नकारो / सत्यनारायण पटेल

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-तू निरखी बाँछड़ी राँड है र्कइं ? कि थारा मग़ज़में गू भर्यो है ? रोटी खाय है कि गोबर ? इतरी अक्कल नी है कि अपनी सास की उमर की बैराँ से कोई चीज़्ा को नकारो नी करे ?

यह गालियाँ कंचन माय ने एक साँस में दी थी। दी क्या थी ? हाथ हिला-हिलाकर और चेहरे पर अजीब-अजीब से डरावने भाव लाते हुए मारी थी- जैसे खजूर की घड़में भाटे मारकर खजूरे खिरा लेते हैं। जैसे जामुन की पतली टहनी पर ज़ोर से डंडा मारकर लुम सहित टहनी को तोड़लेते हैं। लेकिन कंचन माय गालियों के भाटे खजूर या जामुन खिराने के लिए नहीं मार रही थी। वह तो इन भाटों से ही अपनी बहू काँवेरी का माथा रंग देना चाह रही थी।

कावेरी बहू थी, लेकिन आजकल में ब्याही नवी-नवेली बहू नहीं। वह दो बेटों की माँ थी। उसे अपनी सास के घर का पानी पीते-पीते पूरे दस बरस हो गये थे। और किसी षरीफ गाय की गोनी तो वह पहले से नहीं थी। वह गालियाँ बकने में कुषल थी। गालियों से ही जंग जीत लेने की कला कावेरी ने अपनी जी (माँ) से सीखी थी। इस हुनर में उसकी जी (माँ) बड़ी ठावी थी। उससे गाँव की बेटियाँ और बहुएँ भी गालियाँ सीखती थी। उसके लिए गालियाँ देने का मतलब था- साँस लेना। अपनी दक्ष गुरू और जी से कावेरी ने बचपन में जितनी गालियाँ सुन-सीख ली थी, उतनी किसी-किसी के लिए पूरी उम्र में भी संभव नहीं थीं। जब इस क़दर निपुण बहू पर कंचन ने गालियों के भाटे मारे, तो वह कैसे चुप रह सकती थी ? उसके लिए चुप रहने का मतलब अपनी जी की सीख और दूध को लजाना था। तैरना जानते हुए भी डूब मरना था, जो पानीदार कावेरी के लिए संभव नहीं था ?

उस दिन कंचन ने जैसे ही गालियों का पहला भाटा फेंका, आँगन में बैठकर बर्तन माँजती कावेरी ने हाथ के भरतिया को ज़ोर से दरवाजे़की ओर फेंका। जो इस बात का संकेत था कि भाटा उसके कपाल से टकराया है। भाटा कितनी ज़ोर से टकराया, इस बात का अँदाज़ा भरतिये को फेंकेने की ताक़त के अनुमान से लगाया जा सकता था। गोल-गोल भरतिया तेज़दौड़ती गाड़ी से निकले पहिये की भाँति आँगन की देहरी की ओर लुढ़कता जा रहा था। देहरी से टकराकर भी भरतिया रुक जाता तो बात और थी, लेकिन वह तो देहरी को लाँघ गया था। सेरी में खड़े-खड़े गालियों के भाटे फेंकती कंचन की ओर लुढ़कता जा रहा था। भरतिये को अपनी ओर तेज़ी से लुढ़कर आता देख, कंचन इधर-उधर हटती, तब तक तो वह उसके पाँव में पहनी चाँदी की कड़ियों से टकरा गया। टकराने के बाद बमुष्किल रुक तो गया, पर झन्नाहट नहीं गयी।

झन्नाहट तो कंचन को भी पाँव की कड़ियों से लेकर माथे पर झूलते काँसे के बोर तक हो रही थी। वह दरवाज़े की ओर इतनी उतावली से बढ़ी जैसे कोई कँडों के अँगारों पर चूल फिरते वक़्त चलता है।

उस दिन घर पर वे दोनों ही थीं। कावेरी के छोरे ढोरों को कुए पर ले गये थे। उसका लाड़ा और सुसरा बैलगाड़ी लेकर खेत पर गेहूँ का सुक्ला-भूसा लेने गये थे। वे अभी-अभी ही खाना खाकर गये थे। कावेरी उन्हीं के जूठे बर्तन माँज रही थी। तभी घूरे पर गोबर की हेल फेंककर कंचन लौटी थी। और उसके साथ थी कौषल्या माय।

