू और भाभी भी भौजी ही कह कर बुलाने लगे। वे मनेजर साब के इलावा सबकी भौजी हो गईं। हालाँकि कभी-कभी परिवार के साथ बैठे हुए ठिठौली में मनेजर साब भी कह उठते थे 'भौजी एक गिलास पानी तो देना।' सो वे अब जगत भौजी हो चुकी थीं।
भौजी का रंग रूप वैसे कोई विशेष नहीं था। साँवले से कुछ और दबा हुआ रंग, जो यदि ज़रा भी और दब जाता तो फिर उसे काला ही कहना पड़ता। किंचित नाटा क़द और कुछ ठसा हुआ बदन। नाक नक़्श को भी साधारण ही कहा जाये तो ठीक रहेगा। मनेजर साब सुंदर और सुदर्शन युवक थे, ऊँचा क़द खिलता गोरा रंग, हल्की दाढ़ी और कपड़े पहनने की एक विशिष्ट तमीज़। इन सबके बाद भी मनेजर साब ने भौजी को देखते ही पसंद कर लिया था तो उसके पीछे भी दो कारण थे। पहला तो ये कि मनेजर साब को पता था कि अगर घर वालों की चली तो कोई न कोई गाँव की अपढ़ से ही शादी होनी है। दूसरा ये कि मनेजर साब की कविताओं में जो नायिका आती थी वह साँवली और भरे-भरे शरीर की होती थी, भौजी को देखते ही उन्हें ऐसा लगा कि वह नायिका कविता से निकल कर सामने आ गई है।
भौजी का आना पूरे मोहल्ले के लिये एक बड़ा अजूबा था। तब के बर्रूखेड़ी में मनेजर साब के कई कामों की तरह ये भी पहली ही बार हुआ था कि इन्दौर जैसे बड़े महानगर से कोई पढ़ी लिखी बहू आई थी। हालाँकि पढ़ी लिखीं वे भी केवल दसवीं तक ही थीं, मगर थीं तो इन्दौर की और बर्रूखेड़ी में तो अभी तक अपढ़ बहुएँ ही आती थीं, दसवीं तो बहुत बड़ी बात थी। इन सबके कारण भौजी और बर्रूखेड़ी की कुंडलियाँ नहीं मिलीं। वैसे तो मनेजर साब और भौजी की भी कुंडलियाँ नहीं मिलीं। लेकिन मनेजर साब ने अपनी तरफ़ से मान कर रखा था कि कुंडलियाँ तो मिली हैं। बाक़ी जो नहीं मिला है साथ रहते-रहते वह भी मिल जायेगा। इतने बड़े शहर से आई है सो छोटे से मोहल्ले जैसे गाँव में खपने में समय तो लगेगा ही और ये समय देना ही होगा।
उस दौर में जबकि सारी शादियाँ माता पिता की पंसद से होती थीं, भौजी के पास ठसकने का एक कारण तो ये था ही कि मनेजर साब ने उनको पसंद किया था, जिसके चलते शादी हुई थी। कुछ यूँ कि तुम ही आये थे मेरे दरवाज़े रिश्ता लेकर। मनेजर साब और भौजी की कहानी शुरू होती है इसी करेले के नीम पर चढ़ने के साथ। इस कहानी में जो कुछ मुख्य है वह है भौजी का स्वभाव। भौजी स्वभाव से ही ऐसी थीं, कुछ न कुछ ऐसा पर्सनाल्टी डिसऑर्डर था उनमें कि दूसरों की हँसी उड़ाना, उसे तवज्जो न देना, उनके स्वभाव में शामिल था। यदि प्रकरण आज का होता तो निश्चित रूप से कोई मनोचिकित्सक बाक़ायदा कोई मेनिया या फोबिया से ग्रस्त बताता उनको। ऐसी बला की मुँहफट, जो मन में आ गया उसे बोलना ही बोलना है, भले ही सामने कोई भी खड़ा हो। जाने कौन-सी मनोवैज्ञानिक गुत्थी थी कि वे हर पतंग को मिलते ही सद्दी से काट देती थीं, माँजे पर आने का मौक़ा भी नहीं देती थीं। किसी की प्रशंसा करना, ये काम वे हर संभव तरीके से टालती रहती थीं। यदि कभी बहुत ज़्यादा हालात बिगड़ जाएँ कि अब तो प्रशंसा करनी ही है तो वे तुरंत बात को दूसरी तरफ़ मोड़ देती थीं। उस पर ये कि पति ने पसंद करके शादी की। तीसरा ये कि पति आवश्यकता से अधिक, बल्कि दब्बूपने की सीमा तक विनम्र। मनेजर साब में महिलाओं के प्रति जो एक अतिरिक्त संवेदनशीलता थी, उसको अभी तक कोई ठोस मुकाम नहीं मिला था। विनम्र व्यक्ति कभी प्रेम नहीं कर सकता। कर ले तो इज़हार नहीं कर सकता। ऐसे में भौजी उस मरुस्थल में फुहार की तरह आईं थीं। मनेजर साब का उनके प्रति अनुराग, भौजी के स्वभाव के बावजूद भी गाढ़ा होता जा रहा था। मनेजर साहब की प्रेमिल कविताओं की नायिका अब भौजी होती जा रहीं थीं। लोगों को हैरत इसी बात पर होती थी कि भौजी और कुछ भी हो जाएँ लेकिन कोमलकाँत कविताओं की नायिका? हरगिज़ नहीं। लेकिन मनेजर साहब के लिये तो वह थीं।
शादी के बाद एक साल तक तो भौजी अपने स्वभाव को दबाये रहीं लेकिन उसके बाद धीरे-धीरे सब कुछ सामने आने लगा। मूल स्वभाव को कोई भला कब तक छुपा सकता है। बिना किसी का लिहाज किये खिल्ली उड़ा देना उनके स्वभाव में ही था और उसके लिये उनको सबसे सुपात्र लगते थे मनेजर साब। बाद-बाद में तो उन्होंने दुनिया भर की हँसी उड़ाना छोड़ कर अपने आप को केवल मनेजर साब तक ही सीमित कर लिया था। इतना अच्छा पंचिंग पेड घर में हो तो कोई बाक्सिंग के लिये बाहर क्यों जाए? दरअसल तो उनको खिल्ली उड़ाना पसंद था, जिससे उनको आत्म संतुष्टि मिलती थी।
अक़्सर होता ये कि मनेजर साब उन पर कोई कविता लिख कर सुनाते। वे पहले तो उजबक की तरह मुँह फाड़े सुनती रहतीं, या हाथ के काम में लगी रहतीं और कविता ख़त्म होने पर कह उठतीं 'भाभी बता रहीं थीं कि भूरी गाय ने चार पाँच दिन से दूध देना कम कर दिया है। न हो तो कम्पाउण्डर को दिखा दो।' मनेजर साब की पूरी कविता भूरी गाय के दूध में घुस कर दही हो जाती।
