नगरों के बदले स्वरूप और सपने / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 14 नवम्बर 2012
सयाजी होटल्स शृंखला के जन्मदाता साजिद धनानी की मृत्यु मात्र अड़तालीस की उम्र में हो गई। वे कोई फिल्म सितारा, लेखक नहीं थे, उन्हें अखिल भारतीय लोकप्रियता भी प्राप्त नहीं थी, फिर भी इस कॉलम में उनको आदरांजलि दी जा रही है क्योंकि साजिद प्रतीक थे शाइनिंग इंडिया के कुछ तेजी से विकास करते उद्यमियों के जिन्होंने मध्यम वर्ग के शहरों में महानगर की प्रवृत्तियों के विकास का आकलन उन शहरों के नेताओं के भी बहुत पहले कर लिया था। साजिद की तरह के उद्यमियों के पास किसी शहर की नब्ज देखकर उसके दिल की धड़कन को महसूस करने का माद्दा था। आज से बीस वर्ष पूर्व इंदौर में नगर विकास निगम से लगभग पांच एकड़ जमीन खरीदकर साजिद ने एक व्यापक प्रचार मुहिम चलाई कि सयाजी होटल के क्लब का आजीवन सदस्य बनने पर ताउम्र सदस्य को होटल में बीस प्रतिशत की रियायत मिलेगी। उस समय किसी को अनुमान नहीं था कि इंदौर में इतनी अधिक संख्या में लोग एक लाख की राशि देकर उस क्लब-होटल संकुल की सदस्यता लेंगे जो निर्माणाधीन है। इस तरह साजिद ने इंदौरवासियों के सहयोग से एक संस्था खड़ी की। आज से मात्र दस वर्ष पूर्व तक दर्शक का धन प्रदर्शक और वितरक के माध्यम से निर्माता तक फिल्म बनाते समय ही पहुंच जाता था और सिनेमा उद्योग एकमात्र उद्योग था जिसमें ग्राहक के भेजे धन से उत्पाद व्यय का बड़ा भाग निकलता था। साजिद ने इसी सिनेमाई पूंजी निवेश को होटल उद्योग में इस्तेमाल किया।
टेलीविजन के रंगीन होने के बाद से ही छोटे शहरों में महानगरीय सपने पनपने लगे थे। टेक्नोलॉजी का हर चरण मनुष्य का स्वप्न संसार बदलता है। आर्थिक उदारीकरण ने इस प्रक्रिया को गति प्रदान की जिसे हम सिने संसार में मल्टीप्लैक्स के आगमन से जोड़ सकते हैं। मॉल और मल्टीप्लैक्स को प्रारंभिक सफलता इसलिए मिली कि चंद रुपए खर्च करके बिना वीजा के ही चमकीले पश्चिम की झलक देखी जा सकती थी। उस दौर तक एक प्रतिशत से भी कम लोग विदेश जा पाए थे। हमने पश्चिम को हमेशा हॉलीवुड की फिल्मों के माध्यम से समझना चाहा जो उतना ही गलत था जितना पश्चिम के लोग भारत को उसके सिनेमा से समझना चाहें।
महानगर मुंबई हमेशा ही भारत के तमाम छोटे शहरों और कस्बों के लिए एक सपनों की तरह रहा है- एक एलडिरेडो जहां सोना पाया जा सकता है। इसीलिए छोटे शहरों में यह ललक हमेशा कायम रही कि उन्हें बंबई का बच्चा या छोटा बंबई माना जाए। बहरहाल उदारवाद तथा व्यवस्था के ढीलेपन के कारण अनेक लोगों की आय बढ़ गई। भारत में एक नए मध्यम वर्ग का उदय हुआ जिसके पास खरीदने की क्षमता थी। एक ऐसा वेतनभोगी वर्ग पनपा जिसके पास सुविधाएं खरीदने की क्षमता थी और क्षमता से अधिक भोगने की उन्मुक्त उत्कंठा थी। विगत दो दशकों में दर्जनों छोटे शहरों की महानगरीय अंगड़ाई ने नए सामाजिक मूल्य भी स्थापित किए। इस प्रक्रिया का त्रासद पहलू यह है कि छोटे शहर की आत्मीयता और संवेदनाओं को हमने खो दिया और महानगरीय विशुद्ध आधुनिकता भी हम पकड़ नहीं पाए। महानगरों में आपकी स्वतंत्रता में कभी कोई खलल नहीं पैदा करता, महानगर पूरी तरह धर्म निरपेक्ष भी होते हैं परंतु एक ही भव्य बहुमंजिले में वर्षों साथ रहने के बाद भी आप पड़ोसी के बारे में कुछ नहीं जानते। साथ रहते हुए भी सब अजनबी ही बने रहते हैं।
महानगर बनने की प्रक्रिया में छोटे शहरों ने अपनी आत्मीयता के साथ अपने शहर की हरियाली भी गंवा दी। विकास करते नगरों के पास के खेत 30 करोड़ रु. एकड़ के भाव तक जा पहुंचे और फसल की जगह इमारतें उगने लगीं। इन नवधनाढ्य किसानों ने भूतपूर्व जमींदारों की अय्याशी से नगरों की रातों को लंपट बना दिया। अपराध भी नए स्वरूप में सामने आए। अगर इस प्रक्रिया में हमने बहुत कुछ खोया तो कुछ पाया भी है। कहीं-कहीं वैचारिक आधुनिकता ने भी डैने पसारे हैं और कुछ सामाजिक कुरीतियों पर अंकुश भी लगा। दरअसल हर कस्बे, गांव और छोटे शहरों में अनंत संभावनाएं होती हैं। इनका आकलन करके दोहन करने वाले उद्यमियों की आवश्यकता होती है। हर बस्ती के गर्भ में एक महानगर छुपा होता है। हमारे विकास की नीति ने गांव की उपेक्षा की और अब कॉर्पोरेट जगत गांव का विकास बाजार को व्यापक बनाने के लिए करेगा। महानगरीयता एक ऐसा आकर्षण है जो दूर से देखने वाले को लुभाता है और पास आने पर रेतकी तरह कसी हुई मुट्ठी से निकल जाता है। छोटे शहरों की इस महानगरीय आकांक्षा को समझने में शैलेंद्र का फिल्म चोरी-चोरी का गीत 'यह रात भीगी' का अंतरा हमारी सहायता कर सकता है। अंतरा है-
'जो दिन के उजाले में न मिला / दिल ढूंढे ऐसे सपने को
इस रात की जगमग में डूबी / मैं ढूंढ रही हूं अपने को'