कौषल्या माय के हाथ में थी मिट्टी की दोणी; और कंचन माय के हाथ में खाली छाब (टोपला) थी-था। जब कंचन माय के पाँव की कड़ियों से भरतिया टकराया, तो कंचन माय ने छाब को ज़ोर से एक तरफ़सन्ना दिया। उसके छाब को सन्नाने के बहादुराना अँदाज़की कौषल्या माय भी कायल हो गयी। कौषल्या माय भी थी तो कंचन की ही दँई (समान उम्र) की और दो-दो बहुओं की सास भी, लेकिन वह कभी उन्हें डाँट भी नहीं पायी थी। लेकिन कंचन को देख कर तो वह चकित रह गयी। कंचन के पास कैसी-कैसी नुकीली गालियों का जखीरा था। कभी मौक़ा पड़े तो वह दुबले-पतले को तो गालियों की कत्तल से ही मार डाले। और उस क्षण तो कौषल्या माय की आँखें फटी की फटी रह गयी, जब छाब को सन्नाने के जवाब में काँवेरी ने थाली को सुदर्षन चक्र की तरह घूमाकर फेंकी। थाली तो किवाड़की बारसाख से टकराकर अधबीच में ही रुक गयी। लेकिन थाली की झन-झनाट के साथ-साथ कौषल्या माय भी काँप उठी। उसके हाथ से मिट्टी की दोणी छूटकर गिर पड़ी और टुकडे़-टुकडे़हो गयी। फिर कावेरी ने राख में लिथड़ी हथेलियों को एक-दूसरी पर मारी। हथेलियों से कुछ राख झरी। और इतनी ज़ोर से साँस भीतर खींची कि कौषल्या माय ने ख़ुद को हवा के साथ काँवेरी के नकसुर की ओर खींचाती महसूस किया था। जब खींची साँस को कावेरी ने छोड़ा, तो हवा के साथ-साथ कौषल्या ने ख़ुद को पीछे धकियाती महसूस किया था।

कौषल्या माय बीच-बचाव में कुछ बोले, उससे पहले सास-बहू सेरी में आमने-सामने खड़ी हो गयी। उनका खड़े रहने और एक-दूसरी पर गालियों से वार करने का ढँग इतना कसा हुआ था कि किसी तीसरे को दखल देने की कोई गुँजाईष नहीं थी। सो कौषल्या माय दखल देने का मौक़ा तलाषती उन्हें देख-सुन रही थी। उसके मन में कहीं यह कसमसाहट भी थी कि यह सब उसकी वजह से ही हो रहा था।

-हूँ बाँछड़ी है। म्हारा मग़ज़में गू भर्यो है। तू म्हारी सौत नज अक्कलमंद है। तू रँडी बड़ी साजोक की मूत है। कावेरी ने सूरज जैसे दहकते अपने मुँह से दाँत पिस-पिसकर जवाब दिया था।

-हूँ रँडी है, तने म्हारे किकी साथे सोते देखी, बता ? किका ब्याव में नाचते देखी, बता ? बता नी तो थारो चाचरो (मुँह) तोड़दूआँ। कंचन ने कहा था।

उसे यह बात बहुत बुरी लगी थी। बाखल की कोई हम उम्र यह बात कहती, तो उसे षायद कम बुरी लगती, लेकिन बहू ने कही, तो आर-पार हो गयी। उसने अपने एक पैर से टायर की चप्पल निकाल ली और कावेरी पर तानती बोली- अभी बता, तने किकी साथ में सोते देखी, तू तो म्हारो खस्सम बता।

-तो तू म्हारो खस्सम बतय दे ? कावेरी ने पलटकर प्रष्न दागा।

-हूँ कोई थारी चैकीदारी करूँ, जो बतऊँ, कजा काँ खाल-खोदरा में मूँडो कालो करी आवे। कंचन ने कहा।

-तो गोबर खाते कद देखी यो बतय दे ? कावेरी ने फिर पूछा।

-तू म्हारो मूँडो मत खोलावे, नी तो फिर सतरह जगह बिंद्यो है। कंचन ने कहा।

कंचन का यह कहने का मतलब साफ़था कि अगर कावेरी उसकी बात नहीं सुनेगी। अगर उसकी बात का मान नहीं रखेेगी। अगर उसके सामने चपर-चपर और आड़ासूड़बोलेगी, उसकी सास बनने की कोषिष करेगी, तो फिर वह उसे नहीं बख्षेगी। उसके मुँह में सतरह छेद है। हर छेद से वह कावेरी की पोल खोलेगी। वह उसे बाखल, गाँव में मुँह दिखाने लायक नहीं छोड़ेगी।