मास्साब का जिस दिन अख़बार में फोटो छपा होता किसी काव्य गोष्ठी का या किसी सम्मान वगैरह का तो वे सुबह-सुबह अख़बार को इस प्रकार मोड़ कर रखते कि देखने वाले की नज़र सीधे उस फोटो पर ही जाये। सुबह की चाय भौजी और मनेजर साब साथ में ही पीते थे। भौजी चाय बना कर इधर ले आती थीं नदी तरफ़ के बरामदे में जो कि मनेजर साब और भौजी के कमरे का पीछे का हिस्सा था, जहाँ कुर्सी डाल कर मनेजर साब नदी को देखा करते थे। भौजी चाय लेकर आतीं और हमेशा यही होता कि वे देख भी लेतीं कि मनेजर साब का फोटो छपा है। चाय, पानी में भीगा कप वे बड़ी सावधानी के साथ इस प्रकार रखतीं कि अख़बार में छपे मनेजर साब के फोटो के ठीक मुँह पर कप रखाए। मनेजर साब के अंदर एक आग की लहर उठती और झनझनाती हुई चली जाती। मगर फिर वे ये सोच कर चुपा जाते कि अगली ने देखा थोड़े ही था कि वहाँ पर मेरा फोटो है। जो कुछ हुआ है वह ग़लती से हो गया है। चाय पीने के बाद वे बड़ी तसल्ली के साथ कप उठा कर एक तरफ़ रखतीं और अख़बार के ठीक उसी तरफ़ के हिस्से से जहाँ मनेजर साब का फोटो होता, टेबल को साफ़ करने लगतीं। मनेजर साब प्रतिरोध करते 'अरे अरे! क्या कर रही हो आज का पेपर है।' तो उधर से उत्तर आता 'तो? आप तो पढ़ चुके ना? अब और कौन है इस घर में पढ़ने वाला? घर में दो ही पढ़े लिखे हैं आप और मैं, आप पढ़ चुके मुझे पढ़ना नहीं है तो अब क्या?' कहते हुए वे उस अख़बार को ऊपर टाँड पर रखी पुराने अख़बारों की थप्पी पर उछाल देतीं। 'तुम क्यों नहीं पढ़तीं अख़बार, पढना चाहिए भई।' मनेजर साब एक और कोशिश करते। उधर से एक बार फिर उतना ही सनसनाता हुआ उत्तर आता 'मुझे नहीं पढ़ना, होता ही क्या है उसमें? निकम्मे लोगों के फोटो छपते हैं और क्या होता है?' मनेजर साब शुकर करते कि अच्छा हुआ इसने उनका फोटो नहीं दिखा नहीं तो उनको भी निकम्मों में शामिल कर लेती।
मनेजर साब अक्सर काव्य गोष्ठियों में भी जाते। जाते उधर शहर की तरफ। इधर बर्रूखेड़ी में तो प्रश्न ही नहीं उठता था काव्य गोष्ठी का। जाते तो बड़े सज धज कर जाते। ठंड के दिन होते तो चैक्स वाला ब्लेज़र पहने, सिर पर स्टाइलिश टोपी लगाए पूरे बन ठन के जाते। दाढ़ी वे शुरू से रखते थे। सो ब्लैजर और टोपी के बाद पक्के कवि लगते। इधर वे सज रहे होते और उधर भौजी उनको नीचा दिखाने का मौक़ा तलाश कर रहीं होतीं। मौक़ा इसलिये कि मनेजर साब सुंदर लग रहे हैं कहीं उनकी प्रशंसा न करनी पड़ जाये और पड़ जाये तो मनेजर साब प्रशंसा सुनकर सिर पर ही न चढ़ जाएँ।
कमरे के बाहर से जिठानी की आवाज़ आती 'इन्दौर वाली, लालाजी आज खाना नहीं खाएँगे क्या?' मनेजर साब को जिस दिन काव्य गोष्ठी में जाना होता था वे उस दिन रात का खाना गोष्ठी से आकर ही खाते थे। उनका मानना था कि खाकर जाओ तो गाते समय आवाज़ खिंचती नहीं है, फँसने लगती है। सो मनेजर साब आकर ही खाते थे, वह भी तब यदि मिल जाता तो। जिठानी के प्रश्न पर इधर कमरे में से उत्तर जाता 'नहीं भाभी उधर से ट्याँ-ट्यूँ करके आएँगे तब खाएँगे।' ट्याँ-ट्यूँ करना अर्थात कुत्तों का आपस में लड़ते समय चिल्लाना। भौजी को मौक़ा मिल ही जाता था मनेजर साब का पानी उतारने का।
मनेजर साब को अपने फोटो, सम्मान पत्र, सम्मान चिह्न दीवार पर सजाने का बड़ा शौक़ था। जब भी किसी बड़े कवि से मिलते तो तुरंत उसके साथ एक फोटो खिंचवा लेते। बाद में उसको बड़ा करवा के बैठकी वाले कमरे में लगा देते। जब भी कोई नया फोटो या सम्मान पत्र दीवार पर लगता तो भौजी का प्रयास होता कि उनकी नज़र उस पर नहीं पड़े। बाद में जब कोई मेहमान आकर कमरे में बैठता तो ज़रूर बोलतीं और इससे पहले कि मेहमान मनेजर साब की तस्वीरों, सम्मान पत्रों के बारे में कुछ बोले वह बोल पड़तीं 'आप ही समझाओ न इनको, सब तरफ़ दीवार पर ये अटरम-शटरम लटका रखा है। मकड़ी भी जाले बना देती है और चिड़िया पीछे घोंसले बना कर दिन भर कचरा करती है। मेरी तो ये सुनते ही नहीं हैं, दिन भर झाड़ू लेकर खटना पड़ता है। पूरी दीवारें लद्द-फद्द करके रखीं हैं, दीपावली के समय पूरा दिन तो इनके अटरम-शटरम की सफ़ाई में ही लग जाता है।' मनेजर साहब के सारे सम्मान, अभिनंदन, सारे बड़े कवि एक झटके में ही अटरम-शटरम हो जाते थे।
कुल मिलाकर बात ये कि भौजी उस कसाई की तरह थीं मौका मिलते ही मनेजर साब को गुल्ले-गुल्ले (टुकड़े-टुकड़े) कर देती थीं। समय गुज़र रहा था। शादी के दो साल बीत गये थे और धीरे-धीरे एक और बात सामने आ रही थी। भौजी की गोद अभी तक हरी नहीं हुई थी। सास तो थी नहीं जो भाग दौड़ करतीं। जिठानी थीं सो वह ही अपने स्तर पर पूजा पाठ, देव धामी, मन्नत मनौती कर रहीं थीं। वह भी अपने लालाजी के लिये। लालाजी अर्थात मनेजर साब जो कि रम्मू भाई साहब और भाभी दोनों को ही जी जान से चाहते थे। पूजा पाठ, मन्नत मनौती के लिये जिठानी को भौजी ने कभी मना नहीं किया। चुपचाप चली जातीं थीं। हाँ मगर यदि मनेजर साब उस समय मौजूद रहते तो मौक़ा नहीं छोड़तीं 'चलो भाभी आप कह रहीं हों तो चले चलती हूँ नहीं तो मुझे तो कोई चाव नहीं है बच्चों का। बच्चे हुए और अपने बाप पर चले गये तो? उससे तो नहीं हों वह ही अच्छा।' इस बात पर मनेजर साब हँस देते, भाभी को ये बताने के लिये कि भौजी ने तो मज़ाक किया है। कभी बात को घुमा कर कहतीं 'भाभी पूजा पाठ करते रहने से बच्चे पैदा नहीं होते।' मास्साब सकपका जाते। बात का मतलब ये था कि बच्चे पैदा करने के लिये जो कुछ होना चाहिए वह नहीं है। नहीं है मतलब क्या? क्या नहीं है? ये बात धीरे-धीरे मुखर होती जा रही थी ठंडी साँस भर कर कहतीं 'चलो भाभी, हो सकता है वेद व्यास की तरह कोई मिल जाये जो मेरी भी गोद हरी कर दे, नहीं तो यहाँ तो।' ये जो 'यहाँ तो' होता था ये मनेजर साब को काटता हुआ, चीरता हुआ गुज़र जाता था।
