नकाब और नकाबपोश / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती
इसका आशय यह है कि जिस तरह स्वाँग बनानेवाले की बाहरी वेशभूषा के रहते हुए भी समझदार आदमी उससे धोखे में नहीं पड़ता है; किंतु असली आदमी को पहचानता और देखता रहता है; ठीक यही बात यहाँ भी है। संसार के पदार्थों का जो बाहरी रूप नजर आता है उसे विवेकी या गीता का योगी एकमात्र नट, नर्त्तक या स्वाँग बनानेवाले की बाहरी वेशभूषा ही मानता है। इसलिए इन सभी बाहरी आकारों के भीतर या पीछे किसी ऐसी अखंड, एकरस, निर्विकार - सम - वस्तु को देखता है जो उसकी अपनी आत्मा या ब्रह्म ही है। उसे समस्त दृश्य भौतिक संसार उसी आत्मा या ब्रह्म की नटलीला मात्र ही बराबर दीखता है। वह तो इस नटलीला की ओर भी दृष्टि न करके उसी सम या एक रस पदार्थ को ही देखता है वह जो बाहरी परदा या नकाब है उसे वह उतार फेंकता है और परदानशीन या नकाबपोश को हू-ब-हू देखता रहता है।
नरसी मेहता एक ज्ञानी भक्त हो गए हैं। उनकी कथा बहुत प्रसिद्ध है। कहते हैं कि वह एक बार कहीं से आटा और घी माँग लाये। फिर घी को अलग किसी पात्र में रख के कुछ दूर पानी के पास आटा गूँध के रोटी पकाने लगे। जब रोटी तैयार हो गई तो सोचा कि घी लगा के भगवान को भोग लगाऊँ और यज्ञशिष्ट या प्रसाद स्वयं ग्रहण करूँ। बेशक, आजकल के नकली भक्तों की तरह ठाकुरजी की मूर्ति तो वह साथ में बाँधे फिरते न थे। वे थे तो बहुत पहुँचे हुए मस्तराम। उनके भगवान तो सभी जगह मौजूद थे। खैर, उनने रोटियाँ रख के घी की ओर पाँव बढ़ाया और उसे लेके जो उलटे पाँव लौटे तो देखा के एक कुत्ता रोटियाँ लिए भागा जा रहा है! फिर क्या था? कुत्ते के पीछे दौड़ पड़े। कुत्ता भागा जा रहा है बेतहाशा और नरसी उसके पीछे-पीछे हाथ में घी लिए आरजूमिन्नत करते हुए हाँफते-हाँफते दौड़े जा रहे हैं कि महाराज रूखी रोटियाँ गले में अटकेंगी। जरा घी तो लगा देने दीजिए! मुझे क्या मालूम कि आप इतने भूखे हैं कि घी लगाने भर की इंतजार भी बरदाश्त नहीं कर सकते। यदि मुझे ऐसा पता होता तो और सवेरे ही रोटियाँ बना लेता! अपराधा क्षमा हो! अब आगे ऐसी गलती न होगी! कृपया रुक जाइये, आदि-आदि। बहुत दौड़-धूप के बाद तब कहीं कुत्ता रुका और नरसी ने भगवान के चरण पकड़े!
नरसी को तो असल में कुत्ता नजर आता न था। कुत्ते की शकल तो बाहरी नकाब थी, ऊपरी परदा था। वह तो नकाब को फाड़ के उसके भीतर अपने भगवान को ही देखते थे। उनकी आँखें तो दूसरी चीज देख पाती न थीं। उनके लिए सर्वत्र सम ही सम था, सर्वत्र उनकी आत्मा ही आत्मा थी, ब्रह्म ही ब्रह्म था। नटलीला का परदा वह भूल चुके थे - देखते ही न थे। यदि किसी वैज्ञानिक के सामने पानी लाइये तो वह उसमें और ही कुछ देखता है। उसकी दूरदर्शी एवं भीतर घुसनेवाली - परदा फाड़ डालनेवाली आँखें उसमें सिवाय ऑक्सीजन और हाइड्रोजन (Oxygen and Hydrogen) नामक दो हवाओं की खास मात्राओं के और कुछ नहीं देखती हैं, हालाँकि सर्वसाधारण की नजरों में वह सिर्फ पानी है, दूसरा कुछ नहीं। वैज्ञानिक की भी स्थूल दृष्टि पानी देखती है, यदि उसे वह मौका दे। नहीं तो वह भी देख नहीं पाती। मगर सूक्ष्म दृष्टि - और वही यथार्थ दृष्टि है - तो उस दृश्य जल को न देख अदृश्य वायुवों को ही देखती है। यही दशा नरसी की थी। यही दशा गीता के योगी या समदर्शी की भी समझिए।
यदि नौ मन बालू के भीतर दो-चार दाने चीनी के मिला दिए जाएँ तो हमारी तेज से तेज आँखें भी उनका पता लगा न सकेंगी, चाहे हम हजार कोशिश करें। मगर चींटी? वह तो खामख्वाह ढूँढ़-ढाँढ़ के उन दानों तक पहुँची जाएगी। उसे कोई रोक नहीं सकता। समदर्शी भक्तों की भी यही दशा होती है। जिस प्रकार चींटी की लगन तथा नाक तेज और सच्ची होने के कारण ही वह चीनी के दानों तक अवश्य पहुँचती और उनसे जा मिलती है; बालू का समूह जो उन दानों और चींटी के बीच में पड़ा है उसका कुछ कर नहीं सकता; ठीक वही बात ज्ञानी एवं समदर्शी प्रेमीजनों की होती है। उनके और भगवान के बीच में खड़े ये स्थूल पदार्थ हर्गिज उन्हें रोक नहीं सकते। शायद किसी विशेष ढंग का एक्सरे (X-ray) या खुर्दबीन उन्हें प्राप्त हो जाता है। फिर तो शत्रु-मित्र, मिट्टी-पत्थर, सोना, सुख-दु:ख, मानापमान आदि सभी चीजों के भीतर उन्हें केवल सम ही सम नजर आता है। परदा हट जो गया, नकाब फट जो गई है। यही है गीता के साम्यवाद के समदर्शन का पहलू और यही है उस ज्ञान की दशाविशेष।