-तू भी म्हारो मूँडो मत खोलावे, नी तो हूँ भी अभी सब उघाड़ी ने पटकी दूआँ। कावेरी ने इस अँदाज़में चेताया कि जानती वह भी बहुत कुछ है, पर कह नहीं रही है।

-तू घणी छौला चड़ी है। थारी जिबान भी ज़्यादा लम्बी हुइगी है। थारी जिबान के खेंची के थारी उकमें नी घूसेड़ी दूँ, तो गाम का भंगी भेले सोऊँ। कंचन ने तमतमाकर कहा था।

-तू तो दूसरा का साथ में सोने को बहानो ढूँढेज है ! पर म्हारी सुनी ले, या जो थारी खूब उकलासा खई री है नी, इमें बलतो बाँस नी घूसेड़दूँ, तो काला कुतरा की टाँग नीचे निकली जऊँवा। कावेरी ने कहा।

 

-आज तो तू आने दे म्हारा छोरा के, म्हारा घर को माल खई-खई के, इ जो थारा ढेका (कूल्हे) गदराना है नी ? इन पर काँदो नी कटायो, तो हूँ म्हारा बाप का मूत की नी। कंचन ने कहा।

कौषल्या माय ने कंचन और कावेरी की गालियों के ज्ञान का बखान तो कई बार सुना था, पर रूबरू सुनने का यह पहला ही मौक़ा था। एक क्षण तो उसके मन में आया कि अब जब उसकी पड़ौसन उसे गालियाँ देगी, तो वह अपनी तरफ़से गालियाँ देने को कंचन माय और कावेरी को बुला लेगी।

दोनों एक-दूसरे को भिट पर भिट मार रही थी। न कंचन हार मान रही थी, न कावेरी पीछे हट रही थी। उन दोनों को लड़ते देख कौषल्या माय को अपनी बाँगड़भैंसों की याद हो आयी थी। कौषल्या माय की भैंसे इतनी उतपाती और उजाडू थी कि पूरा गाँव उन दोनों भैसों के कारण परेषान रहता था। उन बाँगड़भैसों की वजह से ही कौषल्या माय की ओड़क बाँगड़भैंस वाली कौषल्या पड़गयी था।

 

जब भैंसे बेची नहीं थाी, तब कौषल्या माय और उनके धणी ने खूब धत्तकरम किये कि भैंसे गाबन हो जाये। उन्हें घर की जूठन से भरे कुण्डे के पानी में मिलाकर देसी अन्डे पिलाये। उनके बाँटे में कई बार भिलामा मिलाकर खिलायी आदि आदि लेकिन वे बाँगड की बाँगड़ही रही। कभी उनकी सिरावन (भैंस की योनि) से घी के रंग का तार नहीं लटका। वे कभी उस बेचैनी से नहीं रैंकी। कभी कौषल्या माय और उनके धणी (पति) ने पाड़े(भैंसा) के आगे जबरन खड़ी कर दी। तो उन्होंने कभी पाड़े को अपनी पीठ पर टाँगे नहीं धरने दी। कभी गाबन नहीं हुई। कभी पाड़ा-पाड़ी नहीं जनी। जैसे उन्होंने ठान लिया था कि वे कभी इस लफडे में नहीं पड़ंेगी। अंततः कौषल्या माय और उसके धणी ने उम्मीद छोड़दी कि अब ये कभी गाबन नहीं होगी। अगर वे गाबन हो जाती। तो उनके अँवाड़े भरी चड़स की तरह दिखते। उन बाँगड़ों का नाक-नक्ष तो ठीक था ही, बस; बोटरा-बोटरा भर के बुबु (थन), अगर गिलकी की तरह लम्बे और फूले होते, तो कौषल्या माय के वारे-न्यारे हो जाते। उनकी ओड़क (पहचान) भी बाँगड़भैंस वाली कौषल्या माय नहीं पड़ती। लोग खुषी-खुषी उनकी दाढ़ी में हाथ घालकर बीस-बीस हजार रुपये में ख़रीद ले जाते। लेकिन बाँगड़ों को कसाई के सिवा कौन ख़रीदे ? अंततः एक दिन कसाई के सुपुर्द कर दी थी, बाँेगड़भैंसे न रहने पर भी कौषल्या माय की ओड़क वही रही थी। दरअसल उन भैंसों को कोई भूलता ही नहीं था, उनकी लड़ाइयाँ गाँव में मषहूर थी।

