नगमों के उनसठ बरस / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 11 मार्च 2013
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने साहिर लुधियानवी की स्मृति में डाक टिकट जारी किया और उस अवसर पर कपिल सिब्बल तथा जावेद अख्तर मौजूद थे। जावेद अख्तर के पिता जां निसार अख्तर साहिर के सबसे करीबी दोस्त थे और अपने पिता से अनबन के बावजूद जावेद अख्तर साहिर साहब से प्राय: मिलते थे और अपने उन संघर्ष के दिनों में कुछ सहायता भी भरपूर आनाकानी के साथ कबूल करते थे। यह मुमकिन है कि जावेद अख्तर साहिर में पिता की छवि खोजते हों और साहिर जावेद में अपना पुत्र, जिसे वे कभी जन्म न दे सके। अपने संघर्ष के दिनों में निदा फाजली भी साहिर साहब से कई बार मिले और अपनी किताब 'मुलाकातों' में इनका जिक्र भी किया है। जावेद अख्तर और निदा फाजली के 'साहिर-अनुभवों' में गहरा अंतर रहा है। सच तो यह है कि हर मुलाकाती के नजरिये को देखते हैं तो एक नहीं, दस लोगों का विवरण मिलता है। तटस्थता नामुमकिन है। आदमियों को अपनी पसंद-नापसंद और पूर्वाग्रह से कोई मुक्ति नहीं मिलती।
इसलिए आकलन केवल काम का किया जाना चाहिए, परंतु मशरूफ जमाना व्यक्तिगत जीवन की भीतरी जानकारियों को हासिल करने में अपना वक्त जाया करता है। फिल्म उद्योग में सबसे अधिक धन कमाने वाले गीतकार बन जाने के बाद साहिर साहब को अपने घर में युवा शायरों और पत्रकारों का दरबार लगाने का शौक था और संघर्षरत युवाओं के लिए मुफ्त की शराब और खाना कोई मामूली प्रलोभन नहीं था। कहा जाता है कि उन्होंने एक सवैतनिक दरबारी घटिया लोगों का मखौल उड़ाने के लिए मुकर्रर किया था, क्योंकि मेजबान होने के नाते वे स्वयं मखौल नहीं उड़ा सकते थे। हम समझ सकते हैं कि राजे-महाराजे और नवाब भी अपने दरबार में एक हंसोड़ व्यक्ति क्यों नौकरी में रखते थे। सफल नेता भी दरबार लगाते हैं, परंतु उसमें जोकरनुमा लोग ही मौजूद होते हैं। हर दौर और हर क्षेत्र में 'वाह! वाह' कहने के पैसे मिलते रहे हैं। इसी को मेहमूद ने 'प्यार किए जा' में यूं रेखांकित किया था कि उनकी फिल्म कंपनी का नाम ही 'वाह! वाह' फिल्म रखा था। तालियां बजाना और प्रशंसा करना स्वयं एक व्यवसाय भी होता है।
साहिर साहब की मां सरदार बेगम निहायत ही खुद्दार महिला थीं और उन्होंने अपने सामंतवादी अय्याश पति को छोड़कर अपनी मेहनत-मशक्कत से साहिर को पाला था। इस टूटे परिवार की खराशें ताउम्र उनके दिल पर खिंची रहीं। आठ मार्च १९२१ को जन्मे साहिर ने लुधियाना के खालसा स्कूल और धवन कॉलेज में तालीम पाई थी और छात्र जीवन में ही उन्होंने नज्में लिखना शुरू किया था तथा उनका सृजन मंत्र था 'दुनिया ने तजुर्बात-ओ-हवादिस की शक्ल में जो कुछ दिया है, वो लौटा रहा हूं मैं।' छात्र जीवन में ही उनकी नज्में इस कदर लोकप्रिय हुई थीं कि युवा लड़कियां अपने तकिये के नीचे उनकी किताब रखकर सोती थीं कि शायद ख्वाब में उनका दीदार हो जाए। आज किसी फिल्म सितारे को भी वैसी लोकप्रियता हासिल नहीं है, जैसे साहिर साहब को उन दिनों मिली थी। उस दौर में शायर सितारे पर हावी था और आज वाला दागदार माहौल उस समय नहीं था।
इसीलिए लाहौर में कुछ वर्ष बिताने के बाद जब साहिर मुंबई फिल्म उद्योग में आए तब वे इस कदर सितारा हैसियत से आए कि कि उन्होंने संगीतकार की बहर पर लिखने से इनकार किया और उनके लिखे गीतों पर संगीतकार धुन बनाने के लिए बाध्य किए गए। 'नौजवान' और 'बाजी' १९५१ से लेकर 'प्यासा' (१९५६) तक साहिर की अधिकांश फिल्मों में संगीत राजकुमार सचिन देव बर्मन का रहा और सचिन दा इतने जहीन थे कि उन्होंने कभी साहिर के शब्दों को शोर-शराबे में नहीं डूबने दिया और अपनी धुनों में उनकी शायरी के दर्द का संगीतमय अनुवाद मात्र किया तथा इंटरल्यूड भी कभी साहिराना तरन्नुम को डुबाते नहीं थे। इसीलिए 'कहां हैं जिन्हें नाज है हिंद पर' या 'जाने क्या तूने कही' मुमकिन हुई। 'प्यासा' एकमात्र हिंदुस्तानी फिल्म है, जिसे एक शायर की फिल्म कहा जा सकता है। br> इस कामयाबी ने एक हादसे को जन्म यूं दिया कि साहिर ने सचिन देब बर्मन के बराबर पैसे की मांग की तो गुरुदत्त ने सचिन दा के साथ कैफी को लिया और साहिर साहब के लिए रवि को संगीतकार लिया। रवि ने बढिय़ा काम किया, परंतु सचिन देब बर्मन वाली समझ और सौंदर्यबोध उनके पास नहीं था, इसलिए सचिन दा के परे साहिर के साथ खय्याम साहब ने 'फिर सुबह होगी' और 'कभी कभी' में न्याय किया तथा रोशन साहब ने तो 'बरसात की रात' और 'ताजमहल' में कमाल ही कर दिया।
साहिर ने प्रेम कई बार किया, परंतु शादी नहीं की और अमृता प्रीतम ने कहा 'इमरोज(उनके पति) उनके लिए जमीन की तरह रहे, परंतु साहिर तो आकाश थे।' साहिर अपनी मां से बहुत प्यार करते थे और मां-बेटे थोड़े ही अंतराल में गुजर गए। साहिर साहब २५ अक्टूबर १९८० को कूच कर गए। उनकी स्मृति में सात मार्च २०१३ को भारत सरकार ने पोस्टल टिकट जारी किया है, परंतु वह तो अधूरी मोहब्बत के बेमिसाल खत की तरह लोगों के दिल में हमेशा मौजूद रहे हैं।