दरअसल इन सबके पीछे भी एक कारण था। बच्चे नहीं होने के कारण मनेजर साब ने अपनी और भौजी की चुपचाप से डॉक्टरी जाँच करवाई थी, उस जाँच का क्या परिणाम आया ये बात वे गोल कर गये थे और यहीं से भौजी ये मान कर चल रहीं थीं कि बच्चे नहीं होने के पीछे कारण मनेजर साब ही हैं। हक़ीक़त ये थी कि समस्या भौजी में ही थी वे माँ नहीं बन सकती थीं, लेकिन मनेजर साब को पता था कि यदि ये बात खुल गई तो तुरंत दूसरी शादी की बात चलने लगेगी। उस समय दूसरी शादी कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी और शादी भी बस किसी को भी बिठाना ही तो घर में। मनेजर साब, भौजी को बहुत चाहते थे और दूसरी शादी की सोच भी नहीं सकते थे। बस इसी कारण वे जाँच की रिपोर्ट छुपा गये थे। बस इतना कह कर कि डॉक्टर ने कहा है कोई परेशानी नहीं है। आज का समय तो था नहीं कि उठे और डॉक्टर के घर चले गये। शहर में कुल एक या दो डॉक्टर थे और जाँच भी बड़े शहर में होती थी। सो बात आई गई हो गई। मगर भौजी को तो एक हथियार मिल ही गया था। इस हथियार से भी उन्होंने जीवन भर प्रताड़ित किया मनेजर साब को।
समय बीत रहा था उधर रम्मू भाई साहब के बच्चे बड़े हो रहे थे, खेती से पूरा नहीं पड़ता था सो रम्मू भाई साहब ने बीमा का काम भी शुरू कर दिया था। चार बच्चों की ज़िम्मेदारी सिर पर थी। सबसे छोटे श्यामू की शादी के बाद रम्मू भाई साहब को लगा कि इससे पहले कि बर्तन बजें, बँटवारा कर दिया जाये। श्यामू भी उनके साथ-साथ बीमा का काम देखता था, लेकिन लापरवाह था। मनेजर साब और श्यामू बँटवारे के लिये कतई तैयार नहीं थे, लेकिन रम्मू भाई साहब का कहना था कि घर तो एक ही रहना है, कोई कहीं दूर तो जा नहीं रहा है रहने को। आँगन भी साझा है और ओटला भी। मगर जो काम समय रहते हो जाये उसे हो जाना चाहिये। समाज की बैठक में बँटवारा हो गया। मकान के तीन हिस्से हो गये। मनेजर साब के हिस्से में वही नदी की तरफ़ का हिस्सा आया। बँटवारे के बाद भी कभी ऐसा नहीं लगा कि बँटवारा हो गया है। बस ये हुआ कि खाना अलग-अलग पकने लगा था। अंदर की बात ये है कि श्यामू का घर अभी भी मनेजर साब और रम्मू भाई साहब ही चलाते थे।
उधर बँटवारे के चलते भौजी को समग्र मेनजर साब मिल गये थे। समग्र इस रूप में कि अब वे थीं और मनेजर साब। हाँ इस समय तक मनेजर साब सचमुच ही बैंक के मैनेजर हो चुके थे। उसी ब्रांच के मैनेजर जहाँ से उन्होंने कैशियर के रूप में शुरूआत की थी। मनेजर साब सुबह बैंक जाने के लिये तैयार होकर बैठे रहते और नाश्ते का पता ही नहीं होता। भौजी नहान में ही व्यस्त होतीं। मनेजर साब धीरे से अपनी साइकिल उठाते और निकल जाते। दोपहर में खाने के लिये आते तो थाली में अचार के साथ मिर्ची और रोटियाँ रखी मिलतीं। 'रात से ही अधकपारी टनटना रहा है, बहुत सोचा उठ कर बना दें पर बना ही नहीं'। या कभी ये 'तीन दिन से तो सब्ज़ी नहीं है कुछ भी, अब क्या करें जो है सो ये ही है।' कई बार ये होता कि मनेजर साब आते तो पता चलता कि भौजी मोहल्ला भ्रमण पर निकली हुईं हैं। मनेजर साब धीरे से आँगन में झाँकते और कहते 'भाभी।' भाभी इतने में ही समझ जातीं कि आज फिर देवर जी भूखे हैं। दौड़ कर खाना लगा देतीं। उतने में ही भौजी आ जातीं तो बस 'अरे, आप तो सचमुच ही भूख के कच्चे हो। पाँच मिनिट भी रस्ता नहीं देख सकते थे।' भाभी का उत्तर मिलता 'रहने दो इन्दौर वाली अब खा लिया तो खा लिया।' तो भौजी बोलतीं 'नहीं भाभी खाने का कुछ नहीं है, ये भी तो अपना ही घर है। मगर उधर भी तो ढेर-सा बना पड़ा है उसका क्या होगा।' हक़ीक़त में तो उधर कुछ होता ही नहीं था। जिससे बचने के लिये ही वे मोहल्ला भ्रमण पर निकली होती थीं।
मनेजर साब नदी के उस तरफ़ एक प्रतिष्ठित साहित्यकार थे, बैंक मैनेजर थे मगर पुल पार करते ही उनकी स्थिति बदल जाती थी। यदि कोई दोस्त ग़लती से घर आ जाए और मनेजर साब ग़लती से भौजी को चाय का कह दें तो भौजी का एक ही रटा रटाया उत्तर होता 'अभी तो आएँ हैं, बैठने तो दो, चाय पिला कर भगाना चाह रहे हो क्या?' मनेजर साब मुस्कुरा कर रह जाते, दूसरी बार कहने की उनकी हिम्मत नहीं होती और कहने से भी कुछ होना नहीं था क्योंकि भौजी के पास कोई न कोई उत्तर तो तैयार होता ही था। एक बार किसी बाहर से आये मेहमान कवि के लिये मनेजर साब ने दो तीन बार भौजी को चाय के लिये टोक दिया। भौजी बेमन से उठकर चाय बना कर लाईं। चाय ऐसी कि जो पी ले उसे ज़िंदगी भर के लिये चाय से नफ़रत हो जाये। किसी सब्ज़ी की पतीली को पानी से हल्का खँगाल कर उसमें पानी में नाम को शक्कर, पत्ती और दूध की एक दो बूँदें डाल कर ले आईं। साथ में एक प्लेट में रख कर लाईं थीं जाने कितने दिनों के सीले, घुन खाये हुए बिस्किट। घूँट लेते ही सब्ज़ी के तेल मसालों की पूरी महक अंदर समा गई मेहमान के। मनेजर साब ने भी चाय पी और उसके बाद फिर कभी किसी दोस्त के लिये चाय का नहीं बोला।