जब वे लड़ती थी, तो उनकी लड़ायी देखने लायक होती थी। एक-दूसरे पर फूँफाती और दौड़-दौड़कर भिट मारती थी। वे लड़ते-लड़ते फसर-फसर पादती। गोबर कर देती। छलल-छलल मूतने लगती। लेकिन पीछे नहीं हटती। उनकी लड़ायी रुकवाने को कभी-कभी तो दो-तीन जवान पट्ठों को लट्ठ लेकर बीच में कूदना पड़ता था।

जब उस दिन कौषल्या माय ने कंचन और काँवेरी को उसी जज्बे और ताव के साथ लड़ते देखा, तो अनायास ही बाँगड़भैंसों की याद हो आयी थी। वह सोच रही थी कि उन्हें समझाने की कोषिष करे। क्योंकि वे उसी की खातिर तो लड़रही थी। लेकिन वह नहीं चाह रही थी कि छोटी-सी बात के पीछे इतनी देर तक लड़ा जाये। उसे लग रहा था कि कंचन-कावेरी की बाखल में बेवजह उसका नाम बदनाम होगा। बाखल की बहुएँ कहेंगी कि बाँगड़भैंस वाली कौषल्या माय के कारण कावेरी को उसकी सास ने जमाने भर की खरी-खोटी सुनायी। सास कहेंगी कि बाँगड़भैंस वाली के कारण एक अधेड़सास कंचन का उसकी बहू ने माजना ख़राब कर दिया। वह चाह रही थी किसी भी तरह दोनों की लडायी टूटे। पर कैसे टूटे ? उनके बीच में कौन पड़े? बाखल वाली तो सब उनकी आदत से वाकिफ़थी कि अगर कोई बीच में पड़ी, तो वे दोनों एकजुट होकर उस पर टूट पड़ेंगी। ‘कहीं ये दोनों मुझ पर टूट पड़ी तो भागने की बाट भी न मिलेगी’ कौषल्या ने सोचा और अपने भीतर उन्हें लड़ने से बरजने (मना करना, रोकना) का साहस बटोरने लगी।

-बेन चुप हुई जाओ। मत लड़ो। बीच में जरा-सा मौक़ा देख कौषल्या माय ने साहस किया। दोनों के पास जाकर बोली- लड़ाई को मूँडो (मुँह) कालो। इससे नी होय कोई को भलो।

-तू बेन (बहन) एक बाजू रुक ज़रा। पहला इकी मस्ती उतारने दे। या घणी मस्तानी है। कंचन माय ने कौषल्या माय से कहा था। और फिर कावेरी की ओर घूरती बोली- इकी हिम्मत तो देखो ? सास के जीते-जी नकारा (इंकार) करने लगी।

-कोई बात नी बेन, नकारो कर दियो तो, नी होगी तो नकारो कर दियो। कौषल्या माय ने कहा। वह कंचन को समझाती बोली- उका नकारा को बुरो भी नी लागो, वा भी म्हारी बहू बराबर है। नकारो करी भी दियो तो कोई बात नी।

-अरे नी, इकी दोणी फोडँ़ू इकी। इने म्हारा होते-सोते नकारो कैसे कर्यो। कंचन ने फिर ताव खाकर बोला था। वह कौषल्या माय की ओर इषारा करती बोली- तू रुक बेन, हूँ आज फेनल करके ही दम लूआँ।

अब तक उनकी सेरी में बाखल की कईं औरतें आ गयी थीं। वे आस-पास खड़ी होकर कंचन और कावेरी का झगड़ा देख रही थीं। फिर कंचन आसपास खड़ी औरतों की ओर देखकर बोली- सास हूँ (मैं) है कि या ? हूँ हेल फेंकने घूड़ा तक गयी, इत्ती देर में कौषल्या माय के नकारो कर द्यो। म्हारी इज़्जत ही कँय री गयी ?

आसपास खड़ी औरतों में रामप्यारी माय और उनकी बहू भी खड़ी थी। रामप्यारी माय की बहू ब्याह के बाद पहली बार ही ससुराल आयी थी। उस वक़्त वह अपने घर के आँगन में गेहूँ से काँकरे बीन रही थी। उसने झगड़े की आवाज़सुनी और देखा कि उसकी सास उतावले क़दम से बाहर निकली। तो वह भी सास के पीछे-पीछे बाहर चल पड़ी। रामप्यारी माय बारह-पन्द्रह क़दम आगे चल रही थी और उसकी बहू पीछे। रामप्यारी माय ने देखा नहीं कि बहू भी पीछे-पीछे चली आयी। जब वहाँ औरतों की भीड़में देखा, तो वह बहू के पास गयी। उसे भीड़से एक बाजू बुलाया और बोली- तू यहाँ क्यों आयी ? ये तो दोनों छीनालें हैं। इनने तो लाज-षरम को काटी के ढेका पाछे धर ली है, तू जा अपनो काम कर। हूँ भी अय री थोड़ी देर में। वह चली गयी। जाकर फिर से गेंहूँ में से काँकरे चुन-चुन अलग करने लगी।

रामप्यारी माय वहीं डँटी थी। उनकी बगल में काँता माय भी खड़ी थी। रामप्यारी माय ने काँता माय से पूछा- क्यों माय यो झगड़ो किनी बात पर है।

-कँई मालम बेन, म्हने इनकी भूषणे की आवाज़सूनी, तो चली आयी। काँता माय ने कहा और फिर दबे स्वर में बोली- इ राँडना तो आये दिन लड़ती-भिड़ती ही रहती है। जब कोई और नी मिले, तो दोय आपस में ही लड़ने को रियाज करे।

‘पर आज क्या हुआ है ? और कौषल्या माय क्यों खड़ी है ?’ रामप्यारी ने सोचा और वह कौषल्या माय के पास चली गयी।

रामप्यारी माय उस बाखल में तो क्या, पूरे गाँव में न्यारी ही थी। उसे झगड़ा देखना अच्छा नहीं लगता था, लेकिन झगड़े की कहानी सुनने-सुनाने का चुरुस रहता। उसका कहानी समझने और सुनाने का अँदाज भी न्यारा रहता। जब वह किसी और से सुनी कहानी भी ख़ुद सुनाती, तो उसका अर्थ ही बदल जाता। उस दिन भी उसने अपने इसी स्वभाव के चलते कौषल्या माय से झगड़े की असल जड़को जानने की कोषिष की।

कौषल्या माय ने बताया था कि कोई ख़ास बात नहीं थी। आज मेरी बहू ने ज्वार की रोटी बनायी है। मैंने सोचा-ज्वार की रोटी के साथ खाटा राँधाना ठीक होगा- बेसन और भटा का खाटा। घर में सब सामान है। बस, छाछ नहीं है। छाछ कंचन माय के यहाँ अक्सर मिली जाती है। यही सोचकर मैं दोणी लेकर चली आयी। और उसने कहा कि जब वह कंचन माय के घर आयी। कंचन माय घर में नहीं थी। कावेरी थी। उसने कावेरी से छाछ माँगी ली। काँवेरी ने उससे चाय-पानी का पूछा। बातचीत भी ठीक करी। पर छाछ का नकारा कर दिया।

-कँई बोली कावेरी ? रामप्यारी माय के स्वर में आगे जानने की जिज्ञसा थी।

-बोली कि छाछ आज ही खुटी है, सवेरे एक डेढ लीटर छाछ थी, पर वी रोटी खइने सुक्लो भरने गया, तो पीता गया। और ये भी कहा- अब एक कप भर छाछ है, तो वा जम्मुन का काम आवेगी। बस म्हारी तो कावेरी से इतरी ही बात हुई।

-घर में छाछ नी होगी तो नकरी गयी, फिर झगड़ा किस बात का ? रामप्यारी माय ने भीतर ही भीतर ख़ुद से पूछा और कुछ समझ नहीं आया, तो फिर कौषल्या को कुरेदा।

बात कौषल्या माय की भी समझ नहीं आ रही थी। लेकिन उसने यह बताया कि जब वह वापस खाली दोणी लेकर अपने घर जा रही थी। उसे रास्ते में कंचन मिल गयी। वह घूड़े पर गोबर की हेल फेंककर खाली छाब लिये लौट रही थी। जब दोनों नज़दीक आयी, तो कंचन ने ही पूछा- काँ से आ रही है बेन ?