इसी सब के चलते मनेजर साब की भरसक कोशिश रहती थी कि कोई भी मित्र उनसे मिलने उनके घर नहीं आये। जिसको आना हो वह उनके बैंक समय में उनसे बैंक में ही आकर मिल ले। वे अपने घर पर मित्रो का आना अपने तई पूरी कोशिश करके टालते रहते थे। जिसके कारण वे धीरे-धीरे मित्रो में कंजूस के नाम से मशहूर होते जा रहे थे। चूँकि वे कवि थे इसलिये मित्रो की अड्डेबाज़ी किसी न किसी के घर पर होती ही रहती थी, मगर मनेजर साब के घर पर नहीं। जैसे ही प्रस्ताव आता वैसे ही वे ख़ारिज कर देते। 'अरे उतनी दूर पुल पार के रात बिरात कैसे लौटोगे। इससे तो यहीं जमा लो किसी के घर।' हालाँकि वे बैंक में आये हुए व्यक्ति को खातिर कर-कर के अघा देते थे। मगर फिर भी कंजूस के नाम से मशहूर हो रहे थे, क्योंकि लोगों का मानना था कि बैंक में तो वे बैंक के ख़र्च पर ये सब कर देते हैं। मनेजर साब इस प्रचार का कुछ विरोध नहीं कर पाते थे। जो अंदर की बात थी वह तो उनको ही पता थी। कभी ग़लती से रविवार के दिन दोस्त लोग बिना बताये धमक भी जाते तो मनेजर साब उनको लेकर घर के पास अपने खेत पर चले जाते। खेत पर दोस्तों की महफिल ज़माने में एक सुविधा ये रहती थी कि खेत रम्मू भैया के हिस्से के ठीक सामने था और वहाँ पर दोस्तों की जो कुछ भी खातिर करनी होती वह भाभी सँभाल लेतीं। जैसे ही देखतीं कि लालाजी के दोस्त आए हैं, वैसे ही बिना कुछ कहे पकौड़े उतारने लगतीं। कुछ कहना नहीं पड़ता और थोड़ी ही देर में पकौड़े, हलवे और चाय की ट्रे पर ट्रे आने लगतीं। जब तक दोस्त रहते तब तक मनेजर साब को ये भय बना रहता कि कहीं भौजी और मित्रो का आमना सामना न हो जाये। हर खटके पर वे डर जाते कि कहीं भौजी न हों। मनेजर साब इतने असहज हो जाते कि मित्रो को लगने लगता कि उन्होंने आकर कहीं कोई ग़लती कर दी है।
समय बीता। रम्मू भाई साहब के बच्चे अच्छे तरीके से व्यवस्थित हो गये। चारों ने अपने-अपने व्यवसाय उधर नदी पार शहर में डाल लिये, रम्मू भाई साहब की सदाशयता बच्चों को फल गई थी॥ दो लड़कों की शादी भी हो गई। उधर श्यामू के भी दोनों बच्चे एक लड़का और एक लड़की बड़े हो गये थे। लड़की सुमन जैसे-जैसे बड़ी हो रही थी वैसे-वैसे वह अपने बाबा (मनेजर साब) की लाड़ली होती जा रही थी। रम्मू भाई साब के चार और श्यामू के एक लड़के से भी ज़्यादा चहेती थी वह मनेजर साब को और इसी बीच मनेजर साब को मानसिक रूप से पहला आघात लगा। रम्मू भाई साहब के चारों बच्चों के व्यवसाय जब अच्छी तरह से जम गये तो बच्चों ने रम्मू भाई साहब पर दबाव बनाना शुरू कर दिया कि अब पिल्ले पार (पुल पार) चल कर शहर में ही रहा जाये। दो लड़कों की शादी के बाद रम्मू भाई साहब को लग भी रहा था कि मकान अब छोटा पड़ रहा है। लेकिन बर्रूखेड़ी को छोड़ कर जाने का मन नहीं हो रहा था और फिर श्यामू और मोन्या को यहाँ छोड़कर वहाँ कैसे चले जाएँ। चारों बच्चे मनेजर साब के भी पीछे लगे थे कि आप भी उधर ही चलो सब साथ ही रहेंगे। मगर मनेजर साब का स्वाभिमान उनके आड़े आ रहा था। रम्मू भाई साहब को लग रहा था कि यदि मोन्या को इधर अकेला छोड़ दिया तो भौजी क्या करेगी कुछ पता नहीं है। यही डर भाभी को भी अपने लाला जी का सता रहा था। कम बोलने वाला, स्वाभिमानी, चुपचाप सहने वाला देवर, उनके जाने के बाद बहुत अकेला हो जायेगा, ये उनको पता था। सुगबुगाहट मनेजर साब भी सुन रहे थे मगर कुछ बोल नहीं रहे थे। क्या बोलते, बच्चों के बच्चे हो रहे थे, परिवार फैल रहा था और घर छोटा पड़ रहा था। फिर ये भी कि बच्चों के अच्छे स्कूल भी सब उस तरफ़ ही थे, नदी पार, शहर में। बच्चे ये भी ज़िद कर रहे थे कि जो मकान ख़रीद रहे हैं उसके पास ही मनेजर साब के लिये भी मकान ख़रीद देते हैं। मगर बच्चे श्यामू चाचा के लिये कुछ नहीं कह रहे थे। मनेजर साब को पता था कि बच्चे, श्यामू के लिये क्यों कुछ नहीं कह रहे हैं। उनको पता है कि रम्मू भाई साहब चुपके-चुपके श्यामू का परिवार चला रहे हैं और इससे भी बच्चे मुक्ति पाना चाह रहे थे। मनेजर साब के मन में भी ये ग्रंथी पनप गई थी कि बच्चों भी पता तो है सगे सौतेले वाली बात। जब वे एक बाप की संतान श्यामू को नहीं पचा पा रहे हैं तो मनेजर साब तो फिर दूसरे बाप के हैं। ऊपर से मनेजर साब ने एक ही बात कही 'अब इस उम्र में पुश्तैनी गाँव और इस नदी को नहीं छोड़ सकता।'
आख़िर वही हुआ। रम्मू भाई साहब बच्चों के साथ शहर रहने चले गये। मनेजर साब के पास तो जितना मकान था दो प्राणियों के लिये उतना ही बहुत था। रम्मू भाई साहब वाले हिस्से में श्यामू ने अपने परिवार का विस्तार कर लिया। किसी को कोई आपत्ति भी नहीं थी। भाभी और रम्मू भाई साहब के चले जाने से मनेजर साब टूट गये थे। बैंक का रोज़ का नियम अब उन्होंने ये बना लिया था कि सुबह रम्मू भाई साहब के घर जाते पाँच दस मिनट वहाँ बैठते फिर बैंक जाते। यही नियम शाम को लौटते समय का भी था। उधर घर में भाभी की कमी अब सुमन पूरी कर रही थी। भाभी तो मनेजर साब के हिस्से वाले घर में कम ही आतीं थीं। लेकिन सुमन तो मनेजर साब के आते ही आ धमकती और उनके चाय पानी से लेकर सारे काम करके ही जाती।