-बेन थारा घर ही गयी थी छाछ लेने। कौषल्या माय ने कहा।

-छाछ लेने गयी थी, तो थारी दोणी तो खाली ? कंचन माय ने खाली दोणी पर नज़र मारते पूछा।

-हाँ बेन, कावेरी ने क्यो (कहा) कि छाछ नी है। कौषल्या माय कहती हुई जाने को हुयी।

-उनी करम खोड़ली की या मजाल कि म्हारा होते-सोते, थारे छाछ को नकारो कर द्यो ? कंचन माय ने ताव में आकर कहा।

-नी होगी, तो नकारो कर द्यो, इमे कँई बड़ी बात। कौषल्या माय ने बात टालते हुए कहा- कहीं और से ले लूँगी, गाँव में एक दोणी छाछ नी मिलेगी र्कइं ?

-नी बेन, असो कदी (कभी) हुओ ? तू म्हारी साथ में चल, हूँ भी तो देखूँ, थारे कैसे छाछ नी दे ! कंचन माय उसे वापस पलटाकर अपने घर तरफ़ले चली।

कौषल्या को लगा कि छाछ होगी, कावेरी ने जान बूझकर नकारा कर दिया होगा। लेकिन कावेरी ऐसा क्यों करेगी ? कौषल्या ने तो कभी घर में चीज़होते हुए नकारा नहीं किया। चार दिन पहले ही कावेरी के यहाँ पावणे (मेहमान) आ गये थे। घर में षक्कर नहीं थी। कौषल्या माय ने पाँच कटोरी षक्कर दी थी। अभी तो वह लौटायी भी नहीं है। नहीं होगी, तभी उसने नकारा किया है। कौषल्या ने मन ही मन सोचा था, पर कंचन माय मान ही नहीं रही थी, तो उसके साथ वापस आ गयी थी। वह तभी से देख रही थी कि दोनों सास-बहू आपस में गाली के गोले इधर से उधर दागे जा रही है।

-लेकिन थारे छाछ मिली कि नी मिली ? रामप्यारी माय ने फिर पूछा।

-अरे बेन, अभी छाछ तो मिली नी, दोणी और फूटी गयी। उसने अपनी फूटी दोणी की ओर इषारा करते हुए कहा।

-लेकिन कंचन का घर में छाछ है भी कि नी ? रामप्यारी माय ने पूछा।

-ये तो अभी पता ही नहीं चला है। कौषल्या माय बोली- इनकी बक-बक बंद हो तो पूछूँ ।

कंचन और कावेरी का झगड़ा देखने-सुनने वाली औरतों में दो-तीन जवान छोरियाँ और बहूयें भी खड़ी थी। जवान छोरियाँ जिनके अभी-अभी ही ब्याह हुये थे। अभी कंचन जैसी सास के पाले नहीं पड़ी थी, वे आपस में फुसफुसाकर बात करती। हँसती। एक-दूसरे से कहती- ये बोल-बचन याद कर लो, ससुराल में काम आयेंगे। जो अधेड़औरतें खड़ी थीं उनमें से रामप्यारी माय को छोड़, किसी में इतनी सूझ और साहस नहीं था कि कंचन और कावेरी को डपटकर या समझा-बुझाकर चुप करा देती।

फटे में पाँव डालने की आदत रामप्यारी माय को ही थी, इसलिए उसी ने इस गुत्थी को सुलझाने और समझने का जोखिम उठाया। उसने अपने साथ कौषल्या माय का भी हौसला बढ़ाया। दोनों मिलकर कंचन और कावेरी को घर में ले गयी। उन्हें जैसे-तैसे चुप कराया। बाहर खड़ी औरतें अपने-अपने घर चली गयी और अपने काम निपटाने में जुट गयी। कंचन माय के घर में वे चारों औरतें थी। कौषल्या माय और कंचन माय आपस में बात कर रही थी, तब तक रामप्यारी माय भीतर से एक जग में पानी ले आयी। वे दोनों रामप्यारी माय से बड़ी थी, इसलिए वह उनकी सेवा में बगै़र कहे जुट गयी थी। रामप्यारी उनसे छोटी ज़रूर थी, पर वह ठंडा पानी छीड़कना जानती थी। उन्हें पानी पिलाने के बाद वहीं से बोली- कावेरी चाय को पानी चढ़य दे। हम चाय पी कर ही जावाँगा।

कौषल्या माय चाह रही थी कि चाय बन रही है। तब तक छाछ ले ली जाये, ताकि चाय पीने के बाद तुरंत चला जा सके। उसका छोरा और धणी भी खेत बक्खरने गये हैं। उसकी बहू को खाना लेकर खेत पर जाना है। वह देर नहीं करना चाह रही थी। सोे उसने कंचन से कहा- छाछ दे दे बेन।

-अभी कौन-सी ज़ल्दी पड़ी है। चाय बन रही है, चाय पी ले, फिर ले लेना। रामप्यारी ने कहा।

कावेरी का चाय बनाने का तरीका, बिरबल के खिचड़ी बनाने के तरीके जैसा नहीं था, इसलिए चाय जल्दी ही बन गयी थी। रामप्यारी माय चाय से भरे कप उठा भी लायी। तीनों आँगन में बैठकर चाय पीने लगी। कावेरी भी अपना कप लेकर आँगन में आ गयी। अब आँगन में तीन सास और एक बहू बैठी थी।

-बेटा तू छोटी है। बहू है। सास को ऐसे मत बोला कर। कौषल्या माय ने कहा।

-सास तो माय बराबर होवे है कंचन माय, तम तो दानी (बुर्जुग) बैराँ हो सब जाणो-बूझो, दूसरा की छोरी के अपन घर में लावाँ, पर उके भी अपनी छोरी जैसी ही राखनी पड़े। रामप्यारी ने कहा था।

-अरे बेन म्हारे ख़ुद अच्छो नी लागे। म्हारी बहू, म्हारी इज़्ज़्ात है। अपनी जाँघ अपन ही उघाड़ी कराँं और अपने ही लाज नी आवे, तो फिर दूसरा के क्यों आवेगी ? दूसरा तो खीं खीं करीने दाँत काड़ेगा (हँसेंगे)! कंचन माय भी समझदारी की बातंे कर रही थीं। उसका गु़स्सा षांत हो गया था। चाय भी ख़त्म हो गयी थी।

कौषल्या माय ने सोचा- अब जाना ही पड़ेगा, नहीं तो देर हो जायेगी। जुवारे का टेम हो जायेगा और खेत पर खाना नहीं पहुँचेगा। वह उठती हुई बोली- ला बेन कंचन, देखी ले छाछ, हो तो दे दे। कंचन माय उठकर भीतर गयी। दीवार के भीतर सामान रखने की जगह बनाकर बाहर से लकड़ी के पल्ले लगी बारी को खोली। बारी के भीतर जिसमें छाछ भरी रहती, वह चूड़ला नहीं था। बस एक चरू में जम्मुन पुरती छाछ थी। कंचन माय के दिल में डबका पड़ा-धक। छाछ तो सचमुच में नहीं है।

वह बाहर आयी और बोली-बात अकेली यही नी है कि घर में छाछ है कि नी। घर में बड़ी मैं हूँ, मैं सास हूँ, ये नी, तो घर में क्या है और क्या नी है ? यो देखनो म्हारोे अधिकार है। किसे हाँ करनी है और किसे नकारा यो म्हारो अधिकार है। आख़िर मैं सास हूँ।

  -अरे तम गोबर से भरी हेल फेंकने गयी थी, तो म्हने नकारो कर दियो। कावेरी ने दबे स्वर में कहा। फिर से झगड़ा करने का उसका मूड नहीं था।

-तो हेल फेंकने ही तो गयी थी, कोई दूसरो खस्सम करके भाग थोड़ी गयी थी। कंचन की बात नुकीली थी लेकिन कहने के अँदाज़में नरमायी थी।

रामप्यारी माय और कौषल्या माय एक-दूसरी की तरफ़देखने लगी। वे सोच में पड़गयी कि कहीं फिर से षुरू न हो जाये। कौषल्या माय ने पूछा- कंचन तू छाछ देखने गयी थी, है कि नी।

कंचन माय खिसानी पड़ गयी थी। उसकी आँखोें में षर्मिन्दगी उतर आयी थी, उसने धीरपय से कहा- बहन छाछ तो सही में खुटी गयी।