भौजी के दिमाग़ में कीड़ा कुलबुलाने लगा था। उनको लगने लगा था कि सुमन की आड़ में श्यामू बड़ा खेल-खेल रहा है। मनेजर साब की तनख़्वाह इस समय तक चौथा, पाँचवा वेतनमान लगने के कारण अच्छी ख़ासी हो गई थी। उस पर ये कि ख़र्चा नहीं के बराबर था दोनों प्राणियों का। सो जो कुछ मिल रहा था वह बचत ही हो रहा था। सबको पता था कि मनेजर साब के पास अच्छा ख़ासा पैसा है। कंजूस के नाम से तो मशहूर थे ही वे। सुमन की आवाजाही अब भौजी को खटकने लगी थी। संतानहीन दंपत्तियों की संपत्ति पर हर कोई नज़र गड़ाए होता है ये उनका विश्वास था। मनेजर साब की पूँजी, जायदाद, सब कुछ श्यामू हड़पना चाहता है ये बात धीरे-धीरे उनके मन में मज़बूत होती जा रही थी। उधर मनेजर साब का शरीर भी बीमारियों का घर होने लगा था। डायबिटीज़, साइटिका, कोलेस्ट्राल, जाने क्या-क्या बीमारियाँ होती जा रहीं थीं। मनेजर साब की एक और कमज़ोरी ये थी कि उनको मौत से बहुत डर लगता था। मोटर साइकिल पर चलूँगा तो एक्सीडेंट का डर रहेगा, उसके कारण साइकिल पर चलते थे। अपना शहर छोड़ कर कहीं बाहर जाना हो तो उनकी जान निकलती थी। बाहर जाऊँगा और कहीं बस का, रेल का एक्सीडेंट हो गया तो। जब बीमारियों ने घेरना शुरू किया तो उनको बीमारियों से ज़्यादा डर मौत का था। आज बीमारी हुई है तो कल को ये ही बीमारी मौत तक भी ले जायेगी। अब वे आते जाते डॉक्टरों के पास भी बैठे हुए मिलने लगे थे।
मेनजर साब अब ऊपर के कमरे में सोने लगे थे। मनेजर साब के हिस्से में जो घर आया था उसमें रेल के डिब्बों की तरह एक के बाद एक तीन कमरे थे। सबसे अंदर रसोई, बीच का सोने का कमरा और सबसे बाहर आने जाने वालों के लिये एक कमरा जिसे ड्राइंग रूम कहा जा सकता है। बीच के सोने के कमरे से होकर जातीं थीं लकड़ी के पटाव वाली सीढ़ियाँ, ऊपर के कमरे के लिये। ऊपर का कमरा जिसे कमरा न कह कर यदि केवल एक बड़ी टाँड ही कहें तो ज़्यादा ठीक रहेगा। कमरे में सोने से पहले देर रात तक छोटी-सी खिड़की से नदी को देखते रहते और कविताएँ लिखते रहते। अपनी दिनचर्या को बहुत सीमित-सा कर लिया था उन्होंने। बैंक से सीधे घर न लौट कर रम्मू भाई साहब के उधर चले जाते फिर वहाँ से घर आकर अपने खाने की थाली लेकर ऊपर चले जाते। सधे हुए दो पैग लगाते और फिर खाना खाते और फिर वहीं खिड़की के पास बैठ जाते, अपनी डायरी और क़लम लेकर। भौजी बीच के कमरे में बैठीं टीवी देखती रहतीं। कभी ऊपर नहीं जातीं ख़ैर ख़बर लेने।
इस बीच दोस्तों के दबाव के चलते मनेजर साब ने अपना एक काव्य संग्रह 'अमलतास के नीचे' अपने ही पैसों से छपवा लिया। जिस दिन संग्रह की पुस्तकें घर आईं उस दिन सारे मित्र भी जुट गये। भौजी के सवाल जवाब शुरू हो गये। 'कित्ते पैसे लगे होंगे भैया इस किताब में?' जवाब दिया गया कि लगभग पन्द्रह हज़ार रुपये लगे हैं। पन्द्रह हज़ार, भौजी के माथे पर बल पड़ गये। 'पढ़ेगा कौन इन किताबों को? अरे इससे तो भजन की किताब छपवा लेते कम से मंदिरों में ही बाँट देते।' मनेजर साब को मिलते ही पहला शॉट मार दिया भौजी ने। दोस्तों ने मज़ाक समझ कर ठहाका लगा दिया। 'नहीं भैया सच कह रही हूँ, इनको तो अक़ल है नहीं, आप लोगों ने रोका क्यों नहीं। दो पैसे बचाएँगे तो बुढ़ापे में काम आएँगे। आगे कोई पानी देने वाला भी नहीं है।' भौजी ने संतानहीनता की कमज़ोर नस पर वार किया था। एक मित्र ने कहा 'बहुत है मनेजर साब के पास भगवान का दिया। एक महीने की तनख़्वाह में तो किताब छप गई है।' भौजी ने मिलते ही बात को झेल लिया 'बैठ कर खाने से तो कुबेर का ख़ज़ाना भी ख़तम हो जाता है। आस औलाद तो है नहीं जो पाल लेगी। ये तो अभी से बीमार रहने लगे हैं। ख़ुद तो मर खप के मुक्ति पा जाएँगे, पीछे मुझे छोड़ जाएँगे झींकने को, इसके उसके भरोसे पर पड़े रहने को।' सनाका-सा खिंच गया था। कोई महिला इतनी सहजता से अपने पति की मृत्यु की बात कह सकती है ये मित्रो के लिये अकल्पनीय बात थी। मगर भौजी का चेहरा तो वैसा ही था, भाव हीन। उनका प्रवचन जारी था 'बेऔलादों की औलाद होती है पैसा। हाथ में पैसा रहेगा तो चाहे जो चाकरी करेगा। यूँ पन्द्रह-पन्द्रह हज़ार रुपये अपनी ऐश-अय्याशी पर उड़ाओगे तो कोई मुँह में पानी डालने वाला भी नहीं मिलेगा। राजाओं की दौलत भी सब इसी में उजड़ी है।' मनेजर साब की कविता उनके कवित्व को एक झटके में अय्याशी साबित कर दिया भौजी ने। मनेजर साब अपने अमलतास के नीचे अकेले खड़े थे, भौजी पत्थर मार-मार कर अमलतास के सारे फूल झड़ा रहीं थीं। 'इंसान की जात बहुत बुरी होती है, बूढ़ा और बीमार हो जाये तो कुत्ते को भी रोटी नहीं देती।' कुत्ता? मनेजर साब? भौजी, कील लगे जूते पहन कर मान मर्दन कर रहीं थीं मनेजर साब का। घर के एक कोने में 'अमलतास के तले' का ढेर पड़ा था। मनेजर साब के समूचे व्यक्तित्व के मलबे के रूप में।
इसी बीच सुमन आकर दोस्तों के लिये चाय पानी रख गई थी। भौजी ने तुरंत वार किया 'अपनी औलाद अपनी ही औलाद होती है, आज जो अदर-अदर कर रहे हैं, कल कोई नहीं दिखेगा। गाँठ में पैसा नहीं होगा तो सब मुँह फेर कर इधर-उधर हो जाएँगे। सब पैसे का खेल है दुनिया में। नपूतों का माल उड़ाने दस कुत्ते आ जाते हैं।' टेबल पर चाय रखती सुमन ने सिर उठा कर मनेजर साब की तरफ़ देखा, मनेजर साब की आँखों में निरीह क़िस्म की कातरता घुली हुई थी। ऐसी कि देखने वाले की रूह तक काँप जाये। सुमन ने वापस सिर झुका लिया। 'देख तो सुमन ऊपर टाँड पर डिब्बे में लड्डू पड़ें हों एक-दो। पिछले महीने भेजे थे अम्मा ने, देख ले ठीक ठाक हों, कीड़े-चींटी नहीं लगे हों तो डाल के ले आ एक प्लेट में, अब किताब आई है तो मुँह तो मीठा करवा ही दो सबका और सुन, चींटी लग गईं हों तो पीछे कुत्ते को डाल आना।' भौजी अभी भी जारी थीं। लड्डू का प्रस्ताव दोस्तों ने ही ख़ारिज कर दिया था सुनते ही। सुमन चुपचाप चली गई थी। 'अब ये ही लड़की है ख़ूब कर रही है दौड़-दौड़ कर, क्या दिखता नहीं है हमें कि क्यों कर रही है।' मनेजर साब के दोस्त चाय ख़त्म होने तक ही रुक पाये थे बमुश्किल। न तो मनेजर साब ने उस पुस्तक का विमोचन करवाया और न किसी को दी। वैसे का वैसा ही पड़ा रहा वह ढेर। हाँ ये ज़रूर हुआ कि अगले ही दिन भौजी ने सुनार के यहाँ जाकर अपने लिये बीस हज़ार के ज़ेवर गढ़वा लिये।
उम्र पचपन के आस पास पहुँच रही थी और बीमारियाँ नाम बदल-बदल कर घेर रहीं थीं। साइटिका का दर्द जब उठता तो छत्ती के उस कमरे में रो-रो पड़ते थे वे। मगर भौजी को इन सब से कोई लेना देना नहीं था। वे अपनी दुनिया में मगन थीं। सबसे पहला तमाशा जो सार्वजनिक रूप से हुआ वह सुमन की शादी में हुआ। मनेजर साब की बहुत इच्छा थी कि वे सुमन का कन्यादान करें। एक तो सुमन के प्रति उनका लगाव और दूसरा संतानहीन होना, दोनों कारणों के चलते मनेजर साब चाहते थे कि धर्मशास्त्रों में लिखे अनुसार कन्यादान करके ही तर जाएँ। मगर कन्यादान का मतलब भौजी जानती थीं। कन्यादान का मतलब ये कि समाज को जो खाना दिया जाना है उसका खर्चा, सुमन के चढ़ाव के गहनों का खर्च, दामाद के कपड़ों अँगूठी, चैन का ख़र्च ये सब कन्यादान करने वाले को ही करना है। असल ख़र्चा तो यही है, बाक़ी तो क्या है, शादी में जो मेहमान आ रहे हैं उनका रहना, ठहरना। बस यही तो है। उधर इन्दौर में भौजी के भाई की लड़की भी शादी लायक हो चुकी थी। भौजी के मन में थी कि उसका कन्यादान किया जाये। मनेजर साब को भी ये बात पता थी, लेकिन बोल वे कुछ नहीं पा रहे थे। आख़िर एक दिन मनेजर साब ने श्यामू से कह दिया 'मुझसे तो रात भर बैठा भी नहीं जाएगा साइटिका के कारण और कन्यादान करने वाले को सुबह से रात तक उपवास रखना पड़ता है। मुझे तो डाइबिटीज़ के बाद डॉक्टर ने बिल्कुल मना कर दी है भूखे रहने की। तुम और बहू ही कर दो कन्यादान।' समझते सब थे कि ये कौन-सी साइटिका है जो पीड़ा दे रही है। साइटिका तो आत्मा की नसों में लगी हुई है। देह बिचारी तो फ़िज़ूल के कष्ट झेल रही है। सुमन की शादी हुई और वह चली गई।
सुमन की शादी के बाद मनेजर साब कुछ विद्रोही क़िस्म के हो गये थे। विद्रोह दिखता तो नहीं था, लेकिन मन में था। वे मौक़ा मिलते ही अपने मन की कर लेते थे। रिटायरमेंट का समय पास आ रहा था। ज़िंदगी हाथ से फिसली जा रही थी और बीमारियाँ अस्पताल की तरफ़ धकेल रहीं थीं। 'अमलतास के तले' की घटना को भूल कर मनेजर साब ने पहले से भी ज़्यादा पैसे लगाकर पच्चीस हज़ार में अपना दूसरा कविता संग्रह भी छपवा लिया 'नदी का पानी'। इसमें कोई श्रंगार नहीं था, बस एक उदासी थी, नदी के चुपचाप बहते पानी की उदासी। इस काव्य संग्रह में केवल उतना ही आसमान था जो उनके छत्ती वाले कमरे की छोटी-सी खिड़की से दिखाई देता था। इस बार पुस्तक का उन्होंने बाक़ायदा विमोचन भी करवाया और बड़े पैमाने पर करवाया। पाँच दस हज़ार उसके विमोचन पर भी लगा दिये। ख़ूब बड़ा आयोजन, कवि सम्मेलन, खाना पीना, सब कुछ। भौजी को लगभग नैपथ्य में रखते हुए उन्होंने पूरा ताम झाम कर लिया। पूरा परिवार, पूरा बर्रूखेड़ी गाँव सब जुटे थे। गाँव में, परिवार में पहली बार कोई ऐसा हुआ था जिसकी पुस्तक छपी थी।
पुस्तकें छपवाने के पीछे मनेजर साब के मन में कहीं न कहीं नाम के जीवित बने रहने की आकांक्षा थी। उनकी कहानी का सबसे दुखद पहलू था कि न तो उनके बाद कुछ था, न पहले। राधाकिशन उनके पिता कहने को थे, लेकिन हक़ीक़त तो यही थी कि वह पिता नहीं थे और मनेजर साब के बाद तो कुछ था नहीं, न कोई आस न औलाद। मनेजर साब की वंशावलि दोनों तरफ़ से खंडित थी, ऊपर से भी और नीचे से भी। ये अपने आप में एक ही केस होगा जिसमें ऐसा था और इसी कारण उनको लगता था कि उनके बाद कोई नहीं होगा उनके नाम को लेने वाला। पुस्तकें होंगीं तो किसी न किसी रूप में नाम बचा रहेगा। रम्मू भाई साहब और श्यामू के परिवारों से वे जुड़े रहने का भरसक प्रयास करते थे, मगर मालूम था कि तीनों के जन्म की परिस्थितियों ने तीनों के बीच लक़ीरें तो खींच ही रखी हैं। उधर रम्मू भाईसाहब के चारों बच्चों की नदी पार शहर में काफ़ी सामजिक प्रतिष्ठा हो गई थी। वे अब प्रतिष्ठित व्यवसायी थे। मनेजर साब अब एक हिचक के साथ उन चारों बच्चों के प्रतिष्ठानों पर जाते थे। दूसरी पुस्तक के आने के बाद वे और ज़्यादा अपने ऊपर के कमरे में सिमट गये थे। सुबह ऊपर से उतरते, भौजी ने चाय बना दी तो ठीक, नहीं तो निकल जाते चुपचाप। रात को आते और फिर से ऊपर के कमरे में समा जाते।
फिर वह घटना हुई जिसके चलते दूसरी बार बड़ा हंगामा हुआ। इस बार भी श्यामू का परिवार ही मूल में था। श्यामू का जीवन तो जैसे तैसे कट गया था। मनेजर साब को श्यामू के लड़के की चिंता लगी रहती थी। इधर बीमारियाँ उनके शरीर को खोखला कर रहीं थीं, उधर चिंता बढ़ती जा रहीं थीं। मनेजर साब को पता था कि उनके बाद भौजी सब कुछ समेट कर वापस इन्दौर चली जाएँगीं और जो नहीं भी गईं तो भी किसी की फूटी कोड़ी से मदद नहीं करेंगीं। मनेजर सब के पास अच्छा ख़ासा पैसा था और रिटायरमेंट के समय जो मिलना था वह अलग था। रिटायरमेंट भी धीरे-धीरे पास ही आ रहा था। उधर श्यामू का लड़का कुछ-कुछ आवारा होता जा रहा था। रम्मू भाई साहब के एक लड़के ने अस्पताल के ठीक सामने मेडिकल स्टोर डाला था जो ख़ूब चल रहा था। श्यामू का लड़का भी एक साल तक वहाँ पर बैठा था, लेकिन बाद में उसने वहाँ जाना बंद कर दिया था। मनेजर साब बैंक से लौटते हुए कभी-कभी मेडिकल स्टोर पर रुकते हुए आते थे, अपनी दवाइयाँ लेते, वहीं बैठ कर शाम की चाय पीते थे। अक्सर रम्मू भाई साहब भी शाम को टहलते हुए उधर आ जाते थे। वहीं दुकान के बाहर कुर्सी लगा कर दोनों भाई दुनिया जहान की बातें करते रहते। यूँ ही बातों-बातों में मनेजर साब ने रम्मू भाई साहब से श्यामू के लड़के का ज़िक्र किया और धीरे से ये भी कहा कि अगर उसको भी एक मेडिकल स्टोर अस्पताल के दूसरी तरफ़ खुलवा दिया जाए। एक तरफ़ के मरीज़ तो दवा लेने अपने पास आते ही हैं, उधर भी दुकान हो जाएगी तो दोनों तरफ़ के मरीज़ हाथ में रहेंगे। श्यामू के लड़के को लेकर चिंता रम्मू भाई साहब के मन में भी थी, उन्होंने तुरंत दुकान पर बैठे बेटे को बुलाकर बात की। लड़के ने बताया कि मेडिकल स्टोर खोलना कोई हँसी खेल तो है नहीं। पान की दुकान नहीं खोलनी है मेडिकल स्टोर खोलना है, दस जगह से काग़ज़ बनेंगे और उसके बाद भी दुकान चालू करने का मतलब कम से कम तीन चार लाख तो हों। मनेजर साब ने कहा कि कोई बात नहीं हो जायेगा तुम तो ये बताओ कैसे करना है। तय ये हुआ कि भाग दौड़ का कागत पत्तर का सारा काम रम्मू भाई साहब के बेटे के ज़िम्मे होगा और पैसा धेला सब मनेजर साब लगाएँगे। महीना-डेढ़ महीना बीतते-बीतते अस्पताल के दूसरी तरफ़ श्यामू के लड़के का भी मेडिकल स्टोर शुरू हो गया।
भौजी को भनक लग गई थी कि मनेजर साब ने दुकान खुलवाई है। भनक नहीं भी लगती तो भी उनको ये तो पता ही था कि श्यामू की हालत ऐसी नहीं है कि अभी लड़की की शादी करके उठा है और अभी लड़के को मेडिकल स्टोर भी खुलवा दे। मनेजर साब ने भौजी को बिठा कर अपना पूरा अर्थ शास्त्र समझाने की कोशिश की कि इतने बैंक में हैं, इतने रिटायरमेंट के बाद मिलेंगे, इतनी पेंशन बँधेगी। दोनों प्राणियों का आराम से बल्कि ख़ूब आराम से गुजर होगा, कभी कोई तंगी नहीं होगी। ये भी कहा कि अगर मैं नहीं भी रहा तो भी तुमको आधी पेंशन मिलेगी, बाक़ी आठ दस लाख बैंक में पड़े रहेंगे, तुम्हें कोई कमी नहीं होगी। मनेजर साब व्यवस्थित काम करने वाले प्राणी थे। एक काग़ज़ पर अपने पैसों का पूरा हिसाब बना रखा था कि कहाँ-कहाँ कितना पैसा है। उस काग़ज़ की एक फोटाकॉपी करवा के भी उन्होंने भौजी को सौंप दी। मगर भौजी को तो वह तीन लाख खटक रहे थे जो श्यामू की दुकान में लगे थे। भौजी रोज़ कुछ न कुछ करके उसी बात को उठाने का प्रयास करने लगीं।
उस दिन रविवार था, मनेजर साब घर पर ही थे। सुबह उठ कर भौजी ने ख़ूब मेवे डाल कर खीर बनाई, औंटा-औंटा कर रबड़ी समान कर ली, ख़ूब गाढ़ी। खीर बन गई तो उसे ठंडा होने रख दिया। मनेजर साब ऊपर ही खिड़की में बैठे अपने काग़ज़ पत्तर संभाल रहे थे। रविवार के दिन वे यही करते थे। पत्रों का उत्तर देना, नई लिखी कविताओं को फेयर करके कॉपी में उतारना, समाचार पत्रों में उनको लेकर छपी ख़बरों को एक अलग फाइल में चिपकाना। मैनेजर साब ने खिड़की में से ही देखा कि भौजी ने खीर से भरी पतीली कुत्ते के सामने रख दी है। मेवे डली, गाढ़ी मलाईदार खीर, बात की बात में दूसरे कुत्ते भी आ गये, छीना झपटी मच गई। भौजी के पड़ोस में रहने वाली महिला ने पूछा 'क्या हुआ भौजी, क्या हो गया था खीर में जो कुत्तों को डाल दी?' भौजी तो इस प्रश्न के ही इंतज़ार में थीं, उन्होंने देखा कि श्यामू की घरवाली बरामदे में ही कपड़े सुखाने डाल रही है और तुरंत उत्तर दिया 'अरे मत पूछो हमारे घर की तो, घर में रहेगी तो भी कुत्ते ही खाएँगे, उससे कम से कम बाहर के कुत्ते अच्छे तो हैं। खाकर कम से कम आते जाते पूँछ तो हिलाएँगे। घर के कुत्ते तो खा भी जाएँगे, हजम भी कर जाएँगे और बाद में भौंकेंगे भी हम पर ही।' तीर सीधा निशाने पर जाकर लगा। श्यामू की घरवाली कपड़ों की बाल्टी वहीं फैंक कर रोती हुई अंदर भाग गई। मनेजर साब ने दोनों दृश्य देखे, कुछ देर सोचा फिर काग़ज़ों को समेट कर एक तरफ़ रखा और तेज़ क़दमों से नीचे उतर गये।
घर की सीढ़ियों पर आकर मनेजर साब खड़े हो गये। आहट पाकर भी भौजी नहीं पलटीं, बेपरवाह-सी अपनी बड़-बड़ में लगीं थीं। 'ये क्या तमाशा मचा रखा है?' मनेजर साब ने कड़क स्वर में पूछा। शादी के बाद पहली बार इतने कड़क स्वर में मनेजर साब ने भौजी से बात की थी।
'मैंने मचाया है कि तुमने मचाया है। मेरी पूरी ज़िंदगी तमाशा बना कर रख दी। ख़ुद जा-जा कर कुत्तों को खीर खिला रहे हो, ज़िंदगी से खिला रहे हो, उसका कुछ नहीं। मैंने एक दिन खिला दी तो तमाशा हो गया।' भौजी ने भी उतनी ही ऊँची आवाज़ में उत्तर दिया। आवाज़ इतनी ऊँची थी कि मकानों की खिड़कियाँ खुल गईं।
'चुप्प।' मनेजर साब की आवाज़ इतनी तेज़ थी कि भौजी की रुलाई फूट पड़ी। खीर खा रहे कुत्ते घबरा कर भाग गये। पूरे जीवन भर साथ रहने के बाद आज भौजी को इतना ऊँचा स्वर मनेजर साब का सुनना पड़ा था।
'क्यों चुप हो जाऊँ, क्या ग़लत बोला है मैंने। मैं नपूती अपनी चिंता न करूँ तो क्या करूँ? कौन देगा मुझे खाने को? अरे आदमी, औलाद न दे सका मैंने कुछ नहीं कहा, कम से कम ज़िंदा तो रहने दे।' रोते-रोते भौजी ने ठीक मर्म पर प्रहार किया था। मनेजर साब तिलमिला उठे। 'चुप होती हो या नहीं?' ग़ुस्से से आग भभूका होकर सीढ़ी से उतर कर वे भौजी की तरफ़ लपके, भौजी उसी प्रकार रोती हुईं पीछे की तरफ़ हटीं 'मार डालो, मुझे ही मार डालो, वैसे भी कौन ज़िंदा हूँ मैं।' भौजी, मनेजर साब को लपकते देख चिल्लाईं।
मनेजर साब, बर्रूखेड़ी के सबसे पढ़े लिखे, सबसे इज़्ज़तदार आदमी, उनका पंचनामा आज उसी बर्रूखेड़ी में सरेआम बन रहा था। खिड़की दरवाज़ों से झाँकती आँखें उस पंचनामे की गवाह बन रहीं थीं। मनेजर साब सीढ़ी से उतर कर वहीं ठिठक गये।
'पूरी ज़िंदगी झींकते हुए निकली है, सुख की एक भी घड़ी मिली हो तो ऊपर वाला गवाह है। ऐसी ज़िंदगी से मरना अच्छा है। भीख माँग कर ज़िंदगी काटने से तो मौत अच्छी।' कहती हुई भौजी खेत पर बने कुँए की तरफ़ लपकीं। कुछ इधर से दौड़े, कुछ उधर से दौड़े। भौजी कुँए की जगत पर से कूदने को ही थीं कि लोगों ने थाम लिया। महिलाएँ जबरन उनको पकड़ कर घर में ले आईं। मनेजर साब हताश, टूटे हुए वहीं सीढ़ियों पर बैठे थे। अंदर भौजी का विलाप जारी था और जारी था उनका बखान भी।
अगला दिन सोमवार था। मनेजर साब उठे और थके क़दमों से बैंक चले गये। शाम को बैंक से सीधे रम्मू भाई साहब के घर पहुँचे। भाभी को पता चल गया था कल के बारे में। वे देर तक बिठा कर अपने लालाजी को समझाती रहीं। रम्मू भाई साहब भी पास बैठे थे, मौन। मोन्या की पीर को समझ रहे थे वो। एक इंसान जिसके हिस्से में कोई रिश्ता नहीं आया, वह कुछ आधे अधूरे रिश्तों को अपना बना कर रखने की कोशिश में लगा था और यहाँ भी क़िस्मत उसको ऐसा नहीं करने दे रही थी। समझाना अपने ही मोन्या को था, भौजी को समझाना तो सबके बूते के बाहर की बात थी। भाभी ने जब पीठ पर हाथ रखा तो फूट पड़े मनेजर साब, सबकी आँखें भीग गईं। भाभी ने जबरन उनको खाना खिलाया, दिन भर के भूखे थे वो।
रात को जब मनेजर साब घर पहुँचे तो दरवाज़ा उढ़का था। वे चुपचाप अंदर पहुँचे। भौजी मद्धम वॉल्यूम में टी वी देख रहीं थीं। मनेजर साब चुपचाप सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर चले गये। आज खाना भाभी के यहाँ खाकर आये थे तो आज दो पैग लगाने की गुंजाइश तो थी नहीं। कपड़े बदल कर चुपचाप बिस्तर पर बैठ गये। एक काग़ज़ उठा कर कुछ लिखने लगे। थोड़ा लिखा और फिर काग़ज़ को लेकर खिड़की के पास आकर बैठ गये। खिड़की के बाहर नदी उसी प्रकार बह रही थी। मनेजर साब थिर होकर नदी को देखते रहे। कुछ देर बाद एक लम्बी साँस छोड़ी और एक बार फिर से काग़ज़ पर कुछ लिखने लगे। लिखते जाते थे और रह-रह कर नदी की तरफ़ देखते जाते थे। काफ़ी देर तक वे वहाँ उसी प्रकार बैठे रहे लिखते रहे। जब लिखना पूरा हो गया तो अपने काग़ज़-पत्तर सहेजने लगे। इधर उधर बिखरे काग़ज़ों को समेट कर अपनी अलमारी में जमा रहे थे। बहुत दिनों के बाद वे अपनी अलमारी को जमा रहे थे। वरना तो लिखने पढ़ने के बाद सुबह उठकर वैसा का वैसा ही कमरा छोड़ कर बैंक चले जाते थे। भौजी ऊपर आती नहीं थीं। मनेजर साब ख़ुद ही रविवार को अपने कमरे की सफ़ाई करते थे। काग़ज़ों के देखते जा रहे थे और उनको अलमारी में अलग-अलग जगहों पर रखते जा रहे थे। मानो कोई क्रम-सा हो। या हर काग़ज़ का अपना तय स्थान हो। छाँट-छाँट कर काग़ज़ों को अलग-अलग कर रहे थे। सारे काग़ज़ों को सहेजने के बाद मनेजर साब ने अलमारी में रखी फाइलों को जमाना शुरू किया। जब अलमारी पूरी तरह से जम गई तो बचा रह गया केवल एक काग़ज़, वही जो अभी लिखा था। उसे उठा कर जेब में रख लिया और फिर अपनी पुस्तकों के गट्ठर भी व्यवस्थित करने लगे। उठा-उठा कर अलमारी के ऊपर रखते जा रहे थे। जब कमरा पूरी तहर से व्यवस्थित हुआ तो रात के ढाई बज चुके थे। मनेजर साब को प्यास लग रही थी। उन्होंने कमरे में रखे लोटे में देखा तो थोड़ा-सा ही पानी थी। उस पानी को हलक़ के नीचे उतार कर, कमरे की लाइट बुझा कर वे बहुत दबे पैरों से सीढ़ियों से नीचे उतर गये।
सुबह जब भौजी उठकर बाहर के कमरे में आईं तो। बाहर के कमरे में मनेजर साब पंखे से झूल रहे थे। गले में एक नायलोन की नई नकोर रस्सी बंधी थी। सेंटर टेबल एक तरफ़ औंधी पड़ी थी और चारों तरफ़ दीवारों पर लगे हुए प्रशस्ति पत्रों, अभिनंदन पट्टिकाओं, सम्मान चिन्हों, कार्यक्रमों की तस्वीरों के बीच, मौत से डरने वाले मनेजर साब हवा में लटके हुए थे।